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Magazine - Year 1997 - Version 2

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प्रशंसा योग्य मात्र भगवान

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‘ईश्वर!’ इस शब्द के उच्चारण के साथ ही सम्राट विजयसेन ठठाकर हँस पड़े। उनकी हँसी में ईश्वरीय शक्ति एवं ईश्वर भक्तों के प्रति उपेक्षा, अवहेलना, अवमानना के साथ स्वयं के दम्भ की भारी गूँज थी। हँसी के थमते ही वे कहने लगे-”भगवान कायरों, आलसियों और शक्तिहीनों का आश्रय है। मैं उसे नहीं मानता। मेरी शक्ति सर्वोच्च है। मेरी सत्ता सर्वत्र हैं।” उनके इस कथन पर चाटुकारों ने हाँ में हाँ मिलायी। सभासद, मंत्रीगण, दरबारी सभी मुक्त कण्ठ से उनकी बढ़-चढ़कर प्रशंसा करने लगे।

दरबार में रहते हुए भी राजकवि सौमित्र इस चाटुकारी-चापलूसी से दूर ही रहते। सौमित्र महाकवि थे। उनकी काव्य साधना नीति, सदाचार एवं ईश्वर भक्ति के लिए समर्पित थीं। कई सभासद उनसे ईर्ष्या करते थे, लेकिन उनके सादे, सच्चरित्र एवं सहज सन्तुष्ट जीवन में ऐसा कुछ न था जिसके आधार पर उन्हें नीचा दिखाया जा सके। आज भी जब दरबार में चापलूसों का बड़बोलापन गूँज रहा था, तब भी वे मौन बने रहे।

उन्हें इस तरह मौन देखकर महाराज ने पूछा,”लगता है राजकवि को हमारी विजय की प्रसन्नता नहीं हुई?”

“ऐसा कैसे हो सकता है, महाराज!” राजकवि ने हाथ जोड़कर कहा। “तो फिर हमारी प्रशंसा में कविता क्यों नहीं सुना रहे?” राजा ने तनिक तीखे स्वर में कहा।

“क्षमा करें महाराज! मैं केवल ईश्वर की शक्ति की प्रशंसा करता हूँ। उन्हीं की शक्ति से आप विजयी हुए है।” महाकवि सौमित्र की वाणी में नम्रता थी। यह सुनकर राजा की भृकुटि तन गयी। उसने क्रोध से कहा-”सुना नहीं तुमने अभी मैंने ईश्वर के बारे में क्या कहा। ईश्वर कुछ नहीं हमारी इच्छा से नियुक्त हुए हो। या तो एक सप्ताह के अन्दर-अन्दर हमारी प्रशंसा में काव्य रचना करो, अन्यथा एक सप्ताह के बाद तुम्हें मृत्युदण्ड दिया जाएगा।”

सौमित्र उस समय चुप रहे। कुछ भी कहना राजा के गुस्से की बढ़ाना था। राजदरबार का समय समाप्त होने पर वे सीधे अपने गुरु महर्षि कृष्णापाद के यहाँ गए। कृष्णपाद महान ज्ञानी थे और भावुक हृदय ईश्वरभक्त। साथ ही वे योगविद्या में पारंगत थे। देश-देशान्तर में उनकी ऋद्धियों-सिद्धियों के बारे में अनेकों किंवदंतियां प्रचलित थीं। महर्षि का आश्रय नगर से दूर जंगल में था। आश्रम की ओर जाते समय सैमित्र मन ही मन सोच रहे थे कि मैं अपनी आत्मा की हत्या कर कुछ भी न लिखूँगा। में कवि हूँ। ईश्वर की स्तुति करता हूँ। ओछी चाटुकारिता करके माँ सरस्वती का अपमान नहीं करूंगा।

इसी चिन्तन में डूबे वे महर्षि कृष्णपाद के पास जा पहुँचे। महर्षि के चरणों में प्रणाम करते हुए उन्होंने संक्षेप में राजदरबार की घटना कह सुनायी। सब कुछ सुनकर महर्षि ने मुसकराते हुए कहा-”परेशान क्यों हो वत्स! जिस ईश्वर की स्तुति करते हो, उसी पर विश्वास रखो।”

