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Magazine - Year 1995 - Version 2

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चित्तवृत्तियों का परिशोधन आहार से सम्भव

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आहार और आदत का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। आहार को बिगाड़ कर आदत को सुधारा नहीं जा सकता, किन्तु भोजन यदि सात्विक हो तो आदत स्वतः सुधरती चली जाती है ऐसा विशेषज्ञों का मत है।

यहाँ आहार का तात्पर्य मात्र हाड़-माँस को पोषण देने वाले खाद्यान्न से नहीं है, वरन् वह सभी तत्व इस श्रेणी में सम्मिलित है जिन्हें हम बाहर से ग्रहण करते हैं। इस दृष्टि से प्राण-परमाणु, चिंतन-परमाणु, वायु-परमाणु आदि का आकर्षण यह सभी एक प्रकार के आहार हैं। व्यवहार परिवर्तन को यहाँ इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए, सिर्फ अन्न के संदर्भ नहीं।

यह सत्य है कि खाद्य-जीवन धारण में सहायक होता है। इस दृष्टिकोण से उसका महत्व तो है पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण वे तत्व है, जो जीवन को सुविकसित ओर समुन्नत बनाते हैं। प्राण हमारी काया को जीवित बनाये रखते हैं- यह सच है; पर मिथ्या यह भी नहीं कि यदि वह विकृत स्तर के अवांछनीय हुए, तो जीवन भी हेय स्तर का हीन बना रहेगा।

प्राण की ही चिन्तन की भ्रष्टता भी सम्प्रति लोगों को बुरी तरह जकड़े हुए है। भौंड़ी सोच सजातीय परमाणुओं को ही आकर्षित कर सकती है। यही कारण है कि विश्व स्तर पर इन दिनों विषम और विषाक्त वातावरण बना हुआ है जिधर दृष्टि जाती है उधर आगजनी राहजनी, चोरी, लूटपाट, डकैती, हत्या, अपहरण जैसे दृश्य ही नये नृत्य करते दिखाई पड़ते हैं।

ऐसा लगता है, मानों सदाचार को ही आज अपराधी के कठघरे में खड़ा होना हो और दुराचार दूध का धुला न्यायनिष्ठ हो, इसलिए निःसंकोच अपने विस्तार में संलग्न हो जबकि सदाशयता लुकती-छिपती शर्माती-सकुचाती बनी रहे। यह स्थिति चिंतन के उन विकृत परमाणुओं को खींचते रहने के कारण ही पैदा होती है जो नीतिमत्ता को अस्वीकारने और अनैतिकता अपनाने में अभिरुचि रखते हैं। जहाँ दुर्बुद्धि रहेगी, वहाँ दुश्चिन्तन ही पैदा होगा। खराब चिंतन सदा अपने समान गुणधर्म वाले अणुओं को आकर्षित करता है। जहाँ ऐसे विकारयुक्त चिंतन कणों की भरमार हो, वहाँ स्वभाव उदात्त बना रहे यह कठिन है ऐसे में यदि अन्न की प्रकृति सात्विक भी बनी रहीं तो परिणाम कोई बहुत उत्साहवर्धक प्राप्त होगा, इसकी आशा नहीं की जानी चाहिए।

ऐसे ही श्रोत, चक्षु, वायु के विकारग्रस्त परमाणुओं को ही लगातार ग्रहण किया जाता रहे और कोई यह सोचे कि मात्र खाद्य को नियंत्रित करके ही स्वभाव को बदल दिया जायेगा, तो यह उसकी भूल है। कान से हम अहर्निश अश्लील शब्द और संगीत सुनते रहें, आँख हमेशा भड़काऊ दृश्य देखती रहे, नथुनों से गन्दी हवा लेते रहें तो एक प्रकार से हम चेतना को और अधिक रुग्ण बनाने में ही मदद करते रहेंगे। चेतना यदि अपरिष्कृत स्तर की बनी रही तो प्रकृति को बदल सकना संभव नहीं। उल्लेखनीय है कि स्वभाव परिवर्तन की बात जब कभी कहीं जाती है तो इसका एकमात्र अर्थ चेतना की पवित्रता और प्रखरता से ही लगाया जाना चाहिए किसी अन्य संदर्भ में नहीं।

