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Magazine - Year 1996 - Version 2

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वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का नवजन्म

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गायत्री जयन्ती 3 जून, 1979 को गंगा के तट पर ज्ञान की एक नवीन धारा का अवतरण हो रहा था। युग के भगीरथ की बरसों की तप-साधना अपना साकार रूप ले रही थी । गायत्री और गंगा के इस अवतरण दिवस पर ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान का उद्घाटन हो रहा था। इस अवसर पर गायत्री परिवार के सदस्यों के अलावा देश के अनन्त विख्यात मनीषी भी आए हुए थे। आगन्तुकों में उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री जी.डी. तपासे भी थे। शोध संस्थान के कार्य की रूपरेखा ने उन्हें मोह लिया था। वह कह रहे थे-

“शांतिकुंज ने आज अपने एक नए आयाम का उद्घाटित किया है। विश्व ने अभी तक वैज्ञानिक भौतिकवाद को देखा है। विज्ञान अभी तक पदार्थ विज्ञान बना हुआ है । अन्वेषण तो बहुत हुए पर जड़ पदार्थों के। शायद इसी कारण हमने सुविधाएँ बटोरीं और उनके विनाश के सरंजाम जुटाए, चेतना का अनुसन्धान, अन्वेषण अभी बाकी है। मानव प्रकृति के रहस्यों की खोज-बीन अभी तक नहीं की गई। सम्भवतः इसलिए क्योंकि यह कार्य वैज्ञानिक भौतिकवाद की सीमा से बाहर है। पदार्थ विज्ञान इसका अन्वेषण करने में सक्षम नहीं है। इसके लिए विज्ञान को आध्यात्मिकता अपनानी होगी और अध्यात्म को वैज्ञानिक होना पड़ेगा। आज आचार्य जी के प्रयासों से यह असम्भव कार्य सम्भव हो रहा है। ज्ञान की सर्वथा नवीन धारा यहाँ वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के रूप में अवतरित हो रही है। चेतना का विज्ञान अपना रूप धारण कर रहा है।

यह अवतरण गंगा के अवतरण से किसी भाँति कम नहीं। युगों पूर्व भगीरथ अपनी दुष्कर तपस्या, कठोर श्रम से आज के दिन ही गंगा को धरती पर लाए थे। छटपटाते मानव जीवन को शीतलता प्रदान की थी। छटपटाहट आज भी है और शायद पहले से भी अधिक। पर यह मानसिक और बौद्धिक है। इसका समाधान जलधारा का अवतरण नहीं, ज्ञान की धारा का अवतरण है। अपने युग के ऋषि, आचार्य जी ने विश्वामित्र और भगीरथ की तरह वही किया है”

श्री तपासे ने अपने भाषण में जिस छटपटाहट का जिक्र किया उसे आज भी हम सब अपने चारों ओर देख सकते हैं। ऐसा नहीं है कि इसके समाधान के लिए प्रयत्न नहीं समस्याओं और विपत्तियों के निवारण में मूर्धन्य प्रतिभाएँ जुटी हैं। अनेकानेक उपाय-उपचार भी हो रहे हैं। पर जितना जोड़ते हैं उससे अधिक टूटने का दुर्भाग्य ही पल्ले पड़ता है। शान्ति के समाधान आज निकलें या हजार साल बाद, उनका स्वरूप एक ही होगा कि जनमानस पर छाए हुए आस्था संकट का निराकरण किया जाए। इस निराकरण के दो ही उपाय हैं- चिन्तन में अध्यात्म, तत्वज्ञान का और व्यवहार में धर्म-धारणा का समावेश। इस प्रयास की उपेक्षा जब तक होती रहेगी तब तक उज्ज्वल भविष्य की आशा, मृगतृष्णा ही बनी रहेगी।

