
मैं कौन हूँ का उत्तर देना है−ज्ञानयोग
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ज्ञानयोग की शुरुआत आत्म जिज्ञासा से होती है। जब समूचा अस्तित्व एक जुट होकर अपने से यह सवाल पूछता है- कि मैं कौन हूँ? जब प्राणों में एक ही विकल गूँज उफनती है- कि मैं कौन हूँ? तब ज्ञान योग की साधना प्रारम्भ होती है। ज्ञानयोग की साधना दरअसल सूक्ष्म शरीर की साधना है। क्योंकि ज्ञानयोग में लीन साधक को सबसे पहला अहसास यही होता है कि पल-पल नष्ट होने वाला, हर घड़ी मृत्यु की ओर बढ़ने वाला स्थूल शरीर मेरा परिचय कभी नहीं हो सकता। यही अनुभूति ज्ञान योगी को नाशवान स्थूल से ऊपर उठाकर अविनाशी सूक्ष्म की ओर ले जाती है।
जब तक सच्ची आत्म जिज्ञासा नहीं पनपी, तब तक अन्य सारी बातें ज्ञान का आडम्बर ही हैं। अनगिनत पुस्तकों का अध्ययन, अनेकानेक विद्वतापूर्ण व्याख्यान, और ढेरों सुविचारित प्रश्न सब मिलकर भी किसी को ज्ञानयोगी नहीं बना सकते। रमण महर्षि के पास जब अंग्रेज लेखक पॉल ब्रन्टन गए थे, तब उनके पास अनेकों प्रश्न थे। उन्होंने लगभग पूरी दुनिया की यात्रा की थी, अनेकों पुस्तकें पढ़ी थी और कई पुस्तकें तो स्वयं भी लिखी थी। समूची दुनिया में उन्हें लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान् माना जाता था।
लेकिन रमण महर्षि ने उनके सारे प्रश्नों के प्रत्युत्तर में केवल एक बात कही कि सिर्फ एक प्रश्न सार्थक है- मैं कौन हूँ? बाकी सब प्रश्न तो अपने आप ही हल हो जाएँगे। तो पॉल ब्रन्टन ने कहा अच्छी बात है, यही पूछता हूँ, कि मैं कौन हूँ? उत्तर में महर्षि हंसने लगे, अब यह भी मुझसे पूछोगे? अरे आंखें बन्द करो और अपने आप से पूछो। पूछते जाओ, खोजते जाओ। अब इतना तो पक्का है कि तुम हो। इतना ही नहीं तुम हो और चेतन हो- यह भी पक्का है। अन्यथा मुझसे पूछते कैसे? अब आगे तुम खोजो।
इसी खोज में ज्ञानयोग की समूची साधना निहित है। इस खोज के लिए हमें स्थूल से सूक्ष्म में उतरना ही होता है। जैसे-जैसे खोज तीव्र होती है, आत्म जिज्ञासा परिपक्व होती है, सूक्ष्म शरीर भी परिष्कृत, प्रखर एवं पवित्र होता चला जाता है। बात अनुभव की है। यह नहीं कि कोई पूछता रहे मैं कौन हूँ, मैं कौन हूँ तो कुछ वैसा उत्तर आ जाए, जैसे परीक्षा की कापियों में उत्तर आ जाते हैं। यह बात नहीं है, बात तो यह है, जब प्रश्न तीव्र होगा, आत्म जिज्ञासा प्रगाढ़ होगी, तो उत्तर नहीं आएगा, एक दिन प्रश्न भी रुक जाएगा। अनुभूति आएगी। जीवन और चैतन्य का जो महामिलन हो रहा है, उसका साक्षात्कार होगा। यही साक्षात्कार ज्ञानयोग का फल है।
इसके बारे में महर्षि अष्टवक्र जनक से कहते हैं-
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यास फलं तथा।
तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तुयः॥
उसे ही ज्ञान और योगाभ्यास का फल प्राप्त हुआ है, जो तृप्त है, शुद्ध इन्द्रिय वाला है और सदा एकाकी रमण करता है।
महर्षि अष्टवक्र के इन वचनों में ज्ञानयोग की समूची साधना और उसके फल का गुह्य वर्णन है। ज्ञानयोगी की अनिवार्य पहचान है- शुद्ध इन्द्रिय वाला। जिसने गहन आत्म जिज्ञासा से अपनी कल्पना, चिन्तन एवं चित्त वृत्तियों को परिशोधित कर लिया है, वही शुद्ध इन्द्रिय वाला हो सकता है। जो ज्ञानयोग को बौद्धिक क्रिया-कलापों से जोड़ते हैं, उनके लिए इस उपलब्धि को पाना सम्भव नहीं। क्योंकि ज्ञानयोगी के लिए महर्षि अष्टवक्र एक अन्य स्थान पर ‘गलित धीः’ शब्द का प्रयोग करते हैं। गलित धीः का अर्थ है जिसकी बुद्धि गल गयी है। सत्य यही है कि बुद्धि की सीमाओं से परे जाकर ही ज्ञानयोग की साधना सम्भव है। और तभी इसकी उपलब्धियाँ साधक के जीवन का अनुभव बनती हैं।
