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Magazine - Year 1997 - Version 2

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विधि का विधान अटल है रे भाई

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First 21 23 Last
क्या है विधि का विधान? सायंकालीन भ्रमण के समय महाराज जयवर्धन अपने महामात्य से अचानक पूछ बैठे। शाम की शीतल बयार उनके मन की तरंगों को हौले-से गति दे रही थी। एक आम्रकुंज बालादित्य को सम्बोधित करते हुए कहने लगे, “मंत्रिवर, क्या विधि के विधान में कोई तर्क है, जो यह बता सके कि मैं राजा क्यों हूँ और आप मंत्री क्यों हैं?”

“महाराज, स्रष्टा की विधि-व्यवस्था उद्देश्यपूर्ण है। सृष्टि में कहीं कोई संयोग नहीं है। सभी कुछ यहाँ कर्मफल के सुनिश्चित विधान से अनुशासित हैं।” बालादित्य ने उत्तर दिया।” इसलिए कोई राजा क्यों बना और कोई मंत्री क्यों इसका कोई न कोई कारण अवश्य होगा।”

“वही तो मैं जानना चाहता हूँ।” राजा के स्वर में आतुरता की अकुलाहट थी।

“महाराज, आपके सवालों का उत्तर तो कोई भूत-भविष्य को जानने वाला, वर्तमान के सत्य से परिचित कोई त्रिकालदर्शी ही बता सकता है।” महामात्य ने सुझाव दिया।

“ऐसा त्रिकालदर्शी सिद्ध पुरुष कौन हैं?”

“महायोगी सरपहा।”

“आमात्यवर, हम उनके दर्शन करके अपनी जिज्ञासा शान्त करना चाहते हैं।” जयवर्धन उतावले स्वर में बोले।

“उनके दर्शनों के लिए हमें साल वन की यात्रा करनी पड़ेगी। महासिद्ध वहाँ एक कुटिया में रहते हैं।”

“बहुत अच्छा, हम कल वहाँ चलेंगे।” महाराज जयवर्धन अपनी जिज्ञासा का समाधान अतिशीघ्र ढूँढ़ लेना चाहते थे।

दूसरे दिन सुबह महाराज और महामात्य दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर वन की ओर चल पड़े और दोपहर के समय बीहड़ जंगल में स्थित योगीराज की कुटिया पर पहुँच गए। महायोगी के तेजस्वी मुख को देख राजा जयवर्धन ने श्रद्धावनत हो उन्हें प्रणाम किया।

योगीराज ने अपनी मधुर वाणी में उन्हें आशीर्वाद दिया आसन ग्रहण करने का संकेत दिया। जंगल के मीठे फलों से उनकी आव-भगत करते हुए उन्होंने राजा से वहाँ आने का कारण पूछा।

“प्रभु! मेरे मन में विधि के विधान के रहस्य को जानने की उत्सुकता है। बार-बार मेरे मन में यह सवाल गूँजता है, मैं राजा क्यों बना?” महाराज जयवर्धन ने अपने मन की बात निवेदित कर दी।

“ठीक है राजन्, आप इतने उत्सुक हैं तो मैं बताता हूँ-आप यहाँ से दक्षिण दिशा में बीस कोस की यात्रा करें। आपको वहाँ एक आदमी मिलेगा, जो कंकड़-पत्थर खा रहा होगा। वह आपके प्रश्न का उत्तर देगा।” योगीराज ने राजा को समझाते हुए कहा। उनकी यह बात सुनकर महाराज जयवर्धन अचरज में पड़ गए। कंकड़-पत्थर खाने वाले आदमी के बारे में सोचते हुए उन्होंने रात्रि में वहीं पर विश्राम किया और दूसरे दिन मंत्री को साथ लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े। बीस कोस की यात्रा के पश्चात् उन्हें सामने बंजर धरती दिखाई दी। जब वे पास पहुँचे तो उन्होंने देखा कि उस बंजर जमीन के किनारे एक आदमी बैठा हुआ है और कंकड़-पत्थर खाए जा रहा है। उस आदमी का शरीर हड्डियों का पिंजर मात्र था। परन्तु वह कंकड़-पत्थरों को चबाए जा रहा था और चुभने के कारण मुंह से खून बह रहा था।

राजा विस्मित होकर कुछ पल तक उसे देखते रहे। फिर उन्होंने उस आदमी से पूछा-”तुम कंकड़-पत्थर क्यों खा रहे हों?”

