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Magazine - Year 1996 - Version 2

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Language: HINDI
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वानप्रस्थ परम्परा का नवोन्मेष

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प्राण प्रत्यावर्तन साधना में जो बीज गया, वानप्रस्थ सत्रों में उसी का अंकुरण होने लगा । यह चिर प्राचीन परम्परा का नवोन्मेष था । इसी के बलबूते भारत किसी समय उन्नति के शिखर पर था । यह पुण्यभूमि स्वर्गादपि गरीयसी मानी जाती थी । समस्त विश्व पर उसका चक्रवर्ती साँस्कृतिक शासन था । स्वर्ण सम्पदाओं का अधिपति उसे कहा जाता था । समस्त विश्व को उसने जो भौतिक और आध्यात्मिक अनुदान दिए, उनसे सुविकसित, सुसंस्कृत बने लोगों ने कृतज्ञतापूर्वक उसे जगद्गुरु कहकर अपनी श्रद्धा व्यक्त की । इस देश के तैंतीस करोड़ नागरिक किसी समय संसार भर में तैंतीस करोड़ देवताओं के, नाम प्रसिद्ध थे । भारत की गरिमा, ज्ञान और विज्ञान के दर्शन और वैभव के क्षेत्र में गगनचुम्बी बनी हुई थी । उसने अपने प्रकाश से सम्पूर्ण भूमण्डल को आलोकित किया था । यहाँ का व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन सामाजिक दशा इतनी उच्चस्तरीय और सुख -शांति पूर्ण थी कि सतयुग का वर्णन उस पर पूरी तरह लागू होता था ।

आज की स्थिति सर्वथा बदल गई। अन्न से लेकर शास्त्रों तक के लिए हम परमुखापेक्षी हैं। हमारी शिक्षा आवश्यकता विदेशी पूरी करते हैं। चिकित्सा तक में आत्मनिर्भर नहीं । यह तो भौतिक सम्पत्ति की बात रही। आत्मिक क्षेत्र की दशा और भी अधिक दयनीय है। अनुशासन, वचन पालन, समय की नियमितता, नागरिक कर्त्तव्य, सामाजिक उत्तरदायित्व, देशभक्ति, शिष्ट व्यवहार जैसी मानवोचित विशेषताओं की कसौटी पर हमारा जनजीवन खरा नहीं खोटा ही सिद्ध होता है । स्वच्छता जैसी प्राथमिक मानवी आवश्यकता तक से हम अभी परिचित नहीं हो पाए है।

सामाजिक कुरीतियों, मूढ़मान्यताएँ एक प्रकार से देश की जड़े खोखली कर चुकी है। नर-नारी की असमानता, वंश, जाति के आधार पर बरती जाने वाली ऊँच-नीच को मान्यता, लगभग एक करोड़ लोगों द्वारा अपनाया गया भिक्षा व्यवसाय विवाहों की प्राणघातक खर्चीली धूम-धाम जैसे कुष्ठ व्रण राष्ट्र की काया को किस प्रकार अपंग, कुरूप ओर कलंकित किए हुए है। यह देखकर दर्द उठता है । जिस में अभी भी शिक्षा का प्रतिशत न्यून हो, वहाँ विविध भ्रष्टाचारों का पनपना स्वाभाविक है। धर्म से लेकर राजनीति तक में धूर्त विडम्बनाएँ अपनी जड़े दिन-दिन अधिक गहरी घुसाती चली जा रही है। इन परिस्थितियों में हम अंतर्द्वंद्वों में ग्रह युद्ध जैसे स्थिति में रहते हुए प्रगति से वंचित ही रह सकते थे । रह रहे है।

प्राचीनकाल की महान प्रगति और आज की अवगति की तुलना पर्वत शिखर और गहरे गर्त से की जा सकती है। भौतिक दृष्टि से जो खोया सो दुःखद है, उसकी क्षतिपूर्ति आसानी से हो सकती है। पर मर्म भेदी दुःख उस आत्मिक स्थिती के पतन का है । जिसके कारण इस देश का प्रत्येक घर नररत्नों की खान बना हुआ था, जिसके कारण समस्त विश्व अपने उत्कर्ष के लिए आशा भरे सहयोग की अपेक्षा करता था ।

यह अत्यधिक विचारणीय प्रश्न है कि धर्म और अध्यात्म का कलेवर भूतकाल की अपेक्षा इन दिनों घटा नहीं बढ़ा है। धर्म संगठनों की, धर्मध्वजी महन्त, मठाधीशों की, साधु-ब्राह्मणों की ही वृद्धि नहीं हुई है, कथा-कीर्तनों की, देवाराधन कर्मकाण्डों की भी धूम है मंदिर तो इस तेजी के साथ बनते चले आ रहे है मानो उन्हीं की संख्या वृद्धि पर धर्म की आधारशिला रखी हुई हो । इतना सब होते हुए भी धर्म की आत्मा क्यों मर गयी? उसकी सड़ी लाश ही हमारे हाथ क्यों रह गई ?

