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Magazine - Year 2003 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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देव संस्कृति बनने जा रही है पुनः विश्वसंस्कृति

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देवसंस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। विश्व का मान्यता प्राप्त सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद इसका साक्षी है। यजुर्वेद (7/14) का मंत्र - ‘सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा’ भी इसे आदि संस्कृति सिद्ध करता है।

हजारों वर्षों के काल प्रवाह में इसके अस्तित्व की अक्षुण्णता, इसकी प्रमाणिकता को सिद्ध करती है। वैदिककाल में ऋषियों ने जो जीवन सूत्र दिये, जो आचार पद्धति निर्धारित की, जिन परम्पराओं की स्थापना की, वे हजारों वर्षों बाद आज भी किसी न किसी रूप में प्रचलित हैं। वेदों के विचार सूत्रों का विकास-विस्तार उपनिषदों में मिलता है, उनका निचोड़ गीता में उपलब्ध होता है। रामायण, महाभारत आदि महाकाव्यों के साथ आज भी ये ग्रन्थ हमारे जीवन के आदर्श एवं प्रेरक बने हुए हैं। इसी तरह वैदिक काल में प्रचलित गायत्री उपासना, यज्ञ-संस्कार, वर्णाश्रम व्यवस्था व अन्य ऋषि परम्परायें किसी न किसी रूप में हमारे जीवन का अंग बनी हुई हैं। इस तरह काल प्रवाह के विभिन्न उतार-चढ़ाव के बावजूद हमारी संस्कृति जीवन्त है, जबकि विश्व की अन्य प्राचीन संस्कृतियों जैसे मिस्र, बेबीलोन, रोम-यूनान आदि के ध्वंसावशेष ही बाकी बचे हुए हैं। उर्दू-शायर इकबाल के शब्दों में -

यूनानो मिस्र रोमाँ सब मिट गये जहाँ से कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।

देव संस्कृति को तमाम विषमताओं के बावजूद भी जीवन्त बनाये रखने वाली यह ‘कुछ बात’ उसकी आध्यात्मिकता है।

स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में -’आध्यात्मिकता ही देवसंस्कृति का जीवन प्राण है।’ श्री अरविन्द के अनुसार - ‘अध्यात्म भारतीय मस्तिष्क को समझने की कुँजी है।’ जीवन और अस्तित्व के सार तत्त्व के रूप में आत्मा-परमात्मा का चिंतन और इन्हीं के इर्द-गिर्द समस्त जीवन का निर्धारण यहाँ की मौलिक विशेषता रही है। इसी आधार पर वैदिक ऋषियों ने मनुष्य को अमृत पुत्र! कहकर सम्बोधित किया और सर्वप्रथम ‘आत्मान् विजाति ही’ अर्थात् आत्मा को जानो का संदेश दिया। इसने सदैव साँसारिक सुख की बजाय आध्यात्मिक सुख को प्रधानता दी है। हमारे ऋषि- मुनियों, तपस्वियों-योगियों, सिद्ध पुरुषों एवं अवतारी पुरुषों की हर युग में विशिष्ट उपस्थिति इस तथ्य की गवाही देती है।

देवसंस्कृति अध्यात्म प्रधान होने के कारण संसार सुख की बजाये आध्यात्मिक सुख को महत्त्व देती है और यहाँ लोक जीवन में अंतर्मुखी वृत्ति प्रधान रही है; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इसने समाज-संसार एवं जीवन से कटे, विरक्त, निष्क्रिय एवं पलायनवादी जीवन को प्रश्रय दिया हो, जैसा कि पश्चिमी आलोचकों द्वारा इस पर आरोप लगाया जाता है। परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार, आध्यात्मिक होते हुए भी देवसंस्कृति ने लोकजीवन की उपेक्षा नहीं की है। शरीर, मन व आत्मा तथा व्यक्ति,परिवार एवं समाज का समग्र विकास इसका लक्ष्य रहा है। धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष के पुरुषार्थ चतुष्टय सिद्धान्त एवं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के रूप में यहाँ सम्पूर्ण जीवन के सर्वांगीण विकास का विधान रहा है। धर्म की मर्यादा में अर्थ का उपार्जन एवं काम का उपभोग करते हुए मोक्ष की ओर बढ़ने का यहाँ आदर्श निर्धारण रहा है। पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों का पूर्ण निर्वाह करते हुए ही यहाँ अन्त में संन्यासी जीवन में प्रवेश का विधान रहा है। इसी तरह ज्ञान के क्षेत्र में वेदान्त का गूढ़ दर्शन एवं योग की गूढ़ क्रियायें जहाँ इसके आध्यात्मिक विकास के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करती है, वहीं विज्ञान के क्षेत्र में आयुर्विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान, तंत्रविज्ञान, मंत्रविज्ञान जैसी विद्यायें इसकी विशिष्ट उपलब्धियाँ हैं। इन्हीं के आधार पर यह अतीतकाल में विश्वगुरु के पद पर सुशोभित रहा है। इसी तरह राजनीति के क्षेत्र में चक्रवर्ती साम्राज्यों का दिग्दिगन्त व्यापी विस्तार, आर्थिक क्षेत्र में सोने की चिड़िया की उपाधि, साहित्य, कला आदि क्षेत्रों में इसकी अद्भुत उपलब्धियाँ, इसके लौकिक जीवन की समृद्धता का परिचय देती हैं। इस तरह देवसंस्कृति की विविध उपलब्धियाँ इसकी सर्वांगीणता को सिद्ध करती हैं।

