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Magazine - Year 1997 - Version 2

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Language: HINDI
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कलंक और आक्रमण से निष्कलंक की सुरक्षा - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

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इन दिनों परिस्थितियाँ बड़ी विषम एवं प्रतिकूल हैं। सज्जनता पर आए दिन आक्रमण होते देखे जाते हैं। जिस समय विशेष से हम गुजर रहे हैं, यह बड़ा ही विकट एवं अत्यधिक उलट-फेरों से भरा हुआ है। महाकाल की युग-प्रत्यावर्तन प्रक्रिया जिसमें निष्कलंक प्रज्ञावतार का प्रकटीकरण होना हैं, आरम्भ हो चुकी है। गायत्री परिवार-युग-निर्माण मिशन के क्रियाकलापों से जुड़े व्यक्तियों को कभी-कभी आस-पास घटने वाली घटनाओं, भ्रष्ट चिंतन एवं दुष्ट आचरण में बढ़ोत्तरी देखकर निराशा आ घेरती है एवं वे अपना मनोबल खोने लगते हैं। उनका आत्म-विश्वास डगमगाने लगता है। ऐसी स्थिति में परमपूज्य गुरुदेव द्वारा अगस्त 1979 की अखण्ड-ज्योति में लिखा यह लेख उनके लिए एक विशिष्ट संजीवनी का कार्य करेगा। न केवल वे बाह्य व आन्तरिक आक्रमणों की ओर से जागरुक रहेंगे, अपना मन्यु जगाकर परमसत्ता के विधान पर अटल विश्वास रख और सक्रिय हो सकेंगे। इसी आशय से यह लेख यहाँ गायत्री जयंती परमपूज्य गुरुदेव की महाप्रयाण तिथि की बेला में जन-साधारण के लिए पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।

प्रगति के मार्ग में अवरोध का, विशेषतया श्रेष्ठ सम्भावनाओं में अड़चनें आने का अपना इतिहास है, जिसकी पुनरावृत्ति अनादिकाल से होती रही है। जिस प्रकार आसुरी संक्रमणों को निरस्त करने के लिए दैवी सन्तुलन की सृजन शक्तियों का अवतरण होता है, उसी प्रकार श्रेष्ठता की अभिवृद्धि को आसुरी तत्व सहन नहीं कर पाते। उसमें अपना पराभव देखते हैं और बुझते समय दीपक के अधिक तेजी के साथ जलने की तरह अपनी दुष्टता का परिचय देते हैं। मरते समय चींटी के पंख उगते हैं। पागल कुत्ता जब मरने को होता है तो तालाब में डूबने को दौड़ता है। पागल हाथी पर्वत पर आक्रमण करता है और उससे टकरा-टकराकर अपना सिर फोड़ लेता है। आसुरी तत्व भी जब अन्तिम साँस लेते हैं और एकबारगी मरणासन्न की तरह उच्छ्वास खींचकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। अवतारों की पुण्य-प्रक्रिया भी निर्बाध रीति से बिना किसी अड़चन के सम्पन्न नहीं हो जाती, उसमें पग-पग पर अवरोध और आक्रमण आड़े आते हैं।

भगवान कृष्ण पर जन्मकाल से ही एक के बाद एक आक्रमण हुए। वसुदेव जब उन्हें टोकरी में रखकर गोकुल ले जा रहे थे तो सिंह की गर्जन, घटाओं का वर्षण, सर्पों का आक्रमण जैसे व्यवधान उत्पन्न हुए। इसके बाद पूतना, वृत्तासुर, तृणावर्त, कालिया सर्प आदि द्वारा उनके प्राणहरण की दुरभिसन्धियाँ रची जाती रहीं। कंस, जरासन्ध जैसे अनेकों शत्रु बन गये। चाणूर, मुष्टिकासुर आदि ने उन पर अकारण आक्रमण किए। अन्ततः भीलों क्षरा गोपियों का हरण, व्याध द्वारा प्रहार करने जैसी घटनाएँ घटित हुईं।

