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Magazine - Year 1997 - Version 2

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अतिथि, कृपया इन मर्यादाओं को समझें

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First 19 21 Last
इन दिनों छुट्टियाँ हैं, अतिथि अक्सर ऐसे ही दिनों बाहर निकलते हैं। कुछ व्यावहारिक सूत्र यहाँ जीवन-साधना के ऐसे विषय पर दिये जा रहे हैं जो प्रायः उपेक्षित रहता है।

अतिथि-सत्कार पारिवारिक जीवन का एक महत्वपूर्ण व्यवहार है। हमारे देश में इसको बहुत अधिक गरिमा दी गई हैं। परिवर्तित वातावरण में इसका प्राचीन स्वरूप यथावत् तो रह नहीं सकता, तो भी परिवारों में अतिथि के आने या स्वयं कहीं अतिथि बनकर जाने के प्रसंग आते ही रहते हैं। इसलिए दोनों पक्षों को कुछ मर्यादाओं को ध्यान में रखना तथा उन्हें निभाना आवश्यकता है। आतिथेय की भूमिका अतिथि के आने पर ही प्रारम्भ होती है। अतः सर्वप्रथम अतिथि के व्यवहार पर ही विचार आवश्यक है।

बिना आमन्त्रण के कहीं भी अतिथि बनकर जा पहुँचना उचित नहीं, भले ही रिश्तेदार का घर हो या मित्र का। कभी किसी आवश्यक कार्यवश कहीं जाना पड़े तो इसका विचार अवश्य कर लेना चाहिए कि जहाँ। जिस काम से जा रहे हैं, क्या वह अन्यत्र ठहरकर भली-भाँति किया सकता हैं? बहुत से लोग आजीविका सम्बन्धी कार्य से उस शहर-कस्बे में जाने पर भी मित्रों-रिश्तेदारों के घर टिकना और भत्ता बचाना चतुरता मान बैठते हैं, तो कुछ अन्य लोग मौज-मनोरंजन का अपना कार्यक्रम स्वतः ही बनाकर अतिथेय से परामर्श-स्वीकृति सब अनुचित है। ऐसी स्थितियों में पत्र द्वारा ठहरने आदि की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक है।

दूसरा विचार इस बात का करना चाहिए कि जहाँ अतिथि बनकर ठहरने का विचार कर रहे हैं, वहाँ अपने कार्य एवं विचार कर रहे हैं, वहाँ अपने कार्य एवं अपनी मनः स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला कोई वातावरण तो नहीं हो सकता? यदि वहाँ पहुँचने पर समय पर तैयार ही न सके, मन प्रसन्न ही न रह सका, तो कार्य पर इनका प्रभाव पड़ेगा। अतिथेय के यहाँ पानी का अभाव, शौचालय की अव्यवस्था जैसे कई कारण हो सकते हैं, जिससे आप अपने स्वभाव एवं कार्य के अनुकूल समय पर तैयारी न कर पाएँ। अतिथि को सुबह उठने की आदत है और ठहरा दिया गया है एक कोने में स्थित कमरे में। आतिथेय का परिवार देर तक सोने का अभ्यस्त है और इस आश्वासन के बाद भी कि उनमें से अमुक सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि को जाने वाले रास्ते के किवाड़ आदि खोल देगा, आदत से लाचार दिन चढ़े तक सो ही रहा है, तब क्या स्थिति होगी? खीझ, झुंझलाहट या परेशानी ही तो मिलेगी। क्या यह अधिक अच्छा न होता कि कहीं होटल-सराय-धर्मशाला में ठहरकर समय पर तैयार हो जाते, अपना काम करते। फिर समय मिलने पर वहाँ भी हो आते, जिनके यहाँ रिश्ते या मैत्री के कारण अतिथि बनकर जाने की योजना बनाई जाती है।

कोशिश यही की जानी चाहिए कि अपने कार्यवश कहीं जाना पड़े तो परिचित या रिश्तेदार के घर न रुककर स्वयं के ठहरने की व्यवस्था अन्यत्र करें। अनचाहे मेहमान बनकर कहीं भी न जा धमके। चाहे कितना भी निकट का रिश्ता हो या घनिष्ठ मैत्री हो। देवी सती की कथा इस संदर्भ में स्मरण कर लेनी चाहिए। वे अपने पिता दक्ष प्रजापति के यहाँ अनचाहे अतिथि के रूप में जा पहुँची थीं। इस कारण वहाँ के उपेक्षा भरे वातावरण की कचोट से उन्हें पश्चाताप की अग्नि में जलना पड़ा।

जहाँ अतिथि बनकर रहे हैं, उनसे घनिष्ठता-सद्भावना होना ही पर्याप्त नहीं। यह आर्थिक संकट का युग है। ऐसा भी हो सकता है कि निश्छल सद्भाव होने पर भी आतिथेय आर्थिक विवशता के कारण आतिथ्य सत्कार में असमर्थ हो। अतः इन सब बातों का विचार करने के बाद ही किसी के यहाँ अतिथि बनकर जाने की तैयारी करनी चाहिए।

