
आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि
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योग साधना में आहार-विहार से जुड़े नियमों का पालन आवश्यक है, अन्यथा साधना की सफलता संदिग्ध ही रह जाती है। और इसके वर्णित लाभों से वंचित ही रहना पड़ता है। योग साधना में अवतरित होने वाले दिव्य शक्ति प्रवाह से ठीक-ठीक लाभान्वित होने का सुयोग भी तभी बन पड़ता है, जब मनोभूमि इसके अनुरूप संवेदनशील एवं संस्कारवान बनाई जाय। इस संदर्भ में आहार-विहार का निर्धारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
यह एक सामान्य सा तथ्य है कि आहार से शरीर निर्माण होता है, किन्तु इसके मन पर पड़ने वाले प्रभाव से अधिकाँशतः अनभिज्ञता की स्थिति बनी रहती है। मानवीय चेतना के मर्मज्ञ मनीषियों के अनुसार आहार से शरीर ही नहीं बल्कि मन का भी निर्माण होता है। छान्दोग्योपनिषद् (6-5.1) के अनुसार- ‘खाया हुआ अन्न तीन प्रकार की गति को प्राप्त होता है। उसका अत्यन्त स्थूल भाग मल बनता है, मध्यम भाग से माँस बनता है और अत्यन्त सूक्ष्म भाग से मन बनता है।’ इस तरह अन्न के संस्कारों एवं प्रकृति का मन से सीधा रिश्ता है।
अतः योग साधना की दृष्टि से शुद्ध एवं सात्विक आहार की उपयोगिता समझी जा सकती है। यहाँ गीता के 16 वें अध्याय में आहार सम्बन्धी किया गया सूक्ष्म विश्लेषण विचारणीय है। आहार को गीताकार ने सात्विक, राजसिक एवं तामसिक तीन भागों में बाँटा गया है। बासी, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, जूठा, अपवित्र व भारी भोजन तामसिक प्रकृति के अंतर्गत आता है। यह भोजन मन को स्थूल बनाता है व शरीर में आलस, तन्द्रा व नींद को लाता है। उत्तेजक, तेज स्वाद वाले, बहुत चटपटे, खट्टे पदार्थ राजसिक आहार के अंतर्गत आते हैं। इनका सेवन मन में उत्तेजना पैदा करता है व इन्द्रियों को चंचल बनाता है। इनके विपरीत रसयुक्त, चिकने, स्थिर रहने वाले और स्वभाव से मन को प्रिय लगने वाले पदार्थ सात्विक आहार के अंतर्गत आते हैं। फल, दूध, दही, घी, गेहूँ, चावल आदि इसी श्रेणी में आते हैं।
गीताकार के शब्दों में जो व्यक्ति शरीर के साथ अपने मन, विचार, भावना व संकल्प को भी शुद्ध, पवित्र एवं निर्मल रखना चाहता हो, उसे राजसिक व तामसिक आहार का त्याग कर सात्विक आहार ग्रहण करना चाहिए।
आहार के सम्बन्ध में आधुनिक आहार शास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों के शोध निष्कर्ष भी इसी लाभ की पुष्टि करते हैं। मूर्धन्य मनोवैज्ञानिक डॉ. कैलग अपनी पुस्तक ‘प्लैन फैक्टस’ में लिखते हैं कि ‘आहार का मन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। मन का पोषण आहार में विद्यमान सूक्ष्म प्राण के अवशोषण के फलस्वरूप होता है। अतः इसकी दूषणता एवं सात्विकता के अनुरूप ही मन की चंचलता एवं स्थिरता निर्भर करती है।’ डॉ. जीन आँरनिश और डॉ. जान कावत जिन्न भी अपने क्रान्तिकारी शोध अध्ययन के अंतर्गत इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि योग-साधना की सफलता बहुत हद तक आहार के उचित निर्धारण पर निर्भर करती है। इसी तरह डॉ. वेलेन्टाइन ‘ट्राँजीशन टू वेजीटेरिएनिज्म’ में सात्विक सुपाच्य एवं पोषक तत्त्वों से भरे शाकाहारी आहार को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक स्थिरता एवं स्वास्थ्य के लिए आवश्यक मानते हैं।
