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Magazine - Year 2001 - Version 2

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मानव जाति का पालना, सभ्यता की जन्मस्थली : भारतवर्ष

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आर्यों के आदि निवास के रूप में भारतवर्ष एवं उनकी प्राचीनतम वैदिक सभ्यता की प्रामाणिकता एक सर्वमान्य सत्य है। ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न धाराएँ भी इस तथ्य को सत्य प्रमाणित करती हैं। इसकी पुरातनता के प्रमाण खगोल विद्या में भी मिलते हैं। डेविड फराँले की पुस्तक ‘गॉड, सेजीस एंड किंग्ज’ के अनुसार वैदिक प्रतीकवाद में संयात/संक्राँति एवं (मुनपदवग) विषुव/सायन जैसी खगोलीय घटनाओं का उल्लेख आता है। जिसकी अवधि 4 से 6 ई. पू. के मध्य बताई जाती है। एक भारतीय खगोलविद् के जी. सिद्धार्थ ने कृष्ण यजुर्वेद में 85 ई. पू. के लगभग एक (वसपेसपबम) का स्पष्ट संदर्भ खोजा है, जो ऋग्वेद को ओर प्राचीन सिद्ध करता है। ब्राह्मण एवं सूत्रों को इसके बाद 3 ई. पू. काल का बताया जाता है।

गणित से भी वैदिक सभ्यता की पुरातनता पर प्रकाश पड़ता है। ‘पॉलीटिक्स ऑफ हिस्ट्री’ नामक ग्रंथ में एन. एस. राजाराम के अनुसार, अमेरिकी गणितज्ञ ए सैदेनवर्ग ने सिद्ध किया है कि प्राचीन मिश्र, बेबीलोन एवं यूनान की ज्यामिती सुलभ सूत्र गणित से ली गई है। मिश्र व बेबीलोन साम्राज्यों में ज्यामिती का प्रथम प्रकटीकरण 2 ई.पू. में हुआ था। अर्थात् सुलभ सूत्रों की रचना 2 ई.पू. से पहले की प्रमाणित होती है, जिसका उपयोग समकालीन सिंधु सरस्वती सभ्यता की अद्भुत नगरीय व्यवस्था एवं पूजा स्थलों में देखने को मिलता है।

धातु विज्ञान से भी वैदिक युग की प्राचीनता का प्रमाण मिलता है। एक अमेरिकी व्यक्ति ने 1956 में दिल्ली में एक प्राचीन सिक्का पाया। जिसे कई प्रयोगशालाओं ने 37-38 ई.पू. का बताया। इस पर एक ऋषि का तेजस्वी चेहरा बना हुआ था।

आर्य आक्राँता मत की निराधारता पर प्रहार करते हुए अमेरिकी पुरातत्ववेत्ता जिम शेफर अपनी पुस्तक ‘द इंडो आर्यन इन्वेजन : कल्चरल मिथ एंड आरकिओलॉजिकल रिएलिटी’ में 1984 में लिखते हैं, “भाषाई आंकड़ों के आधार पर यह मत गढ़ा गया था। जिसके आधार पर आगे चलकर पुरातत्ववेत्तीय एवं नृतत्ववेत्तीय आंकड़ों की व्याख्या की गई। जो सिद्धाँत था वह निर्विवाद सत्य बन गया। अब इस भाषाई निरंकुशता को समाप्त करने का समय आ गया है। वर्तमान की पुरातत्वीय खोजें पूर्व ऐतिहासिक या उत्तर ऐतिहासिक काल के किसी भी खंड में इंडो आर्यन या यूरोपीय आक्राँताओं की बात को पुष्ट नहीं करती। इसके स्थान पर प्रागैतिहासिक काल से ऐतिहासिक काल तक पुरातत्वीय आंकड़ों के आधार पर साँस्कृतिक परिवर्तन की श्रृंखलाओं की व्याख्या संभव है, जिसमें महत्वपूर्ण विकास हुए।”

भारतीय परंपरा में वेद हजारों वर्ष पुराने है। मैक्समूलर ने आधे-अधूरे तथ्यों के आधार पर इन्हें 12 ई. पू. तक ला दिया था, लेकिन सिंधु सरस्वती सभ्यता का असंदिग्ध वैदिक चरित्र इसे कम से कम 4 ई.पू. का बताता है। कुछ भाषाविज्ञानी इसे 5 ई. पू. तक का बताते हैं। खगोल विद्या तो इसे और भी पुरातन 9 ई.पू. तक का बताती है।

भारतीयों की पुरातनता के संदर्भ में वाल्टेयर ने अपने सहज बोध के आधार पर कहा था कि जब उनके पूर्वज जंगलों में बर्बर जीवन जी रहे थे तब भारतीय लोग सभ्य जीवन जी रहे थे।

