
परमचेतना का चुना हुआ देश भारत
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ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी के प्रसिद्ध यूनानी इतिहासकार हिरोडोटस ने भारत के संबंध में अधिकारपूर्वक लिखा है। साहित्य, संस्कृति, धर्म, दर्शन और यहाँ की भौगोलिक विशेषताओं का वर्णन करते हुए उसने कहा है, “यह देश ज्ञात राष्ट्रों में सबसे समृद्ध और महान है। प्रकृति ने इसे इतना साधनसंपन्न बनाया है कि दुनिया के सभी देशों से यहाँ की जनसंख्या ज्यादा है।” ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी में जनगणना का चलन नहीं था। हिरोडोटस ने निश्चित ही देश के कुछेक हिस्सों का भ्रमण किया होगा और विद्वानों से चर्चा के आधार पर यह धारणा बनाई होगी। लेकिन यह धारणा गलत नहीं थी। इन दिनों भी भारत संसार की घनी आबादी वाले देशों में पहले स्थान पर है। आबादी के हिसाब से चीन दुनिया का सबसे बड़ा देश है। वहाँ की आबादी 126.68 करोड़ है, लेकिन विस्तार की दृष्टि से वह भारत से करीब तीन गुना बड़ा है।
शुरू से ही संसार की सबसे ज्यादा जनसंख्या भारत में रही है। इससे यह तो निश्चित है कि भारत में प्रकृति ने इतनी साधन -संपदा बिखेर रखी है कि करोड़ों लोगों का निर्वाह आसानी से संभव हो सकें। निर्वाहोपयोगी साधन नहीं होते तो इतने लोगों का बने रहना संभव ही नहीं था। इस प्रतिपादन को जनसंख्या-वृद्धि के पक्ष में तथ्य या तर्क की तरह उद्धृत नहीं किया जाना चाहिए। मध्यकाल के बाद आया पतन और पराभव, भारत की संतानों में दैन्य दारिद्रय बढ़ते जाने का एक कारण बना है। जिन दिनों भारत में प्रचुर साधन-संपदा थी, उन दिनों बड़े परिवार समस्या नहीं थे, बल्कि उनसे समृद्धि बढ़ती ही थी, क्योंकि काम करने वाला हाथ, सोचने वाले मस्तिष्क और प्रतिभाओं की संख्या भी तब ज्यादा होती थी। गुलामी आई और दरिद्रता बढ़ने लगी तो अधिक संतति और जनसंख्या अभिशाप सिद्ध हुई। पतन के गर्त और गहरे होने लगे।
आशय सिर्फ यह है कि दुनियाभर से आने वाले लोगों को आश्रय देने में तो भारतवर्ष समर्थ रहा ही है, वह विचार, विज्ञान और प्रतिभा की दृष्टि से भी संसार को बहुत कुछ देने में सक्षम रहा है। कोई सभ्यता-संस्कृति तभी उन्नति के शिखरों को छू पाती है, जब वहाँ जीवन सहज और उपयोगी आवश्यक साधन सुलभ-प्रचुर हों।
भारत को यह स्थिति प्रकृति से वरदान की तरह मिली है। सुरक्षा-संपदा, वैभव और ऋतुओं को परखें तो पाएँगे कि प्रकृति ने इसे विशेष योजना के साथ रचा है। पुराण-ग्रंथों में भारत का उल्लेख “चतुः संस्थान संस्थितम्” के रूप में उल्लेखित है। इस देश के दक्षिण, पश्चिम और पूर्व में महासागर है। पूर्व में हिमालय धनुष की प्रत्यंचा की तरह फैला है। उत्तर की ऊँची पर्वतमाला में हिमालय की हिम-आच्छादित चोटियाँ तो हैं ही, पश्चिम की सुलेमान और किरथार पहाड़ियाँ भी शामिल हैं। ये पर्वतमालाएँ समुद्र की ओर जाती हैं। इरावती की तराई और ईरान की पहाड़ी उपत्यिका से अलग करती भारत (अविभाजित) के लिए सुरक्षापंक्ति सी बनाती हुई चलती है।