इस तरह योग साधना की दृष्टि से आहार शुद्ध-सुपाच्य व सात्विक होना चाहिए। साथ ही इसे उचित मात्रा में ग्रहण किया जाए। अन्यथा अत्यधिक मात्रा में लिया गया सात्विक आहार भी आलस, निद्रा व तन्द्रा को ही न्यौता देता है। इस संदर्भ में योगाचार्यों का यह नियम अनुकरणीय है कि आमाशय को भोजन से आधा भरें, इसके चौथे भाग को जल से भरें और शेष चौथे को हवा के आने जाने के लिए खाली रखें। अन्यथा मिताहार के अभाव में घेरण्ड संहिता (16) के अनुसार योग रोग नाशक नहीं अपितु भयंकर रोगों का उत्पादक बन जाता है-
मिताहारं बिना यस्तु योगारम्भं तु कारयेत्।
नाना रोगो भवेतस्य किंचितद्योगो न सिद्धयति॥
इस तरह आहार के संदर्भ में शुद्ध-सात्त्विक एवं मिताहार का नियम ही वरेण्य है।
आहार के बाद विहार का क्रम आता है विहार अर्थात् रहन-सहन। इसे इन्द्रिय संयम भी कह सकते हैं। इसके अंतर्गत कामेन्द्रिय ही प्रधान है। योग साधना के दौरान इसकी निग्रह, शुचिता एवं पवित्रता अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य व्रत के द्वारा इसी कार्य को सिद्ध किया जाता है। इसमें शारीरिक चेष्टाओं की ही तरह कामुक चिंतन पर भी अंकुश लगाना पड़ता है। विपरीत लिंग के प्रति सतत् पवित्र भाव का आरोपण किया जाता है व ऐसे साहित्य, संग व वातावरण से दूर ही रहा जाता है, जिनसे कि निम्नवृत्तियाँ भड़क न उठे।
इस संदर्भ में पुनः आहार का विषय विचारणीय है। स्वादेन्द्रिय का कामेन्द्रिय से सीधा सम्बन्ध है। स्वाद पर अंकुश लगते ही काम सहज ही काबू में आ जाता है। अन्यथा चटोरेपन के रहते यह कार्य असंभव प्रायः बना रहता है। डॉ. आर्थर कोवेन अपनी पुस्तक ‘साइंस आफ न्यू लाइफ’ में ठीक ही फरमाते हैं कि ‘काम-वासना को उत्पन्न करने वाले कारणों में दूषित आहार प्रमुख है और यह कल्पना करना कि खान-पान में माँस, मदिरा, अण्डा, बीड़ी-सिगरेट, मिर्च-मसाला, आचार-खटाई और चाय-काफी का स्वाद जिह्वा चखती रहे और व्यक्ति कामुकता से बचा रहे, एक असम्भव कल्पना है।’
इस संदर्भ में योग साधना के पथिकों द्वारा अपनाए जाने वाले सम्बन्धी कठोर नियम समझे जा सकते हैं। पुरातन काल में पिप्पलाद ऋषि केवल पीपल के फल खाकर निर्वाह करते थे। औदुम्बर ऋषि केवल गूलर खाकर शरीर निर्वाह करते थे। मौदगल ऋषि का आहार केवल मूँग था। परम पूज्य गुरुदेव ने 24 वर्षीय पुरश्चरण जौ की रोटी एवं छाछ के सहारे पूरा किया था। इसी तरह गाँधी जी ने एक सप्त महाव्रतों में अस्वाद को प्रथम स्थान दिया था। हालाँकि सर्व सामान्य के लिए इस संदर्भ में अति कठोरता एवं विलासिता की दोनों अतियों से बचना ही बेहतर है। अपनी स्थिति एवं प्रकृति के अनुरूप मध्यम मार्ग का निर्धारण किया जाय, जिसको ठीक ढंग से निभाया जा सके।
इंद्रिय संयम के अंतर्गत वाणी का संयम भी अभीष्ट है। साधना के दौरान वाणी का न्यूनतम एवं आवश्यक उपयोग ही किया जाय व व्यवहार को भी संयत रखा जाय। निंदा, चुगली एवं वाद-विवाद से सर्वथा बचना चाहिए। जहाँ ऐसे प्रसंग चल रहे हों वहाँ से उठकर अन्यत्र चले जाना ही उचित है। अवाँछनीय दृश्य एवं प्रसंगों से स्वयं को सर्वथा दूर ही रखना चाहिए है। आहार की तरह विहार में भी अधिकाधिक सात्विकता एवं पवित्रता का समावेश किया जाना चाहिए।
आहार-विहार में अपनाई गई शुद्धता एवं सात्विकता से छान्दोग्योपनिषद् (7-2, 6-2) की वह उक्ति शनैः-शनैः चरितार्थ होती जाएगी, जिसमें ऋषि घोषणा करते हैं-
आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि सत्व शुद्धो ध्रुवा स्मृतिः।
स्मृतिर्लब्धे सर्वग्रन्थीनाँ प्रियमोक्षः॥
अर्थात्- आहार के शुद्ध होने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है, अन्तःकरण के शुद्ध होने से बुद्धि निश्छल होती है और बुद्धि के निर्मल होने से सब संशय और भ्रम जाते रहते हैं तथा तब मुक्ति का मिल सकना सुलभ हो जाता है। इस सुलभता का एक महत्त्वपूर्ण रहस्य योग और स्वास्थ्य प्रकरण में भी केन्द्रित है।