इन प्रश्नों का समाधान ढूंढ़ने के लिए गहराई में

उतरने और विस्तृत विवेचन करने पर हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि हमारे आश्रम धर्म की रीढ़ टूट गयी और प्राचीन भारत की गौरव -गरिमा की स्थिति अपंग जैसी हो गयी । भारतीय धर्म को दूसरे शब्दों में वर्णाश्रम धर्म कर सकते हैं । चार आश्रमों की सुदृढ़ आधारशिला पर अपनी संस्कृति का भवन खड़ा किया गया था । जब तक वे स्तम्भ बने रहे, तब तक गौरव-गरिमा भी गगनचुम्बी बनी रही । जब उसमें विग्रह, संकट उत्पन्न हुआ तो सारा ढाँचा ही लड़खड़ा गया और धर्म विडम्बनाओं की अवांछनीय विकृतियाँ ही हमारे हाथ रह गयी ।

अब एक ही वर्ण शेष है-वैश्य और एक ही आश्रम जीवित है गृहस्थ । शेष तीन वर्ण भर गए । तीन आश्रमों का भी अन्त हो गया। हर व्यक्ति का जीवन लक्ष्य धन है । त्यागी, वैरागी भी प्रकारांतर से उसी कुचक्र के इर्द-गिर्द घूमते देखे जा सकते हैं । आकांक्षाओं का केन्द्र अब सम्मति ही बनकर रह गया है । वासनाओं और तृष्णाओं की पूर्ति उसी से तो होती है । इसके अतिरिक्त अन्य कुछ लक्ष्य किसी का नहीं दीखता । ऐसी दशा में यह कहना अत्युक्ति न होगा कि वर्ण धर्म सिमटकर वैश्य वर्ण में सीमित हो गया है ।

ठीक इसी प्रकार आश्रम धर्म की पर्याप्त दुर्गति हुई है। स्कूल में आते-जाते अबोध बालक काम कुचेष्टाएँ सीख जाते हैं । पास -पड़ौस में उन्हें अश्लील गालियाँ सीखने को मिल जाती हैं। घर-बाहर कामुकता की विविध प्रवृत्तियां बचपन में ही गृहस्थ की दीक्षा दे देती है और उसमें क्रमशः वृद्धि ही होती रहती है। किशोरावस्था परिपक्व होने से पहले ही बच्चे अपना बहुत हद तक आत्मघात कर चुके होते हैं । स्मरण शक्ति की कमी, चेहरे की निस्तेजता, काया की दुर्बलता और मानसिक उद्वेगों का बाहुल्य देखते हुए यह सहज ही समझा जा सकता है कि उन पर क्या बीती है।

समय से पूर्व गृहस्थ की किसी भौंड़ी और फूहड़ प्रवृत्ति का जो दुष्परिणाम होना चाहिए उसे अपने हर बालक पर काली घटाओं के रूप में छाया देखते हैं । बाल विवाह तो और भी कोढ़ में खाज का काम करता है । जिन्दगी के अन्त तक कामुकता, प्रजनन, अर्थोपार्जन कुटुम्बचर्या के अतिरिक्त कभी कोई बात सूझती ही नहीं । समस्त प्रवृत्तियाँ इसी केन्द्र पर केन्द्रीभूत रहती है । होश सँभालने के दिन से लेकर होश बन्द होने की घड़ी तक गृहस्थ स्तर की आकाँक्षाएँ ही मनः क्षेत्र को आक्रान्त किए रहती है । ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि चार आश्रमों में से तीन समाप्त हो गए, ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास की परम्पराएँ नष्ट हो गयी । केवल एक ही आश्रम बचा है गृहस्थ । साधु -सन्तों की मनोदशा और गतिविधियों को देखते हुए उन्हें भी भगवा वस्त्रधारी गृहस्थ ही कह सकते हैं । तीन पाये टूट जाने पर एक के ऊपर खड़ी की गई चारपाई की जो डाँवाडोल स्थिति होनी थी वही है आज भारतीय समाज की । इन परिस्थितियों में भौतिक, आर्थिक स्थिति की स्थिरता की भी कुछ बात तो सम्भव भी है पर आत्मबल पर टिकी हुई उन महानताओं की आशा नहीं की जा सकती जिन पर प्राचीन भारत का महान गौरव आधारित रहा है