धर्म और अध्यात्म की पुनः प्राण प्रतिष्ठापना के मार्ग में दो बाधाएँ ही इन प्रतिष्ठापना के मार्ग में दो बाधाएँ ही इन दिनों प्रमुख हैं। इस महान प्रत्यक्षवाद द्वारा उत्कृष्टतावादी दर्शन की अवमानना। इन दो मोर्चों पर जूझा जा सके तो ही आगे बढ़ने का रास्ता प्रशस्त होगा अन्यथा अवरोधों की चट्टानें रास्ता रोक कर ही खड़ी रहेंगी। इन्हें कैसे हटाया जाय? इस प्रश्न का उत्तर एक ही है कि दोनों ही क्षेत्रों की भ्रान्तियों का निराकरण करने के लिए समर्थ तंत्र खड़ा किया जाय। दर्शन का उत्तर दर्शन से, तर्क का उत्तर तर्क से और विज्ञान का उत्तर विज्ञान से दिया जाय। आज की परिस्थितियों में शास्त्र प्रमाण एवं आप्तवचन पर्याप्त नहीं रहे। उनके पीछे समर्थ प्रतिपादन चाहिए। ऐसे समर्थ, जिनके तर्क, तथ्य एवं विज्ञान की साक्षी एवं पुष्टि उपलब्ध हो।

अपने समय का यही सबसे बड़ा काम है। इसके लिए आवश्यकता ऐसे शोध संस्थान की थी। जो धर्म और दर्शन के शाश्वत स्वरूप को प्रस्तुत कर सके और उसकी उपयोगिता एवं प्रामाणिकता से बुद्धिवाद को पुनर्विचार के लिए विवश कर सके। अध्यात्म विज्ञान के तीन अंग हैं-(1) परोक्ष सत्ता का अस्तित्व, (2) आस्थावादी तत्वदर्शन (3)साधना विज्ञान क्षेत्र में पिछले दिनों मान्यता नहीं दी है। फलतः नास्तिकवाद का पक्ष सबल हुआ है और अनास्थावादी आचरणों ने जोर पकड़ा है। नया अनुसंधान तंत्र ऐसा खड़ा होना चाहिए जो प्रत्यक्षवाद के प्रत्येक अनास्थावादी प्रतिपादन को चुनौती दे सके और उस क्षेत्र में छाई हुई भ्रान्तियों को परास्त कर सके। आज इन प्रतिद्वन्द्वी प्रयत्नों की इतनी आवश्यकता है जिसे मानवी भविष्य को बनाने, बिगाड़ने की दृष्टि से सर्वोपरि महत्व की मानी जा सकती है।

यद्यपि परम पू. गुरुदेव अखण्ड ज्योति के माध्यम से इस तरह के प्रयास प्रारम्भ से ही कर रहे थे। सन् 1965 में वैज्ञानिक अध्यात्मवाद पर विशेष लेखमालाएँ भी प्रकाशित हुई। पर 1971 हिमालय यात्रा के समय तक उनके चिन्तन में यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि एकाकी लेख प्रकाशन इसके लिए पर्याप्त नहीं। इसके लिए अनुसंधान का दृश्यमान रूप खड़ा करना पड़ेगा। शोध का समर्थ तंत्र विकसित करना होगा। शोध-संस्थान का स्वरूप कैसा हो ? शोध अन्वेषण के सूत्र क्यों हों? इन प्रश्नों के उत्तर उन्होंने अपनी तप साधना के समय खोजे। उन्हीं के शब्दों में-

“ हमारी भावी तपश्चर्या का दूसरा प्रयोजन आध्यात्मिकता के विज्ञान पक्ष को मृत, लुप्त तथा विस्मृत, दुःखद परिस्थितियों में से निकालकर इस स्थिति में लाना है कि उसके प्रभाव और उपयोग का लाभ जनसाधारण को मिल सकना सम्भव हो सके। भौतिक विज्ञान का लाभ जनसाधारण को मिल सका और उसने अपनी महत्ता जनमानस पर स्थापित कर दी। आज विज्ञान सम्मत बातों को ही सच माना जाता है, जो उस कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं उन्हें मिथ्या घोषित कर दिया जाता है। आस्तिकता, धार्मिकता तथा आध्यात्मिकता की मान्यताओं को हमें विज्ञान के आधार पर सही सिद्ध करने का प्रयत्न करना पड़ा रहा है। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की एक नई दिशा का निर्माण करना पड़ रहा है।

