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Magazine - Year 1998 - Version 2

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राजनैतिक परिदृश्य पर दिखाई देते परिवर्तन के संकेत

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आज पूरा विश्व एवं समूची मानव सभ्यतापरिवर्तन के दौर से गुजर रही है। जड़ता, अव्यवस्था एवं अराजकता की प्रतीक पुरातन व्यवस्था चरमराकर ढह रही है। और इस ध्वंस के बीच एक नई चेतना का उदय हो रहा है, जो अपने अनुरूप एक नयी व्यवस्था की माँग कर रही है। जन-जीवन को गम्भीर रूप से प्रभावित करने वाला राजनैतिकतंत्र एवं शासन का क्षेत्र भी परिवर्तन की इस प्रक्रिया से अछूता नहीं हैं इस क्षेत्र में विश्वव्यापी उथल–पुथल, उठा-पटक एवं परिवर्तन के नजारे साफतौर पर देखे जा सकते है।

अपने प्रारंभिक दौर से लेकर आज तक शासन के मोटेतौर पर तीन रूप प्रचलित रहे है- राजतंत्र, कुलीनतंत्र और लोकतंत्र। राजतंत्र में शासन की समस्त शक्तियाँ एक ही व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित रहती है। कुलीनतंत्र में शासन की प्रभुसत्ता थोड़े-से हाथों में केन्द्रित रहती है। लोकतंत्र में शासन की सत्ता बहुसंख्यक व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित रहती है। लोकतंत्र में शासन की सत्ता बहुसंख्यक व्यक्तियों के हाथों में रहती है। अपने विकृत एवं भ्रष्टरूप में ये पद्धतियां क्रमशः आततायी तंत्र, वर्गतंत्र एवं भीड़तंत्र में बदल जाती हैं में न करके व्यक्तिविशेष या वर्गविशेष के स्वार्थों की पूर्ति में किया जाने लगता है।

पुरातनकाल में सामान्य तौर पर राजतंत्र एवं कुलीनतंत्र की शासन व्यवस्थाएँ प्रचलित थी, किन्तु एक लम्बे समय के ऐतिहासिक अनुभव से स्पष्ट हुआ कि राजतंत्र व कुलीनतंत्र जन-साधारण के हित में कार्य न करके एक वर्ग के ही स्वार्थों का ध्यान रखते है। इस शासन-व्यवस्थाओं के परिवर्तन के रूप में लोकतंत्र का आविर्भाव हुआ। ‘कम्पेरेटिव गवर्नमेन्ट’ के विद्वान लेखक प्रो. एम. ई. फाइनर ने विश्व की प्रचलित शासन-प्रणालियों का ब्यौरा प्रस्तुत करते हुए, उन्हें तीन श्रेणियों में विभाजित किया है। प्रथम-लिबरल डेमोक्रेटिक स्टेट यानि कि उदार लोकतंत्र राज्य, दूसरा- टोटलेटेरियन स्टेट- अर्थात् एकदलवादी या सर्वाधिकारवादी राज्य एवं तीसरा-थर्ड वर्ल्ड स्टेट-इसे तृतीय विश्वराज्य भी कह सकते हैं।

इनमें उदार लोकतांत्रिक राज्य तीन तरह से परिभाषित किया है। (1) जनमत पर आधारित शासन व इसके प्रति जवाबदेही। (2) जनमत अपनी अभिव्यक्ति में स्वतन्त्र होता है। (3) जनमत के खण्डों में विवाद होने पर बहुमत को मान्यता दी जाती है। इस शासन-व्यवस्था के अंतर्गत तकरीबन एक-तिहाई से अधिक देश आते है। इंग्लैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, बेल्जियम, हालैण्ड, स्विट्जरलैण्ड, संयुक्त राज्य अमेरिका व स्केंडक्यिन देशों में शताब्दी से भी अधिक समय से यह व्यवस्था प्रचलित है। पिछले समय के कुछ उतार-चढ़ावों के साथ फ्राँस,जर्मनी, इटली और जापान भी इसी प्रणाली का उपयोग कर रहे है। भारत, जाम्बिया, श्रीलंका, जैसे देश इसकी प्रयोगशाला के तहत चल रहे हैं। लेबनान, पाकिस्तान, चाइल व इरुगुए में यह डाँवाडोल स्थिति में रही है।