कृष्ण की चरित्र-निष्ठा और न्याय-निष्ठा उच्चस्तरीय थी तो भी उन पर स्यमन्तर मणि चुराने का दोष लगाया गया। चरित्र-हनन की चोट भगवान राम को भी सहनी पड़ी। सीता जैसी सती को लोगों ने दुराचारिणी कहा और अग्निपरीक्षा देने के लिए विवश किया। जयन्त ने सीताजी पर अश्लील आक्रमण किया। सूर्पणखा राम के स्तर को गिराकर असुरों के समतुल्य ही बनाना चाहती थी। चाहना अस्वीकार करने पर उसने जो विपत्ति ढहाई वह सर्वविदित हैं। सत्यता और कर्त्तव्यों के प्रति राम के व्यवहार में कहीं कोई अनौचित्य नहीं था। फिर भी उसने वह षड्यन्त्र रचा जिससे उन्हें चौदह वर्ष के एकाकी वनवास में प्राण खो बैठने जैसा ही त्रास सहना पड़ा। रावण जैसे राक्षसों ने आक्रमण पर आक्रमण किये, इनमें से किसी से भी राम की ओर से पहल नहीं हुई थीं। वे तो मात्र आत्मरक्षा की ही लड़ाई लड़ते रहे।

ईसा को अपराधी ठहराया गया और शूली पर लटकाया गया। सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ा। दयानन्द को विष दिया गया। गाँधी को गोली से उड़ाया गया। व्याध ने कृष्ण के प्राणहरण किये। गुरु गोविन्द सिंह के अबोध बालकों को जल्लादों सिंह के अबोध बालकों को जल्लादों के सुपुर्द किया गया। मीरा निर्दोष होते हुए भी उत्पीड़न सहती रहीं। जहाँ तक अपराधों, आक्रमणों और प्रताड़नाओं का सम्बन्ध है, वहाँ तक जो जितना उच्चस्तरीय आत्मवेत्ता हुआ उसे उतना ही अधिक भार सहना करना पड़ा है। भगवान बुद्ध की जीवन-गाथा पढ़ने से पता चलता है कि पुरातन पंथी और ईर्ष्यालु उनके प्राणघाती शत्रु बने हुए थे। उन्होंने अंगुलिमाल को आक्रमण के लिए उकसाया था। चरित्र हनन के लिए लिए ढेरों दुरभिसंधियाँ रची थीं। समर्थकों में अश्रद्धा उत्पन्न करने के लिए जो षड्यन्त्र रचे जा सकते थे उसमें कुछ कसर नहीं छोड़ी गई थी। गाँधीजी का सतत् विरोध होता रहा। उन पर पैसा बटोरने और हड़पने का लाँछन लगाने वालों की संख्या आरम्भ में तो अत्यधिक थीं, अन्ततः उन्हें गोली से ही उड़ा दिया गया। मध्यकाल के संतों में सक प्रायः प्रत्येक को शत्रुओं की प्रताड़नाएं सहनी पड़ी हैं। आद्य शंकराचार्य, चैतन्य महाप्रभु, रामदास, एकनाथ, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, रामदास, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा वैरागी आदि इसके जीते-जागते प्रमाण हैं।

संसार के सुधारकों में प्रत्येक को प्रायः ऐसे ही आक्रमण न्यूनाधिक मात्रा में सहने पड़े है। संगठित अभियानों को नष्ट करने के लिए कार्यकर्त्ताओं में फूट डालने, बदनाम करने, बल प्रयोग से आतंकित करने जैसे प्रयत्न सर्वत्र हुए हैं। ऐसा क्यों होता है यह विचारणीय है। सुधारक पक्ष को अवरोधों का सामना करने पर उनकी हिम्मत टूट जाने, साधनों के अभाव से प्रगतिक्रम शिथिल या समाप्त हो जाने जैसे प्रत्यक्ष खतरे तो हैं, किन्तु परोक्ष रूप से इसके लाभ भी बहुत हैं। व्यक्ति की श्रद्धा एवं निष्ठा कितनी सच्ची और कितनी ऊँची है, इसका पता इसी कसौटी पर कसने से लगता है कि आदर्शों का निर्वाह कितनी कठिनाई सहन करने तक किया जाता रहा। अग्नि तपाये जाने और कसौटी पर कसे जाने और कसौटी पर कसे जाने से कम में, सोने के खरे-खोटे होने का पता चलता ही नहीं। आदर्शों के लिए बलिदान से ही महामानवों की अन्तःश्रद्धा परखी जाती है और उसी अनुपात से उनकी प्रमाणिकता को लोकमान्यता मिलती है। जिसे कोई कठिनाई नहीं सहनी पड़ी ऐसे सस्ते नेता सदा सन्देह और आशंका का विषय बने रहते हैं। श्रद्धा और सहायता किसी पर तभी बरसती है, जब वह अपनी निष्ठा का प्रभाव प्रतिकूलताओं से टकराकर प्रस्तुत करता है।

