
सदगुरु की कृपा से होती है सहस्रार की सिद्धि
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सहस्रार का शाब्दिक अर्थ है- एक हजार। इसी कारण इसे हजार पंखुड़ियों वाला कमल अथवा सहस्रदल कमल के रूप में भी कहा और जाना जाता है। इसमें निहित तात्पर्य यह है कि इसमें छिपी हुई शक्ति अनन्त है, इसका महत्त्व असीम है। इसीलिए इसका वर्णन योगियों ने एक ऐसे अनन्त पंखुड़ियों वाले कमल के रूप में भी किया है, जिसकी पंखुड़ियाँ या तो लाल हैं या फिर अनेक रंगों वाली हैं। शास्त्रकारों ने इसे बड़ी ही साँकेतिक रूप से स्पष्ट किया है-
सहस्रारं महापद्मं शुक्लवर्णमधोमुखम्।
अकारादिक्षकारान्तैः स्फुद्वर्णेर्विराजितम्॥
अनुभवी साधकों ने इस साँकेतिक स्पष्टीकरण की व्याख्या करते हुए कहा है कि आज्ञाचक्र के ऊपर महानाद है। इसके ऊपर शंखिनी नाड़ी है। उसके अग्रभाग में अर्थात् शून्याकार स्थान में तथा ब्रह्मरन्ध्र में स्थित प्रकृति रूप विसर्ग के निम्न प्रदेश में प्रकाश स्वरूप पूर्ण चन्द्रमा के समान अत्यन्त श्वेत वर्ण अधोमुख आनन्द स्वरूप सहस्रदल कमल है। इसका केशर समूह रक्त और भास्वर है तथा अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त पचास मातृकाओं से यह कलम विभूषित है।
इस सहस्रदल कमल में दलों के बीस घेरे हैं। प्रति घेरे में पचास दल हैं। इनमें से प्रत्येक वृत्त के दलों में ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ पर्यन्त पचास अक्षर सुशोभित हैं। इस सहस्रदल कमल की वर्णिका में स्निग्ध, निर्मल, पूर्ण चन्द्र मण्डल है। उसके भीतर विद्युत के समान चमकदार त्रिकोण है। इस त्रिकोण के मध्य में सब देवों से सेवित अत्यन्त गुप्त शून्य रूप पर बिन्दु है। महामोक्ष का प्रधान मूल रूप यह सूक्ष्म कन्द ‘अमा’, ‘कला’ और ‘निर्वाण’ कला से युक्त है।
इस चक्र की स्थिति अन्य चक्रों से बहुत परे है। इसीलिए चक्र संस्थान का वर्णन करते समय प्रायः षट्चक्रों की ही चर्चा की जाती है। क्योंकि अन्य चक्रों की स्थिति मानसिक स्तर पर है। अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय चक्र के आधार पर ही चेतना के स्तर का प्रकटीकरण होता है। इस सम्बन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि सहस्रार चक्र बिना किसी माध्यम के ही क्रियाशील होता है। और साथ ही साथ इसकी क्रियाशीलता में सभी माध्यमों का योगदान है। वस्तुतः इसकी स्थिति परात्पर है, फिर भी अनुभवगम्य है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना का चरम बिन्दु है। इस क्रम में यह भी उल्लेखनीय है कि अन्य चक्रों की शक्ति उनमें समाहित नहीं होती। ये चक्र तो मात्र स्विच की तरह है और उनकी सभी क्षमताएँ सहस्रार में ही निहित रहती हैं।
इसकी स्थिति अनुभवातीत होने के कारण निर्विकार है। इसके बारे में बहुत कुछ कहना अथवा लिखना सम्भव नहीं। बस बहुत अधिक कुछ बताना ही हो तो शाब्दिक संकेत भर किए जा सकते हैं। यह शून्य है अर्थात् पूर्ण रूप से रिक्त है। यह ब्रह्म है। यह सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। सच तो यह है कि यह तर्क से सर्वथा परे की स्थिति एवं अवस्था है। क्योंकि तर्क में एक की दूसरे से तुलना की जाती है। लेकिन सहस्रार तो सम्पूर्णता का द्योतक है। फिर भला इसकी तुलना और व्याख्या, विवेचना किस तरह से की जाय। दरअसल यह सभी मान्यताओं का स्रोत होते हुए भी सारी मान्यताओं से परे है। यह चेतना और प्राण का मिलन बिन्दु है। योग साधना का चरम बिन्दु यही है।
