
प्रेम ही परमेश्वर है
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प्रेम आत्मा की अभिव्यक्ति है। इसे रत्नाकर सिन्धु के सदृश समझा जा सकता है। जिस तरह गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा आदि नदियाँ सरिता के रूप में स्थल-खण्डों में जब तक इधर-उधर भटकती हैं, तब तक उन्हें सरिताओं के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जाता है, पर जब ये सरिता-प्रवाह सिन्धु में समा जाते हैं, तब उनकी समूची शक्ति सामर्थ्य भी केन्द्रीभूत हो जाती है। अब उनका अस्तित्व रत्नाकर जैसा विशाल हो जाता है। मनुष्य के गुण भी इन नदियों की तरह हैं और इन सद्गुणों का पुंजीभूत रूप है प्रेम; वह प्रेम जो आत्मा की विशेषता है।
इसमें सारे गुण स्वतः ही समाये रहते हैं अथवा यों कहा जाय कि यहाँ सारे गुण विलीन हो निर्गुणत्व पा लेते हैं। इसी स्थिति को स्पष्ट करते हुए नारद भक्ति सूत्र में ‘सः हि अनिर्वचनीयो प्रेम रूप' कह कर परमेश्वर को प्रेम रूप घोषित किया है। यह ही परम तत्व है। इसी का बोध होने में ज्ञान की सार्थकता है। इसी आशय को संत कबीर अपनी वाणी में कहते हैं ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।’ अर्थात् ढाई अक्षरों में ही निहित प्रेम के इस तत्व को प्राप्त कर लेने में ही पाण्डित्य की सार्थकता है।
इसमें ऐसा कौन-सा तत्व निहित है, जिसे जानने से सब कुछ जान लिया जाता है? सामान्यतः तो सब यही कहते हैं कि अमुक को पत्नी से प्रेम है। उसे बच्चों से प्रेम है, माँ से प्रेम है। इस सबसे कोई और श्रेष्ठ दूसरा प्रेम है क्या?
इस पर चिन्तन करने से ज्ञात होता है कि पत्नी बच्चों का अन्य किसी से किया जाने वाला प्रेम-प्रेम नहीं मोह होता है। इस मोह और प्रेम में विरोधाभास जैसी स्थिति है। यदि प्रेम को काया कहा जाय, तो मोह को छाया कहा जाना उचित होगा। दोनों में अंतर भी वही होता है, जो काया और छाया में है। एक सजीव होती है, दूसरी निष्प्राण। छाया को देखकर सजीवता का भ्रम तो होना संभव है, पर उससे काया का प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता।
प्रेम और मोह में एक अंतर और है। प्रेम चेतन से होता है मोह जड़ से। पत्नी आदि से किया जाने वाला तथाकथित ‘प्रेम’ उसके रूप लावण्यमय जड़ शरीर से होता है न कि चेतन स्वरूप आत्मा से, अतएव यह मोह ही है। इसकी जड़ की ओर उन्मुखता मात्र हाड़-माँस वाले शरीर धारियों तक ही सीमित नहीं रहती, वरन् लकड़ी, पत्थर, चूने के बने मकान से लेकर विभिन्न प्रकार के सामानों तक बढ़ जाती है; पर इसके विस्तार का क्षेत्र रहता जड़ ही है, जबकि प्रेम तत्व के जानकार महर्षि याज्ञवल्क्य ने बृहदारण्यक उपनिषद् में स्पष्ट किया है कि पत्नी-पत्नी होने के कारण नहीं, अपितु आत्मा के कारण प्रिय हो, सन्तान-सन्तान के कारण नहीं, आत्मा के कारण प्रिय हो, यही प्रेम की सच्ची परिभाषा है। यह स्थिति गीता के शब्दों में ‘यो मयि पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति’ के कारण है। सर्वत्र व्याप्त चेतन तत्व के कारण वह ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की स्थिति में रहता है। मोह जहाँ विभेद उत्पन्न करता है, प्रेम वही अभेद की स्थिति पैदा करता है, प्रेम व्यापक तत्व है, जबकि मोह सीमित-परिमित।