इतना सब बन पड़ने के उपरान्त ही अन्न की बारी आती है। इसी स्थिति में वह कोई प्रभावी परिणाम उत्पन्न कर सकता है इससे कम में नहीं। इसके भी अच्छे−बुरे दो प्रभाव हैं। सात्विक सुपाच्य भोजन की परिणति अच्छी देखी जाती है जबकि राजसिक और मानसिक प्रकृति के खाद्य का नतीजा क्रोध उन्माद उत्तेजना आवेश के रूप में सामने आता है। यह असामान्य स्थितियाँ है। व्यक्ति सामान्य संतुलन की अवस्था में न हो तो उससे अच्छे और संतुलित व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती। संतुलित व्यवहार वह है जिसमें व्यक्ति नम्र, शिष्ट, शालीन बनकर प्रस्तुत हो। यह सात्विक आहार द्वारा ही शक्य है। आहार की तामसिकता उस समय प्रकट और प्रत्यक्ष होने लगती है, जब कोई नशाखोर नशा में धुत होता है तो उसे संसार घूमता प्रतीत होने लगता है। सम्पूर्ण दुनिया और समस्त व्यक्ति बुरे दिखाई पड़ने लगते हैं। जगत का अकेला सज्जन सत्पुरुष वही है- ऐसा आभास मिलने लगता है इसीलिए मद्यपी प्रायः दूसरों की उपेक्षा करते गाली गलौज और मार-पीट करते दृष्टिगोचर होते हैं। सामान्य रह कर शिष्टों की भाँति आचरण करना उन्हें नहीं आता। यह आहार का असर हैं इससे रक्त में ऐसे रसायन पैदा होते है जो मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार के भावना, विचारणा, व्यवहार के केन्द्रों को उत्तेजित और सक्रिय करने लगते हैं। चूँकि प्रत्येक केन्द्र में दो विपरीत प्रकार की प्रवृत्तियाँ निहित होती हैं। अतः उनमें से जो पक्ष जाग्रत होता है व्यक्ति का प्रत्यक्ष व्यवहार वैसा ही होने लगता है। मादक द्रव्य एवं अभक्ष्य भक्षण आचरण के मस्तिष्कीय केन्द्रों के उस पहलू को उभारने लगते हैं, जो मानवी गरिमा के प्रतिकूल होते हैं। इसी कारण आदत बदलने के लिए उसमें अनुकूलता और पवित्रता विकसित करने के लिए विज्ञजन भोजन की सात्विकता पर विशेष बल देते देखे जाते हैं। खाद्य-सामग्री के इस प्रभाव को देखते हुए वैज्ञानिक अब मस्तिष्कीय क्षमता को घटाने और बढ़ाने वाले रसायनों की खोज में जुटे हुए हैं। उनका मानना है कि जब आहार के माध्यम से विशेष प्रकार के रसायनों के निमार्ण द्वारा मानवी प्रकृति को प्रभावित कर सकना सम्भव है तो फिर उनके द्वारा बुद्धि को घटा-बढ़ा सकना क्यों कर असंभव होना चाहिए? बुद्धि एक विशेष प्रकार के मस्तिष्कीय उभार का नाम है ऐसा वे मानते हैं और विश्वास करते हैं कि बुद्धि और स्मृति हर एक के लिए जरूरी नहीं। कारण बताते हुए कहते हैं कि मनुष्य की अक्ल जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे ही वैसे वह उन्मादी और अहंकारी बनती जाती है। अहंकार जब सिर चढ़ कर बोलता है तो दुष्प्रवृत्तियाँ पनपती है, जिसकी अन्तिम परिणति हत्या, अपहरण, प्रतिशोध के भिन्न-भिन्न तरीकों के रूप मैं सामने आती है यह बढ़ी-चढ़ी बुद्धि की करतूत है अस्तु ऐसे मामलों में कुशाग्रता को रसायन प्रयोग द्वारा घटा दिया जाना चाहिए जबकि समाज निमार्ण में जगी मानसिक क्षमता को इन उपचारों द्वारा और अधिक समर्थ बनाया जाना चाहिए। यह विज्ञान का तरीका है।

आयुर्वेद ने कुछ दूसरा ढंग अपनाया है उसने स्वतंत्र रसायनों के अनुसंधान की तुलना में जड़ी-बूटियों का अन्वेषण किया और बौद्धिक तीक्ष्णता को बढ़ाने वाला पृथक उपाय आविष्कृत किया। इस प्रकार ब्राह्मी, शंखपुष्पी, शतावरी, गोरखमुण्डी और जटामांसी आदि ऐसी औषधियां उसने खोजी जो स्मृति को बढ़ाती हैं जबकि विज्ञान रसायनों में उलझ कर रह गया। यों दोनों की प्रक्रिया लगभग एक ही है, फिर भी परिणाम में भारी अंतर देखा जाता है।

यहाँ चर्चा खाद्य पदार्थों और उसके प्रभावों की हो रहीं है और कहा मात्र यह जा रहा है कि बुद्धि किस प्रकार उनसे प्रभावित होती और आहार-भेद के हिसाब से शान्त-सात्विक एवं अशान्त-उच्छृंखल बनती रहती है। बुद्धि चिन्तन को संचालित करती और चिंतन से क्रिया तथा व्यवहार बन पड़ते हैं। इसी तरह भोजन के मूल में समग्र व्यक्तित्व छिपा होता है उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति छिपी होती है। इसे नियंत्रित कर लेने से व्यक्तित्व को काफी हद तक नियंत्रित कर सकना संभव है। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि भोजन किस तरह हमारी आदतों का संचालन करता है। इस सम्बन्ध में शरीर शास्त्रियों का कहना है कि मानवी मस्तिष्क में अनेकानेक चैत्य केन्द्र हैं। इन केन्द्रों मैं से जो जाग्रत और जितने सक्रिय होते हैं, वैसी ही गतिविधियाँ व्यक्तित्व में दिखाई पड़ती हैं। उनके अनुसार मनुष्य का सोना, हँसना, रोना, कल्पना, चिंतन, आनंद, स्मृति, बुद्धि, क्रोध, प्रेम, दुःख-सुख- यह सब उन उन केन्द्रों की सत्यता या निष्क्रियता पर निर्भर है। अनेक माध्यमों के अतिरिक्त इन्हें आहार से भी उद्दीपन मिलता रहता है। उपरोक्त गुणों में से किसे किस परिमाण में अपने अंदर पैदा करना है यह निर्णय करना व्यक्ति का काम है। इस आधार पर आहार निर्धारणा भी स्वयं करना पड़ता है। तत्संबंधी आहार के लेते रहने से अभीष्ट मस्तिष्कीय उद्दीप्त होने लगते हैं और धीरे-धीरे उनकी विशिष्टता व्यक्तित्व में परिलक्षित होने लगती है।

