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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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साधना का सामूहिक पराक्रम स्वर्ण जयन्ती साधन वर्ष।

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सन् 1926 की बसन्त पंचमी को साधना की जो दीपशिखा प्रज्ज्वलित हुई थी, उसने 1976 में अपने पचास वर्ष पूरे कर लिए। इन पचास वर्षों में पूज्यवर का जीवन अनेक अलौकिक अनुभूतियों से गुजरा था। अखण्ड दीपक के आलोक में अनगिनत प्रेरणाएँ उनके अर्न्तगगन में उतरी थीं। इन पचास सालों में न सिर्फ दीपशिखा अखण्डित रही, बल्कि साधना का क्रम भी अखण्डित रहा। आँवलखेड़ा की छोटी-सी कोठरी में प्रज्वलित किया गया दीपक, अपने मथुरा निवास की अवधि पुरी करके अब तक शाँतिकुँज में प्रतिष्ठित हो चुका था। इस बीच वन्दनीया माता जी के भी 24 महापुरश्चरण इसी के आलोक के समक्ष सम्पन्न हो चुके थे।

अपनी साधना के इस पचासवें वर्ष में पूज्य गुरुदेव के शिष्य वत्सल अन्तःकरण में एक नया संकल्प उभरा-अब तक की अर्जित तप सम्पदा का सामूहिक वितरण। यूँ उनका जीवनक्रम अर्जन एवं वितरण का सतत् प्रवाह रहा है। पर अभी तक वितरण की प्रणाली प्रायः वैयक्तिक ही रही थी। अनेक लोग समय-समय पर उनके सान्निध्य में आकर अपनी कष्ट-कठिनाइयों, पीड़ा-परेशानियों से मुक्ति पाते रहे थे। कइयों ने उनसे आध्यात्मिक उपलब्धियों के अनुदान, वरदान भी पाए थे, पर यह था प्रायः वैयक्तिक ही । यदा-कदा यदि इसका सामूहिक स्वरूप उभरा भी तो कुछ सत्रों और शिविरों के माध्यम से। जो गायत्री परिवार की व्यापकता को अपने में एक साथ समेटने में असमर्थ रहा।

इसी कमी को पूरा करने के लिए शिष्य वत्सल गुरुदेव ने सन् 1976 की स्वर्ण जयन्ती साधना वर्ष घोषित करते हुए कहा- ‘स्वर्ण जयन्ती वर्ष, साधना वर्ष होगा। इसमें एक लाख निष्ठावानों को साधनात्मक मार्गदर्शन एवं सहयोग देने का निश्चय किया है। यह संख्या देखने भर में बड़ी है पर वस्तुतः अपने लिए बहुत छोटी है। लगभग इतने ही अखण्ड ज्योति पत्रिका के नियमित सदस्य हैं। उन्हें तथा उनके परिवार वालों को सहज ही इसमें उत्सुकता हो सकती है। कुछ अन्य लोग भी ऐसे हो सकते हैं जो पत्रिका के नियमित सदस्य नहीं हैं। इन सब इच्छुकों में से काँट-छाँट करके ही एक लाख की संख्या सीमित करनी पड़ेगी। संख्या का सीमा बन्धन इसलिए है कि उस मण्डल में सम्मिलित लोगों का न केवल मार्गदर्शन करना वरन् सहयोग भी देना है।

“और यह साधनाक्रम इस वर्ष के बसन्त पर्व यानि 5 फरवरी सन् 76 गुरुवर से शुरू किया गया। इसकी अवधि प्रतिदिन 45 मिनट की निर्धारित की गई। ये 45 मिनट सूर्योदय के पूर्व के 45 मिनट थे। समय की नियमितता अनिवार्य थी। उसके लिए सभी से अनुरोध किया गया था कि सूर्योदय का समय प्रायः हर महीने बदलता रहता है। इसलिए घड़ी के हिसाब से हर महीन पंचाँग देखकर अपनी साधना के क्रम को सुचारु रूप से चलाया जाय।