“महाराज, मैं आपके प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता।” मुँह से बहते खून को पोछते हुए वह आदमी बोला,”यहाँ से बीस कोस दक्षिण में एक आदमी रहता है, जो मिट्टी खाता है, वह आपके सवालों के उत्तर देने में सक्षम है।” इतना कहकर वह चुप हो गया और मुँह फेरकर फिर से कंकड़-पत्थर खाने लगा।

राजा ने वह रात पास के एक गाँव में गुजारी और दूसरे दिन मंत्री को साथ लेकर अपनी यात्रा करने के पश्चात् उन्हें जंगल में एक जगह मिट्टी का ढेर दिखाई दिया। जब राजा और मंत्री उस मिट्टी के ढेर के पास पहुँचे तो यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही कि एक आदमी मिट्टी खाकर अपनी भूख मिटाने का प्रयास कर रहा है। लगातार मिट्टी खाकर जीने से उसका शरीर सूखकर काँटा हो गया था, बड़ा’-सा पेट निकल आया था। उसका चेहरा एकदम जर्द पीला पड़ गया था।

“तुम यह मिट्टी क्यों खा रहे हो? क्या तुम्हारे पास खाने को कुछ नहीं है।” राजा ने उसकी असहनीय पीड़ा पर दया दिखाते हुए बड़े ही कोमल स्वर में पूछा।

“राजन्! आपके प्रश्नों के उत्तर मैं नहीं दे सकता।” वह आदमी आँसू पोछते हुए बोला, अगर आप अपने प्रश्नों के उत्तर जानने के इच्छुक हैं तो बीस कोस दक्षिण दिशा में जाएँ। आपको वहाँ एक ऐसा आदमी मिलेगा जो भूख की पीड़ा से बेहाल है। वह बार-बार खाना खाने की कोशिश करता है, परन्तु हर बार पेट में खाना पहुँचते ही उल्टी हो जाती है। उसने काफी इलाज भी करवाए, अनेकों दवाओं का सहारा भी लिया, परन्तु सब कुछ नाकाम रहा। अब तो जैसे भूख की पीड़ा से गुजारना ही उसकी नियति है। वही आपको आपके सवालों का सही जवाब दे सकता है। यह कहते हुए उसने मिट्टी का एक ढेला उठाया और खाने लगा। मिट्टी खाते हुए उसके चेहरे पर बड़ी बेबसी के भाव थे।

राजा को उसकी बात सुनकर बड़ा अजीब-सा लगा। वह लगातार इतनी अजीबो-गरीब यात्राएँ करते हुए थक गए थे। अब तो उन्हें अपने ऊपर गुस्सा आने लगा था। वह सोचने लगे कि आखिर उन्हें भी क्या सूझी जो इस विधि के विधान के रहस्य को जानने के लिए चल पड़ें। एक के बाद एक आश्चर्यों से पाला पड़ रहा है, और गुत्थी है कि सुलझने की बजाय उलझती जा रही है। इस उधेड़बुन में वह काफी थक-से गए थे। विवश होकर मुँह फेरकर वह कुछ देर चुप खड़े रहे। फिर महामात्य से बोले-”आमात्यवर, यह क्या चक्कर है? ये बीस कोस की और कितनी यात्राएँ करनी पड़ेंगी?”

“महाराज मुझे ये आदमी पहचाने से लगते हैं। मेरा अनुमान है कि शायद यह बीस कोस की अन्तिम यात्रा होगी।”

