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Magazine - Year 1997 - Version 2

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सफल दाम्पत्य जीवन के कुछ व्यावहारिक सत्य

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किसी के पास विश्वविद्यालय की बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ हों, प्रतिभा हो, योग्यता हो तो वह ज्ञान दाम्पत्य जीवन की सफलता में कोई विशेष योगदान देगा, यह आशा करना व्यर्थ है। कई ऐसे व्यक्ति भी अपने दाम्पत्य जीवन में असफल होते देखे जाते हैं। यद्यपि वे ज्ञान, शिक्षा की दिशा में प्रगति के चरम सोपानों पर पहुँच चुके होते हैं। वस्तुतः व्यावहारिक का अभाव ही वह कारण है, जो इस कटु परिणति के रूप में निकलता है।

पति-पत्नी के बीच जो अपनेपन का भाव होता है, वह प्रायः पारस्परिक शिष्टाचार व औपचारिकता को विस्मृत कर देता है। यह कुछ दंपत्तियों के लिए जिनके बीच गहरी समझ और रुचि, स्वभाव का साम्य उत्पन्न हो गया हो के लिए तो ठीक हो भी सकता है, किन्तु इससे पूर्व की स्थिति में शिष्टाचार व औपचारिकता का यथासाध्य निर्वाह अच्छा रहता है। सभी इसका पालन करें तो लाभ भी लाभ होगा, हानि होने की सम्भावना नहीं है। कभी-कभी शिष्टाचार व औपचारिकता का अभाव दूसरे लोगों के सामने पति-पत्नी के अपमानित-सा होने की अशोभन स्थिति उत्पन्न कर देता है। एक पक्ष अपने को आहत-अपमानित समझने लगता है जबकि संभव है, दूसरे ने यह सब बिना सोचे कहा हो। जैसे मित्रों के सामने पत्नी के मैके वालों के सम्बन्ध में कोई ऐसी बात कह देने पर उसे वैसा ही अनुभव होता है। इसलिए अपनत्व का भाव तो रहे पर उसके साथ जो अधिकार व अद्वैत का भाव आ जाता है उसकी अति न हो जाय, इसके लिए शिष्टाचार व औपचारिकता का पालन ठीक ही रहता है।

कई व्यक्ति अपने मित्रों के साथ वार्तालाप करते समय भी कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करते देखे जाते हैं, जो शिष्टता की सीमा में नहीं आते। वैसा ही कुछ पत्नी के साथ भी कुछ व्यक्ति व्यवहार करते हैं वे समझते हैं कि यह उनकी अभिन्नता की अभिव्यक्ति है। हमारे बीच कोई परायापन नहीं, यह सोचकर उस औचित्य को स्वीकारते हैं, पर कभी-कभी यह अनुचित भी हो जाता है। घर में, अकेले में, पत्नी को प्यार से कुछ ऐसे सम्बोधन से पुकारा जाना या बातों में वैसा कह देना तो उसे अखरेगा नहीं, पर स्वभाववश बाजार में या कई अपरिचितों के सामने वैसी बात मुँह से निकल जाने पर स्वयं पति को भी लज्जित होना पड़ता है और पत्नी को भी। पत्नी की ओर से भी ऐसी ही भूलें हो सकती हैं। समय व स्थिति को देखे बिना पति पर हुकुम चलाना प्रायः बुरा लग जाता है। यदि ऐसी आदत ही न डाली जाय तो ऐसी स्थिति से बचा जा सकता है, जो पति-पत्नी के सम्बन्धों के बीच लकीरें खींचती हैं।

कटुभाषण और गाली-गलौच, कलह आदि से दम्पत्तियों को बचना आवश्यक है। यह बात सही है कि जहाँ दो बर्तन होंगे तो वे भी एक दूसरे से टकराकर आवाज पैदा करेंगे तो पति-पत्नी के बीच भी वैसे प्रसंग आ सकते हैं। जहाँ एक दूसरे की भूलों को, अनुचित व्यवहार को उसे बताना जरूरी हो जाता है किन्तु उनका ढंग सदा शिष्ट और सौजन्यपूर्ण होगा। घर की यह बात बाहर नहीं जाये इसका ध्यान रखना ही चाहिए। मार-पीट जैसी महामूर्खतापूर्ण बात तो होनी ही नहीं चाहिए। किसी पक्ष को दूसरे से नाराजगी है तो उसे बोल-चाल बंद करके, खाना छोड़कर या अन्य तरीकों से भी अभिव्यक्त किया जा सकता है।