लेकिन हमारी सभ्यता की पुरातनता ऋग्वेद से भी पूर्व की है, जैसा कि इसके स्रोतों में पितर मनुष्य के रूप में प्राचीन ऋषियों का उल्लेख आता है। महर्षि अरविंद के अनुसार, हमारी वास्तविक संहिता अवधि के अंत का प्रतिनिधित्व करती है, न कि इसके आरंभ या मध्यकाल का। वेदव्यास द्वारा संकलित वृहद् ग्रंथों का संग्रह अधिक समृद्ध आर्य पूर्वजों के मौखिक ज्ञान का एक चुनाव भर हो सकता है। विश्व में हमारी सबसे पुरानी परंपरा है, जिसमें 6 से 8 या इससे भी अधिक वर्षों तक मौखिक रूप से श्रुति -स्मृति के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान का हस्ताँतरण होता रहा है।

क्या पूर्वकाल में भी कोई विकसित सभ्यता रही है? विज्ञान इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देता है, जिसके अनुसार मानव समाज का विकास आदिमानव से एक सरल रेखा में हुआ है। लेकिन यह श्री अरविंद के अनुसार यूरोपीय विद्वानों की एक धारणा से अधिक कुछ भी नहीं है, जो मानव सभ्यता का आरंभ काल फीजी द्वीपवासियों से शुरू कर आज के हेकल व रॉकफेलर तक का समय मानती है व पुरातन संस्कृति को आदिमानव करार देती है, वह भी अर्द्धसभ्य। यह आधुनिक विचारों का अंधविश्वास भर है कि ज्ञान की यात्रा अपने समग्र रूप में आगे की ओर ही हुई है। कम से कम उनका यह मानना है कि विकसित सभ्यता का एक महान वैदिक युग हुआ है, जो समय व परिस्थितिवश खंडित हुआ। यह संभव है कि इसके पास आज की तरह भौतिक सुख साधन न रहे बेहतर-श्रेष्ठ कुछ चीज थी। शायद यह संकेत आध्यात्मिक संपदा की ओर हो रहा है। विविध क्षेत्रों में पुरातन भारत की उपलब्धियों व उनका समस्त विश्व पर प्रभाव विचारणीय है, जो उसके विकसित स्वरूप पर प्रकाश डालता है।

बेबीलोन व पुरातन यूनानियों ने गणित ज्ञान भारत से सीखा था, जो 3 ई. पू. तक इस क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ चुके थे। भारत में खगोल विद्या भी बहुत प्राचीनकाल से विकसित रही, जिसे पाश्चात्य लोग कुछ शताब्दी ई. पू. की मानते हैं। (पदकवसवहपेज) भारत-विद्या शास्त्री सुभाष काक ने ऋग्वेद के सूत्रों में खोज से नए-नए तथ्यों को उजागर किया है। अपनी पुस्तक एस्ट्रोलॉजिकल कोड ऑफ ऋग्वेद में वे लिखते हैं कि ऋषि लोग जानते थे कि सूर्य एवं पृथ्वी के बीच दूरी सूर्य के व्यास का 38 गुणा अधिक होती है। वे पाँच ग्रह, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पतिवार एवं शनि के परिक्रमण-काल से परिचित थे। मिस्र, बेबीलोन व यूनान के वासियों से कई हजार वर्षों पूर्व भारतीय ऋषियों को सौरवर्ष की अवधि का ज्ञान था। जिसे वे 365-365 दिन के बीच मानते थे। भाषाई क्षेत्र में यह प्रमाणित हो चुका है कि सदियों के विकासक्रम में सिंधु सरस्वती लिपि एक ओर सेमेटिक लिपि और दूसरी ओर ब्राह्मी लिपि में विकसित हुई। इस तरह स्पष्टतः यह लिपि प्रायः अन्य सभी लिपियों की उत्पत्ति स्रोत बनती है।

इस तरह गणित हो या खगोल विज्ञान, भाषा लिपि हो या शून्य, दशमलव ज्ञान, तथाकथित अरबी संख्याएँ (मूलतः भारतीय) हों या वर्णमाला ज्ञान सभी भारत से उत्पन्न हुए। 18वीं सदी के यूरोपीय विचारक/विद्वान पुरातन आर्ष ग्रंथों की गहराई में ज्ञान विज्ञान की समृद्धता को देखकर रोमाँचित एवं आश्चर्यचकित हो उठे थे। तभी तो जर्मन विद्वान डोहम कह उठे थे कि भारत मानव जाति का पालना है, सभ्यता का जन्म स्थल है। विलियम मैकिन्टरो की उक्ति, “सारा इतिहास भारत को ज्ञान विज्ञान एवं कला की माँ बताता है।” फ्राँसीसी प्रकृतिविद् पियरे सॉनेरट लिखते हैं, “ हम भारतीयों में अधिकतम सुदूर पुरातनता के अवशेष पाते हैं। सभी लोग यहाँ ज्ञान पिपासा शाँत करने आए। भारत ने अपने गौरव काल में समूचे विश्व को अपने धर्म व ज्ञान से आलोकित किया। मिश्र व यूनानवासी अपने ज्ञान के लिए भारत के ऋणी है।”

