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Magazine - Year 2000 - Version 2

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Language: HINDI
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देवात्मा हिमालय था उनका अभिभावक

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देवात्मा हिमालय भारत और भारत की संस्कृति का उद्गम केंद्र है। यहीं मानव-जाति ने अपने प्रथम पग रेख। वहीं संस्कृति की पहली किरण ने अपनी उज्ज्वल आभा बिखेरी, जिसके सघन होते प्रकाश से क्रमशः आर्यावर्त अजनाभ वर्ष एवं भारतवर्ष का स्वरूप साकार हुआ। पुरातन ऋषि-महर्षियों ने अगणित आध्यात्मिक प्रयोग यहीं किए देवों और ऋषियों का मिलन यहीं हिमालय के आँगन में हुआ। इन देवों और ऋषियों की पुंजीभूत चेतना का स्वरूप ही तो हिमालय है तभी तो इसे देवात्मा कहा जाता है। इसी देवात्मा हिमालय की प्रतिनिधि ऋषिसत्ता ने संस्कृति पुरुष श्रीराम के जीवन में आध्यात्मिक प्रकाश उड़ेलकर उनका हिमालय से नाता जोड़ा।

यों हिमालय से उनका यह नाता जन्म-जन्माँतर का था, युग-युगीन था, चिरपुरातन था बस इसे नवीन करने की रीति निभाई गई। उनके अंतर हृदय को तो देवात्मा हिमालय की अदृश्य तरंगें बाल्यावस्था से ही आकर्षित करती रहती थी। तभी तो वह आठ वर्ष की आयु में ही एक बार स्वतः ही हिमालय की ओर चल पड़े थे। बाद में जब घर के लोगों को पारिवारिक-स्वजनों को पता चला तब से जिस किसी तरह से उनको समझा-बुझाकर वापस लाए, पर पंद्रह वर्ष की अवस्था में तो देवात्मा हिमालय ने स्वतः ही अपने प्रतिनिधि को उनके पास भेज दिया। मार्गदर्शक गुरुदेव का आगमन उनके लिए हिमालय का आमंत्रण ही था।

इस प्रत्यक्ष आमंत्रण के बाद आवश्यक तैयारी के रूप में उनकी साधनात्मक गतिविधियाँ प्रारंभ हुई। इस साधनाक्रम के मध्य में ही एक दिन उन्हीं की भाषा में, “हमारे हृदय का बेतार का तार बज उठा।” इस एक वाक्य में इस बात का स्पष्ट संकेत है कि उनकी चेतना हिमालय के स्वरों को साफ−तौर पर सुनने-समझने लगी थी। उनके मार्गदर्शन ने उन्हें बतलाया कि ऋषि सत्ताओं की निवास-स्थली हिमालय का यह दिव्य क्षेत्र सब तरह से गुह्य और अलौकिक है सामान्य मानव मो क्या, अति श्रेष्ठ एवं समर्थ साधक भी यहाँ तक नहीं पहुँच सकते। यह दिव्य स्वरूप मात्र पर्वत शिखरों की सौंदर्य गाथा तक सीमित नहीं हैं पर्वत-शिखरों की ऊंचाइयों को तो हर साल सैकड़ों देशी-विदेशी पर्यटक सैलानी छूते रहते है। समाचार पत्रों में, विभिन्न पत्रिकाओं में उनकी कथा-गाथा छपती रहती है पर यह सब हिमालय का भौतिक सौंदर्य है।

इससे परे हिमालय का दिव्य क्षेत्र है जिसे संस्कृति पुरुष गुरुदेव ने चेतना का ध्रुवक्षेत्र कहा है। यहीं से वह दिव्य आध्यात्मिक ऊर्जा निःसृत होती है। जो देवसंस्कृति का सृजन करती है। इससे घनिष्ठ संबंध सूत्र जोड़कर ही हिमालय के देवात्मा स्वरूप से परिचित हुआ जा सकता है। इसी चेतना ने परमपूज्य गुरुदेव को संस्कृति पुरुष बनाया। स्थूल शरीर से की गई तीन यात्राओं एवं सूक्ष्मशरीर से की गई चौथी यात्रा में उन्होंने यही आकर हिमालय के दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार किया और उसे आत्मसात् किया।

