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Magazine - Year 2000 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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युगपरिवर्तन नवसृजन हेतु पुरुषमेध एवं सौत्रामणी प्रयोग

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नवयुग के सृजन के लिए विराट् महापुरुषार्थ की महापूर्णाहुति। कितना महत्वपूर्ण समय है यह ? यह भी कहा जा सकता है कि आज से प्रायः 75 वर्ष पूर्व युगचेतना के अभ्युदय, अखण्ड दीप प्रज्ज्वलन के साथ जो संकल्प लिया गया, उसकी महापूर्णाहुति। अथवा एक विराट् समुदाय द्वारा लगातार बीस वर्षों से,किंतु प्रखरता के साथ विगत बारह वर्षों से किए जा रहे साधनात्मक पराक्रम की महापूर्णाहुति। जो भी हो, चतुर्थ चारण आते-आते राष्ट्र-साधना परिपक्व स्थिति में दिखाई दे रही है। चारों ओर उससे वातावरण में उल्लास को, शक्ति को, सृजन प्रक्रिया की गतिविधियों को सक्रिय देखा जा सकता है। उस पर भी शास्त्रोक्त पुरुषमेध महायज्ञ एवं सौत्रामणी प्रयोग। ऐसा श्रौतयाग का अभिनव प्रयोग, जो अभूतपूर्व हो, विगत 2000 वर्षों में कहीं संपन्न न हुआ हो, किंतु इस विराट् अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वारा संपन्न किया जा रहा हो, उस विराट् पुरुष के जागरण हेतु, जो नवयुग लाने को संकल्पित है।

पुरुषमेध क्या है ?

यजुर्वेद के अध्याय 30 का नाम पुरुषमेध है। पुरुषमेध, नरमेध, नृमेध, मनुष्य-यज्ञ, नृयज्ञ आदि शब्द एक ही भाव रखते है। ‘मेध’ शब्द का अर्थ शास्त्रकारों ने कई प्रकार से बताए है -मिलना, परस्पर मैत्री-भाव बढ़ाना, एकता स्थापित करना, पवित्रता का संचार करना, एक-दूसरे को जोड़ना, सत्त्व बल एवं उत्साह बढ़ाना। इस प्रकार ‘नरमेध’ या ‘पुरुषमेध’ का अर्थ हुआ, मनुष्यों में परस्पर मैत्री-भाव बढ़ाना, मनुष्यों को पवित्र बनाना, मनुष्यों में सत्व, बल, उत्साह की वृद्धि करना, मनुष्यों में सत्कार और परस्पर औदार्य बढ़ाना। पारंपरिक रूपों में ‘मेध’ का अर्थ ‘हिंसा’ से जोड़ा जाता है, जो कि गलत है। हमारे वेदज्ञ महानुभावों का मत है कि उन्नति के विरोधी दस्यु भावों का नाश करना ही यज्ञ हिंसा है, यानि ‘मेध’ है। मेध तो मेधावृद्धि का एवं संगम-संगतिकरण का पर्याय है। यज्ञ का एक वाचक शब्द अध्वर भी है। “न ध्वरः अध्वरः अहाँसमयं कर्म” (निध.2/19) अर्थात् जिसमें हिंसा नहीं होती, उस कर्म का नाम अध्वर है। इस प्रकार मेध शब्द की व्याख्या से ही स्पष्ट हो जाता है कि हम पुरुषमेध से क्या हस्तगत करना चाह रहे है।

वैदिक मंत्रों के आध्यात्मिक अर्थ जैसे ब्राह्मण और आरण्यक ग्रंथों में उपलब्ध होते है, वैसे किसी अन्य ग्रंथ में नहीं है। इसीलिए शतपथ ब्राह्मण को यजुर्वेद के साथ अध्ययन कर अर्थों को वास्तविक रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं। सबको सत्कर्म करने की प्रेरणा देना, सबकी ज्ञान से शुद्धि करना, एक ईश्वर की सामुदायिक उपासना करना, दुष्ट भावों को दूर हटाना, ज्ञान, बल, धन, कौशल इन चारों का सभी में समान वितरण, कर्म का उत्साह और कर्म-कौशल का विस्तार पुरुषमेध का वास्तविक लक्ष्य होता है। नरमेध का वैदिक आशय कितना सुँदर रहा है और मध्यकाल के कर्मकाँडियों ने किस सीमा तक गिराया, इसे भलीभाँति समझा सकता है।

