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Magazine - Year 2000 - Version 2

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Language: HINDI
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पुण्य धर्म की खेती है - सत्य

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सत्यमेव जयते - हमारा राष्ट्रीय आदर्श है। सही मायने में सत्य की अजेय और अमिट है। मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति के इतिहास में न जाने कितने नियम बनाए और बिगाड़े गए परंतु सृष्टि के आदि में सत्य की जो प्रतिष्ठा थी, वह आज भी उसी रूप में विद्यमान है। इसी से सत्य की महत्ता का पता चलता है। निश्चय ही सत्य समस्त साधनों का आधारशिला है। जिस सुँदरतम एवं श्रेष्ठतम आधार पर मनुष्य को अपना जीवन अवस्थित करना चाहिए वह एकमात्र सत्य है।

सत्य सृष्टि का मूल है। सत्य ही सबसे बड़ा तप सबसे बड़ा धर्म सबसे पुण्यशाली कर्म और सबसे बड़ी सिद्धि है। अपकर्म अवसाद अपयश, अशाँति असंतोष और अपमान के झंझावातों से सत्यनिष्ठ व्यक्ति बचा रहता है। जीवन में उन्नति एवं उत्कर्ष की प्राप्ति के लिए सत्य ही सबसे सच्चा मार्ग है। निर्विकार निर्भय, एवं निश्चित जीवन जीने के लिए इससे बढ़कर कोई दूसरा उपाय नहीं है। सभी धर्मों में जिन नियमों गुणों एवं आचारों की प्रधानता है, उनमें सत्य का स्थान सर्वोपरि है।

सत्य की महिमा इतनी विराट है कि उसका ठीक- ठीक शाब्दिक विवेचन शाब्दिक विवेचन विश्लेषण करना संभव नहीं है। लेकिन सबसे आसान बात यह है कि सत्य बोलने में हमें कुछ भी खरच नहीं करना पड़ा। बस मन वचन एवं कर्म को एकाकार कर सम्यक् समभाव से अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना होता है। उर्पान्वदृ के ऋषि इसकी महिमा को अनुभव करते हुए सत्यवद का उपदेश देते हैं। कहने योग्य बात जो प्रमाणिक हो उसे बिना किसी हेर-फेर के उसी प्रकार कहना चाहिए। मनीषियों का मत है, सत्यान् प् प्रमदितव्यम् अर्थात् सत्य बोलने में प्रमाद नहीं करना चाहिए। पद्मपुराण में कहा गया है कि सत्य से पवित्र हुई वाणी बोलें तथा मन से जो पवित्र जान पड़े उसी का आचरण करें। सत्य एक समग्र भाव है।, संपूर्ण तत्व है। आचार, विचार एवं वाणी से सत्य आचार करना चाहिए। मन वचन एवं कर्म के एकरूप हो जाने पर ही सिद्धि की कामना की जा सकती है। सत्य वह है, जिसमें किसी प्रकार का कपट न हो, जो निर्दोष प्राणी का अहित न करता हो। सत्य के साथ सरलता व अहिंसा का अटूट संबंध है। युगद्रष्टा स्वामी विवेकानंद कहते थे,” महानतम सत्य सरलतम होता है।

सत्य को जितना हमने जाना है हमारी समझ एवं दृष्टि के अनुसार वह सत्य हो सकता है। किंतु इससे आगे बढ़कर यदि यह सोचा जाने लगे कि अन्य लोग जो सोचते हैं, वह सिर्फ असत्य है, तो यह पूर्वाग्रहपूर्ण मान्यता सत्य की अवमानना होगी। एक ही उद्देश्य के लिए कई तरह से सोचा जा सकता है। एक ही लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कई रास्ते हो सकते हैं। एक ही कार्य को विभिन्न तरीके से संपन्न किया जा सकता है।एक ही भाव को कई भाषाओं में कई तरह से अभिव्यक्त किया जा सकता है। इन भिन्नताओं के बने रहने पर भी तात्विक एकता बनी रहेगी। जैसे सूर्य विभिव्यक्त स्थानों पर वहाँ की परिस्थितियों के कारण कई रंगों का और कई आकारों का दिखता है। कोहरे में हिमप्रदेश में रेगिस्तान में ग्रहणकाल में उसी आभा अलग अलग तरह की दिखाई देती है, परंतु ये विभिन्नताएँ सूर्य की नहीं, अपितु स्थानीय परिस्थितियों की होती है।

सत्य के संबंध में भी यही बात है। कौन सी मान्यता कौन सी क्रिया सत्य है? इसका निर्णय कर पाना इतना सरल नहीं है, जितना कि समझ लिया जाता है। यदि हम बाह्य क्रियाकलाप की अपेक्षा कर्त्ता के उद्देश्य को समझने का प्रयास करें, तो संभव है कि हम यथार्थता के निकट पहुँच जाएँ। संसार में अनेकों धर्म प्रचलित है। उनके रीति-रिवाजों और दिशा निर्देशों में काफी अंतर पाया जाता है, फिर भी उनका मूल उद्देश्य एक है अनुयायियों को संयमी सदाचारी का उद्देश्य एक था, सत्य के निकट पहुँचना और पहुंचाना।