ग्यारहवीं शताब्दी के बाद आए पतन और पराभव के दौर की मीमाँसा कई तरह से की जाती है। इनमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों से लेकर धर्म-संस्कृति के पराभव को भी गिनाया जा सकता है। आरोप लगाए भी जाते हैं कि धर्म-अध्यात्म की बहुलता ने भारत को विदेशियों के आगे घुटने टेकने के लिए विवश किया। विवश ही नहीं किया, उन्हें आमंत्रित भी किया। इन विद्वानों के अनुसार धर्म-अध्यात्म पलायनवादी बनाता चला गया। इस कारण हम आक्रमणों और चुनौतियों का सामना नहीं कर सके। दूसरी सभ्यताएँ ज्यादा बलवान थी और हम संसार के प्रति उपेक्षा भाव से भरे थे, इसलिए हम पराजित होते गए। यह सतही और आसानी से समझ में आने वाली दृष्टि है। अंतर्दृष्टि संपन्न विद्वान पतन को दूसरी तरह से समझते हैं। उनके अनुसार संसार के अन्य क्षेत्रों में भी ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश फैलना था, इसलिए नियति ने भारत का विकास अवरुद्ध कर दिया।
श्री अरविंद ने लिखा है कि भगवान ने अपनी प्रकृति के तमस पक्ष को व्यक्त करना चाहा तो भारत की नियति पर कुछ देर के लिए हाथ रख दिया। यह देश निरंतर प्रगति करता रहा, तो पृथ्वी के दूसरे क्षेत्र बंजर और शुष्क ही रह जाते। उनका विकास नहीं दिखाई देता। भारत की महिमा को व्यक्त करने वाली एक दृष्टि यह भी रही है कि वर्तमान कल्प में इस भूखंड को विशेष दायित्व सौंपे गए हैं इस दृष्टि के अनुसार राजसत्ता का प्रभाव और शासन देश, प्रदेश के सभी भागों में दिखाई देता है। उनके नियम, विधान और निर्णय सभी नागरिकों को मानने होते हैं। सत्ता देशव्यापी दिखाई देने पर भी उसके सूत्र एक सुनिश्चित केंद्र में निहित होते हैं। उस केंद्र को राजधानी कहते हैं। राजधानी में भी राजभवन, महल, निवास, संसद, सचिवालय, न्यायालय, विधान मंडल जैसी संस्थाएँ होती हैं। इस रूपक का संदेश यह है कि ईश्वर की सत्ता सर्वव्यापी है। विश्व-वसुँधरा के कण-कण में वह व्याप्त है। भारत वह देश है, जिसे विश्व-वसुधा को शासित, संचालित और प्रेरित करने के लिए सारे विश्व की राजधानी के रूप में चुना गया है।
वर्तमान काल में भारत को परम चेतना का चुना हुआ देश मानने वाले संत-मनीषियों के अनुसार, अपने देश में सर्वाधिक संत-महात्मा, विचारक, ज्ञानी, मुनि, कवि, विद्वान और प्रतिभाएँ होने का कारण भी यहीं है। किन्हीं और कल्पों में कोई और देश चुने जाते होंगे। इस कल्प में ईश्वर अपने पूरे वैभव के साथ भारत में ही व्यक्त हुआ है। किन्हीं और क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देना हो तो राजधानी में विशेष हलचल होती है, आवश्यक होने पर वहाँ की प्राथमिकताओं को भी कुछ समय के लिए विराम देना पड़ता है। राज्यों के विकास के लिए केंद्र ने कई बार अपनी प्राथमिकताएँ उनके लिए छोड़ी या बदली हैं। अध्यात्मविद् भारत के कुछ समय तक पीछे रह जाने का कारण भी कुछ इसी तरह समझा जाना चाहिए।