“हिमालय यात्रा से लौटने के बाद उन्होंने विदेश यात्रा सम्पन्न की। शाँतिकुँज में प्राण प्रत्यावर्तन सत्र, वानप्रस्थ सत्र चले। कन्या प्रशिक्षण का कार्यक्रम संचालित होता रहा। इसके साथ ही ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की रूपरेखा भी बनती रही और एक दिन पूज्यवर ने यह घोषणा कर डाली कि वह ब्रह्मवर्चस का निर्माण करेंगे। अपने प्रारम्भिक दौर में ब्रह्मवर्चस का स्वरूप ब्रह्मवर्चस साधना आरण्यक के रूप में प्रस्तुत हुआ था। योजना यह बनी थी-कि ब्रह्मवर्चस में साधकगण रहेंगे। पू. गुरुदेव के द्वारा बतायी गई एक सुनिश्चित साधना पद्धति का निष्ठापूर्वक अनुसरण करेंगे। साधना के लिए इन साधकों को नाव से गंगा की जलधारा पार करके दिनभर टापुओं में रहने और शाम को पुनः वापस ब्रह्मवर्चस लाने की विधि-व्यवस्था भी सोची गयी थी।

परन्तु बाद में उन्होंने इसमें थोड़ा हेर-फेर कर दिया। यह हेर-फेर ब्रह्मवर्चस के मूल प्रयोजन में नहीं- बल्कि उसके स्वरूप में था। वह साधकों को अपनी ही ऊष्मा में पकाने के पक्ष में थे और यह भट्टी उन्हें ब्रह्मवर्चस से अधिक उपयुक्त और कोई नहीं लगी। शायद इसी कारण गंगा के पार जाने की योजना समाप्त कर दी गई साधना सत्र शाँतिकुँज में संचालित होते रहे और ब्रह्मवर्चस साधना आरण्यक ने प्रयोगशाला का रूप ले लिया। यद्यपि इसकी शोध का स्वरूप प्रचलित अनुसंधान-अन्वेषण की पद्धतियों से अलग था। इस प्रयोगशाला में किए जाने वाले प्रयोग अपनी तरह के अनूठे हैं।

इस विलक्षणता का जिक्र करते हुए पू. गुरुदेव अपने एक प्रवचन में स्पष्ट करते हैं- ब्रह्मवर्चस एक फैक्टरी है, एक कारखाना है, एक भट्टी है। इस भट्टी में क्या होगा ? गलाई और ढलाई। भट्टियाँ कई तरह की होती हैं। कही काँच की भट्टी है तो कहीं लोहे की भट्टी है तो कही अमुक भट्टी है। लेकिन हमने जो भट्टी बनाई है उसमें गलाई का काम और ढलाई का काम हम करेंगे। इस कारखाने में हम दो चीज तैयार करेंगे- एक तो ताकत और दूसरी बिजली, जिसके आधार पर नए युग का ढाँचा खड़ा होगा। प्रत्येक मशीन, प्रत्येक क्रिया-कलाप किसी न किसी ताकत से चलता है। कोई भी तंत्र किसी न किसी ताकत से घुमाया जाता है। ताकत न हो तो वह चलेगा ही नहीं। जिस ताकत के द्वारा नए युग के निर्माण का तंत्र चलने वाला है, क्रेन जिसके आधार पर उठा दी जाने वाली है, ड्रिलिंग मशीन जिसके द्वारा जमीन में सुराख किया जाने वाला है, यह किस ताकत से चलेगी ? बेटे, यह जिस ताकत से चलेगी वह एटामिक ताकत नहीं है वरन् वह आत्मिक ताकत है।

हम यहाँ दो तरह के आदमी बनाएँगे। एक का नाम होगा-’मनस्वी’ और दूसरे का नाम होगा ‘तपस्वी’ तो क्या आप मनस्वी और तपस्वी केवल इसी जगह बनाएँगे या और कहीं अन्यत्र भी ? नहीं बेटे, यह तो हमारी नर्सरी है। इस नर्सरी में हम छोटे-छोटे पौधे उगाएँगे और फिर उनको सारे संसार भर में भेज देंगे। हमारी यह प्रयोगशाला विश्व में अपने आप में एक अनोखी प्रयोगशाला है। यह आश्रम हमारी शुरुआती का एक केन्द्र है, जहाँ हम शिक्षण करेंगे ओर नवयुग की एक हवा पैदा करेंगे। और नवयुग की एक हवा पैदा करेंगे यह एक बहुत बड़ी फैक्टरी है जिसका प्रत्यक्ष परिणाम अगले ही दिनों आने वाला है।