प्रथम बार हिमालय जाना तो प्रथम सत्संग था। ऋषिकेश से उत्तरकाशी तक भी उन दिनों सड़क ओर मोटर की व्यवस्था नहीं थी। पगडंडियाँ ही थी। इसके बाद भी पूरा रास्ता पैदल घनघोर चढ़ाई वाला था, लेकिन हिमालय के आँगन में पाँव रखते ही जैसे पूरी थकान गायब हो गई। उत्साह के अतिरेक में उन्हें यही नहीं पता चला कि कितने समय में वह यहाँ आ पहुँचे है। बस ध्यान की गहराइयों में देखी गई दृश्यावली को अपने सामने जीवंत पाकर वह अभिभूत हो गए। नंदनवन की इस सुरम्यता में मार्गदर्शक गुरुदेव प्रकट हुए। इस बार वह स्थूल शरीर में सम्मुख थे। अधिक वार्ता क्या होती। बस उन्होंने स्नेह भरी दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए कहा, जो जन्म-जन्माँतर से गुरु−शिष्य रहे हैं उन्हें कुशल-प्रश्न आदि औपचारिक बातों की आवश्यकता नहीं रहतीं।

अपने गुरुदेव की इस सघन कृपा को स्वयं पर अनुभव कर उनके मुख-मंडल पर विस्मय और संतुष्टि के भाव उभर आए। उनका कंठ गदगद हो गया। आँखों में आनंदाश्रु आ गए। अनिवर्चनीय आनंद से उन्होंने आंखें मूँद ली। कपोलों पर आँसू झरने लगे। सहज ही माथा झुक गया। मार्गदर्शक ने दाहिना हाथ उनके माथे पर रखा और आशीर्वाद देकर धीमी गति से निकल गए।

आदि ओर अनंतकाल की गरिमा को सँजोता दिन तालबद्ध गति से बढ़ चला और भगवान् सूर्य अस्ताचल की ओर जा पहुँचे। उनके विराग की छाया सम्पूर्ण धरातल पर विस्तीर्ण हो गई। सम्पूर्ण हिमाच्छादित गिरि-शिखर गैरिकवर्णी वीतरागी संन्यासी के वेष में परिवर्तित हो गए। धीरे-धीरे यह विराग-सात्विकता की चाँदनी में परिवर्तित होने लगा। पूर्णिमा थी। हिमपात भी अधिक नहीं हो रहा था। चंद्रमा की शीतल ज्योत्स्ना समूचे हिमालय पर फैल गई। उस दिन ऐसा लगा कि हिमालय सोने का है। दूर-दूर तक बरफ के टुकड़े तथा बिंदु बरस रहे थे वे ऐसा अनुभव कराते थे मानो सोना बरस रहा है।

तभी मार्गदर्शक गुरुदेव आ पहुँचे। उन महान् ऋषि के आ जाने से गरमी का एक घेरा संस्कृति पुरुष श्रीराम के चारों ओर बन गया। उन्होंने मौन रहकर ही उन्हें एक इंगित किया ओर वह चुपचाप उनके पीछे-पीछे चल पड़े आश्चर्य। उन्हें सचमुच महान् आर्ख्यय हुआ कि उनके पाँव जमीन से ऊपर उठते हुए चल रहे है। आकाशगमन-अंतरिक्ष में चलने की यह सिद्धि उन्हें अनायास ही गुरुकृपा से प्राप्त हो गई थी। उन्हें अनुभव हो रहा था कि उन बर्फीले ऊबड़-खाबड़ हिमखंडों पर चलना इस आश्चर्यजनक क्षमता के बिना कठिन ही नहीं शायद असंभव होता। जैसे-जैसे वह आगे पद-न्यास करते थे उनका शरीर तैरता हुआ आगे-आगे जाता था। अचानक उनका शरीर ऊपर की ओर जाने लगा और वह हिमाच्छादित पर्वतों के एक के बाद अनेक उत्तुंग शिखरों को पार करते हुए एक ऐसे गुह्य क्षेत्र में पहुँच गए, जहाँ कुछ दिव्य गुफाएँ थी।