एक समय में एक जैसी मानसिक क्रिया की सूक्ष्म विज्ञान के अनुसार अन्तरिक्ष में जो विशेष प्रतिक्रिया होती है, वह बिखराव की स्थिति में सम्भव नहीं। एक लाख साधक प्रस्तुत विशिष्ट उपासना के समय, क्रिया और भावना की दृष्टि से एकता, एकात्मता को आधार मानकर जब अपना क्रम पूरा। स्वर्ण जयन्ती साधना वर्ष घोषित करते हुए कहा- “ स्वर्ण जयन्ती वर्ष, साधना वर्ष होगा। इसमें एक लाख निष्ठावानों को साधनात्मक मार्गदर्शन एवं सहयोग देने का निश्चय किया है। यह संख्या देखने भर में बड़ी है पर वस्तुतः अपने लिए बहुत छोटी है। लगभग इतने ही अखण्ड ज्योति पत्रिका के नियमित सदस्य हैं। उन्हें तथा उनके परिवार वालों को सहज ही इसमें उत्सुकता हो सकती है। कुछ अन्य लोग भी ऐसे हो सकते हैं। जो पत्रिका के नियमित सदस्य नहीं हैं इन सब इच्छुकों में से काँट-छाँट करके ही एक लाख की संख्या सीमित करनी पड़ेगी। संख्या संख्या सीमित करनी पड़ेगी। संख्या का सीमा बन्धन इसलिए है कि उस पंडाल में सम्मिलित लोगों का न केवल मार्गदर्शन करना है वरन् सहयोग भी देना है।

“और यह साधनाक्रम इस वर्ष के बसन्त पर्व या दिन 5 फरवरी सन् 76 गुरुवार से शुरू किया गया। इसकी अवधि प्रतिदिन 45 मिनट की निर्धारित की गई। ये 45 मिनट की सूर्योदय के पूर्व के 45 मिनट थे। समय की नियमितता अनिवार्य थी। उसके लिए सभी से अनुरोध किया था कि सूर्योदय का समय प्रायः हर महीने बदलता रहता है। इसलिए घड़ी के हिसाब से हर महीने पंचाँग देखकर अपनी साधना के क्रम को सुचारु रूप से चलाया जाय।

एक समय में एक जैसी मानसिक क्रिया की सूक्ष्म विज्ञान के अनुसार अन्तरिक्ष में जो विशेष प्रतिक्रिया होती है, वह बिखराव की स्थिति में सम्भव नहीं एक लाख साधक प्रस्तुत विशिष्ट उपासना के समय, क्रिया और भावना की दृष्टि से एकता, एकात्मता को आधार मानकर जब अपना क्रम पूरा करते होंगे तो उसमें निश्चित रूप से असामान्य शक्ति उत्पन्न होती होगी। इस उपासनाक्रम में गायत्री मंत्र का अनिवार्य होना इसकी विशिष्टता को और अधिक बढ़ देता है।

इस साधनाक्रम में जो सबसे विशेष बात थी। उसका उल्लेख करते हुए उनके शब्द हैं- “ हमारा स्वयं का अनुभव इसी साधनाक्रम का है। उसके सभी उतार-चढ़ावों का हमें ज्ञान है। अस्तु, उसी को सन् 76 के साधना वर्ष के लिए निर्धारित किया है। हम प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में मार्गदर्शन और सहयोग करेंगे,साथ ही हमारी बागडोर सँभालने वाली शक्ति के द्वारा इस मण्डली पर विशेष प्रकाश-प्रेरणा मिलने का लाभ मिलता रहेगा। यह सब सूक्ष्म व्यवस्था बन जाने पर ही इस संघ साधना का उपक्रम किया गया है।

“पैंतालीस मिनट के इस साधनाक्रम में 15 मिनट अन्य साधनाओं के लिए और 30 मिनट गायत्री जप के लिए निर्धारित किए गए थे। औसतन इस अवधि में 600 मंत्र जपे जाने से कुल संख्या 6 करोड़ होती है। वर्ष में यह संख्या 6 करोड़ होती है। वर्ष में यह संख्या 360फ्6=2160 करोड़ हो जाती है। इन्हीं साधकों में से जिन्हें सुविधा हो उनसे चैत्र और आश्विन नवरात्रिय जप 240 करोड़ हो जाता है। इस प्रकार कुल मिलाकर 2400 करोड़ जप की यह एक वर्ष की संयुक्त जप संख्या हुई। यह अपनी तरह का एक अभूतपूर्व अनुष्ठान था। इतनी बड़ी संख्या में सुनियोजित साधनाक्रम की संघशक्ति से जुड़ी हुई साधना अब तक कभी कदाचित् ही हुई हो। एक दिन में 6 करोड़ गायत्री जप होने का अर्थ है 24 लक्ष के 24 महापुरश्चरणों का प्रतिदिन सम्पन्न होना।