यजुर्वेद के अध्याय 61 में ‘पुरुष’ शब्द आया है। इस ‘पुरुष मेध’ में पुरुष शब्द से आशय है, परमेश्वर, परमात्मा, परब्रह्म है। इस ईश्वर की समग्र समुदाय द्वारा मानस पूरा किया जाना ही पुरुषमेध है। पुरुष अर्थात् पुरि+वसति, पुरि अर्थात् नगरी में बसने वाला मनुष्य-नागरिक। मेध अर्थात् बुद्धि का विकास। नागरिक मनुष्यों की बुद्धि का विकास करना ही पुरुष मेध का लक्ष्य है। ज्ञान-प्रचार के लिए ज्ञानी को नियुक्त किया जाता है, ब्रह्मणे ब्राह्मणं आलभते, यह वाक्य ही यह बताता है कि सद्ज्ञान के विस्तार के लिए, सभी के उज्ज्वल भविष्य के लिए इस यज्ञ में प्रार्थना की जाती है। इसमें सविता देवता से प्रार्थना की जाती है कि परमेश्वर सबको सत्कर्म करने की, सत्कर्मों का संरक्षण करने की बुद्धि प्रदान करें। सबके अंदर पवित्रता का संचार हो एवं सभी की वाणी मधुर बने, यह प्रार्थना भी पुरुषमेध के प्रथम मंत्र में की गई है। दूसरा मंत्र हमें ईश्वर के पापनाशक तेज का ध्यान करने की प्रेरणा देता है, जो कि गायत्री मंत्र की ही प्रार्थना है। तीसरा मंत्र बुराइयों को दूर कर अच्छाइयों को पास लाने की बात कहता है। चौथा मंत्र राष्ट्र में विषमता का भाव मिटाकर मनुष्य मात्र की सर्वांगपूर्ण उन्नति, वैभव विस्तार की बात कहता है। पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी ने बड़े विस्तार से एक-एक शब्द की व्याख्या करते हुए इस महायज्ञ को एक अति पुण्यकारी कर्म बताया है।

कात्यायन श्रौतसूत्र कहता है (21/1/1) कि पुरुषमेध सब भूतों का अतिक्रमण करके सबसे ऊपर स्थित होने की कामना से किया जाता है। सर्वोत्कर्ष की प्राप्ति के लिए प्रतिभावानों द्वारा राष्ट्र के वर्चस्व को बढ़ाने के लिए पुरुषमेध किए जाने का महात्म्य बताया गया है। ऐसे विद्वान् पुरुषमेध के पश्चात् अरण्य में जाकर तप करते है और वेद संन्यास ले लेते है, जो कि एक प्रकार से वानप्रस्थ संस्कार है। तपस्वी ब्राह्मणोचित जीवन एवं ज्ञान का विस्तार ही फिर उनका लक्ष्य होता है।

पुरुषमेध महायज्ञ जो शाँतिकुँज हरिद्वार द्वारा होने जा रहा है, मैं साँकेतिक बंधनों के प्रतीक रूप में श्रेष्ठ कर्म करने के लिए संकल्पित पुरुषों को यूप के समक्ष बिठाया जाएगा एवं फिर उन्हें सामूहिक वानप्रस्थ की दीक्षा देकर प्रथम तीन मंत्रों की आहुतियों के बाद मुक्त कर दिया जाएगा। इससे राष्ट्र का ऐश्वर्य, बल-ज्ञान इससे बढ़ेगा। “अपने-अपने वैयक्तिक स्वार्थों को छोड़कर राष्ट्र के ही उत्थान के लिए अपना जीवन अर्पित कर देना ही पुरुषमेध यज्ञ है।” यह जनवरी 1958 में अखण्ड ज्योति पत्रिका में स्वामी श्री अभयदेव जी द्वारा उद्धृत है। व्यष्टि पुरुष, राष्ट्र पुरुष, विराट् पुरुष की समग्र साधना एवं इनके द्वारा सर्वस्व की प्राप्ति के लिए किया गया उपक्रम ही पुरुषमेध है।

सौत्रामणी क्या है ?

यह श्रौतयाग शुक्ल यजुर्वेद संहिता के 19वें, 20वे, 21वें अध्यायों में वर्णित है। सोमयाग संस्था का एक अंग है सौत्रामणी प्रयोग। इसका लक्ष्य है राष्ट्र की विषतियों से रक्षा। यह मानव को भी हिंसा, ऋण व पाप से बचाता है। असत् से रखा को भी सौत्रामणी कहा गया है। सरस्वती, इंद्र और अश्विनी कुमार तीन देवताओं को इसमें आहुति दी जाती है। ये दुःखों के तीनों कारणों को मिटाते है। अज्ञान, अभाव व अशक्ति ही दुःखों के तीन मूलभूत कारण है। अज्ञान का निवारण सरस्वती, विद्या की देवी की उपासना द्वारा तथा यज्ञ में आहुति देकर साधक सारस्वत बनता है। अभाव इंद्र की उपासना, उन्हें आहुति देने से मिटता है एवं साधक ऐंद्र बनता है, ऐश्वर्यशाली बनता है। अशक्ति का निवारण अश्विनी कुमारों की उपासना, आहुति द्वारा होकर साधक सबल, समर्थ, सशक्त बनता है।