दैवयोग की बात इस घटना के तीन दिन बाद ही राजमहल में हाहाकार मच गया। सौंप के काटने से राजा का इकलौता पुत्र मरणासन्न था। झाड़-फूँक, टोने-टोटके, हकीम-वैद्य सब बेकार साबित हो रहे थे। राजा बिलख रहा था, उसकी शक्ति और सत्ता सभी व्यर्थ सिद्ध हो रही थी, तभी पता चला सभासद एवं मंत्री भारी षड्यन्त्र करके उसे सत्ता से हटाने जा रहे हैं। दो चार दिन पहले दम्भ में चूर सम्राट विजयसेन आज असहाय था।

राजकवि ने जैसे ही इन घटनाओं के बारे में सुना, वे विकल हो उठे। वे भागे-भागे अपने गुरुदेव महर्षि कृष्णपाद के आश्रम में जा पहुँचे। उन्हें विश्वास था अनगिनत योग विभूतियों के स्वामी महर्षि कृष्णपाद अवश्य कुछ चमत्कार कर दिखाएँगे। महर्षि सारी बातों को सुनकर एक बार पुनः मुस्कराए और शान्त मन से महाकवि सौमित्र के साथ राजमहल की ओर चल पड़े।

राजकवि को देखते ही राजा विलुख पड़े-”राजकवि! ईश्वर ने मेरी आंखें खोल दीं। उसी की इच्छा से सब कुछ होता है। अब तक मैं व्यर्थ ही घमंड में डूबा था। इसी का दण्ड मुझे मिला है।”

“राजन्! ईश्वर केवल दण्डित ही नहीं करता, वह अनन्त करुणामय भी है।” राजकवि के पीछे खड़े महर्षि को विजयसेन ने अब तक देखा ही न था। उन्हें देखते ही वह प्रणाम करने झुके। उन्हें आशीष देते हुए महर्षि राजकुमार के पास आकर सिरहाने बैठ गए। युवराज के सिर पर हाथ रखे हुए वे गम्भीर ध्यान में डूब गए। घड़ी, पल गुजरते हुए लगभग एक घण्टा बीत गया। सभी स्तब्ध थे, तभी युवराज ने धीरे-धीरे आंखें खोल दीं। महर्षि ने अपने साथ लाए हुए किसी औषधि अर्क की कुछ बूँदें उसके मुख में टपकायीं। उसके अन्दर किसी नयी चेतना का संचार होने लगा। महर्षि धीरे से उठे-राजकवि के कान में कुछ कहते हुए वे धीरे से बाहर निकल गए।

राजा हतप्रभ था। इधर राजकुमार स्वस्थ हुआ, उधर राजकवि की सहायता से षड्यन्त्र का पर्दाफाश हो गया। अबकी बार राजा के हैरान होने की बारी थी। क्योंकि षड्यन्त्रकारियों में ज्यादातर वही लोग थे जो उसकी प्रशंसा और चाटुकारी में बड़ी-बड़ी बातें किया करते थे।

युवराज के पूर्ण स्वस्थ हो जाने पर तथा राजकार्य को ठीक ढँग से व्यवस्थित करके सम्राट विजयसेन राजकवि सौमित्र के साथ महर्षि के आश्रम में पहुंचे। महर्षि ने उनका स्वागत-सत्कार करते हुए उनकी मानसिक जिज्ञासाओं का समाधान करना शुरू किया-”राजन्। सर्वसमर्थ और शक्ति सम्पन्न सिर्फ परमात्मा ही है। सृष्टि के सभी प्राणी उसी की शक्ति का एक छोटा सा अंश पाकर शक्तिवान बनते हैं। प्रशंसा योग्य भगवान ही हैं, अन्य कोई नहीं। जो लोग किसी की अतिशय प्रशंसा करते हैं, वे निश्चित ही स्वार्थ प्रेरित होते हैं। ऐसे लोगों से सावधान रहने में ही भलाई है।” महर्षि के इन वचनों से सम्राट के विवेक चक्षु खुल गए। वे उन्हें प्रणाम करते हुए राजकवि सौमित्र के साथ नगर की ओर चल पड़े।

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