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Magazine - Year 2000 - Version 2

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यज्ञमय जीवन से उमंगती तप की ज्वालाएँ

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“ईद न मम्” यही है यज्ञमय जीवन का सूत्र, जो संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव के जीवन का पर्याप्त बना। बचपन से ही उनमें देते रहने की नैसर्गिक प्रवृत्ति थी। संगी-साथियों के साथ बाल-बाल-क्रीड़ाओं में इसके विविध रूप उजागर होते रहते थे। खाने-पीने की जो चीजें उन्हें घर में मिलती थी, उनका अधिकाँश भाग वह आग्रहपूर्वक अपने बाल-मित्रों को खिला देते। सतत् देते रहने से ही दान का प्रवाह उमगता है और इसी प्रवाह में देवत्व के कमल खिलते हैं। जिनमें देवत्व की सुरभि है ऐसे मनुष्य ही संघबद्ध होकर समाज का नवनिर्माण करते हैं। यज्ञमय जीवन का यह तत्वज्ञान गुरुदेव के जीवन में शनैः-शनैः अपने नए-नए आयाम प्रकट करता गया।

उन्होंने अपनी साधना-सामर्थ्य से अपने अंतराल में देवत्व का अकूत एवं अक्षय भंडार जुटाया था, जिसे वह सतत् अपने संपर्क में आने वाले स्वजनों परिजनों में वितरित करते रहते थे। यद्यपि सामान्यक्रम में उनके पास लोग जीवन की कष्ट कठिनाइयों का समाधान पाने के लिए जुटते थे। यह समाधान तो उन्हें मिलता ही था, पर साथ में उन्हें देवत्व का अनुदान भी मिलता था। उनके मनों में कुछ अच्छा करने के लिए नई उमंग भी जगती थी। ऐसे लोगों के अगणित घटना-प्रसंग संस्कृति पुरुष गुरुदेव की जीवनगाथा में सिमटे-सँजोए हैं।

ऐसा ही एक घटना-प्रसंग रूपनारायण नाम के एक परिजन का है। उन्हीं के शब्दों में उनकी कहानी कहें तो मैं एक असाध्य बीमारी से पीड़ित था। चिकित्सकों, वैद्य-हकीमों को बहुत दिखाया। इनसे जब कुछ लाभ न मिला तो ओझा-ताँत्रिकों के चक्कर काटे, पर परिणाम वही ढाक के तीन पात। सब तरफ से मन हार-थककर निराश हो गया। तभी कहीं से पता चला कि मथुरा में एक आचार्य जी रहते है जो बड़े सिद्ध-समर्थ है मेरी पत्नी मुझे लेकर जैसे-तैसे घीयामंडी अखण्ड ज्योति संस्थान पहुँची। द्वार पर ही धोती कुरता पहने एक सज्जन खड़े थे उनके मुख पर दैवी प्रेम की आभा थी। उन्होंने बड़े प्यार से मेरा नाम लेकर पुकारा रूपनारायण। अपना नाम एक अजनबी व्यक्ति से सुनकर जितना आश्चर्य हुआ। उससे कहीं अधिक उनके प्रेम को अनुभव पर परितोष हुआ।”

आँखें भर आई। पता चला यही वह आचार्य जी हैं जिनके लिए मैंने इतनी लंबी यात्रा की। वह घर के अंदर ले गए। वहाँ माताजी मिली जिन्होंने बड़े अपनत्व के साथ भोजनादि की व्यवस्था की। ऐसा लगने लगा कि मैं और मेरी पत्नी इन दोनों की अपनी संतान हैं। क्षणों में सब कुछ बदल गए। एक नई हिम्मत जागी। बीमारी तो क्षैर उनके आशीष से भागी हो पर साथ नई जीवन दृष्टि भी मिली गायत्री साधना से जुड़ाव हुआ, देवत्व की ओर जीवन की प्रवृत्तियाँ मुड़ी। जीवन में लौकिक तो पाया ही, अलौकिक भी कुछ ऐसा मिला जिसे बता पाने में मेरे शब्द असमर्थ हैं।”