दुरभिसंधियों के रचने वाले हर सफलता के बाद दुगुने साहस के साथ अपने दुष्कर्मों को निर्द्वन्द्व होकर बढ़ाते हैं। निष्ठावानों से टकराने पर उनके दाँत खट्टे होते हैं। आक्रमण महँगा पड़ता है और भविष्य के लिए उनकी हिम्मत टूट जाती है। लोक तिरस्कार के कारण वे मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। यह उदाहरण दूसरे के सामने भी प्रस्तुत होता है और श्रेष्ठता से अकारण टकराने का प्रतिफल क्या होता है, इसका पता न केवल आततायियों को, वरन् उस वर्ग के अन्य लोगों का साहस तोड़ने के लिए भी पर्याप्त होता है। अपयश और तिरस्कार का दण्ड जेल-फाँसी से भी महँगा पड़ता है। ऐसी स्थिति श्रेष्ठ व्यक्तियों या आन्दोलनों से ही टकराने पर बनती है। सामान्य लोगों के बीच तो आक्रमण-प्रत्याक्रमण के क्रम आये दिन चलते ही रहते हैं।

अन्धश्रद्धाओं का समर्थन भी जोखिम भरा है। किसी के साथ अनगढ़, अधकचरे, अपरिपक्वों की मण्डली हो तो वह उसे जन-शक्ति समझने की भूल करता रहता है। किसकी श्रद्धा एवं आत्मीयता कितनी गहरी है, इसका पता चलाने का एक मापदण्ड यह भी है कि अफवाहों या किन्तु सदाशयता की पक्षधर अनेकानेक घटनाओं को क्षणभर में भुला न दिया जाय। जो अफवाहों की फूँक से उड़ सकते हैं वे वस्तुतः बहुत ही हलके और उथले होते हैं। ऐसे लोगों का साथ किसी बड़े प्रयोजन के लिए कभी कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। उन्हें कभी भी, कोई भी, कुछ भी कहकर विचलित कर सकता है। ऐसे विवेकहीन लोगों की छँटनी कर देने के लिए कुचक्रियों द्वारा लगाये गये आरोप या आक्रमण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होते हैं। योद्धाओं की मण्डली में शूरवीरों का स्तर ही काम आता है। शंकालु, अविश्वासी, कायर प्रकृति के सैनिकों की संख्या भी पराजय का एक बड़ा कारण होती है। ऐसे मूढ़मतियों को अनाज में से भूसा अलग कर देने की तरह यह आक्रमणकारिता बहुत ही सहायक सिद्ध होती है। दुरभिसन्धियों के प्रति जन-आक्रोश उभरने से सहयोगियों का समर्थन और भी अधिक बढ़ जाता है। उस उभार से सुधारात्मक आन्दोलनों का पक्ष सबल ही होता है। कुसमय पर ही अपने-पराये की परीक्षा होती है। इस कार्य को आततायी जितनी अच्छी तरह सम्पन्न करते हैं उतना कोई और नहीं। अस्थिर मति और उद्दण्ड साथियों से पीछा छूट जाना और विवेकवानों का समर्थन-सहयोग बढ़ना जिन प्रतिरोधों की उत्तेजना उत्पन्न हुए बिना सम्भव ही नहीं होता।

प्रज्ञावतार ही निष्कलंक अवतार है। उसके प्रतिपादनों और समर्थकों को लोकश्रद्धा कैसे मिले? इसके रचनात्मक आधार तो कितने ही हैं, पर एक निरोधात्मक आधार भी हैं-आसुरी आक्रमण। इसके पश्चात् ही किसी महान् व्यक्ति या आन्दोलन की प्रौढ़ता का पता चलता है। कलंक-कालिमा दौर और अवरोध-आक्रमणों का क्रम ही अगले दिनों वह स्थिति उत्पन्न करेगा, जिससे निष्कलंक भगवान की सर्वत्र जय-जयकार होने लगे।

