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Magazine - Year 1996 - Version 2

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Language: HINDI
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ऐसे सम्पन्न हुई वन्दनीया माताजी की तप -साधना

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अंतिम बार हम सब एक बार और मिल लें ‘ शीर्षक से मार्च 1971 की अखण्ड ज्योति में प्रकाशित सम्पादकीय में प. पूज्य गुरुदेव ने लिखा- “हमारे जाने के दिन अति निकट आ गये है। अति महत्वपूर्ण कार्य पूरा करने के लिए हमें जाना पड़ रहा है ।’ परम पूज्य गुरुदेव जैसी सत्ता, जिसके लिये मथुरा रहकर भी वह सब कुछ कर पाना सम्भव था जो उनने हरिद्वार में किया, तथापि यदि यह सत्य है कि आत्मविद्या की शून्यता और दिग्भ्रान्तिओं के उपचार निवारण हेतु एवं ब्रह्मवर्चस सम्पन्न व्यक्तियों को उभारने के लिए उन्हें जीवन के अंतिम चरण में तप,पूत वातावरण की आवश्यकता पड़ेगी और इसी कारणवश वे स्थान परिवर्तन करने जा रहे थे, तो शाँतिकुँज की स्थापना का मूल मर्म समझ में आ जाता है । गुरुदेव ने लिखा -” हम पर विश्वास किया जाना चाहिए कि हम दूसरे बाबाजियों की तरह अकर्मण्यता से दिन नहीं काटेंगे ओर विष्वष् मान के प्रति अपने कर्त्तव्य को उपेक्षा में नहीं बदलेंगे । जब तक हमारी अंतिम साँस चलेगी विश्व मानवता की सेवा से मुँह नहीं मोड़ेंगे । हम प्रचण्ड आत्मशक्ति की ऐसी गंगा को लेने जा रहे हैं, जिससे अभिषत सागर सुतों की तरह आग में जलते, नरक में बिलखते जन-जन को आशा एवं उल्लास का लाभ दे सकें । लोकमान को बदलने के लिए ही हमारी भावी तपश्चर्या नियोजित होगी । हमारे प्यार -अनुदार में राई-रत्ती भर भी कमी नहीं आने वाली । माताजी हरिद्वार रहेंगी । वे हमारे प्रतिनिधियों के साथ हमारे कार्य को भली प्रकार करती रहेगी ।”

भाव भरी अंतरंग मनः स्थिति जो विदाई के क्षणों में गुरुदेव की थी, उससे आगे का स्वरूप स्वल्प दिखाई पड़ने लगा था । 1971 के जून माह की 17 से 20 ता. को एक विराट विदाई सम्मेलन मथुरा में सम्पन्न हुआ एवं 20 ता. को सबने विदा लेकर पूज्य गुरुदेव एवं वं. माताजी हमेशा के लिए मथुरा छोड़कर अपनी आगामी प्रगति यात्रा की ओर चल पड़े । रोते-बिलखते लाखों व्यक्तियों को जो विदाई सम्मेलन में उपस्थित थे, इन पंक्तियों के लेखक ने अपनी आँखों से देखा है । यह भी देखा है कि स्नेह -सूत्र में जन्म -जन्माँतरों से एक सूत्र में पिरोयी हुई आत्माएँ अपने आराध्य के बिछोह से कितनी आकुल -व्याकुल है, परंतु उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन देकर परम पू.गुरुदेव शाँतिकुँज होकर हिमालय के लिए और वं. माताजी शाँतिकुँज में रहकर उसे छावनी के रूप में विनिर्मित करने के लिए अपनी तीस वर्ष तक रही एक सक्रिय कर्मभूमि को छोड़कर चल पड़े ।

यहाँ से मिशन का अगला अध्याय आरम्भ होता है । जिन्होंने गुरुदेव एवं वं. माताजी के दर्शन को समझा है उन्हें तो किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी किंतु जो इस मिशन से धीरे-धीरे संपर्क में आये अथवा जिनने केवल स्कूल शाँतिकुँज मात्र दूर से देखा है उन्हें विगत का इतना विवरण बताना अनिवार्य था ताकि वे 1971 से आरम्भ हुई वं. माताजी की विशिष्ट भूमिका को समझ सकें, जो एक दायित्व के रूप में पं. पूज्य गुरुदेव के द्वारा उन्हें सौंपी गयी थी ।

