
सत्संगति क्यों है अनिवार्य?
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'मैं परीक्षा करूँगा।' यदि कोई राजा किसी हठ पर उतर जाय तो उसे रोकेगा कौन? मैं मानता हूँ कि बुद्धि सन्मति इनकी प्राप्ति तो सत्संग से हो सकती है, किन्तु यश, ऐश्वर्य व अन्य सद्गुणों के लिए किसी सत्संग कि क्या आवश्यकता?
'सद्गुण तो स्वाभाविक हैं।' महाराज इतनी जल्दी नहीं छोड़ना चाहते थे पंडित जी को। कोई दुःसंग न मिले तो मनुष्य कपटहीन सहज स्वभाव का होगा। बड़े आदमी सभी एक ही व्यसन के व्यसनी होते हैं। वो दूसरों की बात सुनना ही नहीं चाहते।
'मैंने तो जो लिखा है, वही सुनाया।' पंडित जी अब छुट्टी चाहते थे। उनका रामायण सुनने का समय समाप्त हो गया था। आप भी ठीक ही कहते हैं।
'मैं भी ठीक कहता हूँ और लिखा भी ठीक ही है।' महाराज हँस पड़े पंडित जी के भोलेपन पर। 'आप यह बताइये कि परीक्षा कैसे हो।'
'परीक्षा?' 'एक लड़का ढूँढ़ा जाय नवजात। महाराज ने स्वयं समस्या सुलझा दी। सब बड़े-बड़े ज्योतिषी जिसे यशस्वी, धर्मात्मा, ऐश्वर्यशाली, बुद्धिमान बतलावें और जो दीर्घायु तथा निरोग भी हो। यह पता लगा लिया जाय की उसकी माँ ने साल-डेढ़ साल से किसी साधू संत का दर्शन न किया हो, नहीं तो आप कहेंगे कि बालक ने गर्भ में ही सत्संग प्राप्त कर लिया।
'आपसे सुन्दर उपाय भला कौन ढूँढ़ सकता है।' पंडित जी ने समझा कि चलो बला टली। परीक्षा में बारह-चौदह वर्ष तो कम से कम लगने ही हैं और तब तक इस बुड्ढे को भगवान यमराज इस नौकरी से अवश्य अवकाश दे देंगे।
उन्हें नवजात शिशु का अन्वेषण हुआ और शिकार कानन के गहनतम भाग में एक विशाल भवन का निर्माण भी। कारीगरों ने भवन को इस प्रकार बनाया कि वह बाह्य पशु पक्षियों के आक्रमण से सुरक्षित रहे और उसमें रहने वाले को बाहर जाने की आवश्यकता न हो।
भवन के बनते-बनते एक शिशु भी प्राप्त हो गया। वह एक कंगाल माता-पिता के यहाँ उत्पन्न हुआ था और सर्वसम्मति से ज्योतिषी उसमें वो सभी गुण बतलाते थे जो महाराज को अभीष्ट थे।
भवन की दीवारें भर उठी चित्रों से। गौरैया, मैना, कबूतर, कौवे इन्हीं सब के चित्र है। बादल तारे-विद्युत वर्षा और चन्द्र के चित्र भी आप देख सकते हैं। कभी बैठे कभी उड़ते, कभी अण्डा देते और कभी बच्चा देते, अनेक दशाओं के चित्र हैं, बड़े सुन्दर और सजीव हैं।
प्रतिभा थी और उसके लिए कोई दूसरा मार्ग न मिला तो वह पूर्ण हो गई एक ही धारा में। कुमार के पास न ही बोलने का साधन था और न लिखने-पढ़ने का। उसने दीवारों पर लकीरें खींचनी प्रारम्भ कर दी। जो देखता, उसी को अपनी रेखाओं में बाँधना चाहता। धीरे-धीरे टेढ़ी मेढ़ी रेखाओं ने आकृतियाँ धारण की और मोड़ी आकृतियाँ वास्तविकता में बदलती गयीं।
धाय बड़ी प्रसन्न हुई, जिस दिन कुमार ने उसकी एक तस्वीर कोयले से उज्ज्वल दीवार पर बना दी। अनेक आकृतियाँ बनी फिर उसकी। सबसे अधिक श्रम कुमार ने उसी के चित्रण में किया। वह संकेतों से आनंद जो प्रकट करती थी।
स्वच्छता, संकेत और चित्र निर्माण में उसने अपनी प्रतिभा एवं सुरुचि का पूर्ण परिचय दिया। इतना कुशल कलाकार क्या विश्व की आँखों से छिपा रहेगा? आज या कल सुयश उसके चरण चूमेगा और लक्ष्मी तो प्रतिभा की दासी है। ऐश्वर्य का अभाव तभी होता है सफल कलाकार के समीप, जब उसे कोई व्यसन हो।
पूरे चौदह वर्ष हाँ उतने ही वर्ष जितने मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने वन में बिताए थे, उस कुमार ने भी बिताए उस भवन में। अब उन्होंने निश्चय किया उसे नगर में लाने का। बड़ी धूमधाम से महाराज उसे लेने चले। हाथी, घोड़े, वाद्य, बन्दूकों के धड़ाके कुमार ने प्रथम बार ये सब देखा। एक बार उसे झिझक हुई। भय तो वह जानता न था कि क्या होता है, वह उसकी गोंद में छिप जाना चाहता था। दिन बीते वही राजभवन, वही मध्याह्नोत्तर कथा श्रवण का काल। महाराज के कोई पुत्र नहीं था और उन्होंने सद्गुणी, सुशील प्रतिभाशाली, वनवासी कुमार को दत्तक पुत्र मान लिया। आज तरुण युवराज 'मानस का वही प्रसंग सत्संग के प्रभाव की व्याख्या कर रहा था, जिसे महाराज ने कभी वृद्ध दिवंगत राज पंडित से सुना था। अवश्य ही युवराज की भाषा पंडित से कहीं और परिमार्जित थी और उनका अर्थ कौशल उनकी प्रतिभा के अनुरूप था।
'महाराज क्षमा करें।' युवराज सहसा गंभीर हो गये। उनके नेत्र भर गये। गदगद कंठ हो गया उनका। संभवतः मैंने श्रीमान से कभी निवेदन नहीं किया कि मुझे कौओं से चिढ़ थी और जब मैं उन्हें मारने दौड़ता तो मेरी धाय उन नेत्रों से मेरी ओर देखती जो मेरी क्रूरता पर फटकार की वर्षा करती होती। उसने मुझे लकीरें खींचना सिखाया और प्रारम्भिक चित्र खींचना सिखाया और प्रारम्भिक चित्र उसी की देन थी। मैं गढ़ा गया हूँ व मुझे गढ़ने वाली धाय माँ ही वास्तविक सम्मान की पात्र है।'