आयुर्वेद में भोजन की तीन श्रेणियाँ है शमन करने वाले, कुपित करने वाले, और संतुलन रखने वाले। कुछ भोज्य पदार्थ ऐसे है जो वात, पित्त, कफ का शमन करते हैं। कुछ ऐसे होते हैं। जो इन्हें कुपित करते हैं जबकि कई द्रव्य ऐसे भी हैं जो इन्हें संतुलित बनायें रखते हैं। इन त्रिदोषों का स्वभाव से गहरा संबंध है। भोजन द्वारा यदि इनमें से किसी एक को कुपित कर दिया जाय, तो उससे सम्बन्धित गुण भी उत्तेजित हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि चित्त को उत्तेजित करने वाले भोजन द्वारा उसे कुपित कर दिया जाय, तो उससे जुड़ा क्रोध वाला गुण भी कुपित हो जायेगा और व्यक्ति समय-समय पर बात-बेबात इसका प्रदर्शन करने लगेगा। इसी प्रकार यदि कफ कुपित हो जाय, तो लोभ भी भड़क उठता है और व्यक्ति लालची बन जायेगा। लाखों बार इस संबंध मैं कोई उपदेश सुन ले, पर फिर भी उसकी इस मनोवृत्ति में कोई अन्तर नहीं आता दिखाई पड़ेगा। उसकी यह आदत तभी मिट सकती है जब उसके कफ को नियंत्रित कर दी जाय। ऐसे ही वायु कुपित करने वाले पदार्थों के सेवन से व्यक्ति में डिप्रेशन या अवसाद स्वतः आने लगता है। प्रत्यक्षतः इसका कोई कारण नहीं होने पर भी भोजन के प्रभाव से वह उत्पन्न होगा और व्यक्ति को अपनी चपेट में ले लेगा।

इसी प्रकार आहार में मात्रा का निर्धारण भी महत्वपूर्ण माना गया है। तीन चौथाई पेट भरा और एक चौथाई खाली होना चाहिए। ऐसे ही

तत्वों के परिमाण निर्धारण भी अभीष्ट बताया गया है। नमक लाभकारी तभी है जब उसे आवश्यक अनुपात में ग्रहण किया जाय। अनावश्यक अंश में लेने से वह अहितकर साबित होता है। आयुर्वेद का एक सूत्र है- 'पिप्पलक्षारलवणनि नाधिकानि भोज्यानि' अर्थात् पिप्पल, क्षार और लवण का जरूरत से ज्यादा सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि विगत समय में कभी सौराष्ट्र के लोग नमक बहुत खाते थे। चीनी के स्थान पर भी वे नमक का प्रयोग करते थे। यहाँ तक दूध में भी नमक डाल कर पीते थे, इसलिए वे पुंसत्व खो बैठते और हृदय रोगों के शिकार हो जाते। अध्यात्म के आचार्यों का कहना है कि इस मार्ग पर चलने वाले लोगों को नमक का सेवन कम से कम या नहीं के बराबर करना चाहिए। उनके अनुसार ब्रह्मचर्य को साधने के लिए ऐसा नितान्त आवश्यक है, अन्यथा मन के भटकाव को रोक पाना संभव नहीं। रसना के असंयम के कारण मन यदि संयमित नहीं हुआ तो फिर 'काम' पर अंकुश रख पाना असंभव हो जाता है। कहने का आशय इतना ही है कि अन्नाहार न सिर्फ हमारे शरीर को वरन् मानसिक प्रवृत्तियों को भी भड़काने और नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए व्यवहार और आदत को साधने-सुधारने के लिए इस पर भी आवश्यक अंकुश रखना जरूरी है।

इतना जान लेने के उपरान्त इस सम्बन्ध में कोई संशय की गुँजाइश नहीं रह जाती कि हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ बाहरी जगत से जो कुछ भी उद्दीपन ग्रहण करती हैं, वह सब चेतना के लिए एक प्रकार का भोजन है। अन्न जिस प्रकार हमारे मन को प्रभावित करता है, वैसे ही यह बाह्य उद्दीपन भी उसे प्रभावित करते रहते हैं। अतएव स्वभाव को संशोधित करने के संदर्भ में इस सम्पूर्ण और समग्र आहार को ध्यान में रखा जाना चाहिए। बात तभी बन सकेगी। इससे कम में नहीं।

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