पू. गुरुदेव ने इसके द्वारा उत्पन्न विशेष चेतना का प्रयोग युग सन्धिकाल की उलझी परिस्थितियों को सुलझाने में किया। सम्मिलित होने वालों को इसमें अपनी तरह का लाभ मिला। अलग-अलग, छोटे-छोटे दीपक जलाने की अपेक्षा उन बिखरे साधनों को इकट्ठा करके एक बड़ी मशाल के रूप में जलाया जाय तो उससे अधिक गर्मी का लाभ एकत्रित होने वालों में से प्रत्येक को मिलता है। सहकारिता और संघ शक्ति का लाभ जड़ और चेतन दोनों ही क्षेत्रों में अति स्पष्ट है। अल्प बचत के अनुसार थोड़ा-थोड़ा पैसा जमा करके एक केन्द्र के हाथों सौंप दिया जाय तो उससे अधिक ब्याज भी मिलता है और देश के उद्योगों में भी उस धन से विशेष सहायता मिलती है। अलग-अलग कुछ करते रहने वाले डेढ़ ईंट की अलग मस्जिद बनाते रहने के कारण घाटे में ही रहते हैं। इस साधना मण्डल में सम्मिलित होने वाले हर साधक ने अपना लाभ भी अनेक गुना बढ़ा लिया और छाये हुए अन्धकार का निवारण कर सकने वाला प्रकाश उत्पन्न करने में अपनी विशिष्ट भूमिका भी निभा सके।

स्वर्ण जयन्ती वर्ष की साधना पद्धति का क्रम कुछ इस प्रकार था-

1- सूर्योदय का ठीक समय मालुम कर उससे 45 मिनट पूर्व साधना में बैठना अनिवार्य था। बैठने से पूर्व स्नान और धुले वस्त्रों को पहनने जैसी बातों पर भी ध्यान देना आवश्यक था।

2- पूजा की चौकी छोटी हो । उस पर पीले रंग का वस्त्र बिछा रहे। मध्य में गायत्री माता का चित्र, बाई ओर छोटी लुटिया में पानी भरकर जल कलश, दाहिनी और अगरबत्ती स्टेण्ड। मध्य में एक छोटी तश्तरी पूजा-उपकरण चढ़ाने के लिए स्थापित की जाय।

3- आसन के लिए कुष या चटाई ही पर्याप्त मानी गयी। पालथी मानकर सुखासन से सीधी कमर रखकर बैठ जाना था।

4- समस्त पूजा-उपचार में एक गायत्री मंत्र का ही प्रयोग किया जाना था।

5- गायत्री मंत्र में कई लोग कई-कई ॐ लगाते हैं। इस स्वर्ण जयन्ती साधनाक्रम में एक ही ॐ का प्रयोग करना था। अर्थात् ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। यही जाप का सर्वमान्य मंत्र था।

6- उपासना क्रम को छह भागों में इस प्रकार विभक्त किया गया था-(अ) आत्मशोधन के लिए षट्कर्म (आ) प्रतीक पूजा- उपचार (इ) सोऽहम् प्राणयोग (ई) गायत्री जप और ध्यान (उ) खेचरी मुद्रा (ऊ) सूर्य अर्घ्यदान।

(अ) आत्मशोधन में पवित्रीकरण, आचमन, शिखाबन्धन, प्राणायाम, न्यास एवं पृथ्वी पूजन यही षट्कर्म अनिवार्य थे।

(आ) देव पूजन-गायत्री माता के चित्र के समक्ष भावभरे मन से मन ही मन गायत्री मंत्र बोलते हुए जल, अक्षत, नैवेद्य, चन्दन, पुष्प समर्पित करना ही देव पूजन के लिए पर्याप्त था।