पू. गुरुदेव के प्रवचन के उपरोक्त अंश में न केवल-ब्रह्मवर्चस की विशेषताएं झलकती हैं, बल्कि उसके शोध कार्य की मौलिकता की भी झलक मिलती है। यहाँ की शोध कागज, कलम, पुस्तकों, मशीनों, उपकरणों तक सीमित नहीं है। यद्यपि ये सहायक तत्व जरूर हैं ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान तो मानव प्रकृति के अध्ययन-अनुसंधान का संस्थान है। विश्व प्रकृति-परमात्म तत्व से उसके सम्बन्धों को समझने, स्वीकार करने की प्रयोगशाला है। मनुष्य में सन्निहित दिव्य क्षमताओं के जागरण का वैज्ञानिक केन्द्र है।

प्राचीनकाल की ऋषि परम्परा में शोधन, सृजन और शिक्षण की त्रिवेणी का संगम था। एकान्तवास, विशुद्ध शोध प्रयोजनों के लिए होता था। ताकि बिना बाह्य विक्षोभ के एकाग्र मनःस्थिति में अनुसंधानों का क्रियाकलाप ठीक तरह सधता रहे। भौतिक विज्ञान में भी अन्वेषण-कर्ताओं को ऐसे ही सुविधा दी जाती है। “सृजन में लोकोपयोगी सभी सत्प्रवृत्तियों का स्वरूप निर्धारण आता है। साहित्य सृजन से लेकर चिकित्सा उपचार, कला शिल्प, उपकरण, रसायन आदि के अनेक प्रयोजन विनिर्मित करना ऋषि परम्परा का दूसरा आधार रहा है। तीसरा कार्य था शिक्षण। इसमें बालकों के लिए गुरुकुल और प्रौढ़ों के लिए आरण्यक सर्वसाधारण के लिए तीर्थाटन जैसे उपाय का में लाए जाते थे।

युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करने के लिए ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में जिस अनुसंधान को सम्पन्न किया जा रहा है, उसके भी तीन पक्ष हैं। शोध प्रक्रिया में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि इन दिनों दुनिया बहुत छोटी हो गयी है। मीलों के फासले आज की संचार और वाहन व्यवस्था ने समाप्त कर दिए हैं ऐसी दशा में समर्थ प्रतिपादन वही हो सकता है जो किसी देश धर्म के लोगों की परम्पराओं को तुच्छ करने तक सीमित न हो वरन् उस प्रखरता से सम्पन्न हो जो सार्वभौम एवं सार्वजनीन बनने का दावा कर सकें। जिसे परख-परीक्षण की हर कसौटी स्वीकार हो । नवीन या प्राचीन का आग्रह न करके यहाँ सत्यान्वेषण एवं तथ्यान्वेषण पर बल दिया जाता है। ताकि भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तों की तरह इसे सर्वत्र एक स्वर से स्वीकारा जा सके।

ब्रह्मवर्चस के प्रारम्भिक दिनों से अपनी सूक्ष्मीकरण साधना में जाने से कुछ पहले तक परम पू. गुरुदेव शाँतिकुँज से पैदल चलकर यहाँ स्वयं आते थे। यह सिलसिला प्रायः प्रतिदिन का था। यहाँ का भवन निर्माण, 14 मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा, पुस्तकालय की स्थापना एवं प्रयोगशाला के स्वरूप का निर्धारण सब कुछ उन्हीं की देख-रेख में हुआ। शोध संस्थान के स्वरूप का विकास हो जाने के बाद, यहाँ आकर शोधकर्मियों का मार्गदर्शन भी स्वयं ही करते थे। आज जहाँ लाइब्रेरी है वहीं ये शोध गोष्ठियाँ हुआ करती थी।

इन गोष्ठियों में वे बताते कि भारतीय साधना विज्ञान के अंतर्गत कितनी ही शाखा-प्रशाखाएं हैं। संसार के अन्यान्य साधना-सम्प्रदायों में अपने-अपने ढंग की साधना प्रचलित हैं। अपने शोध प्रयास किसी देश या सम्प्रदाय की सीमा बन्धन में बँधे हुए नहीं हैं। इसलिए अपनी शोध का क्षेत्र विश्वव्यापी साधनाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया का परीक्षण ही होगा। भारतीय योग साधनाओं की 84 शाखाएँ है॥ 84 योगासन ही नहीं 84 योग भी हैं। इनके जो महात्म्य बताए गए हैं उनमें से कितनी अंश अभी भी सही सिद्ध होता है यह देखना है। प्रयत्नों के असफल होने का कारण क्या है? क्या उन विधानों में परिस्थितियों के अनुरूप यत्किंचित् हेर-फेर हो सकता है ? साधक की शारीरिक, मानसिक स्थिति के अनुरूप क्या शास्त्रीय विधानों में कुछ न्यूनाधिकता हो सकती है ? इनसे यदि कुछ लाभ होता है तो उसका कारण प्रमाण क्या है ? श्रम के निरर्थक जाने पर कई बार उलटी हानि हो जाने की प्रतिक्रिया क्यों होती है? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर ब्रह्मवर्चस की प्रयोगशाला में खोजना है।