टोटलेटेरियन स्टेट अर्थात् सर्वाधिकार राज्य को दो आधारों पर परिभाषित किया जाता है। प्रथम पूरे समाज एवं राज्य का राजनीतीकरण होता है, इस पर शासन का पूर्णाधिकार होता है। द्वितीय-शासन का पूर्णाधिकार होता है। द्वितीय-शासन के एकमत या दृष्टिकोण के अतिरिक्त दूसरे मत या दृष्टिकोण के अतिरिक्त दूसरे मत को स्वीकार या बर्दाश्त नहीं किया जाता। लगभग एक दशक पूर्व तक सोवियत संघ व यूरोपीय समाजवादी राज्य पोलैण्ड, पूर्वी जर्मनी, चैकोस्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया, बुल्गालिया और अल्वानिया इसी के अधीन है। क्यूबा और यूगोस्लाविया हल्के रूप में इसी के प्रकार है।

तीसरे वर्ग में उन राज्यों की गणना की जाती है, जो स्पष्टतः न तो उदार लोकतंत्र में आते हैं। और न ही एकदलीय सर्वाधिकारवादी राज्य में। दूसरा इनमें से ज्यादातर यूरोपीय व ओटोमन साम्राज्य के अधीन रहे है। अफ्रीका में लाइबेरिया, इथोपिया, एशिया में टर्की, अफगानिस्तान, नेपाल ईरान, थाइलैण्ड इसके अपवाद है। लेटिन अमेरिका देश मिश्र, यूनान, इराक आदि इसके अंतर्गत आते है। इनमें भी तीन तरह के राज्य है। प्रथम-मुखौटा लोकतंत्र जिसमें लोकतंत्र का वास्तविक संचालन कोई राजा या धनिक वर्ग पीछे से करता है, जैसे थाइलैण्ड। दूसरा-अर्द्धलोकतंत्र जैसे ढाका या फिर तीसरा सैनिक शासन।

शासन की प्रणालियों में एकदलीय- सर्वाधिकारवादी व्यवस्था, साम्यवादी ढाँचा अपने अंतर्विरोधों के तहत ढह गया। पिछले दशक के अन्त तक चार दशकों से सुपर पॉवर के रूप में प्रतिष्ठित सोवियत संघ में यह प्रणाली खण्डित हो गयी। परिवर्तन की इसी लहर में पूर्वी यूरोप के अन्य देशों में जैसे चैकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, रोमानिया, जर्मनी आदि में भी कम्यूनिस्ट सरकारों का ढाँचा चरमरा गया। चीन में भी वैयक्तिक स्वतंत्रता के पक्षधर लोकतंत्र के प्रति आस्था को लेकर हुए खूनी संघर्ष ने यह साबित कर दिया कि हम युगपरिवर्तन के मुंहाने पर खड़े है। परिवर्तन की यह लहर बड़ी उथल–पुथल से भारी एवं कभी-कभी सामान्य समझ से परे है। पूर्वी यूरोप एवं सोवियत संघ में एक के बाद एक साम्यवादी सरकारों के पतन के बाद एक साम्यवादी सरकारों के पतन के बाद पश्चिमी यूरोप के देशों में वयस्क हो चुके लोकतांत्रिक प्रणाली वाले देशों ने साम्यवादी पार्टियों के पक्ष में अपना निर्णय में मात्र दो देश जर्मनी एवं स्पेन ही वामर्पथ की इस लहर से बचे है।

वर्ष 1997 में ब्रिटेन में हुए आम वाले थे। चुनाव के परिणामों ने तकरीबन दो दशकों के बाद लेबर पार्टी को भारी बहुमत से जिताकर सत्ता पर आसीन कर दिया। इसी के साथ ही वहाँ एक नए परिवर्तन ने जन्म लिया, जिसके तहत राजनीतिक व्यवस्था के अतिकेन्द्रीयकरण को समाप्त करके उसे अधिक लोकताँत्रिक बनाने की दिशा में कदम उठाए जाने लगें इसी के प्रथम चरण में स्काटलैण्ड को अलग संसद देने व वैल्स को अलग असेम्बली देने का निश्चय किया गया। वर्ष 17 के सितम्बर माह माह में स्काटलैंड की अलग संसद के गठन के प्रस्ताव के लिए किए गए जनमत-संग्रह में जनता ने तीन-चौथाई मत देकर परिवर्तन के बढ़ते कदमों पर अपनी मंजूरी प्रकट कर दी।

