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Magazine - Year 2000 - Version 2

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जीवन-साधना का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष “आत्मवत् सर्वभूतेषु

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‘धर्म-तत्र से लोक-शिक्षण’ के माध्यम से परमपूज्य गुरुदेव अपने विराट् गायत्री परिवार के सदस्यों को यह कहना चाहते थे कि आध्यात्मिकता पूजा-पाठ व कथा-वार्ता तक सीमित होकर न रह जाए। इसे जीवन-व्यवहार में भी स्थान मिले। आत्मकल्याण की साधना और लोक-मंगली की प्रवृत्ति के युग्म द्वारा समग्र उत्थान की बात जन-जन सोचने लगे। अंदर की इसी आग को सँजोए परमपूज्य गुरुदेव ने अखण्ड ज्योति पत्रिका का अगस्त 1969 का अंक ‘विचारक्राँति अंक’ के रूप में लिखा। इस अंक में संस्कृति पुरुष के व्यक्तित्व के दो महत्त्वपूर्ण पहलू दृष्टिगोचर होते हैं पहला विचारक्राँति के माध्यम से युगनिर्माण योजना की संघर्षात्मक-रचनात्मक गतिविधियों को जन्म देने वाले संगठन का, तो दूसरा एक ऐसे अभिभावक का, जो अपने परिजनों से बिछुड़ने की बात मन में सोचते ही द्रवित हो उठता है उसकी व्यथा-वेदना ऐसे प्रकट होती है, “अखण्ड ज्योति परिवार में हमने गिन-गिनकर चुन-चुनकर परख-परखकर मणिमुक्तक खोजे हैं और उन्हें एक शृंखला-सूत्र में आबद्ध किया है। वे हमें भले ही भूल गए हों, पर हमें उन्हें भूले नहीं है। हम उन सभी के पूर्व चित्र और चरित्रों को भी जानते हैं जिनके साथ हमारा अति घनिष्ठ संबंध लगातार कई जन्मों से रहा है। इसलिए वन से लौटती हुई गाय जैसे अपने बछड़े को देखते ही रँभाती, चाटती है। लगभग वैसा ही कुछ अपना मन भी करता है।”

प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारे इस अंक के महानायक संस्कृति पुरुष की मथुरा से विदाई लेने की घड़ी में लिखी गई थी परिजनों से प्यार, अनंत परिणाम में स्नेह यह एक संगठक, अभिभावक, परिवार के मुखिया की एक ऐसी विशिष्टता जिस पर उस संगठन, उस समुदाय, राष्ट्र का साँस्कृतिक उत्कर्ष टिका माना जाना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव ने ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका के संपादक के रूप में दो लेख अप्रैल व मई 1939 की पत्रिकाओं में लिखे, हमारी प्रेम-साधना और उसकी परिणति-खंड 1 व 2’। उनमें उन्होंने लिखा है कि उनकी साधना की जो मूल धुरी रही है वह है अंतः करण में प्रेमतत्व का अभिवर्द्धन। यह प्रेम उन्होंने परमात्मा से किया गुरुसत्ता से किया तथा उसकी तीसरी धारा परिवार क्षेत्र में प्रवाहित की। यह परिवार उनका अपना गायत्री परिवार, युग निर्माण परिवार था। वे लिखते थे, “ हमारी उपासना पद्धति के अंतराल में सन्निहित यह प्रेम-साधना ही थी जो सामान्य को असामान्य में, तुच्छता को महानता में परिणत करने का चमत्कार दिखा सकी।” (अखण्ड ज्योति अप्रैल 1969)। वे इसी लेखमाला में लिखते है “ईश्वर भक्ति का अभ्यास हमने गुरुभक्ति की प्रयोगशाला में, व्यायामशाला में आरंभ किया और क्रमिक विकास करते हुए प्रभु-प्रेम के दंगल में जा पहुँचे।

उपर्युक्त पंक्तियों मनन करने योग्य हैं। आज के धर्म-तंत्र के स्वरूप को हम देखते, रूखी कर्मकाँडों से भरी अथवा कपोल-कल्पित मिथकों कथा-गाथाओं की विडंबनाओं से युक्त एक प्राणहीन कलेवर ही नजर आता है। धर्म-तंत्र में प्राण फूंकने का “रसों वै सः” की भावना की सही अर्थों में आत्मस्वत्कर अपनी उपासना को प्राणवान् बनाने का एक सशक्त शिक्षण परमपूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन से दिया, यह कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। भक्तियोग का यह पक्ष व्यक्तित्व में समाहित होने पर कैसे उसे परिष्कृत कर मानव को महामानव बना देता है, यह हमें पूज्यवर के माध्यम से जानने को मिलता है।

