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Magazine - Year 1996 - Version 2

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ज्योति जो अगणित रूपों में प्रकाशित हो उठी

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फरवरी 1987 में प्रकाशित अखण्ड ज्योति के ‘इक्कीसवीं सदी विशेषांक’ में पहली बार परम पू. गुरुदेव ने ‘इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य’ का उद्घोष किया। इसी अंक में उनने लिखा कि- “इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए हमने स्थूल शरीर से काम लेना प्रायः बन्द कर दिया है। उसके साथ एक हलका तन्तु ही जुड़ा रखा है। जब उसकी भी आवश्यकता न रहेगी तो एक झटके से इसे भी तोड़कर अलग कर देंगे।”

बसन्त पर्व 1988 के अखण्ड ज्योति विशेषांक में ‘ज्योति फिर भी बुझेगी नहीं’ शीर्षक से एक लेख में उनने लिखा-”सोचा जाता है कि गुरुजी 80 वर्ष का आयुष्य पूरा करना चाहते हैं। इस महाप्रयाण का समय अब दूर नहीं है। हाथ के नीचे वाले अनिवार्य कामों को जल्दी -जल्दी निपटाने की बात बनते ही चार्ज दूसरों के हाथों चला जाएगा। सन्देह हो सकता है कि उस दशा में वर्तमान प्रगति रुक सकती है और व्यवस्था बिगड़ सकती है ऐसे लोग व्यवस्था में आने वाले उतार-चढावों के आधार पर अनुमान लगाते हैं। वस्तुतः यह मिशन तन्त्र बाजीगर द्वारा संचालित है। वही जहाँ कोई गड़बड़ी होते देखेगा उसे तत्परतापूर्वक सुधारेगा। आखिर लाभ हानि भी तो उसी की है। मिशन के भविष्य के सम्बन्ध में भी हर किसी को इसी प्रकार सोचना चाहिए और निराशा जैसे अशुभ चिन्तन को पास नहीं फटकने देना चाहिए।

“ऊपर की पंक्तियों से स्पष्ट है कि वे अपने दृश्य कार्यों को एक पूर्व निर्धारित, अवधि में समेट रहे थे, ताकि अपने भावी उत्तरदायित्व को सूक्ष्म शरीर के निष्प्राण होने के उपरान्त जो चर्मचक्षुओं से हमें देखना चाहेंगे, वे इसी अखण्ड ज्योति की जलती लौ में हमें देख सकेंगे एवं यह आश्वासन हम देते हैं कि यह ज्योति कभी बुझेगी नहीं” जैसे शब्दों से उन्होंने भावुक परिजनों को आश्वासन भी दे दिया था कि वे स्वयं को सँभाले व भावी सुनिश्चितता तो समझते हुए सौंपे दायित्वों को पूरा भर करते चलें।

बसन्त पर्व 1988 में प्रकाशित इन पंक्तियों को पढ़कर सभी को लगा कि पू. गुरुदेव पुनः दर्शन देना सम्भवतः बन्द कर देंगे। शरीर त्याग की बात तो किसी के मन में भी नहीं थी और न कोई इन शब्दों का भावार्थ ही समझ पाया था। लगभग दस हजार निकटवर्ती परिजनों का समूह पुनः शाँतिकुँज आ गया । शिवरात्रि पर एकत्रित इस वर्ग के एक विशेष सत्र को मिनी बसन्त पर्व की उपमा दी गई व आश्वासन पूरा निभाएँगे, किन्तु उन्हें समीप से, गहराई से जानने वाले भलीभाँति समझ रहे थे कि प्रत्यक्षतः स्वास्थ्य बहुत अच्छा दिखते हुए भी अब वे जिन्दगी का अन्तिम महत्वपूर्ण अध्याय सम्पन्न कर रहे हैं। यही कारण है कि सन् 1990 की बसन्त पंचमी पर जब उनने अंतिम दर्शन व अन्तिम बसन्त पंचमी की बात कही तो सूक्ष्म दृष्टि वालों ने उसका अर्थ तुरन्त समझ लिया। सतयुग की वापसी, नवयुग का मत्स्यावतार एवं नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी जैसी पुस्तकों में वे पहले ही संकेत दे चुके थे कि वे अब सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर से सक्रिय होने जा रहे हैं। ये सभी पुस्तकें 1988 के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित हो चुकीं थीं। जिनने उन्हें गहराई से पढ़ा, वे युग परिवर्तन का मर्म, गुरुसत्ता के वास्तविक स्वरूप व उनकी उस निमित्त भावी तैयारी हेतु तत्परता समझ रहे थे।