वैसे तो वं. माताजी की पं. पूज्य गुरुदेव के साथ नवनिर्माण के इस अभिनव आँदोलन में भागीदारी तब से ही आरम्भ हो गई थी, जब वे अखण्ड ज्योति संस्थान के पुराने भवन में पं. पूज्य गुरुदेव के साथ परिणय के बाद एक सूत्र में बंधकर कटिबद्ध हो गयी थी । आये हुए हर परिजन को भोजन कराने से लेकर घर की आर्थिक व्यवस्था तथा पत्रिका एवं पुस्तकों के प्रकाशन तथा आये हुए हर पत्र का जवाब देने में उनका सक्रिय योगदान प्रारम्भ से ही रहा । 1926 में जन्मी वंदनीया माताजी के कंधों पर बहुत ही कम उम्र में, एक बहुत ही बड़ी जिम्मेदारी आ गयी थी । पं. पूज्य गुरुदेव के लिए अपने सगे -संबंधी रिश्तेदारों के बच्चे एवं गायत्री परिवार के परिजनों एवं उनके बालक-बालिकाओं में कोई अंतर नहीं था । दो मंजिल के भुतहे मकान में 40-50 से अधिक व्यक्ति एक बार में रह लेते थे, चिकित्सा भी करा लेते थे, पढ़ भी लेते थे, अनुदान पाकर, आशीर्वाद लेकर चले जाते और फिर कोई नया समूह आ जाता । यह सब कैसे होता था आज भी समझ में नहीं आता । ऐसी जिम्मेदारियों के बोझ से लदी वं. माताजी 1943-44 से लेकर 1971 तक जो कार्य सम्पन्न करती रही उसमें एक अत्यंत जटिल स्तर का कार्य उनके कंधों पर आ गया । जहाँ अखंड ज्योति संस्थान भीड़-भाड़ के बीच में बाजार के बीच अवस्थित था वहाँ शाँतिकुँज बिलकुल अलग-अलग दुनिया के शोर -शराबे से दूर एकाँत में स्थित था । जहाँ उनके आराध्य भी सशरीर उनके पास नहीं थे । प्रारम्भ में उनके साथ शाँतिकुँज में मात्र तीन कार्यकर्त्ता, दो देख−रेख करने वाली महिलाएँ (शारदा देवी एवं रुकमणी देवी ) कुल चार कन्याएँ एवं एक समर्पित स्वयं सेवक के रूप में श्री रामचंद्रसिंह भी थे जो आज भी उन दिनों की साक्षी देते हैं। इन छोटी-छोटी बालिकाओं के द्वारा वं. माताजी ने न केवल अखण्ड दीपक के समक्ष 24 लक्ष के 24 अनुष्ठान कराये थे बल्कि उन्हें माँ का प्यार देते हुए उन्हें नारी जाग्रति अभियान का सूत्रधार भी बनाया था । बड़ा ही कठिन रहा होगा उस विराट हृदय वाली माँ के लिए वह क्षण, जब उनके समक्ष नन्ही-नन्ही 12 से 14 वर्ष की बालिकाएँ समस्त प्रतिकूलता के मध्य रहती हुई निरंतर तप में संलग्न रहती थी । वे स्वयं अपने भरे-पूरे परिवार को अपने पीछे छोड़कर गई थी । जिनमें मात्र 20 दिन पूर्व विवाह होकर गयीं, उनकी बेटी शैलबाला तथा उनके आराध्य परम पू. गुरुदेव 30 जून को उनसे विदा होकर हिमालय जाने वाले थे । शाँतिकुँज के आस पास का क्षेत्र उन दिनों निर्जन था । हरिद्वार ऋषिकेश के बीच यातायात भी उतना नहीं था और सप्तर्षि आश्रम स्थित शाँतिकुँज का मुख्य द्वारा पूर्वाभिमुख होने से चार धामों को जाने वाले मुख्य मार्ग से बिल्कुल ही अलग था । यहाँ से एक बस सबेरे व एक शाम को आती और सप्तर्षि थोड़ी देर रुक कर चली जाती थी । मात्र इतना ही संपर्क हरिद्वार से था । चारों ओर बड़े घने-घने पेड़, रात्रि में पशु -पक्षियों की नीरव निस्तब्धता को चीरती हुई आवाजें, एकाँत में सोने के अनभ्यस्त व्यक्ति को तुरंत जगा देती थी । सप्तर्षि आश्रम से लेकर शाँतिकुँज से हरिद्वार, ऋषिकेश के मुख्य मार्ग के बीच की सड़क तो विगत छह-सात वर्षों में पक्की बनी है एवं प्रकाश व्यवस्था भी अब उपलब्ध है। उन दिनों जबकि शाँतिकुँज बहुत छोटा था और अपने शैशवकाल में से प्रथम वर्ष में से गुजर रहा था, गंगा का किनारा होने, वृक्षों की बहुलता होने के कारण यहाँ ठण्डक भी बहुत थी । स्थापना के प्रायः 12 वर्ष बाद तक भी यहाँ पंखा चलाने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई । बदलाव तो बाद में आया है जब यहाँ गंगा पर बाँध बँध गए नहर निकालीं गईं एवं वृक्ष कटने का सिलसिला चल पड़ा । निश्चित ही नैसर्गिक सौंदर्य से भरे पड़े वातावरण के रूप में शाँतिकुँज का वह मुख्य भवन जिसमें अखण्ड दीपक स्थापित है तथा पीछे का छोटा बगीचा शामिल था । शेष विस्तार जिसे आज लोग गायत्री नगर एवं गायत्री तीर्थ के रूप में जानते हैं तो बहुत बाद में 1977-78 में जाकर बना ।