ब्रिटिश राजनीति की यह घटना निश्चित ही महापरिवर्तन का संकेत है। क्योंकि वही जन्मे वेस्ट मिनिस्टर वाला संसदीय मॉडल ज्यादातर देशों का प्रेरणास्रोत रहा है। तभी तो वेस्ट मिनिस्टर मॉडल ज्यादातर देशों का प्रेरणास्रोत रहा है। तभी तो वेस्ट मिनिस्टर मॉडल को विश्व भर की संसदों की जननी कहा जाता है। यहाँ से हुए संसदीय प्रणाली का प्रभाव भीतर सहित विश्वभर की समस्त संसदों पर पड़ने की संभावना है। विश्वभर में विकेन्द्रीकरण एवं स्वशासन की उठ रही बढ़ती माँग की पृष्ठभूमि में उक्त घटना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। वर्ष 19 के जून माह में फ्राँस में समाजवादियों को राष्ट्रपति चुनाव के प्रथम चरण में मिली कामयाबी ने यह स्पष्ट संकेत दिया कि समूचे विश्व में महापरिवर्तन की तरंगें संव्याप्त हो रही है। यही नहीं समाजवादी पार्टी के नेता लायनेल जसस्मिन नए प्रधानमंत्री बन गए। यूरोपीय संघ के 15 में से 11 देशों में पहले से ही वामपंथी व मध्यमार्गी रुझान वाली पार्टियां या गठबन्धनों का शासन था। ब्रिटेन व फ्राँस में भी वामपंथी सम्मान वाले दलों की जीत या खुले बाजार अर्थव्यवस्था की पक्षधर अमेरिका व्यावसायिक पत्रिका ‘वॉल स्ट्रीट जनरल’ ने पहली खबर छापी “परिवर्तन के महादौर में यूरोप वामपंथी हो गया।”

वर्ष 17 के ही सितम्बर माह में वियतनाम के संसदीय चुनावों में साम्यवादियों को 450 में से 384 सीटें मिलीं। वर्ष 17 का सबसे बड़ा राजनैतिक परिवर्तन रहा हाँगकाँग का चीन में विलय। इसी के साथ एशिया में ब्रिटेन के साम्राज्यवाद का सूरज सदैव के लिए अस्त हो गया। इस घटना को उपनिवेशवाद के ताबूत में आखिरी कील के रूप में देखा जा रहा है। दो शताब्दी पूर्व अपना व्यापार घाटा पूरा करने के लिए चीन में अफीम बेचने का कारोबार शुरू करने वाला ब्रिटिश साम्राज्यवाद एक दिन इस द्वीप का मालिक बन बैठा था। वर्ष 17 में ही इस्लामी अनुदारवाद के गढ़ के गढ़ ईरान में उदारवादी नेता मोहम्मद खातमी भारी मत से ईरान के पाँचवे राष्ट्रवें राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इसी के साथ ही 1979 में आरोपित धार्मिक कट्टरवादी व्यवस्था एक उदारवादी रुख अपनाने की ओर अग्रसर हुई। टर्की में आधुनिक टर्की के जन्मदाता मुस्तफा कलाल अतातुर्क टर्की के जन्मदाता मुस्तफा कलाल अर्तातुर्क द्वारा 1920 के दशक में रखी गई धर्मनिरपेक्ष टर्की की नींव हिलती नजर आयी। यहाँ भी परिवर्तनों का दौर रहा।

राजनैतिक परिवर्तनों के क्रम से अफ्रीका भी अछूता नहीं रहा। पिछला वर्ष जयर के लिए मुक्तिवर्ष के रूप में याद किया जाएगा। 6 मई को जायार सेचले आरे माबूत् की 32 वर्षीय तानाशाही के शिकंजे से मुक्त हुआ। क्रान्तिकारी नेता लारेंट कषीला के नेतृत्व में तानाशाही का तख्ता पलटा गया और देश को कांगो नाम दिया। गया। अल्जीरिया में भी कई दशकों के बाद लोकतंत्र के दर्शन हुए। मिस्र एक तरह से आतंकवादियों के राजनैतिक वर्चस्व से मुक्त हुआ।