कोई ऐसा जोड़ा हो जिसमें पति किसी बात पर आवेशग्रस्त होकर पत्नी पर हाथ उठा बैठे, तो उसमें पति तो महादोषी है ही। विवाह के बंधन कुछ ऐसे अटूट होते हैं कि उनसे मुक्ति सम्भव नहीं हो सकती, फिर ऊपर से बच्चे-बच्चियाँ भी आ जाते हैं, ऐसी स्थिति में पत्नी को मन मार कर साथ रहना और अपमान के कड़वे घूंट पीकर चुप रह जाना पड़ता है। किन्तु पत्नी यह सोचने का प्रयास करे कि पति ऐसा क्रूर क्यों हो जाता हैं? क्या उन कारणों को वह दूर कर सकती है? यदि इन प्रश्नों का उत्तर हाँ में मिलता है तो उसे उदास या जिन्दगी से बेजान होने की अपेक्षा उन कारणों को दूर करना ही चाहिए। कोई भी व्यक्ति भीतर से वैसा क्रूर नहीं होता, अतः पत्नी के ये प्रयास धैर्यपूर्वक चलते रहे तो उसकी खोयी खुशियाँ पुनः देर-सबेर मिल ही जाएँगी। यह मार्ग अपनाने की बजाय यदि उसका ढिंढोरा पीटना आरम्भ कर दें तो परिणाम प्रायः अच्छा नहीं निकलता।

पति द्वारा हाथ चला देना हर स्थिति में निन्दनीय है, पर इसका समाधान खोजा जाना चाहिए, न कि इसका प्रचार कर गृहस्थ संस्था का अपमान। यदा-कदा एक दूसरे से संतुष्ट दंपत्तियों के बीच भी किसी बात को लेकर अप्रिय प्रसंग आ जाते हैं। उन्हें टालना तो ठीक रहता है पर वे क्यों उत्पन्न हुए और भविष्य में ऐसे प्रसंग न आयें। उसका कोई स्थायी हल अपने विचार, स्वभाव, व्यवहार में सुधार करके लाया जाना अच्छा रहता है। उसे यों ही टाल दिया जाय तो फिर वैसा ही प्रसंग आ सकता है। बार-बार वैसे प्रसंग आने पर सम्बन्धों में दरार भी उत्पन्न हो सकती है।

स्त्रियाँ ममता, सेवा, त्याग, सहनशीलता और समर्पण की देवियाँ होती हैं और पुरुष, दृढ़ता, रुक्षता व बुद्धि प्रधान होता है। यह सामान्य वर्गीकरण स्त्री वर्ग और पुरुष वर्ग पर तो लागू होता है, किन्तु यदि कोई पति अपनी पत्नी से स्त्री वर्ग में पाये जाने वाले इन सामान्य तत्वों की अपेक्षा करे या पत्नी अपने पति का वैसा ही स्वरूप समझे जो सामान्य पुरुष वर्ग का होता है, तो उनके जीवन में असंतोष का उत्पन्न हो जाना अधिक सम्भव होता है, क्योंकि सभी पुरुष एक से नहीं होते, सभी स्त्रियाँ एक सी नहीं होतीं। इसकी अपेक्षा सहधर्मी जैसा भी है उसे समझ कर स्वीकार करना ही संतोष का हेतु बनता है।

पति-पत्नी के प्रेम रूपी वृक्ष की जड़ें विश्वास की उर्वर और गहरी भूमि में जिस प्रकार बढ़ती हैं, उसी प्रकार उसका कलेवर भी बढ़ता जाता है। पति-पत्नी को परस्पर विश्वासी होना चाहिए। किसी भी शंका पर, दूसरों की कही-सुनी बातों पर विश्वास करने की अपेक्षा सीधे-सीधे एक-दूसरे से पूछ लेना चाहिए। पति-पत्नी दोनों ही एक दूसरे के उस विश्वास की रक्षा अवश्य करें। वकील की तरह किसी बात पर एक-दूसरे से जिरह करने की अपेक्षा संयत रहना कहीं ज्यादा अच्छा होता है ईर्ष्या दाम्पत्य रूपी वृक्ष की जड़ों के नीचे आ जाने वाली चट्टान का काम करती है। उससे बचने का सबसे बड़ा उपाय विश्वास ही है। ईर्ष्या मनोमालिन्य उपजाती हैं और विश्वास उसे दूर करता है।