यदि स्थिति अनुकूल हो और बहुत घनिष्ठता हो तो अपने पहुँचने की सूचना पत्र द्वारा देते हुए वहाँ पहुँचने की सूचना पत्र द्वारा देते हुए वहाँ पहुँचने का, गाड़ी आदि का समय भी लिखा देना चाहिए, ताकि आतिथेय स्वागत के लिये पहुँच सकें।

बिना पूर्व सूचना के सदल-बल, पत्नी, बच्चों समेत किसी के घर जा धमकना हर प्रकार से अनुचित है। यह आतिथेय के साथ अन्याय है। वह सदाशयी होते हुए भी यदि इस आकस्मिक स्थिति में समुचित व्यवस्था न जुटा पाया तो व्यर्थ ही परेशान होगा, झुँझलाएगा अथवा लज्जित होगा। इससे सम्बन्धों में तनाव आयेगा।

आतिथेय की भी इस संदर्भ में समान जिम्मेदारी है। जब अपना मित्र या परिजन आने-ठहरने के लिए पत्राचार द्वारा पूछता है, उस समय अपनी स्थिति विनम्र किन्तु स्पष्ट शब्दों में लिख देनी चाहिए। यदि घर में स्थान नहीं हैं, इच्छा नहीं है या वातावरण नहीं है, तो अतिथि टिकने के बाद तंग होगा, परेशान होगा इससे अधिक अच्छा है कि पहले ही अतिथि को घर पर न टिकाकर होटल आदि में टिकाने का बन्दोबस्त कर लिया जाय। यदि अपनी आर्थिक स्थिति उस समय अनुकूल नहीं है, तो पत्र में ही वैसा स्पष्ट कर देना चाहिए। अतिथि जब घर आकर ठहरेंगे, तब तो उन्हें घर की स्थिति का आभास ही हो जाएगा। अतः शुरू में ही अनावश्यक संकोच न किया जाय।

जब अतिथि आएँ उस समय, यदि हो सके और सूचना हो, तो आतिथेय को स्टेशन, बस स्टेण्ड पहुँचना चाहिए। इससे आतिथेय की प्रसन्नता और उत्साह प्रकट होगा तथा अतिथि अपने आने की अनुकूल प्रतिक्रिया देखकर आनन्दित होगा।

स्वागत-सत्कार में आडम्बर-प्रदर्शन हर प्रकार से हानिकर है। जैसी अपनी स्थिति है, वैसा ही सत्कार करना चाहिए। स्वादिष्ट व्यंजनों और महँगे मनोरंजनों द्वारा सत्कार की प्रवृत्ति अनुचित है। इनसे कोई अच्छा परिणाम भी नहीं निकलता। यदि अतिथि अपना सच्चा हितैषी है, तो वह स्पष्टतः ऐसे अनाप-शनाप खर्चा का सच्चे मन से विरोध करेगा। न मानने पर उसे मानसिक कष्ट होगा। यदि अतिथि कोई ऐसे रिश्तेदार हैं, जो अपने ताम−झाम भरे स्वागत के, सेवा के इच्छुक हैं, तब तो फिजूलखर्ची और भी न करनी चाहिए। क्योंकि ऐसे लोगों को अपने स्वागत की भूख मिटती नहीं, चाहे मेजबान कर्ज लेकर भी उनकी बढ़िया आवभगत करे। उन्हें तो अन्ततः टीका-टिप्पणी करनी है। दूसरी जगह हुए अपने किसी वास्तविक या काल्पनिक सत्कार से इस स्वागत की तुलना कर मेजबान को नीचा दिखाना ही है। ऐसे लोगों पर अनावश्यक बोझ सहकर खर्च करना बेकार है।

मेहमानों की संख्या एवं प्रकृति अनुरूप उनकी व्यवस्था करनी चाहिए। उनमें आतिथेय को पूरी रुचि लेनी चाहिए। उनके लिए व्यर्थ की भागदौड़ तो अनावश्यक है, किन्तु सहज-शाँति एवं सजग भाग से उनकी सुख-सुविधाओं का पूरा-पूरा ध्यान रखना आवश्यक है, ताकि उन्हें यहाँ भी घर जैसा अपनत्व अनुभव में आए। प्रसन्न रहें। उनके समुचित मनोरंजन की व्यवस्था भी करनी चाहिए। इसी क्रम में आतिथेय के परिवार का मनोरंजन भी हो जाएगा और स्वागत भी कहलाया जाएगा। दूसरी ओर अतिथि का कर्त्तव्य यह है कि उन्हें इस बात का ध्यान रहे कि उनके कारण आतिथेय का दैनिक कार्यक्रम अस्त-व्यस्त न हो। वे अपना दैनन्दिन काम सुचारु रूप से करने के बाद शेष समय ही अतिथि के साथ-साथ बिताएँ, इसका अतिथि को स्वयं ही ध्यान रखना चाहिए तथा आग्रह करना चाहिए। आतिथेय के कार्यक्रमों में अव्यवस्था पैदा करने वाला अतिथि भार जैसा प्रतीत हो सकता है।