दक्षिणी एशिया के लिए वर्ष 17 राजनैतिक परिवर्तनों की दृष्टि से तूफानी साल रहा। पड़ोसी देश पाकिस्तान में परिवर्तन एवं उथल-पुथल की गहमागहमी रही। पाकिस्तान में सत्ता के तीन भागीदारों-सेना, राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री में स अब तक जनता के प्रतिनिधि का दावा करने वाले प्रधानमंत्री की स्थिति का दावा करने वाले प्रधानमंत्री की स्थिति सबसे कमजोर रही है। उसकी सत्ता कभी सुरक्षित नहीं रही। पिछले दिनों राष्ट्रपति एवं न्यायपालिका के बीच हुए जबरदस्त टकराव में लोकतंत्र और निखरकर सामने आया।

वर्मा और तिब्बत में अपने लोकताँत्रिक शासन के लिए संघर्ष चलता रहा। इसी के साथ भूटान में भी राजशाही के विरोध में जनता का स्वर मुखरिता हुआ। वर्मा में सूकी के नेतृत्व में चल रहे लोकतांत्रिक संघर्ष के परिणामस्वरूप यहाँ फौजी शासन का शिकंजा थोड़ा हल्का हुआ, लेकिन भूटान का लोकतांत्रिक आन्दोलन और दलाईलामा की तिब्बत मुक्ति एवं स्वायत्तता के स्वर भूटान नरेश एवं चीनी शासकों तक नहीं पहुँच सके। नेपाल में सत्तापरिवर्तन का चक्र तीव्र गति से घूमता रहा यहाँ तीन सरकारों बदलीं। शेर देउवा के बाद राष्ट्रीय प्रजातन्त्र पार्टी के लोकेन्द्र बहादुर चंद और उसके बाद नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी के सूर्य बहादुर थापा प्रधानमंत्री के रूप में आए। देश के दो प्रमुख दलों द्वारा दिए निर्णयों से नेपाल की राजनीति में बहुदलीय संसदीय व्यवस्था मजबूती की ओर अग्रसर हुई।

अपने देश के राजनैतिक पटल पर पिछले कुछ वर्ष अभूतपूर्व परिवर्तनों से भरे रहे। इसी दौर में राष्ट्र की राजनीति पर चार दशकों से छाए रहने वाले शीर्ष राजनैतिक परिवार का एक प्रकार से सूर्य अस्त हो गया। स्वाधीन राष्ट्र की स्वर्ण जयन्ती मनाने का संकल्प लेकर आयी पिछली लोकसभा में एक के बाद एक लगातार तीन प्रधानमंत्री सत्ता सिंहासन से नीचे उतरने पर विवश हुए। इसके बावजूद लोकसभा को अन्ततः भंग ही करना पड़ा। पिछले दिनों के भारतीय राजनैतिक परिदृश्य पर यदि गौर किया जाए तो यही कहना होगा, अन्य देशों की अपेक्षा भारत में ये परिवर्तन अपेक्षाकृत तीव्र गति से घटित हो रहे हैं। मानो अपना ही देश इन सब परिवर्तनों की धूरी है।

इन परिवर्तनों के माध्यम से शायद भारतीय जनमानस अपने राष्ट्रीय जीवन के पक्ष प्रश्नों के समाधान खोज रहा है।? आज की विखंडित, विचारधाराहीन, व्यक्तिकेन्द्रित और साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, घोटाला, फर्जी सदस्यता, भाई-भतीजावाद, मूल्यहीनता आदि से ग्रस्त भारतीय राजनीति की अर्थप्रणाली से प्रबुद्धजन, सचेत नागरिक आहत और अवाक् है। कीचड़ से सनी इस राजनीति के लिए आम राजनेता ही नहीं बल्कि यात्राभत्ता, महँगाईभत्ता और गए, वेतनमान में उलझा शिक्षित मध्यमवर्ग, दिन-प्रतिदिन की जोड़-तोड़ में उलझा पेशेवर समूह और पारस्परिक बहस करने समूह और पारस्परिक बहस करने समूह और पारस्परिक बहस करने एवं कागज काले करने में मशगूल बुद्धिजीवी सभी जिम्मेदार है।

आजादी की पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर भारतीय राजनीति के अवमूल्यन पर गहन चिन्तन की आवश्यकता है। कहा जाता है। कि जनमा को उसकी योग्यता के और स्तर के मुताबिक ही शासनतंत्र मिलता है देश की जनता द्वारा भ्रष्टाचार और घोटालों के विरुद्ध सशक्त अभियान और पहल का अभाव इस कथन की पुष्टि करता प्रतीत होता हैं हमें इस सत्य का अहसास दिलाता है कि हम अभी भी जाग्रत नहीं हुए।