किसी भी साधक-संगठक की प्रेम-साधना जब तक उच्चस्तरीय लक्ष्य को केंद्रित कर संपन्न नहीं होती, उसका परिणाम सीमित ही होगा। परमपूज्य गुरुदेव ने जीन भर अगणित व्यक्तियों प्यार-ममत्व के माध्यम से जोड़ा उन्हें अपना बनाया व येन-केन प्रकारेण उन्हें श्रेष्ठ आदर्शों के प्रति समर्पित हो जीना सिखा दिया। यही कारण था कि वे अपने विराट् परिवार से अंतिम समय तक भी अतिशय प्रेम करते रहे। जनवरी 1969 की अखण्ड ज्योति में जब वे मथुरा से हिमालय तप-प्रवाह हेतु विदाई की घड़ियां और हमारी व्यथा वेदना। वे लिखते हैं, कोई अपनी चमड़ी उघाड़कर भीतर का अंतरंग परखने लगे, तो उसे माँस और हड्डियों में एक तत्त्व उफनता दिखाई देगा, वह है असीम प्रेम। हमने जीवन में एक ही उपार्जन किया है, प्रेम। एक ही संपदा कमाई है। प्रेम। एक ही रस हमने चखा है और वह है प्रेम का।” आगे वे लिखते है “ज्ञान और वैराग्य की पुस्तकें हमने बहुत पढ़ी है। माया और मोह की निरर्थकता पर बहुत प्रवचन सुने है संसार मिथ्या है, कोई किसी का नहीं सब स्वार्थ के हैं आदि आदि। ब्रह्म चर्चा में भी सम्मिलित होने का अवसर मिला है। जब अपनी ही आत्मा दूसरों में जगमगा रही हो तो किससे मुँह मोड़ा जाए ? किससे नाता तोड़ा जाए ? कुछ भी सूझ नहीं पड़ता। पढ़ा हुआ ब्रह्मज्ञान रत्तीभर भी सहायता नहीं करता...... स्मृति पटल पर स्वजनों की हँसती-बोलती मोह ममता से भरी एक कतार बढ़ती उमड़ती चली जाती है। सभी एक-से-एक बढ़कर प्रेमी सभी एक-से-एक बढ़कर आत्मीय, सभी की एक-से-एक बढ़कर ममता। ..... रात्रि भर आँखें बरसती रहती है और सिरहाने रो वस्त्र गीले होते रहते हैं।

पाठक-परिजन भलीभाँति पढ़ सकते हैं एक गुरुसत्ता विराट् परिवार के अभिभावक के अंतरंग को। उनका हृदय माँ की कोमलता से अभिपूरित था। इसे कोई भावुकता कह सकता है, कोई छलछलाते प्यार से भरी मनोभूमि की अभिव्यक्ति किंतु सतत् ये मनोभावनाएँ एक ही संदेश देती रही कि उनका जीवन एक समिधा की तरह लोकहितार्थाय जीवनयज्ञ में जलता रहा है। उसी विराट् यज्ञ ने एक संगठन खड़ा कर दिया, जिसका नाम था गायत्री परिवार एवं उसी परिवार से उन्होंने प्रेम कर “ आत्मवत् सर्वभूतेषु” की साधना को गति दी अपना आपा और बड़ा कर लिया, इसीलिए वे फरवरी 19 की अपनों से अपनी बात में लिखते है “प्यार-प्यार यही हमारा मंत्र है। आत्मीयता, ममता, स्नेह और श्रद्धा यही हमारी उपासना है।”

अपने दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियों पर पूज्यवर ने मथुरा से विदाई की पूर्व वेला में अपनी अध्यात्म साधना पर प्रकाश डालते हुए लिखा। “हमारी साधना की दो मंजिले पूरी हो चुकी, ‘मातृवत् परदारेषु’ ‘ परद्रव्येषु लोष्ठवत्।’ माता के समान हर परनारी को तथा दूसरे के द्रव्य को अकिंचन-गौण मानकर जीवन-संग्राम में वासना, तृष्णा से मोरचा लेना। अब साधना के तीसरे चरण में प्रवेश करते है वह है ‘6 आत्मवत् सर्वभूतेषु।” मातृवत् परदारेषु परद्रव्येकषु लोष्ठवत् की साधना विवेक के सहारे सध गई। तीसरी साधना थी अपने समान सबको देखना। कहने-सुनने में यह सब मामूली शब्द लगते हैं और सामान्यतया नागरिक कर्त्तव्यों का पालन, शिष्टाचार, सद्व्यवहार की सीमा तक पहुँचकर बात पूरी हो गई दीखती है। पर वस्तुतः उस तत्त्वज्ञान की सीमा अति विस्तृत है उसकी परिधि वहाँ पहुँचती है जहाँ परमात्मसत्ता के साथ घुल जाने की स्थिति आ पहुँचती है (अखण्ड ज्योति फरवरी 1971)।