‘नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी’ पुस्तक में उन्होंने लिखा-”अब जीवन का दूसरा अध्याय आरम्भ होता है। अब इसमें जो होना है उसे और भी अधिक महत्वपूर्ण, मूल्यवान माना जा सकता है। स्थूल के अतिरिक्त सूक्ष्म व कारण शरीरों का अस्तित्व अध्यात्म विज्ञानी बताते रहे हैं। उन्हें स्थूल शरीर की तुलना में असंख्य गुना अधिक शक्तिशाली कहा गया है। उन्हीं का प्रयोग अब एक शताब्दी तक किया जाना है। यह कार्य सन् 1990 के बसन्त पर्व से आरम्भ किया जा रहा है। यहाँ से लेकर सन् 2000 तक दस वर्ष युग सन्धि का समय है। परिजन देखेंगे कि इस अवधि में जो गतिविधियाँ चलेंगी, उसका केन्द्र शाँतिकुँज हरिद्वार होगा।”

यहीं प्रसंग ‘बसन्त पर्व पर महाकाल का संदेश’ नाम से प्रकाशित हुआ। जिसमें परिजनों को उनने उसी ब्रह्मकमल खिलने व अपने जीवन का प्रथम अध्याय समाप्त होने की बात कही। यही प्रसंग मार्च 1990 अखण्ड ज्योति के सम्पादकीय एवं अप्रैल 1990 की पत्रिका में हमें क्या करना होगा।’ के अंतर्गत दिए गए। ‘हम बिछुड़ने के लिए नहीं जुड़े हैं’ शीर्षक लेख में उनकी लेखनी से प्रकट हुआ-”दृश्य शरीर रूपी गोबर की मषक चर्म चक्षुओं से दिखे, विशेष प्रयोजनों के लिए नियुक्त किया गया प्रहरी अगली शताब्दी तक पूरी जागरुकता के साथ अपनी जिम्मेदारी वहन करता रहेगा” आगे के शब्द हैं- “शांतिकुंज परिसर में संचालक अपना सूक्ष्म शरीर, अदृश्य अस्तित्व बनाए रखेंगे। आने वाले रहने वाले, अनुभव करेंगे कि उनसे अदृश्य, किन्तु समर्थ प्राण प्रत्यावर्तन और मिलन, आदान-प्रदान भी हो रहा है। इस प्रक्रिया का लाभ अनवरत रूप से जारी रहेगा।

कहने-सुनने, करने-कराने की प्रक्रिया चलती रहने के सम्बन्ध में इस बसन्त पर्व पर उपस्थित परिजनों से जब ऊपर से उतरे आदेश के अनुसार यह कहा था कि हममें से कोई किसी से अगले दिनों बिछुड़ न सके । जो प्रसाद और उपेक्षा बरतेगा, उसे शाँतिकुँज की संचालक शक्ति झकझोरती, उनके कान उमेठती और बाधित करती रहेगी। हर व्यक्ति सक्रिय रहकर ही चैन से बैठ सकेगा। कहा भले ही अलंकारिक भाषा में गया हो, पर इसे एक सच्चाई मानकर चलना चाहिए कि एक ऐसे सशक्त सूत्र मजबूती के साथ परस्पर बँधे है, जो बिछुड़ने देने की स्थिति आने नहीं देंगे। भले ही हम लोगों में से किसी का दृश्यमान शरीर रहे या न रहे।”