यही नहीं, यह स्थिति भारतीय संस्कृति के उस मूल आधार की कपाल क्रिया है जिस पर कि विश्व मानव को देव स्तर तक पहुँचाने की सफल चेष्टा की गयी थी । परम पूज्य गुरुदेव ने समाज को इस दयनीय और दुर्दशाग्रस्त स्थिति से उबारने के लिए वर्ष 1974 को शाँतिकुँज में वानप्रस्थ विद्यालय का शुभारम्भ किया । इसके माध्यम से आत्मकल्याण एवं लोककल्याण के उस मध्यम मार्ग की शुरुआत हुई, जिस पर सर्वसामान्य भी चलने का साहस जुटा सके और अति विशिष्ट बनने का गौरव हासिल कर सके ।

वानप्रस्थ का चरम लक्ष्य उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तव्य को दैनिक जीवन में उतारते हुए जहाँ जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए साहसपूर्ण कदम बढ़ाना है, वहाँ सर्वसाधारण को यह विश्वास दिलाना भी है कि उच्च आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में उतारना न केवल सरल है वरन् सुखद और शान्तिदायक भी है । लोकशिक्षा का यही प्रभावशाली तरीका है । समग्र पुनरुत्थान और अभिनव निर्माण के लिए ‘जनसाधारण को कुछ कष्ट उठाना, त्याग करना और अनुदान प्रस्तुत करना ही पड़ेगा । इसी पूँजी से ही प्रगति का भवन बनेगा । लोगों को आदर्शों की बाते यों सुहाती है पर उस दिशा में बढ़ने के लिए जो अनुदान प्रस्तुत करना पड़ता है उसके लिए कोई साहस नहीं करता । फलतः लम्बी-चौड़ी योजनाओं को दीमक चाटती रहती है । जनता को सृजन,प्रयोजन के लिए अपना योगदान देने के लिए रजामन्द करना हर किसी का काम नहीं, उसे प्रभावशाली ढंग से वहीं कर सकता है, जिसने स्वयं वैसा कदम उठाकर दिखाया है । युग नेतृत्व की महती आवश्यकता वानप्रस्थ ही पूरी करता रहा है उसे ही करने का अधिकार भी हैं ।

तप−साधना और लोकसेवा इन दोहरे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए चलाए गए इन सत्रों की अवधि एक मास थी । आज जहाँ गायत्री मंदिर है, उसके ठीक सामने उन दिनों टिनशेड हुआ करता था । इसी टिन शेड में वर्ष 1974 की बसन्त पंचमी के अवसर पर वानप्रस्थ कक्षाओं का शुभारम्भ करते हुए पू. गुरुदेव ने कहा था -” प्राचीनकाल के संन्यास को भी अब वानप्रस्थ में ही विलीन होना पड़ेगा । उस वेष में अवाँछनीय व्यक्ति इतने अधिक घुस पड़े है कि संचित प्रतिष्ठा को समाप्त प्राय करके रख दिया । फिर इन दिनों संन्यास के साथ अकर्मण्यता, मुफ्तखोरी, से सेवा धर्म से विमुखता और आडम्बर अंधविश्वासों की विस्तार विडम्बना ने स्थिति सर्वथा बदल दी है । भिक्षा व्यवसाय अब जनआक्रोश का केन्द्र बनने जा रहा है । वस्त्र रंगने मात्र से राजसी निर्वाह प्राप्त करने के लिए अधिकार में अगले दिनों कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा और धर्म परम्परा की दुहाई देने से भी चमड़ी को बचाया न जा सकेगा । अस्तु, संन्यास को वानप्रस्थ में विलीन करके एक सहज, सुलभ परमार्थ परायण जीवन प्रक्रिया को अपनाने से ही काम चलेगा । वही इस युग के अनुकूल है और उपयुक्त भी ।