रुपये-पैसे के मामले में पति-पत्नी के बीच कोई दुराव-छिपाव रहना ठीक नहीं होता। जो पति अपनी आय और उसके स्त्रोत से पत्नियों को अनभिज्ञ रखते हैं वे भूल करते हैं। जो यह मानते हैं कि यह उनका निजी मामला है वे गलती करते हैं। यह ठीक है कि घर की भीतरी व्यवस्था का दायित्व सामान्य रूप से पत्नी के हाथ होता है और उपार्जन आदि बाहरी कामों का सूत्र-संचालन पति करता है। दोनों अपने क्षेत्र में पूरी तरह स्वतंत्र हैं, पर एक दूसरे को इस बात का ज्ञान होना ही चाहिए कि परिवार की आय का स्त्रोत क्या है और कितना है। वह किस प्रकार खर्च होता हैं?

पति द्वारा अपनी आय का पूरा ब्यौरा दे देने से पत्नी के लिये तद्नुरूप ही गृह-संचालन करने की सुविधा करने की सुविधा उत्पन्न हो जाती है। यह बात दूसरी है कि पत्नी अपनी दूरदर्शिता से आड़े वक्त के लिए कुछ पैसे बचाकर जोड़ती रहती है। अच्छा यह रहता है कि पति-पत्नी ही नहीं परिवार के सब सदस्य मिलकर परिवार का बजट बनाएँ। उससे एक तो यह लाभ होगा कि सभी को पता लगेगा कि “हमें अपनी सौर जितने ही पाँव पसारने हैं।” दूसरे उन्हें अपने महत्व का भी अपनी भूमिका पूरी तरह समझ लेंगे।

जहाँ पति-पत्नी दोनों कमाते हों, वहाँ भी यह बात लागू होती रहे तो अच्छा है। अनुभवियों का कहना है कि जहाँ पति भी कमाता है और पत्नी भी कमाती है, वहाँ व्यय को लेकर अधिक मतभेद खड़े होते हैं। अतः इस सम्बन्ध में सावधानी बरतना ही ठीक रहता है। आय-व्यय का बजट सावधानी व सूझबूझ से बनाना चाहिए।

अमेरिकन मदर्स कमेटी की अध्यक्षा श्रीमती लिलियन डी पोलिंग का अपना मत हैं- मैं मानती हूँ हर परिवार को अपनी आय का दसवाँ हिस्सा परोपकार व समाजसेवी कार्यों में व्यय करना चाहिए। अधिकाँश दम्पत्ति यह कहेंगे कि वे इतने सम्पन्न नहीं हैं। लेकिन जब आप अपनी आय का कुछ हिस्सा इस तरह परोपकार के लिए अलग रखने लगेंगे तो आप देखेंगे कि वास्तव में आपके हाथ उतने तंग नहीं हैं जितना कि आप अब तक समझते थे। अजीब-सा लगे, किन्तु इसकी सच्चाई को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। मन की गरीबी आदमी को गरीब ही बनाये रखती है। जब अपनी आय का एक निश्चित अंश ऐसे कामों के लिए निकाला जाएगा तो पति-पत्नी एक अनूठे आनन्द, अनुपम आत्मसंतोष से आप्लावित हो उठेंगे।

ऐसी ही एक व्यावहारिक अनुभव सिद्ध राय उन्होंने महिलाओं को दी हैं- वास्तविक में विवाह साझेदारी है। इसमें लेना भी होता है और देना भी। सच मानिये तीन-चौथाई देना पत्नी के ही हिस्से में पड़ता है। मैं यह नहीं कहती कि पत्नी को पति के सही-गलत सब निर्णय चुपचाप स्वीकार कर लेने चाहिए। लेकिन झुकने में कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि झुकना एक बहुत अच्छी कसरत है। इससे शरीर लचीला बना रहता है और नैतिक और आत्मिक शक्ति बढ़ती है।