उपरोक्त आश्वासन में एक चेतावनी भी थी व दिलासा भी। इतना सब स्पष्ट होते हुए भी सहज मोहवश किसी को भी यह कल्पना न थी कि वे स्थूल शरीर का चोला यों उतार फेकेंगे। बसन्त पर्व पर प्रत्यक्ष मिलन क्रम बन्द होने के बावजूद 30 अप्रैल, 90 को उन्होंने निकटवर्ती कार्यकर्त्ताओं की एक विशेष गोष्ठी बुलाई। इसमें ब्रह्मबीज के ब्रह्मकमल में विकसित होने एवं उसकी सुवास कोने-कोने तक पहुँचाने के लिए 7,8 जून को जेष्ठ पूर्णिमा के अवसर पर भोपाल, कोरबा, मुजफ्फरपुर, अहमदाबाद, लखनऊ, जयपुर इन छह महानगरों में 6 विशाल ब्रह्मदीप यज्ञ के आयोजन की बात कही, तो सम्भवतः औरों को उनके इस अन्तिम अध्याय पर शीघ्र पर्दा गिरने की बात मन में भी नहीं आयी होगी, किन्तु वन्दनीया माताजी एवं उनके समीपवर्ती सहयोगियों को भली-भाँति समझ में आ रहा था कि वे लक्ष्य निर्धारित कर चुके हैं। उनको बसन्त पर्व पर ही बता दिया गया था कि गायत्री जयन्ती तक ही उनका दृश्य अस्तित्व है। उसके बाद वे सूक्ष्म व कारण शरीर को और सक्रिय बनाने के लिए परोक्ष जगत में विचरण कर जाएँगे। गायत्री जयन्ती तक वे क्रमशः अपनी चेतना को समस्त अंगों से सिकोड़ना चालू रखेंगे ताकि इच्छानुसार जब चाहें शरीर छोड़ दें।

इतना होने पर भी मन में यह आश्वासन था कि जून की पूर्णिमा के ब्रह्मयज्ञों का निर्धारण उन्हीं का है। तब तक तो उन्हें सशरीर रहना ही है। सम्भवतः हम सबको पक्का करने के लिए यह बात कही गयी है, किन्तु 8 मई को उनने यह कहकर कि प्रस्तुत पूर्णिमा के कार्यक्रम श्रद्धाँजलि कार्यक्रम होंगे। वे अपना शरीर माँ गायत्री के अवतरण के पुण्य दिन, गायत्री जयन्ती पर उन्हीं की गोद में सिर रखते हुए महाप्रयाण कर जाएँगे, सब कुछ स्पष्ट कर दिया।

महापुरुषों की लीला अपरम्पार होती है। स्थूल दृष्टि उन्हें भले ही समझ न पाए किन्तु जो उन्हें समीप से देख चुके हैं, अपने सान्निध्य में जिनको उनने विगत छह-सात सालों को पूरी अवधि में रखा उनको यह लीला समझ में आ रही थी। इस बीच उनने मिशन की भावी रीति-नीति सम्बन्धी स्पष्टीकरण, कार्यकर्ताओं के दायित्व तथा सूत्र-संचालन सता संबंधी महत्वपूर्ण निर्देश देते रहने का क्रम बनाए रखा। उनने बार-बार यही कहा कि-”यह काम भगवान का है, अवतार चेतना का है। अतः कभी रुक नहीं सकता। सूक्ष्म व कारण शरीर से वे क्रमशः भारत एवं विश्वभर में सक्रिय होते हुए मूर्धन्यों को झकझोरेंगे एवं युगचेतना के आलोक को आगामी दस वर्षों में ही पूरे भारत एवं विश्वभर में संव्याप्त कर देंगे । ब्रह्मकमल जब परिपक्व स्थिति में पहुँचकर विभाजित होता है तो अनेक ब्रह्मबीज अपने पीछे छोड़ जाता है। हमारे संपर्क में प्रत्यक्ष रूप से आए पच्चीस लाख कार्यकर्त्ता एवं इनसे भी सौ गुना अधिक थे जो अगले दिनों जुड़ेंगे हमारा मार्गदर्शन सतत् प्राप्त करते रहेंगे, क्योंकि अब हम उनके और अधिक निकट आ गए हैं। प्रत्यक्षतः वन्दनीया माताजी आने वाले चार वर्षों के लिए सारे क्रिया-कलापों का संचालन कर शाँतिकुँज को एक विश्वविद्यालय का रूप देंगी, जहाँ हमेशा-हमेशा नियमित रूप से साधना अनुदान के वितरण ममत्व भरे मार्गदर्शन एवं कौशल प्रशिक्षण का क्रम चलता रहेगा।