इन एक महीने के सत्रों में जिनकी भी भागीदारी रही वे आज भी उन बीते दिनों की स्मृतियों को जीवन की बहुमूल्य धरोहर की तरह सँजोये है । इनकी हलकी-सी स्फुरणा उन्हें अनगिनत भावों के मधुर मोहक रस से भिगो देती है। इन सत्रों में जहाँ एक ओर तप प्रधान दिनचर्या थी । वही एक अलौकिक आकर्षण था । तपोनिष्ठ परम पू. गुरुदेव का नित्यप्रति प्रवचन । जिसमें वे वानप्रस्थ की परम्परा, उसकी मर्यादा का दार्शनिक विवेचन किया करते थे । आज के समय में इसकी सामयिक आवश्यकता को बताते -बताते उनकी भावुकता कभी रोष बनकर वाणी से प्रकट होती, कभी आँसू बनकर नेत्रों से छलक उठती ।

इन सत्रों में भाग लेने वाले परिजन प्रायः पूज्यवर के अमृत वचनों को अपनी डायरी के शब्दों में पिरोने का प्रयास किया करते थे । ऐसी ही एक डायरी के पृष्ठों को पढ़ने पर उनके वानप्रस्थ दर्शन का स्वरूप कुछ इस प्रकार झलकता है । वह कहते हैं कि वानप्रस्थ के परमार्थ पथ प्रवेश को तीन स्तरों में विभक्त किया जा सकता है । उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ । सर्वोत्तम, अधिक श्रेष्ठ एवं श्रेष्ठ के उतार-चढ़ाव इस महान प्रक्रिया में भी हो सकते हैं।

सर्वोत्तम वह स्थिति है जिसमें पारिवारिक उत्तरदायित्वों को अन्य विश्वस्त एवं निष्ठावान परिजनों पर छोड़कर स्वयं पूरा समय परमार्थ प्रयोजन में लगाने के लिए तत्पर हो जाएँ। कुछ समय इस अभिनव जीवन प्रणाली की विधि-व्यवस्था का तात्विक अध्ययन और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करें और फिर विश्व मानव की सेवा-साधना में जुट जायँ। दिनचर्या का ऐसा निर्धारण होना चाहिए जिसमें स्वाध्याय और योग साधन तपश्चर्या के लिए भी समुचित स्थान रहे और शेष समय सेवाकार्यों में लगा रहे। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युग की महानतम आवश्यकता और विश्व मानव की सेवा-साधना एक ही है जनमानस का भावनात्मक नवनिर्माण। इसके लिए ज्ञान यज्ञ की विचार क्रान्ति शृंखला इन दिनों चल रही है। इस केन्द्र पर ही प्रत्येक विचारशील का ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। इस चरण को पूरा करने के बाद ही रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्य हो सकता है। उद्योग, शिल्प,चिकित्सालय, मन्दिर, धर्मशाला, प्याऊ सदावर्त आदि कितने ही लोकोपयोगी कार्य हो सकते हैं पर वानप्रस्थ को एक ही लक्ष्य सामने रखना चाहिए विचारक्रान्ति, बौद्धिक परिष्कार, भावनात्मक नवनिर्माण इसी से संबद्ध सेवा कार्य हाथ में लिए जाएँ। यह कार्य प्रत्यक्ष में नहीं देखा जाता और उसका परिणाम इमारतों की तरह आँखों के सामने नहीं आता, इसलिए उथली तबियत के लोग उस दिशा में उदासीन देखे जाते हैं और ऐसे कार्य पकड़ते हैं जिन्हें आंखों से देखा जाना जा सके। इस संकटकाल में आपत्ति धर्म की तरह हमें केवल ज्ञान यज्ञ की महान प्रक्रिया को ही सामने रखना चाहिए। वानप्रस्थ की सेवा-साधना का प्रत्येक कदम इसी दिशा में उठना चाहिए। सर्वोत्तम स्तर के वानप्रस्थी-परिव्राजक स्तर की जीवनचर्या अपनाते हैं। वे आश्रम बनाकर नहीं बैठते वरन् जहाँ भी सत्प्रवृत्तियों के अंकुर उगे हुए हैं उन्हें सींचने के लिए यंत्र-तत्र भ्रमण करते हैं। मध्यम स्तर के वानप्रस्थी वे हैं जिनके लिए अपने घर-परिवार के बीच रहते हुए अपने समीपवर्ती क्षेत्र में काम करना अधिक सुविधाजनक पड़ता है। इसमें वे परिवार को मार्गदर्शन, परामर्श, नियन्त्रण और सहयोग का लाभ भी यथासम्भव देते रहते हैं। सुविधाजनक जीवनयापन का सुयोग भी मिलता रहता है और समीपवर्ती परिचित क्षेत्र में अपना काम भी करते रहते हैं। मुख्य काम वे परमार्थ प्रयोजन को ही मानते हैं और उसी में अपना मनोयोग भी लगाते हैं। परिवार की देखभाल एक सरल स्वभाव चलते रहने वाला गौण कार्य होता है। कोई विशेष अड़चन आ जाय तो बात दूसरी हैं अन्यथा अपनी रुचि का विषय परमार्थ ही होता है। अपने समय. श्रम और मनोयोग को उसी में लगाते हैं। घर रहते हुए भी जल में कमल जैसी स्थिति ही बनाए रहते हैं। एकान्त निवास के लिए घर में या किसी निकटवर्ती देवालय आदि में अपना निवास रखते हैं, जिससे अपने विरक्त स्तर का भान निरन्तर होता रहे।