हम पाठकों को 25 वर्ष पूर्व के काल प्रवाह में 1971 -72 के प्रारम्भिक दिनों में ले जाना चाहते हैं जब यहाँ आने वाले व्यक्तियों की, जिज्ञासु साधकों की भीड़ नहीं के बराबर थी । वं. माताजी न केवल उनके साथ आयी 12-13 वर्ष की बालिकाओं की अभिभाविका, संरक्षिका थी वरन् नीचे कार्यालय में बैठकर आने वाले हर पत्र का उत्तर देने वाली एक व्यवस्थापिका भी थी । समय-समय पर जमीन, बैंक संबंधी कार्यों के लिए उन्हें सिटी बस में शहर भी जाना पड़ता था । निजी वाहन यहाँ बाद में आए जब नारी जागरण सम्मेलन हेतु दो एम्बेसेडर गाड़ियाँ ली गई । उनके सहायक हमारे वर्तमान व्यवस्थापक श्री बलराम जी होते थे जो व्यवस्था में उनके साथ थे । यह सारा कार्य जो आज हम लोग सम्पन्न कर रहे है परम पूज्य गुरुदेव द्वारा वं. माताजी को सिखाया गया और उनके द्वारा उन बालकों को जो आज इतने बड़े विराट् संगठन की स्थापित नीतियों का क्रियान्वयन सुव्यवस्थित सामूहिक दायित्व का निर्वाह करते हुए कर रहे है। लगभग 45 वर्ष की आयु, कार्य का अत्यधिक भार, स्थूलता लिए हुए काया एवं सबसे बड़ी प्रतिकूलता अपने आराध्य का प्रत्यक्षतः न होना, इन सबके बावजूद वं. माताजी ने सारा बोझ अपने कंधों पर लेकर शाँतिकुँज रूपी षिष् को चलने-फिरने योग्य बनाया ।