पू. गुरुदेव का कहना था- कि दक्षिणमार्गी साधनाओं का सम्मान है किन्तु वाममार्गी साधनाओं को हेय वर्ग की ठहरा दिया गया है। जबकि वह भी विशिष्ट शक्तियों को उपलब्ध करने का सुनिश्चित विज्ञान है। अनैतिक आचरण वालों के उस क्षेत्र में घुस पड़ने से बदनामी छाई है अन्यथा उसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए नीति-मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़े। तन्त्र को नए सिरे से खोज करने का आवश्यकता है। मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म जैसे प्रयोग भारतीय तंत्रशास्त्र के प्रारम्भिक अध्याय हैं। कुण्डलिनी योग और चक्र बेधन तंत्र की ही एक विशेष शास्त्र है। इन प्रयोगों को रहस्यमय नहीं रहने दिया जा सकता । जब अणु शक्ति का ज्ञान और उपयोग सर्वविदित हो सकता है तो तन्त्र विज्ञान की क्षमता का परिचय प्राप्त करने से जन साधारण को वंचित क्यों रहना पड़े।

इसी प्रयोग शृंखला में यज्ञ विज्ञान का विशिष्ट स्थान है यज्ञ विज्ञान के कितने ही पक्ष हैं- यथा (1) मन्त्रोच्चार में सन्निहित शब्द शक्ति, (2) साधकों का पवित्र एवं परिष्कृत व्यक्तित्व, (3) हव्य पदार्थों में दिवरु विशेषताओं का समावेश (4) अग्नि ऊर्जा का अभीष्ट प्रयोजन में सन्तुलित उपयोग आदि। इन प्रयोजनों का शास्त्रों में उल्लेख तो है पर उनके विधानों, अनुपातों और सतर्कताओं का वैसा उल्लेख नहीं मिलता जिसके आधार पर समान उपचार बन पड़ने की निश्चिंतता रह सके। सही प्रक्रिया से अवगत न हो पाने पर सही परिणाम भी कैसे निकले। यज्ञ विद्या को साँगोपाँग बनाने के लिए शास्त्रों के साँकेतिक विधानों को हमें सर्वांगपूर्ण बनाने की आवश्यकता है। इसे भी ब्रह्मवर्चस द्वारा ही पूरा किया जाना है।

इस तरह अपनी चर्चाओं के दौरान गुरुदेव ब्रह्मवर्चस की शोध के स्वरूप को स्पष्ट करते रहते थे। सूक्ष्मीकरण की साधना के बाद उनका यहाँ आना तो नहीं हुआ पर वहीं अपने निवास पर गोष्ठी, चर्चा परामर्श द्वारा क्रिया -कलापों को संचालित करते रहते थे।उनके महाप्रयाण के बाद यह दायित्व अखण्ड ज्योति के सम्पादक के कन्धों पर आ पड़ा है। जिसे उनके सान्निध्य में ब्रह्मवर्चस की स्थापना के समय से ही रहने, प्रशिक्षण पाने का सुयोग प्राप्त हुआ है। आज इस स्थापना को 17 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इन सत्रह वर्षों में लगातार प्रयोग-परीक्षणों का क्रम अबाध गति से चलता रहा है। समय- समय पर इसके निष्कर्षों को अखण्ड ज्योति में प्रकाशित भी किया जाता रहा है। अब जिज्ञासुओं, मनीषियों, परिजनों, विज्ञानविदों के आग्रह को ध्यान में रखते हुए शोध पत्रों, रिसर्च बुलेटिन प्रकाशित करने का सिलसिला भी शुरू किया जाने वाला है। अभी इन पंक्तियों में विगत वर्षों के परिणामों को देखते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि ब्रह्मवर्चस का शोध अनुसंधान अगले दिनों समस्त मानव समाज को वर्तमान बुद्धिवाद के कुचक्र से निकालने में सहायक ही नहीं समर्थ भी सिद्ध होगा।

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