प्रेम का प्रारंभ सम्भव है किसी एक व्यक्ति से हो पर उस तक सीमित नहीं रह सकता। इसका चरमोत्कर्ष ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के रूप में होता है। यदि यह सीमित रह जाता है, कुछ पाने की कामना रखता है, तो समझना चाहिए कि यह मोह है। प्रेम में तो पाने की नहीं, देने की उमंग रहती है, जबकि मोह में लेने की स्वार्थपरता-संकीर्णता ही पनपती है। इसमें अनुदान की नहीं, प्रतिदान की अपेक्षा रहती है। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, व्यक्तियों से जुड़कर उनके कल्याण की और विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में व्यक्ति, पदार्थ, संसार से किसी न किसी प्रकार के स्वार्थ सिद्धि की अभिलाषा रहती है। जिसके प्रति मोह रहता है, मात्र उसे ही अपनी इच्छानुसार चलाने उठाने की आगे बढ़ाने की वह बात सोचता है। इसमें तनिक-सा व्यवधान उत्पन्न होने पर खीज असंतोष का उद्वेग उमड़ता है और व्यक्ति को असंतुलित बना देता है। प्रेम में इस तरह की कोई बात नहीं है।
इसका अंकुरण निकट परिकर से आरम्भ होता है, पर जब यही विकसित, पल्लवित, पुष्पित होता है, तो इसकी शाखा-प्रशाखाएँ समस्त समाज-विश्व में फैल जाती हैं। घर परिवार तो प्रेम-साधना की पाठशाला मात्र है। इसमें उनकी प्रसन्नता और विकास की बात सोची जाती है। इसमें उठाये गये कष्ट में संतोष की अनुभूति होती है। यह आरम्भिक प्रशिक्षण है, पर जब अपने सगे संबंधियों की प्रसन्नता-समृद्धि के लिए उचित अनुचित का ध्यान नहीं रहता और आदर्शों की बलि दे दी जाती है, तो वह प्रेम नहीं रहता, मोह बन जाता है। इसे ही गोस्वामी तुलसीदास ने ‘मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला’ कहकर अभिहित किया है। सचमुच, यह स्वयं व जुड़े हुए व्यक्तियों, दोनों के लिए हानिकारक है।
प्रेम तो गंगा की जल की तरह पवित्र व निश्चल है, जिसे जहाँ भी डाला जाय पवित्रता ही पैदा करता है उसमें आदर्शों की अविच्छिन्नता जुड़ी रहती है। विवेकशीलता, सहृदयता, पवित्रता, सदाशयता जैसे गुण इसमें समाये रहते हैं। प्रेमी जिससे भी प्रेम करता है, उसमें इन गुणों के अभिवर्धन के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है।
भाव-संवेदनाएँ नित्य-निरंतर उच्चस्तरीय आदर्शों के प्रति समर्पित रहें, यही प्रेम है। इसकी सीमा की संकीर्णता अपने में आबद्ध नहीं कर सकता। यह तो सूर्य की तरह है, जो उदयकाल के समय तो मात्र पूर्व को ही प्रकाशित करता है, पर मध्याह्न में इसके प्रकाश से समस्त दिशायें प्रकाशित हो जाती हैं। जिसके अंतराल में प्रेम प्रस्फुटित होता है, वह व्यक्ति देश, धर्म, संस्कृति और मानव जाति की सेवा-साधना में निरत हो जाता है।
जीवन के उत्कृष्टतम रूप में अभिव्यक्ति इसी माध्यम से होती है, यदि इसे हटा दें, तो मानव जीवन में फिर कोई विशेषता नहीं रह जाती। संत कबीर के शब्दों में-'जा घट प्रेम न संघरै सो घट जान मसान’ सचमुच उस भक्ति का हृदय श्मशान की ही तरह होता है, जिसमें विभिन्न दुर्गुण चिन्ता, संताप, असंतोष के भूत मंडराया करते हैं, ऐसा जीवन स्वयं के लिए एवं धरती के लिए भार स्वरूप ही होता है।