आत्मशोधन एवं देवपूजन के इन दोनों कृत्यों से गायत्री परिवार के सभी सदस्य परिचित हैं। इस क्रम की विशिष्ट साधनाएँ थी सोऽहम् प्राण योग, विशेष ध्यान के साथ गायत्री जप एवं खेचरी मुद्रा।

सोऽहं प्राणयोग के लिए बायाँ हाथ नीचे दांया हाथ ऊपर गोदी में नेत्र अधखुले। साँस धीरे-धीरे दोनों नासिका छिद्रों से खींची जाय। नथुने बन्द करने या खोलने की इसमें आवश्यकता नहीं होती । धीरे-धीरे साँस खींचते हुए फेफड़े वायु से भरने के साथ ही यह ध्यान करे कि अखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राण तत्व साँस के साथ खिंचकर अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है। प्रवेश के समय ‘सो’ को सीटी जैसी ध्वनि होती है। पूरी साँस भर जाने पर उसे रोके नहीं वरन् धारे-धीरे बाहर निकालना आरम्भ कर दें। इस विसर्जन के साथ हम् की फुंसकार जैसी भावना करे।

यह तीन अनुदान सविता देव सूक्ष्म शरीर को प्रदान करते हैं।

कारण शरीर का केन्द्र दोनों पसलियों के जोड़ पर आमाशय स्थान पर अवस्थित हृदय केन्द्र में है। यह आध्यात्मिक हृदय शरीर में धड़कने वाले रक्त के थैले से भिन्न हैं इसे विष्णुग्रन्थि अथवा सूर्यचक्र कहते हैं। यहाँ होकर प्रज्ञा पुँज सविता देवा कारण शरीर में प्रवेश करते हैं। और उच्चस्तरीय आदर्शवादी आस्था आत्मज्ञान से प्रभावित देव उमंगें आत्मीयता, करुणा, उदारता, अनुदान रूप में प्रदान करते हैं।

अपनी सारी सत्ता सूर्य पिण्ड जैसी ज्योतिर्मय हो रही है। अज्ञानान्धकार मिट रहा है। उसके साथ रहने वाली अनेक कुत्साएँ, कुँठाएँ पलायन कर रही हैं। भीतर सद्भावनाओं की और बाहर सत्प्रवृत्तियों की हिलोरें उठ रही हैं। ज्योतिर्मय आत्मसत्ता अपने आलोक से सारे वातावरण को प्रकाशवान बना रही है।

जप के साथ उपरोक्त ध्यान जप की प्रक्रिया को पूर्ण बनाता है। ध्यान के समय आंखें लगभग बन्द ही रखी जायँ। अधखुले नेत्र में भी पुतली ऊपर ही रखनी पड़ती है। ताकि बाहर के दृश्य ध्यान में बाधा न डालें।

ध्यान मिश्रित जप का आधा घण्टा पूरा हो जाने

पर अन्त में खेचरी मुद्रा का सम्पुट इस साधना का अनिवार्य अंग था। इसके लिए पाँच मिनट पर्याप्त माने गए थे। इस प्रक्रिया के लिए जीभ का उलट कर तालू से लगाएँ। ध्यान करें ब्रह्मलोक में, मस्तिष्क में भरा पड़ा है। जीवसत्ता की प्रतीक जिह्वा को ब्रह्मसत्ता के प्रतिनिधि तालू से स्पर्श कराया जा रहा है। इस दिव्य समागम में आनन्द एवं उल्लास की अनुभूति होती है। बछड़ा जिस प्रकार अपनी माता का दूध पीता है। अनुभव करना चाहिए कि ब्रह्मचेतना की कामधेनु का सोमरस, पयपान, जैसी जीवात्मा द्वारा किया जा रहा है और उससे नवजीवन की उपलब्धि हो रही है।

ध्यान मिश्रित जप इस साधनाक्रम की मध्यवर्ती मुख्य प्रक्रिया थी उसके आदि में सोऽहं प्राणयोग का बीज और अन्त में खेचरी मुद्रा का सम्पुट लगा हुआ था। इन चारों के मिलने से यह एक पूर्ण साधना पद्धति बन गयी थी। इस साधना यज्ञ की पूर्णाहुति सूर्यार्घ के रूप में इस भाव के साथ सम्पन्न करने का निर्देश था, जैसे अग्निहोत्र की पूर्णाहुति घृत की धार वसोधारा चढ़ाते हुए की जाती है।