हमारी साँस्कृतिक गरिमा इसीलिए अक्षुण्ण रही है कि हमारे यहाँ ऐसी भावना रखने वाले अनेक मनीषी समय-समय पर जन्म लेते रहे। हमारी संस्कृति के महासागर में ऐसी विचारधाराएँ विभिन्न प्रकार की उपासना पद्धति वाले अनेक संगठन आते गए एकाकार होते चले गए। इस सामासिकता उदारता का मूल उसी बीज में छिपा है जिसे कहा गया है। “बात्मवत् सर्वभूतेषु।” अपने जैसा ही सबको मानना। किसी में भेद न मानना। कभी संत ज्ञानेश्वर ने ऐसा ही एक प्रदर्शन पाँडित्य के अहंकार से भरे ब्राह्मणों के समूह में कर उन्हें चुनौती दी थी। भैंसे के मुख से वेदमंत्र का पाठ उन्होंने यही कहकर करवाया कि उसके अंदर भी वही जीवात्मा है जो हम सबमें है। रामकृष्ण देव के गालों पर अँगुलियों के निशान उभरकर आना, नाव वाले को मारे गए चाँटे की पीड़ा की समानुभूति इसी आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना की प्रतीक है।

परमपूज्य गुरुदेव ने अहर्निश इसी भाव से विराट् ब्रह्म की, समाज देवता की उपासना की एवं उसका परिणाम इस गायत्री परिवार रूपी विभूतियों के भाँडागार के रूप में देखा जा सकता है। समानुभूति संबंधी एक बड़ी महत्त्वपूर्ण घटना उनके जीवन की भी है। एक परिजन जो दिल्ली में जेवर आदि का व्यवसाय करते थे, गुरुदेव के पास आकर अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन करने लगे। वे कह रहे है, “गुरुवर! सड़क पर फिसलकर गिरते ही ताँगा पैर पर से निकल गया। आपकी कृपा से कुछ भी नहीं हुआ आपका ही स्मरण करता रहा।” पूज्यवर ने तुरंत अपनी धोती ऊपर उठाकर कहा “तुझे कुछ होता कैसे ? तेरा कष्ट तो यहाँ आ गया था।” हमने देखा है उनकी जाँघ पर उस लाल निशान को, जो उन्होंने उन भाई को दिखाया। एक-दो-दिन में वह निशान समाप्त हो गया। दो सौ किलोमीटर की दूरी-बेतार का तार आर्तभाव से लगाई गई गुहार ने गुरुसत्ता को विवश कर दिया कि वे अपने भक्त का संकट अपने ऊपर ले ले। आत्मवत् सर्वभूतेषु के ऐसे अगणित उदाहरण परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में देखने को मिलते है।

इस अनुभूति में दूसरों के सुख में अपना सुख एवं दूसरों के दुःख में अपना दुःख अनुभव होने लगता है। ऐसा मनुष्य अपनों तक सीमित नहीं रह सकता। स्वार्थों की परिधि में आबद्ध रहना उसके लिए कठिन हो जाता है। दूसरों का दुःख मिटाने ओर सुख बढ़ाने के प्रयास बिलकुल ऐसे लगते हैं, मानों यह सब निताँत अपने व्यक्तिगत प्रयोजन के लिए किया जा रहा हो। पुण्यात्मा युधिष्ठिर का कुछ समय नकर जाना व वहाँ के प्राणियों को आनंद-विभोर कर देना बताता है कि दूसरों को सुख देने का आनंद कितना बड़ा है परमपूज्य गुरुदेव ने सदैव यही कहा कि भारतभूमि इसलिए पुण्यभूमि है कि मनुष्यता को गौरवान्वित करने वाले महामानवों ने बार-बार इस धरती पर जन्म लिया है। इनका अस्तित्व ही इसी जगती को इस योग्य बनाए है कि भगवान् बार-बार नर-तनू धारण कर अवतार लेने के लिए ललचाते हैं।

परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी की जीवन-गाथा इस तथ्य का प्रमाण है कि संस्कृति का गौरव’ आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के भाव से जीने वालों ने ही ऊँचा उठाया है। पीड़ित मानवता की विश्वात्मा की व्यक्ति और समाज की व्यथा-वेदना ने ही उन्हें बेचैन कर जीवन भर तिलतिल कर जलाया। इसी आधार पर वह पृष्ठभूमि बनी, जिसे “वसुधैव कुटुँबकम्” की धुरी अगले दिनों बनता था।

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