“सुत्रामा इंद्रों देवता अस्याः” जिस यज्ञ का प्रधान देवता हो इंद्र, जो चारों दिशाओं को प्रकाशित करे, वह सौत्रामणी याग कहलाता है। ‘सुत्रामा’ शब्द का अर्थ है इंद्र। अमरकोष के अनुसार, “सुत्राम्न इयं सौत्रामणी” सुत्रामा शब्द से सौत्रामणी नाम पड़ा है। ‘सुत्रात्’ अर्थात् बुराइयों से बचाना। सौत्रामणी का यह सौत्रामणीत्व है कि वह आत्मा को पाप से, मनुष्य को मृत्यु से बचाता है। इस यज्ञ से वीर्य और पराक्रम की उपलब्धि होती है, इसलिए इसे करने का माहात्म्य बताया गया है। राष्ट्र में ब्राह्मणत्व एवं सुसंस्कारिता के अभिवर्द्धन हेतु भी इसे करने का प्रावधान बताया गया है।

यह यज्ञ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी से आरंभ होकर, चार दिन तक चलता है। हमारे सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ में भी यह देवपूजन के पश्चात् द्वादशी (कार्तिक शुक्ल) से आरंभ होकर पूर्णिमा तक चलेगा। इस यज्ञ के समस्त कृत्य दर्श-पौर्णमास याग की ही तरह है। इस याग की दक्षिणा गौ का वत्स है अर्थात् गौमाता-बछड़े सहित दान में दी जाए, गौ-संवर्द्धन के लिए संकल्पित हुआ जाए, तो इसका पूरा पुण्य मिलता है।

अश्विनी कुमार एवं सरस्वती के उपचार ने नमुचि नामक राक्षस द्वारा हर ली गई समस्त शक्ति को इंद्र में पुनः स्थापित कर दिया और दोनों देवताओं ने इंद्र को (सुत्रात्) अर्थात् पाप से बचाया, इसीलिए इसका नाम सौत्रामणी हो गया ।इस यज्ञ में स्विष्टकृत के पूर्व यजमानों का अभिषेक किया जाता है, ताकि वे भी पापमुक्त हो इंद्र की तरह ऐश्वर्यवान, संकल्पवान् बन सकें। इस यज्ञ का माहात्म्य सर्वाधिक बताया गया है। क्योंकि ज्ञानवान्, श्रेष्ठ, ब्राह्मणत्व अभिवर्द्धन की कामना वालों द्वारा इसे निष्काम भाव से संपन्न किया जाता है एवं यह श्रेष्ठता की ही उपलब्धि कराता है। ऐतरेय ब्राह्मण लिखता है, “सर्वाभ्यों वा एव देवताभ्य आत्मानमालभते।” अर्थात् यज्ञकर्त्ता समग्र देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपने अहंकार को समर्पित करता है। जीवात्मा को पशु मानकर उसे समर्पित किया जाए, यही सबसे बड़ा यज्ञ है। इसी कारण श्रौतयागों का महत्त्व माना गया है।

यह यज्ञ इंद्ररूपी संकल्प देवता, राष्ट्र देवता के क्षीण वीय, क्षीण सामर्थ्य होने पर उसे परिपूर्ण, स्वस्थ, जीवनी शक्तिसंपन्न बनाने का अश्विनी कुमार द्वारा तथा मेधासंपन्न बनाने का सरस्वती द्वारा किया गया एक प्रयोग है। इससे राष्ट्र में विद्यावान्-प्रतिभावानों की संख्या बढ़ती है, ऐश्वर्य, सैन्य बल में भी अभिवृद्धि होती है। कात्यायन श्रौतसूत्र इसकी विस्तार से व्याख्या करता है, जिसे सूक्ष्म अर्थों में ही समझा जा सकता है।

यह उपर्युक्त विवरण विस्तार से सभी याजकों, संस्कृति साधकों की जिज्ञासा पूर्ति हेतु दिया गया है, ताकि वे भलीभाँति यज्ञ का माहात्म्य समझकर इस प्रयोग के महत्व को समझ सकें। पुरुषमेध एवं सौत्रामणी दोनों जब संपन्न होते है, विशेष रूप से संधिवेला में, तो युग के नवनिर्माण की प्रक्रिया को गति प्रदान करते हैं, प्रतिभाओं के अभ्युदय हेतु वातावरण बनाते है तथा राष्ट्र के विद्यावानों का वर्चस्व सारे विश्व में बढ़ाते हैं। यही तो है युगपरिवर्तन की प्रक्रिया का वह महायज्ञ, जो हम नवंबर माह की 7 से 11 की तिथियों में संपन्न कर रहे है।

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