प्रेम की ज्योति सामान्य दीपक की ज्योति नहीं, जिसमें अनुताप हो, अपितु यह दिव्य चिन्तामणि की शीतल स्निग्ध ज्योति है, जिससे शरीर, मन, बुद्धि, अन्तःकरण प्रकाशित होते व सारे संताप शांत होते हैं। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में जो भी आता है, उसे भी निर्मलता शीतलता का अनुभव हुए बिना नहीं रहता।
इसकी परिपूर्णता परमेश्वर में है या दूसरे शब्दों में इसकी पराकाष्ठा ही ईश्वर-प्राप्ति है। तत्ववेत्ताओं ने इसीलिए उसे ‘रसो वै सः’ कह कर वर्णित किया है, अर्थात् वह परम सत्ता रसवत् है, प्रेम व आनंद स्वरूप है। अतः प्रेम के शुभारम्भ को भगवद्-प्राप्ति का प्रथम चरण भी कह सकते हैं। आध्यात्मिक पुरुषों के विश्व इतिहास पर यदि दृष्टि निक्षेप करें, तो सभी का व्यक्तित्व इस दिव्य तत्व से ओत-प्रोत दिखाई पड़ेगा। गौरांग महाप्रभु ने जब प्रेम को परमेश्वर रूप में ग्रहण किया, तो वे ‘चैतन्य’ बन गये। रामकृष्ण ने जब इस तत्व के कर्म को आत्मसात् किया, तो वे ‘परमहंस’ बन गये। ऐसे ही जितने भी महापुरुष हुए हैं, सभी के हृदयों में इसका अजस्र प्रवाह बहता रहता था। बुद्ध का प्रेम जब उमड़ा, तो उनने अंगुलिमाल जैसे दुर्दान्त दस्यु को भी क्षमा-दान कर अपने धर्म में दीक्षित कर लिया। व्यक्ति जब प्रेम को परमेश्वर की अभिव्यक्ति के रूप में ग्रहण करता है, तो उसे सर्वत्र सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् के ही दर्शन होते हैं और उसकी सारी शक्तियाँ विश्व-वसुधा को वैसी ही बनाने में नियोजित होती हैं।
परम सत्ता के स्थूल स्वरूप-विराट् ब्रह्म के प्रति इस प्रकार की घनिष्ठता से स्वतः ही वह क्षुद्र से महान, लघु से विभु, पुरुष से पुरुषोत्तम जैसी स्थिति में पहुँच जाता है। प्रेम की इस दिव्यता के जीवन में अवतरित होने पर उदात्त भावनाएँ उमड़ने लगती हैं। इस स्थिति में अन्तराल में सत्-चित्त-आनंद की वह त्रिवेणी बहती है, जिसमें अवगाहन कर व्यक्ति ऐसा दिव्य आनन्द प्राप्त करता है, जो प्रत्यक्ष त्रिवेणी-संगम में निमज्जन से भी सम्भव नहीं। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’, ‘वासुदेवः सर्वमिति’ वेदान्त में वर्णित यही अद्वैत स्थिति है। गीता में इसे ही दूसरे प्रकार सब में अपनी अनुभूति करना कहा गया है। इस चरम स्थिति को पाना ही मनुष्य जीवन का ध्येय है। यहाँ तक पहुँचने के लिए मनुष्य को मोह रूपी छाया को छोड़ना तथा प्रेम की जीवन्त काया को पकड़ना होगा। यही जब परिपक्व होकर व्यापक विस्तार करता है, तो परमेश्वर स्वरूप धारण कर लेता है। इसीलिए प्रेम को परमेश्वर भी कहा गया है। श्री गुरु ग्रंथ साहब में कहा गया है-'जिन्हें प्रेम कियो तिन्हहिं प्रभु पायो, साँच कहौं सुन लेहौ सबही।’ प्रेम किया है, उसने ही प्रभुत्व का साक्षात्कार किया है व यह प्रेम अंतर्जगत से निकलने वाली वह अनुभूति है जो करुणा, स्नेह, संवेदना, आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना के रूप में प्रकट होती है। इसी प्रेम को आधार बनाकर स्वयं को प्रभुमय बनाया जा सकना नितान्त शक्य है।