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Magazine - Year 2003 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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छह व्यवहारिक सूत्र, व्यक्तित्व परिष्कार के

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व्यक्तित्व ही व्यक्ति का वास्तविक परिचय है। समृद्ध एवं श्रेष्ठ व्यक्तित्व उसकी पूँजी एवं सम्पदा होती है। और यह सम्पदा-सम्पत्ति दैनिक जीवन में व्यवहार में आने वाले छोटे-छोटे सूत्रों के माध्यम से जमा होती है। जिसके पास यह जमा पूँजी जितनी अधिक होगी वह उतना ही व्यवहारकुशल व सफल व्यक्तित्व का धनी होगा। इसके अभाव में व्यक्ति व्यावहारिक धरातल पर नितान्त दरिद्र होता है भले ही यह अन्य क्षेत्रों में कितना ही समृद्ध क्यों न हो। इसी को आज व्यावहारिक बैंक खाता के रूप में जाना जाता है, जो अत्यन्त लोकप्रिय है। यह हर उम्र के एवं वय के लोगों के लिए एक समान लागू होता है क्योंकि सभी का बाह्य जीवन व्यावहारिक पृष्ठभूमि में पलता-बढ़ता, विकसित होता है। इसी में आन्तरिक जीवन के बन्द कपाट खुलते हैं।

व्यावहारिक जीवन के बनावट-बुनावट को उकेरने-सहेजने वाले प्रसिद्ध लेखक सिन कोवे ने अपनी लोकप्रिय पुस्तक ‘द सेवेन हैबीट्स ऑफ हाइली इफेक्टिव टीन्स’ में इस संदर्भ में बड़ा ही रोचक विवरण प्रस्तुत किया है। इस किताब में उन्होंने व्यावहारिक जीवन के लिए छः बिन्दुओं का उल्लेख किया है। यदि इसे दैनिक दिनचर्या में उतारा-अपनाया जा सके तो जीवन सफलता की ओर, समृद्धि की ओर अग्रसर होने लगता है।

सीन कोवे व्यावहारिक खाते के इन छः विधेयात्मक सूत्रों को वास्तविक जमा पूँजी कहते हैं। ये हैं- अपने वचन की रक्षा करना, दिन में कोई अच्छा कार्य करना, विश्वसनीय होना, दूसरों की सुनना, गल्तियों के लिए विनम्रतापूर्वक क्षमा माँगना और उचित की इच्छा करना। ये सूत्र जब व्यवहार और आचरण में उतरने लगते हैं तो व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आने लगता है। सही मायने में हम स्वयं अन्दर से प्रसन्न होते हैं तथा दूसरों का विश्वास और आत्मीयता भी अर्जन करने लगते हैं।

जीवन का क्रिया व्यापार आपसी विश्वास के आधार पर आधारित है। और इस विश्वास को प्राप्त करने के लिए हमें विश्वसनीय होना अनिवार्य है। जिसका प्रथम चरण है किये गये वायदों का, दिये हुए वचनों को उचित एवं पूर्णरूप से निर्वाह करना। प्रायः हम बड़े-बड़े वायदों का पुलिन्दा बाँधते हैं तथा इसको निभाने का जब वक्त आता है तो हम साफ मुकर जाते हैं। ऐसा आश्वासन राजनीति के अखाड़े में भले ही कुछ देर चल जाय पर व्यावहारिक जीवन में पल भर भी नहीं बढ़ सकता। क्योंकि हम जब तक अपनी कही हुई बातों को करके नहीं दिखा लेते, कोई हम पर क्यों और कैसे विश्वास करे। अतः आवश्यक है कि हम अपने दैनिक जीवन की छोटी-छोटी बातों का पालन करें, उस पर खरे उतरें। यदि हमने किसी को मिलने का समय दिया है, तो दी गई समयावधि में हम उससे मिल लें। यदि हम किसी को कुछ वस्तु देने का आश्वासन दिया है तो उसे अवश्य दें। और यदि किसी नितान्त एवं अपरिहार्य कारणों से उसे कर पाने में अक्षम हो रहे हो तो बड़ी विनम्रता पूर्वक माफी माँग लेनी चाहिए। इसी से विश्वास पैदा होता है और विश्वसनीयता का आधार तय होता है।

यह विश्वसनीयता जीवन में नवगति-प्रगति प्रदान करता है। इससे जीवन गतिशील होता है, प्रगतिशील होता है। गतिशील जीवन के कुछ क्षण, व्यक्ति एवं बातें स्थान, वस्तु ऐसी होती हैं जो हमें अनायास अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। हमें किसी की निश्छल मुस्कान अच्छी लग जाती है, किसी का निष्काम सेवा भाव भा जाता है, किसी का अपनापन आन्दोलित कर जाता है। यह जो हमें अच्छा एवं लुभावना लगता है क्यों न हम इसे औरों को बाँटने लगे। क्योंकि जो दिया जाता है वह लौटकर वापस आता है और निहाल कर देता है। जो दिया या किया उसकी अपेक्षा न भी करें तो भी करते वक्त जो आन्तरिक तृप्ति मिलती है वह भी किसी दिव्य अनुदान-प्रतिदान से कम नहीं होती है। अतः हमें प्रत्येक दिन ऐसा कुछ श्रेष्ठ कार्य करना चाहिए, जिसमें दूसरों की कुछ भलाई की भावना निहित हों।