ऐसे अनुभव अनुभूतियाँ और भी है दो-चार नहीं हजारों लाखों में हैं। जो बताती है कि संस्कृति पुरुष गुछेव के दान ने ही देव-पूजन की सत्प्रवृत्ति पैदा की और बाद में यही देवपूजन निष्ठावान् लोगों के संगतिकरण के रूप में विकसित हुआ। जिन्होंने अपने जीवन में और समाज में यज्ञीय भावनाएँ साकार की। यज्ञीय संस्कृति का विस्तार किया। गुरुदेव के जीवन में यह यज्ञमयता आँतरिक भावनाओं तक ही प्रवाहित रही हो ऐसी बात नहीं है बाह्य जीवन में समाज में इसके इतने विराट स्वरूप प्रस्तुत हुए कि देशवासियों के मन में यज्ञ ही उनकी पहचान बन गई।

इसका प्रथम प्राकट्य सन् 1943 ई. में हुआ। जब उन्होंने वातावरण को दिव्य स्पंदनों से संपादित करने हेतु सहस्रांशु गायत्री यज्ञ आयोजित किया। यह देश के कोने-कोने पर सहस्र ऋत्विजों के सम्मिलित संकल्प से पूरा हुआ। इसके अंतर्गत सवा करोड़ गायत्री जप, सवा लाख आहुतियों का हवन एवं सवा लक्ष उपवास किए गए। इसी के साथ गायत्री तपोभूमि की स्थापना हुई और दो ही सालों बाद सन् 1955 की वसंत पंचमी से 15 महीनों तक चलने वाले विशद् गायत्री महायज्ञ का आयोजन किया गया। इसके अंतर्गत (1) चारों वेदों का पारायण यज्ञ (2) महामृत्युँजय यज्ञ (3) रुद्रयज्ञ (4) विष्णुयज्ञ (5) शतचंडी यज्ञ (6) नवग्रह यज्ञ (7) गणपति यज्ञ (8) सरस्वती यज्ञ (9) ज्योतिष्टोम (10) और अग्निष्टोम आदि अनेक यज्ञों की प्रक्रियाएँ शामिल थी। यह समष्टि हित के लिए संपन्न हुआ आध्यात्मिक प्रयोग था। संस्कृति पुरुष गुरुदेव के शब्दों में “इस यज्ञ का यजमान, संयोजक पूर्णफल प्राप्तकर्ता कोई एक व्यक्ति नहीं है।”

इसके बाद सन् 1948 ई. में सहस्र कुँडी यज्ञ का विराट् आयोजन संपन्न हुआ। इसमें लाखों मनुष्यों के साथ स्वर्गस्थ देवता और हिमालय की ऋषि सत्ताएँ भी पधारी संख्या और व्यापकता की दृष्टि से गायत्री परिवार ने इससे भी बड़े अनेक यज्ञायोजन संपन्न किए हैं परन्तु इसकी विशेषताएँ कुछ ऐसी थी जिन्हें बताने में शब्दशास्त्र के समस्त विशेषण एकजुट होने पर भी असमर्थ है। यह उनकी चौबीस वर्षीय तप-साधना का पूर्णाहुति समारोह था। इससे जो संगतिकरण उभरा, उसी से गायत्री परिवार का संघबद्ध स्वरूप उजागर हुआ।