अपने लिए किसी अतिथि या विशेष व्यवस्था का स्वयं तो कदापि आग्रह नहीं ही करना चाहिए। पूछने पर भी, जो आवश्यक हो, वही व्यवस्था बनाएँ। यही शालीनता का आग्रह है।

बच्चे, बूढ़े और बीमार लोगों को साथ लेकर कहीं मेहमान नहीं बनना चाहिए। बीमार को साथ ले जाएँ तो अन्य, रुकने की व्यवस्था करें। बच्चे अधिक हों या बहुत ज्यादा बूढ़े हो चुके बुजुर्ग हों तब भी ऐसा ही करें।

छोटा बच्चा साथ ले जाएँ, तब उसकी आवश्यक वस्तुएँ स्वयं ही साथ ले जाएँ। आतिथेय के यहाँ यदि छोटे बच्चे न मिलेगी। ऐसे सामान स्वयं के ही साथ रखना चाहिए। तौलिया, कंघी जैसी आवश्यक वस्तुएँ और विस्तार अतिथि को अपने साथ लेकर ही चलना चाहिए। आतिथेय के यहाँ टूथब्रश आदि माँगते फिरना अच्छा नहीं लगता है। फिर वे नया ब्रुश खरीद कर लाएँ, तब तो बात बने। अतिथि द्वारा ऋतु अनुकूल बिस्तर साथ न रखने पर भी आतिथेय को भारी असुविधा हो सकती है।

रुकने पर अपनी दिनचर्या ऐसी बनानी चाहिए कि जिससे आतिथेय की झंझटें न बढ़े। छोटे बच्चों को बिना मोमजामा और चादर बिछाए आतिथेय के बिस्तर पर न लिटा दें अन्यथा मलमूत्र से वह बिस्तर गन्दा हो जाएगा और झेंप की स्थिति आ जाएगी। अपने बच्चे आतिथेय के घर तोड़-फोड़ न करें, इसका ध्यान रखना भी अतिथि का ही कर्त्तव्य है अन्यथा बच्चे स्वाभाविक उत्सुकतावश चीजों को उलट-पुलट, अस्त-व्यस्त कर देंगे। कुछ वयस्क अतिथि भी आतिथेय की वे वस्तुएँ जिनसे सम्बन्ध नहीं, छूने, उलटने-पलटने में या कागजात आदि उठाने-देखने में नहीं झिझकते। यह अभद्रता है। आतिथेय के घर पर आप जासूसी करने नहीं गये हैं। वहाँ शीलयुक्त संकोच आवश्यक है। मुक्त व्यवहार से आशय आत्मीयता से है। आतिथेय यह कहेगा ही कि यह तो आपका ही घर है, पर सचमुच उसे पूरी तरह अपना मानकर ताक-झाँक, हटाना-खोजना शुरू न कर दें, अन्यथा स्नेह सम्बन्ध विकृत ही होंगे। हाँ आतिथेय के घरेलू कार्यों में सोत्साह पूरा हाथ बँटाना चाहिए। यदि अतिथि महिला है तो उन्हें रसोई-चौके, साफ-सफाई में पूरा सहयोग देना चाहिए। पुरुष बाहर के कार्यों में यथासम्भव सहयोग दें। आवश्यकता से अधिक कभी नहीं ठहरना चाहिए। अतिथि जितने कम समय रहेगा ओर जितना उत्तम व्यवहार करेगा, परस्पर आकर्षण उतना ही बना रहेगा और बढ़ेगा।

उभयपक्ष के व्यवहार में मृदुता, शिष्टता, खुलापन तो हो, लेकिन अपने घर का दुःखड़ा लेकर नहीं बैठ जाना चाहिए। जिनके बीच अति प्रगाढ़ सम्बन्ध हैं, उनमें ही ऐसी चर्चाएँ ठीक होती हैं। अन्यथा अधिक निजी व्यथा कथा दूसरे पक्ष को उकता देती है। साथ ही बाद में कभी उपहास का भी आधार बन सकती हैं। “रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोप।” इस दोहे को सदा स्मरण रखना चाहिए।

निजी चर्चा के दौरान सामयिक, सामाजिक-राजनैतिक प्रश्न भी अनायास आ जाते हैं। उस समय अपनी राय संयमित ढंग से ही दें तथा अपना मत लादने-थोपने का प्रयास कदापि न करें अन्यथा “सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठ” वाली स्थिति उपस्थित हो जाती है और आकाश ही सम्बन्धों में तिक्तता आ जाती है। जाते समय आतिथेय के प्रति आभार एवं कृतज्ञता की अभिव्यक्ति अतिथि का कर्त्तव्य हैं इससे परस्पर मधुरता तथा सद्भाव में वृद्धि होती है।

First 19 21 Last


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