इन गुफाओं में संस्कृति निर्माता पुरातन ऋषि ध्यानस्थ बैठे थे। वह बड़ी ही पुण्य घड़ी थी यह देवसंस्कृति के वास्तविक उद्गम से साक्षात्कार था। मार्गदर्शक ने उन्हें उनमें से एक-एक का नाम बताते हुए कहा, यही है विशिष्टता और विभूति संपदा इस क्षेत्र की और यही है हिमालय का दिव्य क्षेत्र। अपनी इसी दिव्यता एवं देवत्व के कारण हिमालय के साथ देवात्मा विशेषता जोड़ा जाता है।

मार्गदर्शक के साथ उनके आगमन की बात उन सभी को पूर्व से ही विदित थी। सो वे दोनों जहाँ भी जिस समय पहुँचे उनके नेत्र खुल गए। चेहरे पर हल्की मुस्कान झलकी। वार्तालाप भी हुआ, पर स्थूल वाणी से नहीं। यहाँ तो परावाणी सक्रिय थी। इसके माध्यम से जो कुछ कहा गया, उसके अनुसार संस्कृति के सृजेताओं ने उन पर देवसंस्कृति के नवजीवन की जिम्मेदारी सौंपी। हिमालय यात्राएँ इसके बाद भी हुई। तीन स्थूल एवं चौथी सूक्ष्म यात्रा में संस्कृति एवं चेतना के नए आयाम उद्घाटित हो गए हर बार हिमालय से बसंध और अधिक घनिष्ठ हो गए इतना घनिष्ठ कि उन्हीं के शब्दों में अब हिमालय उनका सच्चा अभिभावक बन गया” और उनने जो कहा, उसका सार अंश इतना ही था कि भारतीय संस्कृति यज्ञमय है। इस यज्ञमय जीवन शैली को अपनाए बगैर देवसंस्कृति की विभूतियाँ प्रकट नहीं होगी।

तक्षशिला पर एक दूसरे राजा ने आक्रमण कर दिया। शत्रु की विशालकाय सेना को देखकर तक्षशिला के सेनापति की हिम्मत टूट गई। तक्षशिला नरेश से सेनापति ने कहा, राजन् शत्रु की सेना विशाल है अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित है संधि कर लेना अपने लिए अधिक अच्छा है। सेनापति की बात सुनकर राजा चिंतित हो उठे उसी राज्य के संत को पूरी बात मालूम हुई। वे राजा के पास पहुँचे और बोले अविलंब सेनापति को निकाल बाहर किया जाए। मैं स्वयं सेना का नेतृत्व करूंगा। राजा थोड़ी देर असमंजस में पड़ा रहा पर संत के परामर्श समय-समय पर उसके लिए लाभकारी सिद्ध हो चुके थे। आत्मसमर्पण करने की तुलना में लड़ना कही अधिक श्रेयस्कर है यह सोचकर संत के हाथों में सेना का नेतृत्व दे दिया।

शत्रु सेना का पड़ाव थोड़ी दूर था। मार्ग ने देवता का मंदिर था। संत ने कहा, पहले देवता से पूछ लेना चाहिए कि विजय किसकी होगी। सेना के समक्ष मंदिर के प्राँगण में सिक्का उछालते हुए संत ने कहा। यदि सिक्का पट गिरता है तो विजय श्री हमें हासिल होगी। संयोग से सिक्का पट गिरा। दैवी, कृपा अनुकूल जानकर सेना के सिपाही पूरी वीरता के साथ लड़े विजय प्राप्त हुई। सैनिकों ने संत से कहा, यह सब मंदिर के देवता की कृपा का प्रतिफल है। संत मुस्कराए। उन्होंने सिक्का दिखाया। सिक्के के दोनों और आकृति एक जैसी थी बोले यह बस आत्मविश्वास का प्रतिफल है। जो पहले सोया हुआ था वह जाग पड़ा। विजय श्री उसकी चेरी बन गई।

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