महामात्य ने कुछ सोचते हुए कहा। महामात्य की बात सुनकर राजा की निराशा कुछ कम हुई। रात को वहाँ विश्राम कर दूसरे दिन सुबह वे फिर अपनी यात्रा पर निकल पड़े। सचमुच बीस कोस की यात्रा के बाद एक गाँव में उन्हें एक आदमी मिला, जो भूख की पीड़ा से बेहाल था। तरह-तरह का भोजन उसके पास रखा था। वह उसे खाने का प्रयत्न भी करता, लेकिन हर बार उल्टी हो जाती। गाँव वालों ने महाराज जयवर्धन एवं उनके महामात्य को बतलाया कि हम सबने इसके इलाज और उपचार की काफी कोशिशें कीं, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। राजा जयवर्धन काफी देर तक उसकी बेबसी को देखते रहे, फिर बोले, “हे महानुभाव! आपकी यह क्या गति है? किसी ने बना दी है या फिर विधाता ने रची हैं।”

“राजन् अपनी इस गति का कारण मैं स्वयं हूँ। आप बैठ जाएँ। और विश्राम कर लें, फिर मैं आपको अपनी कहानी सुनाता हूँ। मेरी कहानी में ही आपको अपने प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे।” उस आदमी ने अटक-अटक कर अपनी बात पूरी की।

जब राजा ने विश्राम कर लिया तो वह आदमी अपनी कहानी सुनने बैठा। “राजन् कभी किसी समय हम पाँच मित्र व्यापार के लिए यात्रा कर रहे थे। मात्रा के बीच में एक दिन तालाब के किनारे हम सब दोपहर का भोजन करने के लिए रुकें। सभी के पास दो-दो रोटियाँ थीं। सभी मित्रों ने सलाह बनायी कि चटनी पीसी जाय और उसके साथ रोटी खायी जाए। एक साथी को भूख कुछ ज्यादा ही लगी थी, सो उसने बिना चटनी के ही रोटी खा ली, बाकी साथी जब चटनी पीस कर रोटी खाने के लिए बैठे तो एक साधु वहाँ पहुँचा और बोला-मुझे दो रोटियाँ दे दो, बड़ी भूख लगी है। इसके उत्तर में पाँच साथियों के पाँच उत्तर मिले।

पहले ने कहा-अच्छा, तुम्हें भूख लगी है और मुझे क्या लगी है। दो ही तो रोटियाँ हैं, अगर ये भी तुम्हें दे दूँ तो मैं क्या कंकड़-पत्थर खाऊँ। इससे तो अच्छा है कि तुम्हीं कंकड़-पत्थर चबाओ। दूसरे ने कहा-जा भाग यहाँ से इतनी मेहनत से चटनी पीसी है, अगर ये रोटी चटनी तुम्हें दे दूँ तो मैं क्या मिट्टी खाऊँ। अच्छा हो कि तुम्हें मिट्टी खाकर पेट भर लो।

तुम्हारी भूख मिटाकर मुझे क्या मिलेगा? रोटी के सहारे तो पेट भरता है। उन्हें तुम्हें देकर मैं क्या भूखा तड़पूँ। भूख की पीड़ा से छटपटाना है, तो तुम्हीं छटपटाओ। जाओ भागों यहाँ से।

चौथा कहने लगा, साधु महाराज मैं विवश हूँ। तुम्हें रोटी नहीं दे सकता क्योंकि आपके यहाँ आने से पहले ही मैं अपनी रोटियाँ खा चुका हूँ। अगर होती तो मैं जरूर दे देता। मुझे दुःख है कि आपकी भूख मिटाने में असमर्थ हूँ।

हम सब की बातें सुनकर पाँचवें ने बड़े ही विनम्र स्वर में कहा-साधु महाराज, आप मेरे साथियों की बातों पर ध्यान न दें। ये दो रोटियाँ मेरे पास हैं। आप इन्हें खाकर अपनी भूख मिटा लें।

यह कहते हुए हमारे पाँचवें साथी ने अपनी दोनों रोटियाँ हाथ में पकड़ ली और बारी-बारी से हम सबकी ओर देखकर बोला-जैसी तुम्हारी भावना है, वैसा ही तुम्हें फल मिलेगा। तुम लोग विधि के विधान को शायद नहीं जानते। इस संसार में भावनाएँ, विचार और कर्म अपने अनुरूप परिणाम प्रस्तुत किये बिना नहीं रहते। इसमें देर-सबेर भले ही हो जाए, पर क्रिया की प्रतिक्रिया हुए बिना नहीं रहती।

