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Magazine - Year 2001 - Version 2

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Language: HINDI
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‘भक्ति’ की मानव इतिहास में प्रगति यात्रा

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जीवन में भक्ति की प्रतिष्ठा के पीछे सहस्रों वर्षों का इतिहास छुपा है। भक्ति की भावना वेदों से निःसृत हुई, ऐसा विद्वानों का मत है। ‘भज’ धातु से भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। वैदिक साहित्य में इसका अर्थ है, बाँटना, भाग पाना या लेना अथवा हिस्से का साझीदार बनना। इन अर्थों में भक्त भगवान का साझीदार है। भगवत् संवेदना का साझीदार होने के कारण ही वह भक्त कहलाता है। ऋग्वेद में भक्त भक्ति और भगवन् शब्दों का प्रयोग इन्हीं अर्थों में हुआ है।

इन अर्थों के प्रयोग के पश्चात् भगवन् शब्द को अलौकिक सर्वशक्तिमान परम तत्व के रूप में निरूपित किया जाने लगा। उस तत्व की कल्पना ऐसी शक्ति के रूप में की गई, जिसका समस्त ऐश्वर्य एवं संपदा पर प्रभुत्व था और जो अपने उपासक को उसका एक अंश भक्ति के रूप में प्रदान कर उसे अपना भक्त बना सकता था। इसी वजह से भक्ति और भक्त के प्रारंभिक प्रयोग कर्मव्यापत्व में हुए है। भगवन् के अनुग्रह से उसके एक अंश के प्राप्त कर्ता होने के कारण भक्त और भक्ति शब्द शक्ति के साथ भी प्रयुक्त हुआ है। ये शब्द उस शक्ति की सहभागिता एवं घनिष्ठ आत्मीय भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सर्वथा उपयुक्त थे। इन्हीं कारणों से धार्मिक विचारधारा में भक्ति शब्द एक सशक्त प्रतीक के रूप में परिभाषित हुआ है।

वेदों में भक्ति के तीन सोपान है, स्तुति, प्रार्थना, और उपासना। स्तुति में प्रभु के गुणों का कीर्तन होता है। यह ज्ञान की मीमाँसा है। प्रार्थना में प्रभु से पापों के प्रायश्चित और पुण्य प्राप्ति के लिए कामना की जाती है। पापमयी दानवता का दमन तथा पुण्यमयी दैवी विभूतियों का समावेश प्रचंड कर्म की अपेक्षा रखते हैं। अनवरत कर्म की सिद्धि सतत अभ्यास के द्वारा ही संभव हो सकती है। ज्ञान लक्ष्य का बोध कराता है, तो कर्म उस स्थल तक पहुँचाता है और उपासना उस लक्ष्य के समीप आसीन करा देती है। अतः भक्ति ज्ञान, कर्म एवं उपासना की पावन त्रिवेणी का संगम है। ज्ञान और कर्म संपत्ति का प्रभु अनुग्रह के साथ सामंजस्य ही वैदिक भक्ति का आदर्श है।

वैदिक महर्षिगण भक्त को चेतना के, ज्ञान के उत्तुँग शिखरों तक ले जाते हैं, जहाँ परम आनंद का स्रोत है। प्रभु का प्रकाश या ज्ञान की ध्यान-धारणा से जीवन आनंददायक हो जाता है। यही वैदिक भक्ति का स्वरूप है। इसके साधनों में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, अभ्यास तथा वैराग्य दोनों सम्मिलित हैं, जबकि परवर्तीकाल में निवृत्ति को ही एकमात्र साधन मान लिया गया है। सही कहा जाए, तो वेदों में भक्ति का समग्र स्वरूप झलकता है। वेद ने भक्त के लिए जिन साधनों का प्रतिपादन किया है, वे आत्मा, परमात्मा व प्रकृति ज्ञान से सम्बन्धित हैं। इन साधनों में व्यापकता और गंभीरता की अभिव्यक्ति हुई है, लेकिन बाद के समय में यह स्वरूप दिखाई नहीं देता। यहाँ तक कि भागवत भक्ति के नवधा भेदों में भी वैदिक भक्ति का समग्र रूप समाहित नहीं हो पाता।

वेदों में जीव का प्रभु से विरह अवस्था का अत्यंत करुण, मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है। वैदिक ऋचाओं में भक्तिभाव का अंकुरण देखा जा सकता है। यही भक्ति परवर्तीकाल की भागवत, शैव आदि भक्ति पद्धतियों से कई अंशों में भिन्नता एवं समानता रखती है।