योगी की जाग्रत् चेतना शक्ति जब यहाँ तक पहुँचती है तो इसे शिव और शक्ति का मिलन कहते हैं। इस महामिलन की अनुभूति सर्वथा भिन्न एवं विशिष्ट है। इसी के परिणाम स्वरूप व्यक्ति में आत्मज्ञान अर्थात् समाधि अवस्था का प्रारम्भ होता है। इस अवस्था में व्यक्तिगत अहं का लोप हो जाता है। इसका मतलब यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि स्थूल देह का ही नाश हो जाता है। बस इसका तात्पर्य तो इतना ही है कि व्यक्तिगत भावना ही समाप्त हो जाती है। ऐसी दशा में साधक में अपने पराए-पन का भान नहीं रहता। दृश्य एवं दृष्ट दोनों एक रस हो जाते हैं। यहाँ द्वैत भाव अपना अस्तित्व ही खो देता है। बस एक मात्र परा चेतना ही सर्वत्र समरस-एकरस होकर विराजती है।
इस अद्भुत स्थिति का वर्णन दुनिया की प्रत्येक साधना पद्धति में अपने-अपने ढंग से किया गया है। योग के विभिन्न सम्प्रदाय, समुदाय एवं मार्ग इसी में अपने चरम बिन्दु को खोजते हैं। कुछ ने इसे निर्वाण कहा, जबकि अन्य ने समाधि, कैवल्य, ब्रह्म साक्षात्कार आदि अनेक नामों, संज्ञाओं से बताने-समझाने की कोशिश की है। यदि विभिन्न रहस्यात्मक तथा योग परम्पराओं एवं शास्त्रों का अध्ययन किया जाय तो सहस्रार के बारे में बहुत सारे वर्णन मिलते हैं। परन्तु इन सभी का अध्ययन एक अलग ढंग से, चेतना के एक भिन्न स्तर से किया जाना चाहिए, तभी उसके सार को समझा जा सकता है।
सहस्रार की उपलब्धि एवं अनुभूति का सबसे अधिक सुग्राह्य एवं कवित्वपूर्ण वर्णन महायोगी स्वामी विवेकानन्द ने किया था। इस सम्बन्ध में उनकी कविता समाधि की पंक्तियाँ इसके रहस्य को उद्घाटित करती हैं-
सूर्य भी नहीं, ज्योति- सुन्दर शंशाक नहीं,
छाया सा व्योम में यह विश्व नजर आता है।
मनो आकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहाँ
अहंकार स्रोत में ही तिरता डूब जाता है।
धीरे-धीरे छायादल लय में समाया जब
धारा निज अहंकार मन्द गति बहाता है।
बन्द वह धारा हुई, शून्य में मिला है शून्य
‘अवांग मनस गोचरम’ वह जाने जो ज्ञाता है।
सहस्रार की यह अनुभूति योगी को उसके निर्वाण शरीर का परिचय देती है। यह अस्तित्व के विकास का सातवां एवं अन्तिम सोपान है। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि निर्वाण शरीर या सूक्ष्म शरीर दरअसल कोई शरीर ही नहीं है। यह तो परम अवस्था है। यहाँ केवल शून्य है। शून्य के अलावा कुछ भी नहीं है यहाँ। निर्वाण-शब्द का अर्थ ही है- सब कुछ समाप्त, शून्य बिल्कुल। जिस तरह जलता हुआ एक दीपक बुझ जाता है, फिर क्या होता है? खो जाती है ज्योति। उस समय कोई न कुछ कह पाता है और न बता पाता है। बस ज्योति- महाज्योति में विलीन हो जाती है।
सहस्रार की यह साधना कैसे हो? इसकी सिद्धि किस तरह की जाय? तो इन सवालों का जवाब एक ही है कि इसकी साधना समस्त सिद्धियों का सुपरिणाम है। यदि इसके स्वरूप को बहुत कुछ जानना ही हो, तो फिर इतना ही कहेंगे कि ऐसे जिज्ञासु योग साधक को सतत् गुरु कृपा का आवाहन करना चाहिए। योगिराज श्यामा चरण लाहिड़ी महाशय के शिष्य स्वामी प्रणवानन्द ने इस उपलब्धि को इसी तरह से पाया था। उन्होंने वर्षों की साधना की, भारी तप किया। इस सबके बावजूद जब वह सहस्रार का भेदन व जागरण में सफल नहीं हुए, तो उन्होंने योगिराज लाहिड़ी महाशय से निवेदन किया। गुरुकृपा स्वरूप उन्हें वह सब मिल गया, जो चेतना के विकास का चरम व परम लक्ष्य है।
सद्गुरु कृपा के आह्वान के अलावा सहस्रार के जागरण व सिद्धि की अन्य समर्थ साधना नहीं है। बाकी जो कुछ- जहाँ कहीं भी वर्णित है, वह बस शब्दाडम्बर मात्र है। यदि उसमें कोई सार है भी तो भी उसका प्रायोगिक मूल्य बहुत ही न्यून और अल्प है। जबकि सद्गुरु की कृपा के अवतरण को धारण व ग्रहण करने से यह महासाधना शीघ्र ही परम सिद्धि में परिणत हो जाती है, ऐसा अनेकों महायोगियों के अनुभव हैं। इन अनुभवों का साक्षात्कार कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया के माध्यम से भी किया जा सकता है।