इसके बाद देश के अन्य पाँच स्थानों बहराइच टाटानगर, महासमुद्र, भीलवाड़ा एवं पोरबंदर में ऐसे ही सहस्र कुँडी यज्ञ आयोजन संपन्न किए गए। पाँच कुँडी, नौ कुँडी एवं चौबीस कुँडी यज्ञ शृंखलाएं भी राष्ट्रीय स्तर पर संपन्न होती रही। प्रारंभ में गुरुदेव स्वयं इन आयोजनों को सम्पन्न कराने जाया करते थे अभी भी ऐसे परिजन हैं, जिनके मनों में उन दिनों की अभूतपूर्व स्मृतियाँ सुरक्षित है। एक परिजन बताते हैं कि किस तरह से गुरुदेव एक टीन का बक्सा और दरी-चद्दर आदि का छोटा सा बंडल लेकर यज्ञों को संपन्न कराने जाया करते थे। ऐसे अवसरों पर उनके मठाधीशों एवं महंतों की तड़क-भड़क न दिखने के कारण तो कई लोग शुरुआत में बड़े निराश भी हो जाते थे। एक-दूसरे से पूछ भी लेते ये कैसे गुरुदेव है जो अपना सामान खुद ही उठाकर चलते हैं।

लेकिन बाद में नजदीक आने पर उन्हें पता चलता कि जिस व्यक्ति के संपर्क में वे आए है उसके पास ठाठ-बाट भले ही न हो, पर तपस्या का दुर्धर्ष तेज अवश्य उनके चारों ओर छाया हुआ है। यह व्यक्ति साक्षात् अमृत-पारस-कल्पवृक्ष है। यह यज्ञ कराने आया हुआ कोई सामान्य पंडित-पुरोहित-महंत, मठाधीश, नहीं बल्कि स्वयं ही यज्ञपुरुष है उसका जीवन स्वयं में ऐसी यज्ञवेदी है जिसमें हमेशा पत की ज्वालाएँ धधकती रहती है। इनमें जो भी अपनी श्रद्धा की आहुति देता है वह वरदान पाए बिना नहीं रहता। इन पंक्तियों में लिखी गई बातें अतिशयोक्ति नहीं बल्कि सच से कुछ कम ही है।

परिवर्तीकाल में यज्ञीय आयोजन गुरुदेव के प्रतिनिधियों द्वारा संपन्न कराए जाने लगे, पर यहाँ भी उनकी सूक्ष्म उपस्थिति रहती थी। यह क्रम अभी भी बरकरार है। वह इन दिनों स्थूलशरीर से भले ही न हो, पर उनके यज्ञमय जीवन से उमंगती तप की ज्वालाएँ अभी भी अपना अहसास कराती है। उसके इस यज्ञमय जीवन से ही उनके जीवनकाल में धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष के रूप में पुरुषार्थ चतुष्टय के चारों फल साकार हुए। इस पुरुषार्थ चतुष्टय के साकार होने में ही तो मानव-जीवन की पूर्णता है जो उनके जीवनकाल में ही चरितार्थ हुई।

शोक-संताप की नारकीय अग्नि में जलते पूर्वजों के परिमाण के लिए गंगा का भूलोक पर अवतरण आवश्यक था। भगीरथ को यह मालूम हुआ कि किसी तरह गंगा पृथ्वी पर आ जाएँ तो पितरों को सद्गति मिल जाएगी। ओर भूलोक के प्राणियों एवं वनस्पतियों की प्यास बुझेगी महलों का भोग-विलास छोड़कर चल पड़े तप करने गंगा पृथ्वी पर जाने के लिए तैयारी हो गई भगवान् शंकर ने गंगा के तीव्र वेग को सँभाला ओर गंगा को पृथ्वी की ओर प्रवाहित कर दिया भगीरथ की अपनी निज की सामर्थ्य नगण्य थी। लोक-कल्याण के लिए उन्हें ईश्वरीय शक्ति भगवान् शिव का सहयोग मिला। गंगा के अवतरण से शाप पीड़ित भगीरथ के पूर्वजों को सद्गति मिली। वे स्वयं यशस्वी हुए और सबसे बड़ी बात यह हुई कि उनके सद् प्रयत्नों द्वारा अवतरित गंगा द्वारा कोटि-कोटि प्राणियों को अपनी प्यास बुझाने का अवसर मिला।

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