किसी व्यक्ति के जीवन में कुछ महीनों का जो महत्त्व होता है, देश के मामले में वह कुछ वर्षों का होता है। सभ्यताओं के इतिहास में सैकड़ों सालों का महत्त्व भी लगभग उसी स्तर का है। भारत आठ सौ वर्षों तक पिछड़ा रहा और इनमें बीच के दो सौ साल घोर तमिस्रा के वर्ष रहे। इनसे पहले के शतक पतन के आरंभ के वर्ष थे और बाद की दो शताब्दियाँ निवारण के आरंभ की। इन दो सौ वर्षों में तैमूर का आक्रमण, दिल्ली राजधानी में अस्थिरता, विनाश, पुर्तगालियों की घुसपैठ और दावेदारी, पानीपत की दो भयंकर लड़ाइयाँ आदि प्रमुख घटनाएँ हैं, जिन्होंने हर बार भारत की नियति को पीछे धकेला। उत्तर भारत में जगह-जगह रक्तपात, दक्षिण में निरंतर चलते रहे विजय अभियान और उनसे कृषि, वाणिज्य, उद्योग आदि के नाश जैसी बीसियों घटनाएँ घटी। विनाश ने इतिहास के पन्ने-दर-पन्ने पलटे।
जिन दिनों भारत विनाश के गहन अंधकार से गुजर रहा था, उन दिनों विश्व के कई देश भौतिक और आध्यात्मिक वैभव की ऊँचाइयाँ छू रहे थे। इंग्लैंड ने अँगरेजी को राजभाषा घोषित करने जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण फैसले उन्हीं दिनों लिए, जिनसे भारत की अस्मिता प्रभावित हुई। संसद का विकास, किसानों की स्थिति में सुधार, लोकतंत्र के आधुनिक स्वरूप का उदय, मध्य एशियाई देशों में वैभव-संपदा की बाढ़, फ्राँस में स्वतंत्रता का उदय, कोलंबस द्वारा पश्चिमी द्वीप-समूह की खोज, वास्कोडिगामा और अमेरिगो द्वारा नए क्षितिजों में प्रवेश, उद्योगों का विकास और मार्टिन लूथर के धार्मिक सुधार जैसी ऊँचाइयाँ इन्हीं दिनों अर्जित की गईं। पिछले आठ सौ वर्ष भारत को छोड़कर शेष विश्व के लिए अभूतपूर्व प्रगति के वर्ष हैं। अपने देश ने इस अवधि में प्रगति नहीं के बराबर की। आक्रमणों और उपद्रवों के अंधड़ में अपने आपको सिर्फ बचाए रखा। अपने बचाव के लिए किया गया पुरुषार्थ ही प्रचंड था। बारीकी से समझने वाले आलोचकों की दृष्टि में यह पुरुषार्थ भी कम नहीं था। आठ सौ वर्षों में कई देश छोटे-मोटे आक्रमणों का सामना नहीं कर पाए और कुछ ही समय में बिखर गए। भारत इसलिए बचा रहा कि परमचेतना इसके माध्यम से विश्वभर में अपनी महिमा को व्यक्त करना चाहती थी। वह समय बीत गया जब परमचेतना ने उस पर हाथ रखकर कुछ देर थम जाने के लिए कहा था। अब वह फिर ऊपर उठा रही है।
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि भारत अपनी उस भूमिका के लिए तैयार हो रहा है, जो अगले दिनों उसे निभानी है। यह भूमिका विश्व के नेतृत्व और मार्गदर्शन करने के रूप में है। कमोवेश हजार वर्ष के अनुभवों ने सिद्ध कर दिया है कि भौतिक सभ्यता का एकाँगी विकास, क्लेश, द्वंद्व और हिंसा के सिवा कुछ नहीं देता। उससे लौकिक शक्ति का संचय तो किया जा सकता है, लेकिन सृजन नहीं। अध्यात्म के बिना अर्जित की गई शक्ति उत्पीड़न और दमन ही लाती है। सृजन और समृद्धि के लिए भौतिक शक्ति के साथ अध्यात्मबल भी चाहिए। भागवत चेतना द्वारा इस कल्प के लिए चुने गए देश भारत को दोनों क्षेत्रों का समन्वित अनुभव है। श्री माँ कहा करती थी कि भारत का पुनर्जन्म हो रहा है। भारत फिर से जन्म ले रहा है। वह भारत जिसके पास आत्मा और समृद्धि दोनों है। शक्ति और शाँति, अनुशासन और स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय के समन्वय की अपनी प्रतिभा द्वारा नए युग की नई चुनौतियों का सामना करने के लिए भारतवर्ष फिर तैयार है।