छोटी -छोटी बच्चियाँ जो जून माह में चार की संख्या में थी एवं मई 1972 में जिनकी संख्या जाकर 24 हो गई थी, उन्हें यहां 24 घंटे अखण्ड जप सम्पन्न करना था । गायत्री महाशक्ति की प्रतिमा के समक्ष जल रहे अखण्ड दीपक,जो कि परम पूज्य गुरुदेव द्वारा 1926 में प्रज्ज्वलित किया गया था, के समक्ष दिनभर एवं रात्रि को तीन पातियों में समय विभाजन कर निरंतर जप की व्यवस्था बनाई गयी थी । शुरुआत के कुछ दिनों बाद से वर्ष में यह कार्य कुमारी पुष्पा, आदर्श, कमला, बसंती, निर्मला, रेणुका, सरोज, सुधा एवं उर्मिला, नामक नो बालिकाओं, जो भरत भर के अपने वर्षों से जुड़े कार्यकर्त्ताओं की पुत्रियाँ थी, के माध्यम से प्रारम्भ हुआ था । प्रातः काल एवं सायंकाल की आरती बन्द, माताजी सहित नौ बालिकाएँ एवं दो उनकी देख-रेख करनी वाली बहनों द्वारा सम्पन्न होती थी । अखण्ड गायत्री ज पके अतिरिक्त शेष जो समय बचता उसमें बन्द माताजी, 12 से 14 वर्ष की औसत आयु वाली उन देव कन्याओं को भोजन बनाना, संगीत संकीर्तन के साथ सम्भाषण, योग -व्यायाम आदि की कक्षाओं में विभाजित करके दिनचर्या पूरी कराती थी । माताजी की व्यक्तिगत साधना इसके अतिरिक्त थी जो प्रातःकाल तीन बजे से आरंभ हो जाती थी । प्रातः उठकर वे अखण्ड दीपक के सामने भजन कर रही बालिका को देखकर आती, अपना दैनंदिन कार्य समाप्त कर स्वयं भी जप में बैठ जाती थी । आरती होने तक सब बच्चों को नहला-धुलाकर तैयार करके वे उन्हें धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनने का प्रशिक्षण दे रही थी । बीच-बीच में मनोरंजन हेतु कुछ ऐसी मनोरंजक अंताक्षरियों, खेल-चर्चाओं अथवा बच्चों द्वारा खेले जाने वाले खेलों का समावेश उनका मन बहलाने के लिए करती । इस बीच गायत्री मंदिर, जो शाँतिकुँज का सबसे पहला मंदिर है जहाँ पर अखण्ड दीपक स्थित है, में जन निरंतर चलता रहता था । कभी व्यवधान न आने पावें, इसकी व्यवस्था वन्द, माताजी के तरफ से की गई थी । कभी-कभी अतिरिक्त जप कर वन्द, माताजी अखण्ड दीपक का दायित्व किसी एक बालिका या शारदा देवी के जिम्मे छोड़ बालिकाओं को हरिद्वार घुमाने अथवा संत सरोवर के गंगा तट पर ले जाने का क्रम भी बनाए रखती थी । यह सारा विवरण इसलिये लिखा जा रहा है ताकि आज के दो हजार के स्थायी एवं तीन हजार प्रतिदिन के आगंतुक शिविरार्थी, दर्शनार्थी लोगों से भरे भीड़ वाले शाँतिकुँज के प्रारम्भिक स्वरूप को लोग समझ सकें । जप की आधारशिला पर रखी गयी शाँतिकुँज की नींव इतनी मजबूत और प्राण -ऊर्जा से ओतप्रोत है कि इसकी स्थापना को कोई भी डगमगा नहीं सकता ।