उनके इन अन्तिम दिनों में समीप रहने वाले इस पत्रिका के सम्पादक को ये निर्देश नोट कराए जाते रहें। 25 मई से गुरुदेव ने भोजन व जल दोनों ही लेना बन्द कर दिया। कृत्रिम माध्यम से देने का प्रयास करने पर उनने समझाया कि वे स्वेच्छा से यह सब कर रहे हैं। उनके निर्देशानुसार कोई अतिरिक्त प्रयास फिर नहीं किया गया। 2 जून-गायत्री जयन्ती की प्रातःकाल का समय था। ब्रह्ममुहूर्त था वन्दनीया माताजी को, परिजनों का क्या कहना है एवं आगे कैसे कार्य करना है, यह निर्देश उनने दिये एवं फिर दोनों से अन्तिम विदाई ली। दोनों को दृश्य शरीर से पृथक होने की अनुभूति हो रही थी, किन्तु स्वयं पर वज्र रख वन्दनीया माताजी अपने आराध्य का संदेश सुनाने नीचे चली आयीं। जैसे ही युग संगीत की प्रथम पंक्ति पूज्यवर के कक्ष में पहुँची-”माँ तेरे चरणों में हम शीश झुकाते हैं”- उनके हाथ नमन की मुद्रा में ऊपर उठे एवं हृदय की धड़कन बन्द हो गयी। 2 जून, 1990 की प्रातः 8 बजकर 5 मिनट पर इस स्थूल काया से प्राण विसर्जित हो महाप्राण में विलीन हो गए। उस दिन भी शाँतिकुँज के सारे कार्यक्रम उनके निर्देश के अनुसार यथावत् चल रहे थे। प्रणाम समापन के बाद वन्दनीया माताजी स्वयं दर्शनार्थ ऊपर आयीं। अपने आराध्य का स्थूल शरीर ही उनके समक्ष था। प्राणों का विसर्जन जब हुआ, तब उन्हें सूक्ष्म रूप से संदेश भी प्राप्त हो गया था। उनके निर्देशन में पूज्यवर की पार्थिव काया को नीचे के हाल में लाकर रखा गया।

अन्तिम दर्शन का दृश्य सभी के अन्तःकरण को विदीर्ण करने वाला था। सभी ने अपनी पुष्पाँजलि अर्पित की । उस वातावरण में भी सबको एक विचित्र अनुभूति होती रही कि वे आश्वासन दे गए हैं तो ज्योति बुझ कैसे सकती है? हम सभी अपने कर्तव्य द्वारा ज्योति को सतत् जलाए रखेंगे। शाम का पार्थिव शरीर जो फूलों से सजा था, शाँतिकुँज आश्रम में स्थित प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा के समझ ले जाया गया उनके दोनों पुत्रों एवं दौहित्र द्वारा अग्नि को समर्पित कर दिया गया। वन्दनीया माताजी जो सजल श्रद्धा की साकार मूर्ति हैं, पूरे समय वहीं बैठी सबका मनोबल बढ़ाती रहीं। जीवन भर जिसने ममत्व की धार बहाई थी। अपना सब कुछ मिटाकर स्नेह करुणा की जलधारा बहाकर उस सरिता में अगणितों को स्नान करा जिसने उन्हें पवित्र बना दिया था, वह युगऋषि, युगद्रष्टा, अब वहाँ भस्म एवं वह ताप जिसमें वह लाखों व्यक्तियों को तपाकर कुन्दन बनने की प्रेरणा दे गया।

पूज्यवर के महाप्रयाण का समाचार 2 जून को टी.वी., समाचार पत्रों, आकाशवाणी से लोगों तक पहुँचा। दिनाँक 3 जून को लोग स्तब्ध, किंकर्तव्यविमूढ़ रहे। 4 तारीख को लगा कि जैसे सभी के मस्तिष्कों को महाप्रज्ञा ने अपने नियंत्रण में ले लिया और विछोह की वेदना एकबारगी प्रिय की प्रसन्नता के लिए प्रचंड पुरुषार्थ के रूप में सक्रिय हो उठी। वेदना के आँसू आँखों में डबडबाए तो रहे, लेकिन बहे वे पसीना बनकर। उनके प्रति उमड़ा स्नेह ब्रह्मदीप यज्ञ के कोटि-कोटि दीपकों में ज्योतित हो उठा। ऐसा लगा पूज्यवर की चेतना अनन्त रूपों में प्रकाशित हो उठी है। पूज्य गुरुदेव के जाने के बाद क्या होगा? यह प्रश्न लोगों के मुँह का मुँह में ही रहा गया। आशंका के स्वर प्रशंसा में बदल गए। इतिहास जब कभी इस सबका मूल्याँकन करेगा, तो सम्भवतः पूज्यवर के महाप्रयाण की इस योजना को अलौकिक एवं अद्वितीय ही कहेगा।

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