सदियों के बाद गुलामी, भूख, भय, बीमारी, अज्ञान, अकाल, दमन से दबी भारतीय जनता को गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन ने निर्भय ओर राजनीति में भागीदार बनाया। सत्य, अहिंसा, त्याग, राष्ट्रीय एकता, जनता की भाषा, लोक वेशभूषा, कथनी और करनी की एकता पर आधारित गाँधी के नेतृत्व ने स्वराज, स्वदेशी, स्वावलम्बन, सादगी, संगठन, रचनात्मक कार्यक्रम और संघर्ष से ओत-प्रोत कर इस अर्द्धमूर्च्छित देश को नयी दिशा दी। आजादी का हमारा संघर्ष देशी हाथों में सत्ता हस्तान्तरण के उद्देश्य मात्र तक सीमित नहीं था। इस संघर्ष के पीछे लाखों गाँव, कस्बों शहरों से बने भारत को एक नैतिक समाज और मूल्य युक्त मनुष्य बनाने की प्रेरणा थी। संघर्ष की इस प्रक्रिया के साथ तिलक, गाँधी, सुभाष, नेहरू, पटेल, राजेन्द्रप्रसाद, गफ्फार खाँ, मौलाना आजाद, आचार्य कृपलानी, आचार्य नेरन्द्रेव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया का मतभेदों के बावजूद भी सामूहिक नेतृत्व भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद जैसे सैकड़ों क्रान्तिकारियों का अन्यतम बलिदान, डॉ. हेडगेवार एवं गुरु गोलवलकर जैसों का समर्पित जीवनदान, डॉ. हेडगेवार एवं गुरु गोलवलकर जैसों का समर्पित जीवनदान, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविन्द और रवीन्द्रनाथ टैगोर की आध्यात्मिक शक्ति एवं साँस्कृतिक चिंतन जुटा हुआ था।

आजादी के आदि हमारी इस पूरी विरासत और सामूहिक चिन्तन की सुघड़ अभिव्यक्ति हुई। आर्थिक राजनैतिक, सामाजिक न्याय, समानता, धर्मनिरपेक्षता, जाति, वर्ण, वर्ग, लिंग के भेदभावों से युक्त, मौलिक अधिकारों और राज्य के प्रति नीति-निर्देशक तत्वों पर आधारित एक सार्वभौम लोकतांत्रिक गणतांत्रिक स्वरूप बनाने में हम सफल हुए, परन्तु धीरे-धीरे हमारे देश का नेतृवृन्द त्याग की उपेक्षा करता गया, सेवाभावना की अवहेलना कर सत्ता के मोह से वशीभूत होता गया। परिणति आज की स्थिति हैं हालांकि पिछले ढाई हजार वर्षों के भारत के समाज संस्कृति, राजनीति और इतिहास पर ध्यान दिया जाय तो पराजय, हताशा कुहरा और विभ्रम के बीच से भी प्रकाश की किरण फूटी हैं यह प्रकाश की दीप्तिमान किरण परिवर्तन के सतत् क्रम महाकाल का कालदण्ड परिवर्तन के सतत् प्रहारों से देश की राजनीतिक जड़ता एवं घने अँधेरे को तोड़ देने के लिए उतारू हैं इन तीव्र परिवर्तनों के माध्यम से ही भारत की जनता “क्व कारोमि, कुत्र गच्छामि, को राष्ट्रनुद्वारियसि” की अपनी पहेलियों को सुलझाने में व्यस्त है।

इन्हीं प्रश्नों प्रक्रिया के द्वारा एक सर्वथा नए परिवर्तन की बाट जोह रहे हैं। आने वाला परिवर्तन की बाट जोह रहे हैं। आने वाला परिवर्तन कितना सार्थक होगा, यह भले ही ठीक तौर पर न कहा जा सके, पर इतना सुनिश्चित तथ्य है कि परिवर्तन का यह सिलसिला तथ्य हैं कि परिवर्तन का यह सिलसिला इक्कीसवीं सदी में अपने लक्ष्य युगपरिवर्तन को सिद्ध करके रहेगा। और तब अपना महादेश अवश्य ही अपने स्वप्नों को साकार करेगा। जो उसने अपनी स्वाधीनता के समय सँजोये थे। इसी के साथ विश्व राजनीति भी सात्विक गुणों की आभा से प्रदीप्त हो सकेगी।

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