दूसरों को सतत देने तथा भलाई करने वालों पर कौन नहीं न्यौछावर होगा। दूसरों के दुःख में दुःखी तथा सुख में सुखी का दिव्य भाव जिसके पास हो वही सबके हृदय में बसता है। ये काल्पनिक उड़ानों में, बड़ी-बड़ी बातों में नहीं, कुछ करने में विश्वास रखते हैं। सदा दूसरों का भला चाहने वालों के पास यूँ ही व्यर्थ समय गँवाने के लिए नहीं होता, ये दूसरों के निजी तथा व्यक्तिगत जीवन पर कोई हस्तक्षेप नहीं करते। दूसरों के व्यक्तिगत पक्ष को किसी के सामने उजागर नहीं करते, बल्कि उसका समुचित सम्मान के साथ रक्षा करते हैं। अतः जीवन में इन विशेषताओं का समावेश करने पर हम विश्वास मात्र बनते हैं, भरोसेमन्द बनते हैं। यह पात्रता हमारे जीवन के विकास एवं प्रगति में अत्यन्त सहायक होती है।

ऐसी सुपात्रता में ही भगवद् कृपा अवतरित होती है तथा उसके दिव्य अनुदान-वरदान बरसते हैं। आकाश की घटाओं में मिट्टी के घट को भरने के लिए पानी की कमी नहीं है, कमी है तो उस माटी के घट की जो अपनी छोटी पात्रता के बावजूद अधिक पाने की ललक-लिप्सा सँजोये रहता है। यह केवल अपनी अपात्रता को पात्रता का आवरण चढ़ाकर अपनी ही सुनाता है। सच्चाई को नहीं जानता, उसे नहीं सुनता। बल्कि होना तो यह चाहिए कि हमें अपना व्यर्थ प्रलाप बन्द कर देना चाहिए तथा सुनने लायक को सुनना चाहिए। दूसरों की व्यथा-कथा को सुनना चाहिए, ताकि उसके लिए कुछ किया जा सके। उसे सुनना चाहिए जो अपनी गहन पीड़ा से पीड़ित है तथा अपनी व्यथा को सुनाना चाहता है ताकि कहकर हल्का हो सके। हमें सीमित तथा सारगर्भित संवेदना के दो शब्द देने में विश्वास रखना चाहिए। जिससे हमारे जीवन के विकल व्यथा तथा असह्य दर्द के क्षणों में भी परमात्मा का प्रेम बरस सके, झर सके। यह तय है कि सदा दूसरों के सुनने वाले का भगवान् सुनता है।

हमारे कर्मों से, व्यवहार, आचरण से यदि औरों को कुछ कष्ट होता है तो उसके लिए विनम्रतापूर्वक क्षमायाचना कर लेनी चाहिए। तथा अपने प्रति दूसरों के अशोभनीय आचरण को भी सहजतापूर्वक क्षमा कर देने का प्रयास करना चाहिए। अगर हम दूसरों को नहीं क्षमा कर सके तो परमात्मा कैसे हमारे अनन्त भूलों, पापों को माफ कर देगा। यह जानें कि मनुष्य गल्तियों का पुतला है। कहीं न कहीं उससे जाने-अनजाने त्रुटियाँ हो जाती हैं। अतः दूसरों की त्रुटियाँ क्षम्य है परन्तु अपनी स्वयं की गलती के लिए प्रायश्चित करना चाहिए। अपने द्वारा किये हुए समस्त सद्कर्मों को भगवान् को समर्पित कर अपनी गल्ती के लिए सदैव सजग व जागरुक होना आवश्यक है। इसी भाव में अन्तर की हठीली आग्रह-दुराग्रहपूर्ण वृत्तियाँ कटती-मिटती हैं तथा मनुष्य सरल व विनम्र बनता चला जाता है।

विनम्र, सुपात्र और विश्वसनीय व्यक्ति को उचित और अनुचित का भेद होता है। वह विवेक का पक्षधर होता है। जीवन में अच्छाई व उत्कृष्ट की इच्छा करता है, उच्चस्तरीय अभीप्सा करता है। जीवन में सत्कर्म, सद्व्यवहार और सद्आदर्श को सर्वोपरि मानता है। वही इसका ईष्ट और लक्ष्य होता है और हो भी क्यों न, क्योंकि आदर्शों का समुच्चय ही तो भगवान् है। अतः वह सतत दूसरों का भला करते हुए सेवा करते हुए भी उनसे कोई भी, किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता। वह अपने ही बनाये दिव्य आदर्शों पर खरा उतरने की प्रबल आकाँक्षा रखता है।

सेट कोवेन के ये छः विचार सूत्र उच्च व्यावहारिक आदर्श हैं। इससे न केवल जीवन का व्यवहार पक्ष परिष्कृत होता है, समृद्ध होता है बल्कि आन्तरिक जीवन की अनन्त सम्पदा के द्वार भी खुलने लगते हैं। हमें इन दिव्य सूत्रों को अपने चिंतन, चरित्र और आचरण में उतारना चाहिए। क्योंकि सूत्रों में ही अगम्य शास्त्रों का मर्म छुपा हुआ रहता है। इन सूत्रों को हृदयंगम कर हमारा जीवन भी शास्त्र बने, जिससे हम स्वयं प्रकाशित हों औरों को भी आलोकित कर सकें। इसे अपनाकर अन्तर प्रसन्न-प्रफुल्लित हों तथा दूसरों को भी खुशी बाँट सकें। यही सच्ची सम्पदा है, वास्तविक पूँजी है और अक्षय समृद्धि है। अतः हमें इस दिव्य अनुदान से वंचित नहीं होना चाहिए तथा जीवन में इन सूत्रों को अपनाकर दिव्य व्यक्तित्व सम्पन्न बनना चाहिए।

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