
साधना विज्ञान का ककहरा
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जीवन के गहन अध्ययन के बाद महर्षियों ने तत्त्वदर्शन की खोज की। अपने कठोर तप एवं कठिन साधनात्मक प्रयोगों के निष्कर्ष स्वरूप उन्होंने बताया कि व्यष्टि का समष्टि से संयोग हुए बिना शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। वैयक्तिक चेतना के विराट् विश्व में विस्तीर्ण सत्-चित्-आनन्दमय चेतना में मिलने पर ही मनुष्य की अतृप्ति व अशान्ति का स्थायी अन्त हो सकता है। मानव जीवन का लक्ष्य भी यही है। इसे पाने के लिए निर्दिष्ट समस्त पद्धतियाँ योग का ही अंग हैं। क्योंकि योग का अर्थ ही है व्यष्टि का समष्टि से तादात्म्य, लघु का विभु, अणु का महत् और जीवात्मा का परमात्मा से पूरी तरह जुड़ जाना, सदा-सदा के लिए एक हो जाना।
कहने और लिखने में यह सब बहुत सरल लगता है, पर है अत्यन्त कठिन। कठोपनिषद् में भगवान् यम अपने शिष्य नचिकेता को इसकी कठिनाइयों को, योग साधना की दुरुहताओं को बार-बार समझाते हैं। बाजिश्रवा के पुत्र नचिकेता की योग जिज्ञासा देख, यमाचार्य ने उन्हें बार-बार समझाया-
देवैरपि विचिकित्सितं पुरा, न हि सुविज्ञेयमणुरेणु धर्मः
अन्यं वरं नचिकेता वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्, - कठ. 1/21
नचिकेता इसके सम्बन्ध में तो देवता भी सन्देहग्रस्त हैं। योग-विज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म है। वह शीघ्र समझ में नहीं आता। तुम इस कठिनाई में मत पड़ो। कोई अन्य वरदान माँग लो।
लेकिन आत्मजयी नचिकेता अटल और दृढ़ रहा। उसने समस्त इन्द्रिय भोगों, साँसारिक सुखों के प्रति गहरी अनासक्ति जताई। नचिकेता की सच्ची जिज्ञासा से यम सन्तुष्ट हुए और उन्होंने कहा- ‘जो दृढ़ निश्चयी है, जिसमें कठिनाइयों से जूझने का साहस है, वही योगी हो सकता है।’
यम के इस कथन में ही योग के तत्त्वदर्शन को जानने-समझने की पात्रता छुपी है। इस पात्रता को अर्जित किए बिना योग पर कितना ही कुछ क्यों न कहा और सुना जाय, उसका कोई अर्थ नहीं। यह पात्रता का अभाव ही है कि योग विषय पर अनेकों राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों, पुस्तकों, प्रवचनों, लेखों के बावजूद व्यक्ति और समाज में योग चेतना लुप्त है। इस लुप्त और सुप्त योग चेतना को जगाना तभी सम्भव है, जब योग के तत्त्वदर्शन को गहराई से आत्मसात किया जाय।
योग साधना के तत्त्वदर्शन का प्रथम सूत्र है- संयम। संयम का अर्थ प्रायः दमन से लिया जाता है। जो अपनी इच्छाओं, कामनाओं को जितना अधिक दबा सके, कुचल सके, वह उतना ही अधिक संयमी है। लोक प्रचलित इस मान्यता के विरुद्ध संयम का वास्तविक अर्थ है- जीवन की शक्तियों की बर्बादी को रोकना। जीवन ऊर्जा के क्षरण व अपव्यय पर प्रतिबन्ध लगाना। प्रकृति एवं परमेश्वर ने हममें से हर एक को क्रिया शक्ति, चिन्तन शक्ति एवं भाव शक्ति के अनुदान दिए हैं। इनमें से प्रत्येक शक्ति का सदुपयोग किया जाना चाहिए। उसे जीवन लक्ष्य के सुनिश्चित उद्देश्य के लिए नियोजित करना चाहिए। लेकिन व्यवहार में यह कहीं दिखता नहीं।