ऐतरेय ब्राह्मण में ज्ञान चेतना की प्रमुखता होने से भक्ति भावना न्यून मात्रा में है। शतपथ ब्राह्मण में कर्मकाँड का प्रभाव अधिक हैं कर्म अपने सूक्ष्म रूप में ज्ञान और उपासना दोनों के अंदर सन्निहित है। अतः इसमें भक्तिभाव अंकुरित होते देखा जा सकता है। शतपथ ब्राह्मण में भक्ति की पर्याप्त विवेचना हुई है। जैसे, द्वेष से दूर रहना, सबसे प्रेम करना, दिव्यता और पवित्रता का प्रयास करना, आत्म-तत्व को प्राप्त करना आदि को प्रधानता दी गई है। ये भक्ति के अनिवार्य अंग कहे जा सकते हैं। गोपथ ब्राह्मण में भक्ति को ज्ञान का रस कहा गया है।

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में विकृत कर्मकाँड और यज्ञों के विरोध में कई आँदोलन उठ खड़े हुए। इसी के पुनरुत्थान हेतु एक ओर बौद्ध और जैन धर्मों की स्थापना हुई, तो दूसरी ओर भागवत धर्म का उदय हुआ। भक्ति का प्रचार प्रसार इसके बाद ही संभव हुआ। वेदों के ब्राह्मण ग्रंथ कर्मकाँड को प्रमुखता देते हैं, परंतु उपनिषदों में ज्ञानकाँड की प्रधानता है। यह ज्ञानकाँड विश्व के मूल में निहित आध्यात्मिक सत्य से सम्बन्धित है। इसमें वर्णित आध्यात्मिक भावना ही भक्ति के मूल तक पहुँचती है और तभी यह भक्ति उपनिषदों में बिखरे मोती के रूप में दिखाई पड़ती है।

प्रभु की भक्ति और भगवान अनुग्रह पर कठोपनिषद् तथा मुंडकोपनिषद् दोनों ही उपनिषदों में बल दिया गया है। श्वेताश्वेतर उपनिषद् में भी भक्ति की विवेचना की गई है और ईश्वर भक्ति के साथ गुरु भक्ति को भी मान्यता प्रदान की गई है। भक्ति का मूल आधार प्रभु की कृपा ही है। यही तथ्य आगे चलकर शैव व वैष्णव दोनों ही संप्रदायों में स्वीकृत हुआ। वैष्णवों में आचार्य बल्लभ ने प्रभु के प्रसाद को पुष्टि का नाम दिया, तो शैवों और शाक्तों ने उसे शक्तिपात कहकर पुकारा।

हालाँकि वैदिक भक्ति का विकसित एवं समग्र रूप ब्राह्मण तथा उपनिषद् युग में एकाँगी बन गया। इनमें भक्ति की रेखा काफी क्षीण एवं दुर्बल दिखाई देती है, परंतु इसका आस्तित्व लोप नहीं हुआ। बाद के समय में इस भक्ति भावना का स्पष्ट उद्घोष महाभारत, रामायण एवं पुराणों में मिलता है। इसमें प्रायः सभी देवी देवता भक्तिमयी उपासना के पात्र हैं। पौराणिक देवताओं में प्रायः विष्णु और शिव ही भक्तिमयी उपासना के केंद्र -बिंदु है। महाभारत में भक्ति चेतना का सुस्पष्ट एवं प्रभावपूर्ण प्रतिपादन हुआ है। इसमें वासुदेव कृष्ण के देवत्व की परिकल्पना की गई है और तभी इस महाकाव्य को धर्मग्रंथ की संज्ञा मिली है।

वैष्णव संप्रदाय का प्रारम्भिक इतिहास लिखते हुए हेमचंद्र राय चौधरी ने अपना मत व्यक्त किया है कि बौद्ध धर्म द्वारा वैदिक धर्म का, भूल चुके विकृत कर्मकाँडों का प्रचंड विरोध हुआ। एक अर्थ में यह भागवत धर्म की शुरुआत थी। तभी इस धर्म में महात्मा बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार माना गया। इस आराधना पर केंद्रित भागवत धर्म आगे चलकर वैष्णव धर्म में परिवर्तित हो गया। इन दिनों भक्ति के विभिन्न स्वरूप दिखाई दिए।

तत्कालीन परिस्थितियों में एक और महत्वपूर्ण घटना घटी। इसी घटना के फलस्वरूप पुराणों का अभ्युदय हुआ। वैदिक यज्ञों की कर्मकांडों परंपरा मूलतः पशुपालन एवं कृषि व्यवस्था से सम्बन्धित थी। परंतु शहरी सभ्यता के विकास से व्यापारी एवं शिल्पकारी की उन्नति से ईसापूर्व की कतिपय शताब्दियों में समाज में अनेक नए वर्गों का उदय हुआ। ये वर्ग बढ़ती हुई समृद्धि के भागीदार थे, परंतु समाज में उन्हें पर्याप्त सम्मान एवं आत्मीयता नहीं मिल सकी। इसके विपरीत उन्हें निम्नस्तरीय माना जाता था। ऐसे लोगों में याज्ञिक कर्मकाँड के स्थान पर भक्ति पर आधारित देवी-देवताओं की पूजा ही अधिक लोकप्रिय हुई। इस परिस्थितियों ने अनेक-मनीषियों -विद्वानों को धर्म के स्वरूप पर गहराई से विचार करने की प्रेरणा दी। फलतः महाकाव्य ही धर्मग्रंथ नहीं बने, बल्कि देवी देवता, पूजा भक्ति के केंद्र -बिंदु रूप में स्वीकृति हुए। इससे अनेक पुराणों की रचना भी हुई इन पुराणों ने भक्ति की भावधारा को जन-जन तक पहुँचाने में कारगर भूमिका निभाई।

