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Magazine - Year 2000 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्मिक प्रगति का उच्चस्तरीय मार्गदर्शन है इन पत्रों में

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(गायत्री जयंती पर विशेष)

हर किसी की यह आँतरिक अभिलाषा रहती है कि वह आत्मिक प्रगति के राजमार्ग पर चले। कोई सच्चा सही माइनों में पग-पग पर मार्गदर्शन करने वाला गुरु उसे मिले। लौकिक प्रयोजनों के लिए तो मित्र भी मदद कर देते हैं, किंतु आत्मिक प्रगति के लिए, जिस उच्चस्तरीय सत्ता की आवश्यकता पड़ती है, वह भूमिका मात्र एक सद्गुरु ही निभा सकते हैं। सद्गुरु उपासना-साधना-आराधना का त्रिविध अवलंबन लेने की बात आदिकाल से कहते रहे हैं। उपासना का उद्देश्य है- आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देना। आत्मा अर्थात् अंतःकरण, भाव-संस्थान जिसके साथ मान्यताएँ, आकाँक्षाएँ लिपटी रहती हैं। परमात्मा अर्थात् उत्कृष्ट आदर्शवादिता। इन दोनों के मिलन में यदि को सहायक हो समता है, तो वह सद्गुरु ही हैं। ऐसे ही सद्गुरु का मार्गदर्शन जब-जब भी गायत्री साधकों को मिला है, उनका उच्चस्तरीय विकास होता ही चला गया है। परमपूज्य गुरुदेव न केवल ‘गायत्री चर्चा’ शीर्षक से प्रकाशित अपने संपादकीय के माध्यम से अखण्ड ज्योति पत्रिका द्वारा अपने साधक शिष्यों का मार्गदर्शन करते थे, बल्कि पत्रों द्वारा वे समय-समय पर उचित परामर्श भी अपने अनुभवों के आधार दिया करते थे। उनके ऐसे प्राण संचार करने वाले पत्रों में से एक यहाँ उद्धृत करने से हम स्वयं को रोक नहीं पा रहे हैं। यह पत्र 27/10!1949 को श्री शिवशंकर गुप्ता को लिखा गया था।

“अपना एक अनुभव है, वह यह कि जब कोई मार्ग न सूझ पड़ता हो, चारों ओर अंधकार छाया हुआ हो, निराशा-ही-निराशा दिखाई पड़ती हो, तब वेदमाता गायत्री का आश्रय लेना चाहिए। उनका जप और ध्यान करने से अंतःकरण में एक दैवी स्फुरणा उत्पन्न होती है और उस प्रकाश के सहारे मनुष्य उस मार्ग को ढूँढ़ लेता है, जिस पर चलने से उसका दुःख दूर हो सकता है। अगर आप विश्वास कर सकें, तो हम सलाह देंगे कि आप गायत्री का जप और ध्यान आरंभ कर दें। आपको शीघ्र ही प्रकाश मिलेगा।”

आपको नहीं लगता कि किसी प्रारंभिक साधक के लिए एक सरल-सा उपचार गुरुसत्ता ने कैसे अनुभवों के साथ जोड़कर एक नन्हें शिशु को दी जाने वाली घूँटी की तरह दे दिया है! यही पत्रलेखन की शैली हमारे हृदय को स्पर्श कर जाती है व हमारी गुरुसत्ता के पग-पग पर दिए गए मार्गदर्शन की हमें याद दिलाती रहती है।

कभी-कभी साधक-शिष्य, गृहस्थ-विरक्त के भ्रम में पड़ जाते हैं। बड़े परेशान हो जाते हैं कि अगर साधना ही करनी थी, तो गार्हस्थ्य में प्रवेश ही क्यों किया? अपने आप पर, अपने जीवनसाथी पर झल्लाते हैं कि इस के कारण हम आत्मिक प्रगति नहीं कर पा रहे। व्यावहारिक अध्यात्मवाद की प्रणेता, हर किसी का सूक्ष्म अध्ययन कर उसका सच्चा मार्गदर्शन करने वाली गुरुसत्ता अपने पत्रों द्वारा उस संबंध में बड़ा स्पष्ट मार्गदर्शन करती थी।

“चि. कृष्णा बेटी, आशीर्वाद 16-12-58 तुम्हारा पत्र मिला, कुशल समाचार पढ़कर बड़ी प्रसन्नता हुई। तुमसे जितनी कुछ साधना आसानी से बन पड़े, उतनी कर लिया करो। घट-घटवासिनी माता सब कुछ जानती हैं। तुम्हारी आत्मा में जो श्रद्धा-भक्ति है उसे वे भली प्रकार पहचानती हैं। गृहस्थ में रहकर तुम तपस्वी की भाँति जीवनयापन करती रहो। इसमें जीवन का लक्ष्य पूरा हो जाएगा।”