कनिष्ठ स्तर का वानप्रस्थ वह है जिसमें पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह भी जुड़ा हुआ है। बच्चे छोटे हैं, पत्नी शारीरिक अथवा मानसिक दृष्टि से रुग्ण है। अनय विवशताएं ऐसी हैं जिनसे धर छोड़ कर अन्यत्र जा सकना सम्भव नहीं । परिवार के लिए आजीविका उपार्जन करने से भी छुटकारा नहीं, ऐसी स्थिति में कनिष्ठ वानप्रस्थ लिया जा सकता है, किंतु उसमें भी दो शर्तें तो पालनी ही पड़ती हैं। एक यह कि सन्तानोत्पादन उत्तम और माध्यम वानप्रस्थी की तरह ही बन्द कर दिया जाय और कम से कम चार घण्टे प्रतिदिन अपने समीपवर्ती क्षेत्र में ज्ञान यज्ञ सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन में लगायें जायँ साधारणतया 7 घण्टे सोने के लिए, पाँच घण्टे आजीविका उपार्जन के लिए नियत रखे जायँ तो इन बीस घण्टों में शारीरिक एवं पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भली प्रकार निबाही जा सकती हैं और चार घण्टे का समय परमार्थ प्रयोजन के लिए बड़ी आसानी से लगाया जा सकता है। छुट्टी के दिनों परिव्रज्या के लिए अधिक दूर तक जा सकते हैं किंतु साधारण समय में समीपवर्ती संपर्क क्षेत्र ही उनकी प्रव्रज्या की परिधि बना रह सकता है।

पू. गुरुदेव के इन नियमित रूप से चलने वाले सारगर्भित प्रवचनों के साथ वानप्रस्थ सत्रों की दिनचर्या गतिमान रहती और इन सबके बीच एक दिन वह भी आता जब सत्र में भागीदार साधकों का वानप्रस्थ संस्कार सम्पन्न होता। यज्ञ, देवपूजन,व्रतधारण, पीत परिधान, जल कलशों का अभिषेक मंगल, ऋचाओं का उच्चारण इस सबके साथ अन्तिम में परम पू. गुरुदेव स्वयं अपने हाथों से नवदीक्षित वानप्रस्थियों को ब्रह्मदण्ड प्रदान करते। बड़े अद्भुत, विलक्षण होते थे ये क्षण, कुछ ऐसा लगता मानो देव गुरु बृहस्पति देवताओं को वज्र जिसके प्रहार से वह अपनी मनोभूमि पर होने वाले आसुरी आक्रमणों को निरस्त कर सकें।

इन वानप्रस्थ सत्रों में जो भी आए सदा के लिए उनके अपने हो गए। इनमें भागीदार होने वालों में से अधिकांश तो आज शाँतिकुँज में ही स्थायी कार्यकर्ताओं के रूप में सक्रिय हैं। जो किसी कारणवश शाँतिकुँज में स्थायी कार्यकर्ता के रूप में नहीं आ सके, वे सबके सब अपने-अपने क्षेत्रों में अपनी विशिष्टता एवं वरिष्ठता प्रमाणित कर रहे हैं। उन्हें जो ऊर्जा इन सत्रों में मिली थी वह सदा−सर्वदा के लिए उनकी आत्मा में अक्षुण्ण हो चुकी है। नवनिर्माण की लो लहर अगले दिनों प्रखर बनायी जानी है, इसके लिए कितनी ही रचनात्मक प्रवृत्तियों को अपगामी बनाना पड़ेगा। ऐसे में इन्हीं विशिष्टों एवं वरिष्ठों को अपने कन्धों पर सेनापति होने का गुरुतर दायित्व सम्हालना है और वर्षों से सहेजी गई उस धरोहर को नयी पीढ़ी को देना है जो उन्हें गुरु सत्ता से मिली थी। उनका यही पुरुषार्थ आने वाले समय में उज्ज्वल भविष्य बनकर प्रकट होगा।

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