जिसने मुण् कंकड़-पत्थर से पेट भरने की सलाह दी है, उसे अगले जन्म में कंकड़-पत्थर खाकर ही रहना पड़ेगा। मुझे मिट्टी खाने की बात कहने वाले को मिट्टी खाकर ही गुजारा करना होगा और जो कहता है मैं कही भी जाकर भूख से तड़पूँ, उसे अपनी भावनाओं के अनुसार भूख से तड़पना होगा। फिर रोटियाँ देने वाला साथी की ओर मुँह फेरकर साधु बोला-तुम्हारा मन परोपकार की भावना से भरा है, इसलिए तुम अगले जन्म में राजा बनोगे। फिर अगले साथी की ओर देखते हुए साधु कहने लगा-तुम्हारी भावना अच्छी है, परंतु तुम दान करने से पहले ही अपना भाग खा चुके थे अतः तुम राजा के मंत्री बनोगे।

राजन् इस तरह हम पाँचों मित्र इस जीवन में विधि का विधान भोग रहे हैं।”

“आप सबने साधु से इस कष्ट से निवारण का उपाय क्यों नहीं पूछा? फिर आपको पिछले जन्म की बातें याद कैसे हैं?” राजा ने जानना चाहा।

“हम तो उसकी बातें सुनते ही अवाक् रह गए थे। हमसे कुछ बोलते ही नहीं बन पड़ा हमारे कुछ बोलते ही नहीं बन पड़ा। हमो उद्धार के लिए प्रार्थना आपने ही की थी और महामात्य ने भी हाथ जोड़कर आपका साथ दिया था। तब साधु ने कहा था कि ठीक है अगले जन्म में तुम्हें मुक्ति भी इसी राजा के द्वारा मिलेगी, जब तुम्हारी सजा पूरी हो जाएगी तो यह तुम सबकी सुधि लेगा। तुम्हें मेरे पास लाएगा और तुम सब अपने विगत कर्म से उबर सकोगे। तुम्हारा प्रायश्चित शीघ्र पूरा हो, इसलिए मेरे आशीर्वाद से तुम्हें अपने इस जन्म की बातें याद रहेंगी, ताकि तुम सब शीघ्रातिशीघ्र अपनी भावनाओं को निर्मल कर सको।”

राजा ने वापस लौटते हुए उन सबको अपने साथ लिया और सभी के साथ महासिद्ध सरपहा के पास आ पहुँचे। योगीराज सरपहा महाराज जयवर्धन की ओर देखकर मुस्कराए और बोले-”राजन्! तुम्हारी परोपकार की भावना अमिट है। तुम्हारे मित्रों ने अपनी करनी की सजा भुगत ली है और सच्चे मन से प्रायश्चित कर रहे हैं। अतः अब ये अपने कष्टों से मुक्त हो जाएँगे। इसी के साथ तुम्हें विधि के विधान का रहस्य भी ज्ञात हो चुका होगा।”

“अभी एक शंका है।” राजा जयवर्धन के स्वर में तनिक संकोच था।

“निश्चित होकर कहो राजन्।” महायोगी राजा के संकोच को भाँप चुके थे।

जयवर्धन ने थोड़ा धीमे स्वर में कहा, “मनुष्य के भावना, विचार एवं कर्म समयानुसार अपने अनुरूप तीव्र, मध्यम या मन्द प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। विधि के इस विधान को हमने अपने एवं अपने

मित्रों के जीवन से समझा। लेकिन हमारे मित्रों के बुरे बर्ताव से आपके मन में जो हलका आवेश उत्पन्न हुआ था, उसकी प्रतिक्रिया?”

हँसते हुए योगीराज बोले,”विधि के विधान से कोई ऊपर नहीं, फिर चाहे वह कितना भी श्रेष्ठ या वरिष्ठ ही क्यों न हो। मैं भी अपने क्षणिक आवेश के कारण तुम लोगों से बँध गया था। अपने उसी आवेश का प्रायश्चित करते हुए मैं तब से तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, ताकि तुम्हें अपने श्राप से मुक्त कर सकूँ।

पाँचों मित्रों ने महासिद्ध को प्रणाम किया और राजा जयवर्धन के साथ उसकी राजधानी की ओर चल पड़े।

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