ऐसा ही एक पत्र कृष्णा बहन के पति को 21-6-54 को लिखा गया था, जो इस प्रकार है-

“आपके भीतर आत्मकल्याण की प्रचंड अग्नि दीप्तिमान है। इसे गृहस्थ के झंझट बुझा नहीं सकते। गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को पूर्ण करते हुए आप बड़ी सरलतापूर्वक जीवनलक्ष्य को प्राप्त करेंगे। हठयोगियों को होने वाले विचित्र एवं विलक्षण अनुभव आपके लिए आवश्यक नहीं हैं।”

तरह-तरह के छलावे, तरह-तरह के साधना संबंधी आकर्षण, तरह-तरह की अनुभवों की चर्चा किसी को भी अपनी गुरुसत्ता से जिज्ञासाएँ पूछने को विवश कर देती हैं। ऐसा ही कुछ इस सज्जन के साथ भी हुआ व उनको स्पष्ट परामर्श मिल गया कि उनका पथ क्या है व गृहस्थ में रहकर उसे ही तपोवन बनाते हैं।

बैकुँठपुर सरगुजा के श्री बृजेन्द्रलाल गुप्ता एडवोकेट भी थे एवं एक राजनेता भी। सतत् पूज्यवर का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन पाने वालों में से वे एक हैं। क्षणिक वैराग्य का भाव उनके मन में भी पैदा हुआ था व सोचा था कि सब कुछ छोड़कर, गृहस्थाश्रम छोड़कर अब हिमालय चले जाना चाहिए। 15-07-1966 को लिखे एक पत्र में पूज्यवर लिखते हैं-

“वानप्रस्थ में अधिक काम हो सकता है, पर गृहस्थ में रहकर भी यदि अभिरुचि हो तो बहुत कुछ हो समता है। स्वाधीनता संग्राम की पूरी लड़ाई गृहस्थों ने ही लड़ी थी। भावनात्मक नवनिर्माण के लिए भी हम गृहस्थ लोग कम उपयोगी नहीं हैं।”

जैसा रोगी वैसी औषधि- जैसी मनोभूमि वैसा परामर्श। एक राजतंत्र से जुड़े व्यक्ति के मन में वैराग्य आया तो उस नाजुक क्षण को उन्होंने पहचाना एवं आजादी के लिए संग्राम का स्मरण दिला उन्हें पुनः मोरचे पर खड़ा कर दिया। गृहस्थ जीवन में भावनात्मक नवनिर्माण का रण-संग्राम बड़े आराम से लड़ा जा सकता है, यह आश्वासन भी दे दिया।” पत्रों में यही बात हमारे गुरुदेव को औरों से भिन्न एवं मात्र लेखनी के चितेरे नहीं-एक गहन सूक्ष्म अध्येता मनोवैज्ञानिक के रूप में स्थापित करती है। यही तो चह विशेषता है, जिसने इतना बड़ा मिशन-विराट् गायत्री परिवार खड़ा कर दिया है।

एक और पत्र 1-2-53 का लिखा उपलब्ध हुआ है, जिसे उद्धृत करने का मन है। अतिवाद से पूज्यवर अपने शिष्यों को सतर्क करते रहते थे। एक अतिवाद तो यह कि घर-परिवार से कोई संपर्क न रख, साधना-मार्ग पर ही चलेंगे। दूसरा अवसाद यह कि अब साधु बनकर हिमालय चले जाएँगे। परमपूज्य गुरुदेव का अभिमत होता था कि ऐसे में विवेक का आश्रय लें, समझदारी से काम कर अपनी पत्नी-परिवार को साथ लेकर चलें। श्री रामदास जी जो कानपुर के निवासी हैं, को लिखा पत्र यहाँ प्रस्तुत है।

हमारे आत्मस्वरूप, 1-2-53

आपका पत्र मिला। कुशल समाचार जाने। आप घर हो आए, यह बहुत ही उचित तथा आवश्यक था। आगे भी त्योहारों तथा विवाह आदि में घर जाते रहें। ऐसा न करना अपने आवश्यक कर्त्तव्यों से विमुख होना होगा।

आपका साधु होने का स्वप्न ठीक है। आपकी आत्मा सच्चे अर्थों में साधु बनती जा रही है। कपड़े रँगने या वेश बनाने से कोई व्यक्ति साधु नहीं हो सकता। साधुता दूसरी बात है, जो गृहस्थ में रहकर भी राजा जनक की भाँति आसानी से प्राप्त की जा सकती है। आप पूर्ण साधु बनेंगे। आपका स्वप्न पूर्ण सत्य होगा। परंतु वह स्थिति न आएगी कि आपकी पत्नी को शोक या चिंता करनी पड़े या पिताजी दुखी हों। उनके प्रति आपके अनेक कर्त्तव्य अभी बंधे हुए हैं। उन्हें पूरा न करेंगे, तो आगे अनेक जन्मों में उन्हें चुकाने के लिए आपको फिर लौटना पड़ेगा। इसलिए आपको दोनों काम साथ-साथ करने हैं-(1) ऋण चुकाना और (2) मुक्ति कमाना। यह कार्य गृहस्थ योग की साधना द्वारा ही होना संभव है।

