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Magazine - Year 2001 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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दो महान् त्यागी

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First 29 31 Last
वरतंतु कौत्स को बहुत प्यार करते थे। न जाने कहाँ से आकर एक दिन वह उनके द्वार पर खड़ा हो गया था। तब से उन्होंने ही उसे पाल पोस्कर बड़ा किया था। महर्षि का उस पर सच्चा स्नेह था। उन्होंने उसे अपना समस्त ज्ञान प्रदान किया था। अब कौत्स के लिए आरम्भ में रुकना उचित न था। अतः वह गुरु के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। वरतंतु ने आँख उठाकर देखा, उनकी आँखों में प्रश्न था?

कौत्स ने कहा, “ गुरुदेव! यहाँ से जाने से पूर्व मुझसे गुरु दक्षिणा ले लें। गुरु ऋण चुकाए बिना मेरी विद्या व्यर्थ हो जाएगी।”

वरतंतु ने हँसकर कहा, “तुमने स्वयं ही इतनी सेवा की है कि मुझे और कुछ नहीं चाहिए।” कौत्स फिर भी नत-मस्तक खड़ा रहा। उसने फिर वही बात दुहराई, “भगवन्! मुझे कुछ आाडडडड अवश्य दें। बिना आपकी सेवा में कुछ अर्पण किए मुझे कहाँ संतोष होगा?”

गुरु मुस्कराए। उनकी आँखों में अपने शिष्य की एक और परीक्षा लेने का भाव उभरा और उन्होंने कहा, “यदि तुम नहीं मानते हो तो अपनी सीखी हुई चौदह विद्याओं के लिए चौदह सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ लाकर दे जाओ।” कौत्स ने गुरु आाडडडड शिरोधार्य की। उसके पाँव सीधे अयोध्या की ओर बढ़ चले।

उन दिनों चक्रवर्ती सम्राट रघु राज्य कर रहे थे। कौत्स को अपनी सभा में आया देखकर राजा रघु ने उठकर दंडवत की, चरण धोए एवं उसका विधिवत पूजन किया। कौत्स निर्विकार भाव से यह सब देखता रहा। पूजन की समाप्ति पर वह उठकर जाने लगा।

राजा रघु हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गए एवं बड़े ही विनम्र स्वर में पूछा, “ ऋषिवर! आपने सेवक को कुछ आज्ञा नहीं दी? अवश्य ही मेरी सेवा में कोई त्रुटि रही है।”

कौत्स के आने के कुछ दिन पूर्व ही सम्राट रघु ने जनहित में किए गए विश्वजित् यज्ञ में अपना सर्वस्व दान कर दिया था। यह बात कौत्स को ज्ञात न थी। सम्राट की अभ्यर्थना में मिट्टी के पात्रों को देखकर वह समझ गया कि यहाँ अभीष्ट की पूर्ति संभव नहीं है। अतः वह उठकर जाने लगा था, परंतु राजा के बारंबार आग्रह करने पर अपने आगमन का कारण बताते हुए उसने कहा, “राजन! मैं आपके पास गुरु दक्षिणा के लिए आया था, परंतु आपने तो अपना सर्वस्व दान कर दिया है। यहाँ तक कि अतिथि सत्कार के बरतन भी आपके मिट्टी के पात्र रह गए इस दशा में मैंने आपसे कुछ भी कहना अनुचित समझा। आप संकोच न करें मैं अन्यत्र जा रहा हूँ, मेरे अभीष्ट की पूर्ति हो जाएगी।”

राजा रघु के द्वार से कोई याचक वापस चला जाए, यह असंभव था। सम्राट ने कौत्स से प्रार्थना की, “महात्मन् मुझे तीन दिन का समय दें। मैं आपकी इच्छा को अवश्य पूर्ण करूंगा। रघु ने द्वार से कोई स्नातक निराश लौट जाए, इस कलंक से मेरी रक्षा करें।”

कौत्स ने तीन दिन के लिए उनका आतिथ्य स्वीकार कर लिया। रघु वापस अपने महल नहीं आए। सीधे युद्ध के लिए सजे हुए रथ में सवारी कर युद्ध की तैयारी में जुट गए। उन्होंने सोचा कि मैं पृथ्वी के समस्त राजाओं से कर ले चुका हूँ। दुबारा इतना शीघ्र फिर से उनसे कर की याचना करना अन्याय एवं अनीति होगी। अतः उन्होंने सीधे धनाधीश कुबेर पर चढ़ाई करने का संकल्प किया और उसी रथ पर सो गए।

प्रातःकाल राजा के उठते ही राज्य के कोषाध्यक्ष ने सूचना दी कि कोष में आकाश से स्वर्ण की वर्षा हो रही है। सम्राट मुस्करा उठे। कोषपाल कुबेर ने चुपचाप रघु का खजाना भर देने में ही अपनी कुशलता समझी। अतः उन्होंने स्वर्णमुद्राओं का ढेर लगा दिया।

रघु ने कौत्स को बुलाकर समस्त धन ले लेने का आग्रह किया। कौत्स ने हँसते हुए कहा, “ राजन्! मुझे धन की क्या आवश्यकता? मैं तो केवल चौदह सहस्र मुद्राएँ ही लूँगा, बस। शेष धन आप चाहें तो दान कर दें।” राजा रघु ने शेष सारा धन गाँवों को दान कर दिया। दो महान त्यागियों के बीच का त्याग जीवंत दिख रहा था। कौत्स ने अपना इच्छित धन लेकर गुरु दक्षिणा देने के लिए प्रस्थान किया।

First 29 31 Last


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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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