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Magazine - Year 2001 - Version 2

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हे मनुष्य! तू हिम्मत मत हार

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First 31 33 Last
जीवन में प्रयास, पुरुषार्थ, अवरोध एवं संघर्ष का क्रम एक शाश्वत सत्य हैं और इनमें सफलता -विफलता का दौर भी शाश्वत है। इन सबके बीच व्यक्ति की जीवन यात्रा प्रगति उत्थान की दिशा में बढ़ रही है या अवगति पतन की ओर, इसके निर्धारक तत्वों में उसके दृष्टिकोण की भूमिका सर्वोपरि रहती हैं।

व्यक्ति यदि छोटी छोटी असफलता अवरोधों से हिम्मत हार बैठता है और नकारात्मक भावों को जीवन में हावी होने देता है। तो यात्रा का हर एक कदम दूभर एवं कष्टप्रद अनुभव बन जाता है । जीवन एक दुखद घटना एवं दुर्भाग्यपूर्ण मजाक लगने लगता है। जीवन ऊर्जा नकारात्मक भावों में उलझकर कुँठित होने लगती है और अस्तित्व हताशा, निराशा एवं कुँठाओं के बीच दम तोड़ने लगता है। चहुँओर अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगता है, अपने पराये लगने लगते हैं। अधिकाँशतः लोग ऐसे में अपने दुख दर्द एवं दुर्भाग्य के लिए भाग्य को कोसते हैं या दूसरों को दोषी मान बैठते हैं और नहीं तो भगवान को कोसने लगते हैं।

किंतु जीवन के प्रति दृष्टिकोण के बदलते ही स्थिति पलटने लगती है। अंतर्मन में पूर्ण सकारात्मक भाव के जागते ही जीवन के क्षितिज पर आशा की किरणें फूटने लगती हैं, निराशा-अवसाद का सघन अंधकार न जाने कहाँ तिरोहित होने लगता है, जीवन में साहस उत्साह का संचार होने लगता है और उमंग उल्लास का झरना बहने लगता है।

वस्तुतः आशापूर्ण विचार ही जीवन की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है। मनीषी अलेक्जेन्डर के शब्दों में, ‘आशा’ मनुष्य की सबसे बड़ी संपदा है। यदि व्यक्ति इसे खो बैठता है, तो जीवन नैया डूबने लगती है, क्योंकि इसके बिना जीवन में अंधकार, अभाव और अशक्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता। आशा ही घोर अभाव, विषमताओं और संकट के बीच भी जीवन निर्माण के तत्वों की खोज करती है तथा पर भासित अभिशाप को भी वरदान में बदलने का चमत्कार प्रस्तुत करती है। निराशावादी, नकारात्मक दृष्टिकोण के रहते अनुकूल अवसरों में भी प्रतिकूलता को देखते हैं, ताकि आशावादी विषम परिस्थितियों में भी अनुकूल है।

महान वैज्ञानिक एडीसन की प्रयोगशाला एक भीषण अग्निकाँड में पूरी तरह जलकर ध्वस्त हो गई। जीवनभर की बहुमूल्य शोध सामग्री उपकरण सब जलकर खाक हो गए। इसके अतिरिक्त आर्थिक क्षति हुई सो अलग। सामान्य व्यक्ति होता तो इस हादसे से जीवनभर न उबर पाता,किंतु आशा के पुतले एडीसन के उद्गार कुछ और ही थे, जो हर इनसान के लिए एक अमूल्य संदेश दे रहे थे, “ऐसे हादसों का बहुत महत्व है। इनमें हमारी भूलें जलकर नष्ट हो जाती हैं। हमें इसके लिए भगवान का कृतज्ञ होना चाहिए कि अब हम नए सिरे से जीवन को शुरू कर सकते हैं।”

यदि घटनाएँ हमारे अनुरूप नहीं घटती एवं हमें विफलता एवं निराशा का संदेश दे जाती है, तो भी हिम्मत हारने एवं हताश होने की आवश्यकता नहीं। चाहें संघर्ष पथ पर हम गिर भी जाएँ पिट भी जाएँ हमें नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी असफलता अंतिम नहीं होती। यदि लक्ष्य के प्रति अदम्य भाव अंतर में विद्यमान है, तो हर विफलता गिरकर फिर से उठ खड़े होने व दुगने उत्साह के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं।

इसमें महत्वपूर्ण सत्ता यह भी है कि हम जीवन व्यापार की तमाम संभावनाओं को मद्देनजर रखते हुए व्यावहारिक रुख को अपनाए रखें, अन्यथा अपनी क्षमता से बहुत अधिक भारी बोझ उठाने के प्रयास में हम ऐसी बुरी तरह न पिट जाएँ कि उठने का उत्साह ही चुक जाए। अतः अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुरूप ही प्राथमिकताओं का उचित निर्धारण भी आवश्यक है। जिससे हम अभीष्ट लक्ष्य की ओर सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते हुए उत्साह उमंग के साथ बढ़ते जाएँ, क्योंकि बार-बार के विफल प्रयास व्यक्ति को हताश कर देते हैं। व्यक्ति थक-हारकर आशाहीनता की स्थिति में आ जाता है। ऊर्जा ह्रास के कारण प्रयास को ही छोड़ बैठता है व कई तरह की कुँठाओं व ग्रंथियों से ग्रस्त होकर मनोविकारों का शिकार हो जाता है। जीवन के प्रति आस्था का क्षय कुछ इस हद तक हो जाता है कि इसकी सार्थकता का कोई किनारा सहारा नहीं सूझ पड़ता और घोरतम निराशा की स्थिति में कुछ तो अपनी जीवन लीला को ही समाप्त करने का घातक कदम तक उठा बैठते हैं।

आशावादी व्यवहारिक रुख अपनाते हुए अपने जीवन की छोटी-छोटी सफलताओं से क्रमशः आगे बढ़ता है। अपनी कार्य कुशलता और इच्छाशक्ति को क्रमशः विकसित करता जाता है। उनकी यह पद्धति जीवन में रचनात्मकता की अजस्र स्रोत बनकर उसे आगे बढ़ाती है। निराशावादी जहाँ एक दरवाजा बंद देखते ही प्रयास छोड़ देता है, आशावादी वही दूसरे खुले दरवाजे की ओर देखता है। निराशावादी जहाँ सतत हारता जाता है, वही आशावादी सामयिक विफलताओं के बावजूद भी एक विजेता होता है।

वास्तव में जब तक हम अपने जीवन के अर्थ एवं सुख की खोज के लिए बाहरी वस्तु, व्यक्ति एवं परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं, निराशावादी भाव जीवन में एक प्रभावी तत्व बनते जाते हैं और जब दृष्टि अपने अंदर के मूल स्रोत की ओर मुड़ने लगती है, तो निराशा का कुहासा छँटने लगता है। आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार एवं आत्मनिर्भरता के बल पर ही हम आशा के अंतर्निहित स्रोत की ओर बढ़ते हैं, जो हमें बाहरी जीवन में भी अंतर्संबंधित ठोस उपलब्धियों से संपन्न बनाता है और प्रगति पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित करता है।

यही पर हमें परमात्मा की कृपा एवं वरदान की भावभरी अनुभूति होती है, जो हर कर्तव्यपरायण व्यक्ति के लिए सुरक्षित है। अपने ईमानदार प्रयास के साथ प्रभु प्रेम एवं उसके अचूक न्याय विधान के प्रति आस्था को धारण कर हम अनायास ही आस्तिकता एवं धार्मिकता के पथ पर बढ़ जाते हैं। यही हमें जीवन की सफलता-सार्थकता के बोध की ओर ले चलती है।

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