सामान्य जनों की बात तो दूर, अपने को योगी और साधक कहने और मानने वाले भी संयम के वास्तविक अर्थ से दूर रहते हैं। संयम किसी विशेष क्रिया-प्रक्रिया का नाम नहीं है। यह कोई दिखाऊ अथवा प्रदर्शन का तत्त्व भी नहीं है। यह तो गहन आन्तरिक तत्त्व है। और इसे वही कर पाता है, जो अपने को गहराई से जानने-समझने की चेष्टा करता है। गहन आत्म चिन्तन और गहरे आत्म विश्लेषण से ही जाना जा सकता है कि हम अपनी क्रिया शक्ति, चिन्तन शक्ति एवं भाव शक्ति का कितना सदुपयोग अथवा दुरुपयोग कर रहे हैं। इनके दुरुपयोग को तत्काल रोककर इन्हें आत्मोन्मुखी या ईश्वरोन्मुखी करना ही संयम है।
संयम के सधते ही परिष्कार या परिशोधन की प्रक्रिया चल पड़ती है। यह योग का द्वितीय महत्त्वपूर्ण सूत्र है। हालाँकि संयम से परिशोधन तक की यात्रा अनेकों कठिनाइयों से भरी है। क्योंकि संयम से परिशोधन की दूरी दो शब्दों के बीच की दूरी नहीं है, यह जीवन के दो आयामों का फासला है। इसे विवेकवान, धैर्यवान और दृढ़ निश्चयी ही तय कर पाते हैं। क्रिया, चिन्तन एवं भावना में बार-बार भटकाव आता है। चित्त और उसकी वृत्तियाँ बार-बार अपनी परिचित राहों पर दौड़ने-भागने के लिए लालायित होती हैं। लालसाओं के ये अनगिनत छिद्र ही बहुमूल्य जीवन ऊर्जा की बरबादी के कारण हैं।
सतत् अभ्यास और उत्कट वैराग्य से ही यह बरबादी रुकती है। इसी से वृत्तियाँ ईश्वरोन्मुखी होती हैं। और तब परिष्कार की प्रक्रिया स्वचालित यंत्र की भाँति चल पड़ती है। परिशोधन की यह क्रिया समूची अन्तर्चेतना को धोती-माँजती है। ऐसे में चिन्तन एवं भावनाओं की दशा और दिशा सभी कुछ बदल जाती है। एक नयी दुनिया के द्वार खुलते हैं। इसे अनुभवी ही देख, जान और समझ सकते हैं।
परिशोधन के बाद की यह अवस्था जागृति अथवा जागरण की है। और यही योग साधना के तत्त्वदर्शन का तृतीय सूत्र है। इस अवस्था में जीवन के सभी प्रश्नों का अपने आप ही समाधान हो जाता है। सभी समस्याओं का समाधान होने के कारण इस अवस्था को समाधि भी कहते हैं। योग की ओर झुकाव रखने वाले बहुतेरे लोग समाधि को कोई क्रिया समझ बैठते हैं और जिस किसी भी तरह करने के लिए परेशान होते हैं। पर वास्तव में समाधि चित्त और उसकी वृत्तियों के परिशोधन का स्वाभाविक परिणाम है।
योग में शारीरिक, मानसिक व्यायामों, साधनात्मक कर्मकाण्डों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। पर तभी जब उनका उद्देश्य योग साधना के तत्त्वदर्शन के अनुरूप हो। योग का बहिरंग स्वरूप इन व्यायामों, कर्मकाण्डों के रूप में सामने आना आपत्तिजनक नहीं है। किन्तु है यह योग का कलेवर ही, यह तथ्य सदा ही स्मरण रखा एवं कराया जाना चाहिए। योग का प्राण- वह तत्त्वदर्शन ही है, जिसकी चर्चा उपरोक्त पंक्तियों में की गयी है। संयम, परिशोधन और जागरण के इन सूत्रों को त्रिपदा गायत्री के तीन चरण भी कहा जा सकता है। इसकी शुरुआत क्रिया शक्ति से होने पर कर्मयोग का स्वरूप प्रकट होता है। यदि प्रारम्भ चिन्तन शक्ति से किया गया तो ज्ञानयोग की सप्तभूमियाँ स्पष्ट होती हैं और भाव शक्ति के माध्यम से योग साधना के तत्त्वदर्शन का अभ्यास करने पर भक्तियोग का मार्ग प्रशस्त होता है।
योग साधना के तत्त्वदर्शन की आन्तरिक उमंगें यदि जग पड़े तो बहिरंग जीवन स्वतः ही योगमय हो जाता है। क्योंकि आन्तरिक भाव दशा से ही दिशा निर्धारण और परिस्थिति का निर्माण होता है। अन्तश्चेतना का यह मर्मस्थल संयमित-परिशोधित बने, तभी आत्म चेतना के जागरण की पुण्य घड़ी आती है। और योग साधना के तत्त्वदर्शन का लक्ष्य पूरा होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कर्मयोग प्रथम चरण है।