जिस पदार्थ में जिस रूप में सत्ता विद्यमान है उसे वैसा ही जानना सत्य ज्ञान है। उसको उसी रूप में मानना सत्य श्रद्धा है और उसका वैसा ही वर्णन सत्य वचन है। सत्यनिष्ठ को सदा सत्य एवं हितकारी शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। यदि किसी परिस्थितिवश ऐसा संभव न हो तो मौन रहना चाहिए। हमें अपने धरातल के हर अज्ञान को मिटाना होगा और वस्तुओं के आँतरिक सत्य तक उतर जाना होगा। हमें भीड़ का सत्य नहीं आत्मा का सत्य जीना चाहिए। हम अकेले है, किन्तु हमारे अंदर सत्य का दीप जल रहा है, तो कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। परन्तु हम झूठे है और हमारे साथ हजारों की भीड़ है, तो भी अंततः हम पराजित ही होगे।

समस्त शक्तियों का स्रोत सत्य है। अच्छा यही है कि हम सत्य के उपासक बने। अपने अस्तित्व के सत्य को जाने । इस जगत के सत्य को पहचानें। सर्वांगीण प्रगति का एकमात्र आधार सत्य है। अतः सत्यपथ पर ही चलने का संकल्प लेना चाहिए। सत्य का वास्तविक अर्थ परब्रह्म है। श्रुति कहती है,” सृष्टि के मूल में यही ब्रह्म सत्य रूप में विद्यमान् था। अन्य त्रिगुणात्मक संसार इसके पश्चात बना। समस्त जगत का जो विवत है, वही सत्य है। वह सत् चित एवं आनंदस्वरूप है। असत्य में इसके विरुद्ध खड़े होने की सामर्थ्य हो ही नहीं सकती। यही सत्य जीवन का आधार है। हमें इसी की उपासना करनी चाहिए। विचार एवं श्रद्धापूर्वक असत् पदार्थों का बोध करके केवल अविनाशी सत्य में यत्नपूर्वक परिनिष्ठित होना चाहिए।

सत्य सिर्फ भौतिक ही नहीं प्राणिक, ऐंद्रिक मानसिक और बौद्धिक है। इन सबसे परे यह अपनी अपूर्व निर्मल आध्यात्मिक अवस्था में भी है। हमें भौतिक सत्य से आध्यात्मिक सत्य की दिशा में यात्रा करनी चाहिए। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए सत्यद्रष्टा स्वामी विवेकानंद कहते थे, हम असत्य से सत्य की ओर नहीं उठते वरन् निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य में आरोहण करते हैं। शरीर निम्नतर सत्य है, आत्मा उच्चतर सत्य है। संसार निम्नतर सत्य है। भगवान उच्चतर सत्य है। हम शरीर से आत्मा की ओर मुड़ें। संसार से भगवान की ओर उठें-उन्मुख हों, यह तभी संभव होगा, जब हमारे अंदर विवेक होगा। इस विवेक का प्रकाश जितना अधिक तीव्र और प्रभावी होगा, हमारी मूल्याँकन क्षमता उतनी ही सम्यपरक होगी। हमारे विकास की संभावनाएँ उतनी ही अधिक होगी।”

यह सत् और असत् का विवेकसम्मत आध्यात्मिक साधनाओं का मूलतत्व है। इसे जीवन -विद्या भी कह सकते हैं और जीवन जीने की कला भी। यह हमारे हाथों में टार्च की तरह है, जिसके सहारे हम असत् के अंधेरे को पारकर स्वप्रकाशित परम सत्य तक पहुंचते हैं। यद्यपि यह यात्रा किंचित दुष्कर अवश्य है, पर असंभव चैतन्य एवं आनंद से परिपूर्ण है, क्योंकि असत् ही अज्ञान है और इस अज्ञान में ही अभाव है। इस अभाव में ही सारे दुःख दैन्य अपने आप ही हट-मिट जाते हैं।

इसे हम यों भी कह सकते हैं कि जैसे ही हम अपने अज्ञान को हटाते हैं, जीवन में अंतर्निहित सत्य स्वयमेव ही प्रकट हो जाता है। हमें इसी आँतरिक सत्य को पहचानना- सीखना होगा। मनुष्य की क्षमताएँ अनंत है। सत्य के प्रति समर्पित होकर मनुष्य अपनी इन दिव्य शक्तियों की थाह स्वयं ही पा सकता है। सत्य निश्चित रूप से अनमोल विभूति है। यह ऐसी पुण्यधर्म की खेती है, जहाँ प्रारंभिक कठिनाई अवश्य है, पर इसकी परिणति जीवन में लौकिक एवं अलौकिक सिद्धियों के रूप में प्रतिफलित होती है। जो इस पथ पर चले है, उन सबका यही सम्मिलित निष्कर्ष है कि सत्य मानव-जीवन को श्रेष्ठता और समर्थता के शिखर तक ले जाने वाला सर्वाधिक निरापद एवं प्रशस्त राजमार्ग है।

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