अमेरिका जैसे देश जहाँ। ‘विमेन लिब’ जैसे आँदोलन भी हुए है, की एक मातृ संस्था की अध्यक्षा और अनुभवी महिला का यह सुझाव कहाँ तक युक्तिसंगत है। यह सब दंपत्तियों के लिये व्यावहारिक हो, यह तो कहा नहीं जा सकता। फिर भी पत्नी को ही तीन-चौथाई देना पड़ता है। उनका सुझाव भी उपयोगी है यह तो मानना ही पड़ेगा।

अपने वैवाहिक जीवन पर असंतोष और अपने जीवन-सहचर की अन्यों से तुलना, तत्संबंधी अपनी निराशा एक-दूसरे के सम्मुख प्रदर्शित करना उस असंतोष को और भी गहरा और निराशा को तीव्र बना देता है।

यह अच्छा दृष्टिकोण नहीं कहा जा सकता। दुनिया में एक से एक अच्छे, सुन्दर, योग्य, सम्पन्न तथा व्यवहार कुशल स्त्री-पुरुष हैं। यदि उनमें से किसी एक के साथ मेरा सम्बन्ध जुड़ा होता तो मेरा जीवन कितना सुन्दर, सुखद और सफल होता यह सोचना मनुष्य को तोड़कर रख देता है। मैं किसके पल्ले पड़ गयी या मेरे गले कैसी रस्सी पड़ गयी। यह रोना कुछ अर्थ नहीं रखता। उस स्थिति से उबरने का एक ही मार्ग है और वह है स्वयं सतत् प्रयत्नशीलता और आशावादी बने रहना।

पति-पत्नी के बीच शारीरिक, मानसिक आकर्षण का बना रहना दाम्पत्य की सफलता का एक आवश्यक आधार है। आकर्षण का मूल सौंदर्य है। सौंदर्य सभी स्त्री-पुरुषों को मिला होता है यह कहना जितना गलत है उतना ही सही भी है। सच बात तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक बनावट में कहीं न कहीं, कुछ न कुछ सौंदर्य होता ही है। सुन्दर कहे जाने वालों में भी कही न कहीं असुन्दरता दिखाई पड़ ही जाती है और असुन्दर माने जाने वालों में भी कहीं न कहीं सौंदर्य होता है। पारस्परिक आकर्षण बंधन के लिए शारीरिक सौंदर्य का वह उजला पक्ष ही सही ढंग से दिखाया जाय जो आँतरिक सौंदर्य के रूप में है, तो वही आकर्षण जन्म ले लेता है। महत्वपूर्ण होता है प्रस्तुतीकरण का ढंग और देखने वाले का पारखीपन। पति-पत्नी यदि उस दृष्टि को उपजा सके तो वे दुनिया की निगाह में भले ही अनाकर्षक हों उनकी अपनी ओर एक दूसरे की निगाहों में तो आकर्षक बन ही जाते हैं। बाहरी आकर्षण की उपयोगिता यही तक है।

शरीर की तरह मन का भी वैसा ही आकर्षण उत्पन्न किया जा सकता है। यह मानसिक आकर्षण शारीरिक आकर्षण से कई गुना महत्वपूर्ण और प्रभावी होता है। शृंगार, आभूषण, मेकअप, भड़कीले वस्त्र आदि बनावटी चमक तो उत्पन्न कर सकते हैं, किन्तु स्थायी आकर्षण सादगी, सुरुचि-सम्पन्नता, उत्तम स्वास्थ्य व स्वच्छता में ही निवास करता है। प्रसन्नता, मदुर व्यवहार, उल्लास, विनोदप्रियता आदि ऐसे गुण हैं जो मानसिक आकर्षण को उपजाते हैं और स्थायी बनाते हैं।

प्रयास यह किया जाय कि पति-पत्नी शरीर व मन से एक दूसरे में आकर्षण के बिन्दु ढूँढ़ें एवं एक संतुलित जीवन जीने की नीति अपनाये तो हर घर एक स्वर्ग एवं गृहस्थ एक तपोवन जैसा बन सकता है थोड़ी-सी गुणों की साधना भी टूटते दाम्पत्य को जोड़ सकती हैं। यह साधना दोनोँ ही पक्षों को करनी चाहिए।

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