इस प्रक्रिया को भागवत पुराण में स्पष्टता देखा जा सकता है। टीजे हापकिन्स ने ‘द सोशल टीचिंग ऑफ द भागवत पुराण’ में उल्लेख किया है, भक्ति आँदोलन का नेतृत्व ऐसे संन्यासियों और विद्वानों ने किया था, जो भले ही ब्राह्मण वर्ग के रहे हों, परंतु उनकी भावनाएँ व्यापक और विराट् थी। उनके अधिकाँश अनुयायी शूद्र एवं निम्न जाति के थे। उन्होंने वर्ण व्यवस्था की कट्टरता पर आघात न करते हुए भी उसे भगवद् प्राप्ति हेतु निरर्थक माना। संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान जेएवी. वैन व्यूलेनिन ने भागवत् पुराण की रचना को जनप्रिय आँदोलन के संस्कृतिकरण और वैदिक परंपरा से उसका तारतम्य बिठाने का प्रयास किया है। उनके अनुसार यह आँदोलन भगवद्भक्ति की ओर एक अनोखा प्रयास था।

पुराणकाल में भक्ति भावना का सुँदर विकास देखा जा सकता है। अपने वर्तमान रूप में भगवद्गीता भी भक्ति सिद्धाँत का काफी स्पष्ट निरूपण करती है। गीता के भक्ति सिद्धाँत में शरण्य एवं दास्य भाव प्रधान हैं। इसमें प्रेम के भावुक भाव की अभिव्यक्ति कम ही मिलती है। यहाँ भक्त को अपनी अकिंचनता का बोध है और वह विनम्रतापूर्वक भगवत् अनुग्रह की प्रार्थना करता है। ऋग्वेद की ऋचाओं में जिस प्रकार का एक वर्गहीन समाज के आत्मीय सम्बन्धों की झलक पाई जाती है। ठीक इसी प्रकार एक वर्गबद्ध समाज में अवस्थित गीता का कवि भक्त की कल्पना एक विनम्र दास के रूप में करता है। वह अपने अधिपति या स्वामी के प्रभुत्व से पूर्णतः अभिभूत है और वह उनकी कृपा पर अवस्थित है। गीता की भक्ति कल्पनाशील उपासक के मनोभाव तक ही सीमित नहीं है। उसका प्रबल सामाजिक पक्ष है, जिसमें निष्काम कर्म का उपदेश दिया गया है।

इस तरह भगवद्गीता के माध्यम से भक्ति का यह नया स्वरूप सामने आया। बाद में समाज में भक्ति की भावधारा को आगे बढ़ाने का प्रयास-पुरुषार्थ कई भक्तों एवं संतों के माध्यम से हुआ। इनमें छठी- सातवीं के आलवर एवं नायनार संतों का योगदान महत्वपूर्ण था। भागवत पुराण के माध्यम से भक्ति आँदोलन को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य नाथमुनि, यामुनाचार्य एवं रामानुजाचार्य ने किया। इसमें पंचरात्र की धार्मिक पद्धति को वैदिक भक्ति से जोड़ने का प्रयत्न किया गया।

सत्वगुण प्रधान भक्ति की विचारधारा चैतन्य, मीरबाई, तुलसीदास एवं सूरदास में प्रस्फुटित हुई। इन्होंने भक्ति के द्वारा समाज में प्रेम, सहिष्णुता, दया, करुणा, भ्रातृत्व भावना का प्रचार किया। धन्ना जाट, कबीर, रविदास, दादू आदि ने भी निर्गुण भक्तिधारा के माध्यम से समाज में इन्हीं सब कोमल भावनाओं वर्तमान समय में परमपूज्य गुरुदेव के प्रज्ञा पुराण के माध्यम से जन-जन में प्रवाहित होते देखी जा सकती है। भावी सतयुगी समाज में भावमय भक्ति तत्व की प्रधानता रहेगी, जिसमें वैदिक भक्ति का समग्र स्वरूप प्रकट हो सकेगा। अतः हम सभी को भावभरे हृदय से परमपूज्य गुरुदेव के इस विशेष अभियान में प्राणपण से जुट जाना चाहिए। यह पुण्य कार्य हमारे हृदय की भावनाओं को भावमय भगवान से जोड़ने वाला सिद्ध होगा।

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