सूक्ष्म शरीर की पवित्रता ही साधक को तृप्ति दे पाती है। क्योंकि ऐसी ही भावदशा में उसे आत्मा के अमृत रस का स्वाद मिलता है। सूक्ष्म शरीर पवित्र हो जाए, तो फिर वासनाओं में रस नहीं मिलता। सूक्ष्म शरीर के पवित्र होने पर, इन्द्रियों के स्वच्छ होने पर, चेतना की संवेदनशीलता लाख-करोड़ गुनी बढ़ जाती है। ऐसे में आत्म चेतना, परमात्म चेतना में रमण करती है। उसे जड़ भोगों की कोई आवश्यकता नहीं रहती। तृप्ति उसका स्वभाव बन जाता है। यह तृप्ति ज्ञानयोग का सहज फल है। यह जागरण का फल है।
सूक्ष्म शरीर जब तक वासनाओं से मैला है, तब तक तृप्ति सम्भव नहीं। वासनाओं को जितना तृप्त करने की कोशिश करते हैं, अतृप्ति उतना ही भड़कती और बढ़ती जाती है। शरीर थक जाता है, पर वासना नहीं थकती। वह दौड़ती ही रहती है। जब शरीर मर जाता है, तब भी वासना अनन्त-अनन्त यात्राओं पर निकलती रहती है। अगर ऐसा न होता, तो दुबारा जन्म ही न होता। दुबारा जन्म का कारण ही है- अतृप्ति। यह भटकन तभी मिटती है जब इन्द्रियाँ शुद्ध होती हैं- सूक्ष्म शरीर पवित्र होता है। सूक्ष्म शरीर के पवित्र होते ही वासनाएँ मिटती हैं। और वासनाओं के मिटते ही अतृप्ति भी मिट जाती है। फिर तो बस तृप्ति ही स्वभाव बन जाता है।
ऐसा परम तृप्त ज्ञानयोगी एकाकी रमण करता है। यहाँ एकाकी का अर्थ गहराई से समझने की आवश्यकता है। क्योंकि एकाकी का अर्थ प्रायः अकेलापन लगाया जाता है। जबकि एकाकी का अर्थ होता है- एक पन। अकेलेपन का मतलब होता है कि दूसरे की याद आ रही है, दूसरा होता तो अच्छा होता। अकेलेपन का अर्थ है- दूसरे का अभाव खल रहा है, खाली-खाली लग रहा है, कोई जगह, बड़ी बेचैनी हो रही है। बैठे तो हैं अकेले, पर दूसरे की याद में परेशान हैं।
एकाकीपन का अर्थ है- अब रम गए एक में। अपने भीतर के पन्ने पलटते हुए रहस्य जान लिया। अब समझ में आ गया कि एक ही ने अनेक रूपों में विस्तार-प्रसार किया है। जैसे-जैसे एकाकी रमण करते हैं, अपने भीतर चलते हैं। तो चलते-चलते एक घड़ी आती है, जो मैं नहीं हूँ- वह सबका सब छूट जाता है। और जो मैं हूँ- वह बचा रहता है। इस परम सत्य का साक्षात्कार करते ही- ज्ञानयोग के सारे सुफल अपने आप ही जीवन में बिखर जाते हैं।
ज्ञानयोग की साधना जो करना चाहते हैं, उनके लिए एक ही सन्देश है, कि आप अपने भीतर, हाँ अपने ही भीतर महासूर्य को छिपाए चल रहे हो। जरा पूछो अपने से यह महाप्रश्न- मैं कौन हूँ? जरा खोलो भीतर की गाँठ, जरा भीतर की गठरी खोलो, जरा भीतर की गगरी फोड़ो, किरणें ही किरणें बरस जाएँगी। उन किरणों की वर्षा में स्वच्छ हो जाएँगी इन्द्रियाँ, पवित्र हो जाएगा सूक्ष्मशरीर, तृप्त हो जाएँगे प्राण, हो जाएगा परिचय अपने एक-पन से।
ज्ञानयोग के ऐसे महान् साधक के लिए शास्त्र कहते हैं- ‘ज्ञानयोगी इस जगत् में कभी दुःख को प्राप्त नहीं करता। क्योंकि उसी के एक-पन से यह ब्रह्मांड-मण्डल पूर्ण है। ज्ञानयोग की यह पूर्णता भक्तियोग में अपनी रसमयता प्राप्त करती है।’