गुरुसत्ता द्वारा एक व्यक्ति को आज की साधु-संन्यासी परंपरा संबंधी सशक्त मार्गदर्शन भी है। आदमी कपड़ों से नहीं आत्मा से साधु बनता है। उसका दिखावा जो करते हैं, उनमें से अधिकाँश ढोंगी ही होते हैं। उस स्थिति से बचकर गृहस्थ योग की साधना कर कर्मयोग करते हुए पत्नी व पिता-माता सभी को साथ लेकर चलने का मार्गदर्शन कितना व्यवहारिक है, भलीभाँति समझा जा सकता है। मानवी चिंतन के रुझान के अनुरूप उँगली पकड़कर दिग्दर्शन कराना, यही तो सद्गुरु का कार्य रहा है। आज गायत्री जयंती की पुण्यवेला में जब हम पूज्यवर को स्मरण करते हैं, तो उनकी ये पंक्तियाँ अंदर तक स्पर्श कर जाती हैं। लाखों सद्गृहस्थों का निर्माण कर उन्हें धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की दिशा में अग्रगामी बनाने वाली सत्ता जिस लक्ष्य को लेकर आई थी, उसकी पूर्ति हेतु काफी पूर्व आज से पचास साल पहले ही तत्पर हो गई थी।

इसी आशय का एक और पत्र है, जो श्री बद्रीप्रसाद पहाड़ियां जी को परमपूज्य गुरुदेव ने 24-7-55 को लिखा था। पहाड़ियां जी ने अपने पत्रों में किन्हीं बाबाजी व उनके चमत्कारी प्रदर्शनों की चर्चा की थी। ‘गायत्री’ के संबंध में भी उन्होंने कुछ ऊल-जलूल कहा था। इस पत्र के जवाब में पूज्यवर लिखते हैं-

“हमारे आत्मस्वरूप 24-7-55

आजकल अनेक रंग-रूप के बहरूपिया अपनी ढपली-अपना राग फिरते हैं। लोगों को प्रभावित करना एक कला है। इसे कोई भी चतुर आदमी आसानी से प्राप्त कर सकता है और किन्हीं को भी प्रभावित कर सकता है।

आप इस प्रकार के व्यक्तियों से तनिक भी विचलित न हों। वेदमाता गायत्री का महत्त्व और आधार इतना दुर्बल नहीं है कि वह किसी रेशमी कपड़े पहनने वाले की ऊल-जलूल बातों में ही नष्ट हो जाए। वेद और वैदिक संस्कृति का मूल आधार गायत्री है। यह प्रत्येक द्विज की अनिवार्य उपासना है। हमें वेद के लुप्तप्राय रहस्यों को पुनः जनता के सामने रखना है। सत्य सदा सत्य है। भारतीय संस्कृति के मूलभूत आधार को हमें अब प्रकाश में लाने का तत्परता-पूर्वक प्रयत्न करना है। ऐसे बरसाती मेढ़क उस गंगा की धारा को रोकने में तनिक भी समर्थ नहीं हो सकते। आप उत्साहपूर्वक अपना कार्य जारी रखें।”

पत्र बड़ा ही स्पष्ट है। वेदमाता गायत्री का आधार कितना सशक्त है, इसे भलीभाँति समझा जा सकता है। अपने शिष्य को, जो संभवतः रंग-बिरंगे कपड़े पहने बाबाजी के प्रभाव में आ गए हों, तथ्य सामने रख बड़ा ही स्पष्ट मार्गदर्शन पूज्यवर ने किया है। हो सकता है यह स्थिति हमारी भी कभी हो। हमें कोई भी भरमा दे। कालनेमि की माया बड़ी विचित्र है। वह भी ऐसे ही साधु वेशधारी बनकर हनुमान जी को संजीवनी बूटी पहुँचाने के मार्ग में बाधक बन जा पहुँचा था। हनुमान जी जैसी रुद्र की अंशधारी सत्ता-अवतारी सत्ता भी जब थोड़ी देर के लिए भगवान् राम के प्रति शंकालु बन सकती है, तो फिर हम आप तो साधारण प्राणी हैं। हम सबके लिए एक सशक्त मार्गदर्शन इस पत्रों से मिलता है। मात्र गायत्री ही नहीं, हमारी गुरुसत्ता व उनके निर्धारणों के प्रति भी मायावी जाल बुनकर संदेहों के बादल आस्था संकट की इस वेला में रचे जा सकते हैं। हमें अपना मन-मस्तिष्क साफ रख अपने को जरा भी दिग्भ्रमित नहीं करना है, यह संकेत उपर्युक्त पत्र देते हैं, जो परोक्ष रूप से पूज्यवर के भाव शरीर की ही झाँकी हमें कराते हैं।

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