क्रमशः देव कन्याओं की संख्या बढ़ते-बढ़ते ठण्डक के बाद चौबीस तक पहुंच गई थी । जब अप्रैल -मई 1972 में यहाँ अतिरिक्त निर्माण की आवश्यकता आ पड़ी । ठण्डक के दिन बड़े ही कष्टकर थे । दोनों ओर पहाड़ की शृंखलाएं, बची में गंगा, उसके किनारे बसा शाँतिकुँज उस पर भी आराध्य का बिछोह माताजी के लिए अत्यधिक दबाव का कारण बन गया । जनवरी 1972 के बाद जब माताजी की छाती में कभी दर्द हो उठता था तब वे हर लड़की या आगंतुक से आकुलता-व्याकुलता यही पूछ बैठती देखना कहीं तुम्हारे पिताजी तो नहीं आये । उनका आशय गुरुदेव की ओर था जो उन दिनों हिमालय में कष्टसाध्य तपश्चर्या हेतु स्वयं को नियोजित किये हुए थे । उन्हें दिनों बंगला देश की मुक्ति का युद्ध पाकिस्तान से आरम्भ हो चुका था एवं वन्द, माताजी और पूज्यवर की समग्र उग्र तपश्चर्या उस प्रतिकूलता से जूझने में लगी थी । इसी अवधि में एक दिन वन्दनीय माताजी को दिल का दौरा पड़ा जो वे सह तो गई परंतु उस दौरे ने उन्हें बिस्तर पर लिटा दिया । अगले ही दिन बिना किसी पूर्व सूचना, के बेतार-तार से सूचना की तरह सम्वेदना की कड़ी से जूड़े । गुरुदेव शाँतिकुँज आ पहुँचे । वन्द. माताजी के साथ बैठकर एकाँत में विचार-विमर्श किये, सतत् उनके पास संरक्षण हेतु बने होने की बात कही एवं भावी गतिविधियों का जो जून 1972 के बाद आरम्भ होना थी, एक नक्शा खींचकर पाँच दिन बाद चले गये ।

“गुरुदेव क्यों गये, क्यों चले गये’ शीर्षक से अप्रैल 1972 की अपनों से अपनी बात में वन्द माताजी ने पूर्णतः स्वस्थ स्थिति में संपादकीय लिखा । इसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि गुरुदेव का आकस्मिक आगमन क्यों हुआ ? अपने निज के स्वास्थ्य के संबंध में माताजी ने इसी सम्पादकीय में लिखा “ इस समय उनके आने का कारण मेरा स्वास्थ्य था ।” आगे लिखा -” इन दिनों हृदय के कई अत्यंत घातक दौरे आये, वे असामान्य थे । जहाँ तक सारा जीवन तितीक्षा का अभ्यास बन गया । गुरुदेव के संपर्क में यही बढ़ती रही कि क्रंदन को मुस्कान में कैसे परिवर्तित किया जाय? इस बार जो कष्ट हुआ उसे चिकित्सकों ने एक स्वर से प्राणघातक ठहराया एवं उनसे बच निकलने पर आश्चर्य प्रकट किया । बसंत तक कड़ी तपश्चर्या में लगे रहने का एवं शाँतिकुँज न आने का पू. गुरुदेव का प्रतिबंध था सो पूर्ण हो चुका था । यह कष्ट बसंत के बाद एकाएक आया और पूज्यवर के आने के निमित्त का कारण बन गया ।” महापुरुषों की लीला बड़ी निराली होती है । वन्द, माताजी लिखती है -जैसे ही पुकार उन तक पहुँची वह अविलम्ब शाँतिकुँज पहुँच आये । विराट परिवार के विविध प्रकार का भार मेरे ऊपर आ पड़ा । शक्ति कम और बोझ अधिक पड़ने से अपना ढाँचा चरमराने लगा तो उसमें कोई आश्चर्य करने की बात नहीं थी । यही है अपने रोग के प्रकोप का कारण ।”

संयोगवश अपनी कलम से विगत की स्मृतियों को ताजा कराता, यह सम्पादक भी उन पाँच दिनों की अवधि में यही उपस्थित था ।जो कुछ भी उसकी 21-22 वर्ष की बाल वृद्धि ने समझा एवं जो कुछ भी चिकित्सकों से परामर्श के बाद समझ में आया उसमें एक ही निष्कर्ष निकला कि गुरुदेव का आना एवं वन्द, माताजी की व्याधि ही एक निमित्त मात्र थी । शाँतिकुँज का भविष्य क्या है ? कैसे भावी निर्माण किये जाएँ ? आने वाले बाद आने पर समष्टि के कल्याण हेतु व्यक्तिगत उपासना-साधना एवं विशिष्ट लेखनी के साथ ऊपर एक छोटी खुली छत के साथ बना दिया गया एवं जब तक गुरुदेव आये तब तक ऊपर रहने, उस स्थान को तप -ऊर्जा से अनुप्राणित करने हेतु देवी का स्वरूप समझे जाने वाली 24 बालिकाओं को रहने की व्यवस्था यहीं पर बना दी गई । यहीं पर रहकर प. पूज्य गुरुदेव को न केवल देव कन्याओं का वरन् प्राप्त ऊर्जा सम्पन्न कार्यकर्त्ताओं का प्राण प्रत्यावर्तन एवं महत्वपूर्ण शिक्षण सम्पन्न करना था ।