सूर्योदय के समय 45 मिनट तक किये जाने वाले इस दैनिक उपासनाक्रम के साथ प्रातः आँख खुलते ही 15 मिनट का आत्मबोध चिन्तन-जिसमें यह मान्यता चित्र मस्तिष्क में अधिकाधिक स्पष्टता के साथ जमानी होती है कि आज का एक दिन पूरे जीवन की तरह है इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाना चाहिए। समय का एक क्षण न तो व्यर्थ गँवाया जाना चाहिए और न अनर्थ कार्यों में लगाया जाना चाहिए। सोचा जाना चाहिए कि ईश्वर ने अन्य किसी जीवधारी को वे सुविधाएँ नहीं दीं जो मनुष्य को प्राप्त हैं। यह पक्षपात या उपहार नहीं वरन् विशुद्ध अमानत हैं जिसे उत्कृष्ट आदर्शवादी रीति-नीति अपनाकर पूर्णता प्राप्त करने, स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द इसी जन्म में लेने के लिए दिया गया है। यह प्रयोजन तभी पुरा होता है जब प्राप्त क्षणों का योजनाबद्ध रूप से सदुपयोग किया जाय।

तत्वबोध के रूप में सोते समय ईश्वर की अमानतें ईश्वर को सौंपने और स्वयं खाली हाथ प्रसन्नचित विदा होने की निद्रा देवी की गोद में जाने की बात सोचनी होती है। रात्रि को सोते समय मृत्यु का चिन्तन, आत्म-निरीक्षण, पश्चाताप और कल के लिए सतर्कता-वैरागी एवं संन्यासी जैसी हल्की-फुलकी मनः- स्थिति लेकर शयन करने से दुर्भावनाएँ एवं दुर्वासनाएँ अपने आप पीछा छोड़ देती हैं।

स्वर्ण जयन्ती वर्ष की यह साधना पद्धति समग्र जीवन साधना के रूप में एक लाख साधकों द्वारा निष्ठापूर्वक अपनायी गई। नैष्ठिक साधकों में से प्रायः सभी ने वैयक्तिक एवं सामाजिक स्तर पर अनेक सफलताएँ अर्जित कीं, अनगिनत दोषों से छुटकारा पाया। सबसे भारी लाभ तो आत्मिक उत्कर्ष का रहा, जो उन्हें अपनी मार्गदर्शक सत्ता एवं हिमालय से आती शक्तिधाराओं से जुड़ने, एकात्म होने से मिला। गूँगे के गुड़ की भाँति इस स्वाद को आज भी अनेक रसासिक्त होकर अनुभव करते हैं।

साधकों के वैयक्तिक उत्कर्ष के अलावा इस साधनात्मक पुरुषार्थ के देशव्यापी परिणाम भी अनुभव किए गए। उन दिनों समूचा राष्ट्र इमरजेन्सी की कैद में जकड़ा हुआ था शासकों की, स्वार्थपरता की रीति-नीति ने सारे देश को कारागार में बदल दिया था। उन्हीं दिनों क्षेत्र से आए एक परेशान कार्यकर्त्ता ने अपनी विपत्ति गुरुदेव को सुनायी तो उनका जवाब था-” तुम्हें जो बताया गया है उसे करते रहो- स्थिति परिवर्तित होगी, वर्तमान शासकों को सबक मिलेगा। तुम लोगों की साधना का लाभ सारे देश को मिलेगा। “ हुआ भी कुछ ऐसा ही-1977 में सारे देश ने राहत की साँस ली। हवाएँ मुक्त हुई फिजाएँ बदली हालाँकि जिन्हें अवसर दिया गया था वे अपनी कुप्रवृत्तियों के कारण उसे बरकरार न रख सके। परन्तु इस बीच जिन्हें सबक सिखाया गया था वे अपनी भूल सुधार चुके थे। साधना के इस सामूहिक पराक्रम ने उस विशेष सामूहिक साधना की भी पृष्ठभूमि तैयार की, जिसे युग सन्धि महापुरश्चरण नाम दिया गया। जो अपनी परिणति उज्ज्वल भविष्य के रूप में करने जा रही है।

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