यह क्रम अपने इस अभियान में भी निश्चित रूप से चलेगा। चलता भी रहा है। प्रतिगामी निहित स्वार्थों द्वारा तरह-तरह के आक्षेप लगाये जाते रहे हैं। बदनाम करने का कोई अवसर उन्होंने नहीं छोड़ा। अश्रद्धा उत्पन्न करने के लिए जो कुछ कहा जा सकता था- जो कुछ किया-कराया जा सकता था, उसमें कहीं कुछ कमी नहीं रहने दी गई है। यह सारा उत्पात उन आसुरी तत्वों का है जो अवाँछनीयताओं की सड़ी कीचड़ में ही डाँस, मच्छरों की तरह अपनी जिन्दगी देखते हैं। कुछ ईर्ष्यालु हैं, जिन्हें अपने अतिरिक्त किसी अन्य का यश-वर्चस्व सहन ही नहीं होता। इसके अतिरिक्त सड़े टमाटरों का भी एक वर्ग हैं जो पेट में रहने वाले कीड़ों की, चारपाई पर साथ सोने वाले खटमलों की, आस्तीन में पलने वाले साँपों की तरह जहाँ आश्रय पाते हैं, वहीं खोखला भी करते हैं। बिच्छू अपनी माँ के पेट का माँस खाकर ही बढ़ते और पलते हैं, माता का प्राणहरण करने के उपरान्त ही जन्म धारण करते हैं। कृतघ्नों और विश्वासघातियों का वर्ग इस युग में जिस तेजी से पनपा है उतना सम्भवतः इतिहास में भी इससे पहले कभी भी नहीं देखा गया।

अवाँछनीयता हर क्षेत्र में जड़ जमाये बैठी है। युग-परिवर्तन की प्रक्रिया भी उसे उखाड़ने की उसी क्रम अनुपात से चलेगी जितनी कि सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों को संवर्द्धन हेतु। ऐसी दिशा में दुष्प्रवृत्तियों के सामने जीवन-मरण का प्रश्न उपस्थित होगा। अभियान को जब तक दुर्बल समझा जाएगा, तब तक उसे उपहास-उपेक्षा का पात्र बने रहने दिया जाएगा। व्यंग्य, तिरस्कार बरसते रहेंगे। किन्तु जब उसकी समर्थता और सफलता का आभास होने लगेगा तो विरोध एवं आक्रमण का सिलसिला चल पड़ेगा। अन्ततः वह देवासुर संग्राम उतना ही प्रचण्ड हो जाएगा जितना कि सृजन प्रत्यावर्तन। इसके लिए प्रत्येक सृजनशिल्पी को पहले से ही तैयार रहना होगा। किसान का मुख्य काम अन्न उपजाना है, विभुक्षा का समाधान करना है। तो भी उसे इस कार्यक्षेत्र में आये दिन सर्प, बिच्छुओं, दीमकों, सुअर, भेड़ियों से मुठभेड़ के साधन सँजोकर रखने होते हैं। स्वयं श्रेष्ठ कर्म में निरत हैं, यह इस बात की गारंटी नहीं कि दुष्ट-दुरात्माओं के आक्रमण होंगे ही नहीं। सज्जनता सामने से ही अनाक्रम दीखती हैं, पर परोक्ष रूप से उसमें भी दुष्टता की विघातक सामर्थ्य परिमाण में भरी पड़ी है। असुर वस्तुस्थिति को समझता है, इसलिए देव पर कुछ प्रत्यक्ष कारण न रहने पर भी आक्रमण करने से चूकता नहीं। प्रकाश के उदय में अन्धकार की मृत्यु हैं। इसलिए सूर्योदय से पूर्व एक बार सघन तमिस्रा जमा होती है और प्रकाश से जूझने का उपक्रम करती है, भले ही उसे अन्ततः मुँह की ही क्यों न खानी पड़े।

शाँतिकुँज के युग-निर्माण अभियान की प्रज्ञावतार प्रक्रिया इन समस्त सम्भावनाओं से भरी हुई है। सहयोग उसे प्रचुर परिमाण में मिलना है, किन्तु ऐसी घटनाएँ भी कम नहीं होंगी जो प्रत्यक्ष आक्रमण में कठिनाई और परोक्ष दुरभि-सन्धि रचने में सरलता देखकर उसी मार्ग को अपनाये। अन्तः क्षेत्र से उभरने वाली और बाहरी क्षेत्र से आक्रमण करने वाली दोनों ही स्तर की दुरभिसन्धियों से अभियान की सुरक्षा का प्रबन्ध हम सभी को करना चाहिए। इस संदर्भ में बरती जाने वाली जागरुकता, साहसिकता एवं शूरवीरता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि सृजन प्रयोजनों के लिए बरती जाने वाली उदार सेवा-साधना एवं भावभरी परमार्थ-परायणता।

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