मई 1972 का पूरा अंक, भावी क्रिया -कलाप जो उनके बताये एवं परिजनों से गुरुदेव की क्या आशाएं और अपेक्षाएँ थी, इसी पर केन्द्रित था । वन्द. माताजी ने इस अंक में शाँतिकुँज को गुरुदेव का डाक बंगला बताया और कहा एवं लिखा कि गुरुदेव अगले दिनों स्थूल व सूक्ष्म शरीर से जब चाहेंगे ऋषि सत्ताओं से मिलने -मार्गदर्शन के लिए यहाँ से चले जाया करेंगे । अनुभूति और उपलब्धि जो परिजन जानना चाहते थे, उन्हें समय से पूर्व प्रकाशित न करने का आदेश देकर चले गये । उन्होंने यह भी बताया कि शाँतिकुँज अंततः एक शक्ति केन्द्र के रूप में परिणित होगा तथा युग निर्माण के प्रत्येक सदस्य महामानवों की प्रत्यक्ष भूमिका अदा करेगा । इस कार्य के लिए जिस युग साधना की आवश्यकता है उसकी का मार्गदर्शन प्राप्त कर वे जून 72 में लौटेंगे एवं प्रत्यावर्तन का क्रम आरम्भ करेंगे । गुरुदेव द्वारा मिले संकेतों से प्रतीत होता है कि वे आत्मबल संग्रह करने और आत्म -कल्याण के साथ लोकमंगल के इच्छुक व्यक्तियों की संख्या गिनती के अनुपात में नहीं, गुणों के अनुपात में बढ़ाना चाहते थे । इसी कार्य के लिए समस्त ऋषि परम्पराओं का बीजारोपण शाँतिकुँज में करके नवनिर्माण की पृष्ठभूमि विनिर्मित करना चाहते थे । ऋषि परम्परा, जो कभी सतयुग की मूल आधार थी, का क्रियान्वयन कैसे हो, इसके लिये वे शाँतिकुँज को एक प्रखर ऊर्जा सम्पन्न गायत्री तीर्थ का रूप देना चाहते थे यह सारी रूपरेखा व वन्द. माताजी एवं उनके सहायकों के साथ फरवरी 72 के प्रथम सप्ताह में संक्षिप्त प्रवास के दौरान बन गई । प. पूज्य गुरुदेव घोषणा कर गये कि शाँतिकुँज अंततः शक्ति केन्द्र के रूप में परिणित होगा । नारी जागरण का महान अभियान यहीं से चलेगा और इक्कीसवीं सदी को नारी सदी बनाने तक तूफान का रूप लेगा । शाँतिकुँज अन्यान्य आश्रमों की तरह एक भवनों के समुच्चय के रूप में नहीं बल्कि आज आत्म बल सम्पन्न महामानव बनाने की टकसाल के रूप में विनिर्मित होना था । इस सारे कार्य की पृष्ठभूमि 1971-72 की इस अवधि में बन गई । इसी अंक (मई 72 ) के माध्यम से गुरुदेव ने विदाई सम्मेलन के बाद पहली बार अपने समस्त परिजनों के लिए जो कि लाखों की संख्या में थे, अपना हार्दिक भाव वन्द, माताजी के माध्यम से पहुँचाया । यह कथा गाथा आज 25 वर्ष के बाद के शाँतिकुँज में जब हम देखते हैं तो दिव्य दृष्टि सम्पन्न अवतारी सत्ता के द्वारा किये गये एक नर्सरी निर्माण के रूप में समझ में आती है, जिसे भविष्य में इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री कहे जाने का श्रेय अर्जित करना था ।

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