वाल्टेयर 1773 में अपने ग्रंथ ‘फ्रेगमेन्टस हिस्टोरिक्यूज सर इन्डे’ में लिखते हैं, यह महत्वपूर्ण है कि 35 वर्ष पूर्व पाइथागोरस सामोस से गंगातट पर ज्यामिती सीखने गया। वह इतनी लंबी यात्रा न करता, यदि भारत के विज्ञान की ख्याति यूरोप में पहले से स्थापित न होती। हम पहले से ही यह मानते हैं कि भारतीयों के बीच अंकगणित, ज्यामिती, खगोल विद्या पढ़ाई जाती थी। अनंतकाल से वे विषुव (मुनपदवग) के अयन (चतमबमेपवद) से परिचित थे। भारत में कई वर्ष बिताने वाले फ्राँसीसी खगोलविद् ले जेंटिल भारतीयों के विज्ञान के प्रशंसक थे व आश्चर्यचकित थे कि भारतीयों को इस ज्ञान तक पहुँचने में कितना समय लगा होगा, जिसके बारे में चीनी लोगों को भी कोई मान न था। जिसमें मिश्रवासी व चाल्डियन तक अनभिज्ञ थे मुझे दृढ़ विश्वास है कि खगोल विद्या, ज्योतिष विज्ञान, पुनर्जन्म आदि सभी कुछ हमारे यहाँ गंगा के तट से आया है। ये सब उद्गार आर्यों की मौलिकता को स्पष्ट करते हैं। उनके विदेशी आक्राँता होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

‘द इन्वेजन देट नेवर वाज’ के विख्यात लेखक माइकल डेनिनो आर्य आक्राँता सिद्धाँत का विधिवत खंडन करते हुए, सिंधु-सरस्वती सभ्यता पर व्यापक प्रकाश डालते हुए भारतीय संस्कृति की पुरातनता, एकता एवं अखंडता की बात करते हुए कहते हैं कि भारतीय इतिहास का नैरंतर्य युगों तक रहा है। वैदिक युग 4 ई. पू. से बहुत पहले अपनी प्रौढ़ावस्था में था। इसके बाद सिंधु- सरस्वती सभ्यता आई, जो इसका स्वाभाविक रूप से विकसित रूप था। सरस्वती नदी के सूखने के बाद यह गंगा सभ्यता के रूप में प्रकट हुई। भौगोलिक एवं पारिस्थितिक परिवर्तनों के बीच कोई स्पष्ट विभाजन नहीं रहा। आर्य व द्रविड़ों में भी भाषा, सभ्यता व इष्ट देवताओं के बीच कोई स्पष्ट विभाजन नहीं हैं। सिंधु सरस्वती के कुछ स्थलों ने 4 वर्षों तक अनवरत विकास को दर्शाया है। कही भी प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त युद्ध व आकस्मिक व्यवधान का चिन्ह नहीं है। भावी खोजें भी इसी तथ्य की ही पुष्टि करेंगी। श्री अरविंद ‘द फाउंडेशन ऑफ इंडियन कलचर’ में लिखते हैं, “भारत में बहुत पहले से आध्यात्मिक एवं साँस्कृतिक एकता पूर्णता पा चुकी थी और हिमालय तथा दो सागरों के बीच की मानवता भी जीवन प्राण बन चुकी थी।”

यह सुनिश्चित सत्य है कि भारत का अपना गौरवमयी अतीत रहा है, जिसकी ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियाँ स्वयं में अद्वितीय थी व जिसके आलोक में विश्व की अन्य सभ्यताएँ भी प्रकाशित हुई। आज समूची मानव जाति घोर अंधकार एवं अनास्था के दौर में भटक रही है। हम आत्म-विस्मृति के कारण दीन-हीन एवं पतन पराभव की स्थिति में पड़े है। समय आ गया है कि हम अपने अंदर विद्यमान श्रेष्ठता एवं दिव्यता के पक्षधर आर्यत्व को जगाएँ अपने खोए हुए वर्चस्व को पुनः प्राप्त करके न केवल अपने देश को गौरवशाली बनाएँ, बल्कि विश्व -कल्याण के उस उत्तरदायित्व का भी वहन करें, जिसे इस देश ने सहस्राब्दियों तक अपने कंधे पर उठाए रखा था।

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