बाह्य अनेकता (भ्रमता) से परे एकता (परम सत्य) की दृष्टि प्राचीनकाल से ही यहाँ की विशेषता रही है। यह इसका उदार दृष्टि एवं सहिष्णुता की परिचायक है। इसी आधार पर विभिन्न भाषा, जाति, प्रान्त, धर्म-सम्प्रदाय के लोग यहाँ पले, बढ़े व आज भी इसकी छत्रछाया में रह रहे हैं। यहाँ हिन्दु, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि विविध धर्म-सम्प्रदाय विद्यमान हैं, हिन्दु धर्म में ही शैव-शाक्त, वैष्णव, सौर गाणपत्य आदि विविध सम्प्रदाय विद्यमान हैं।

इसी विशेषता के कारण यवन, शक, हूण, कुषाण जैसी विविध विदेशी जातियाँ यहाँ आयीं। वे कुछ समय तक राजनीतिक विजय तो प्राप्त कीं, किन्तु साँस्कृतिक विजय नहीं प्राप्त कर सकीं और अन्ततः इसी की गोद में समा गयीं। इसी तरह बाहर से इस्लाम, यहूदी, पारसी, ईसाई आदि विभिन्न धर्म वाले लोग यहाँ समय-समय पर आये, फले–फुले और अन्ततः यहीं के होकर रह गये। रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं कि विदेशियों को आत्मसात् करने की समन्वयशील पाचनशक्ति वर्षों तक तीव्र रहीं, किन्तु हुणों के बाद कमजोर पड़ गई। इसी कारण यह इस्लाम को मिला न सकी, किन्तु स्वरूप अवश्य बदल डाला। प्रो. डॉडवेल के शब्दों में-’भारतीय संस्कृति महासमुद्र के समान है, जिसमें अनेक नदियाँ विलीन होती रही हैं।’

अध्यात्मिक प्रधान होने के कारण यहाँ की जीवन पद्धति सदैव तप-त्याग एवं आदर्श प्रधान रही है। ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, मागृधः कस्यस्विद् धनम्।’ अर्थात्- त्यागपूर्ण भोग और किसी की वस्तु का लालच नहीं, यह ऋषियों का सनातन संदेश रहा है। यहाँ का लोकजीवन तप-त्याग के इन आदर्शों से ओतप्रोत रहा है। इसके निमित्त वे बड़े से बड़ा त्याग-बलिदान करने के लिए तैयार रहे हैं। शिवि, दधीचि, हरिश्चन्द्र, दशरथ, कर्ण आदि इसी परम्परा के कुछ जाज्वल्यमान सितारे हैं। इस युग में राणा प्रताप से लेकर शिवाजी एवं भगतसिंह, आजाद, विस्मिल, सुभाषचन्द्र जैसे शहीद इसी परम्परा के महानायक हैं। अतीत के गौरवमय क्षणों में घर-घर में यह आदर्श प्रेम की अग्नि ज्वलन्त थी। देश का हर नागरिक तप-त्याग एवं आदर्शनिष्ठ जीवन की उच्चतम कसौटी पर कसने के लिए तैयार रहता था। इसी करण इन्हें देवताओं की संज्ञा दी जाती थी। 33 कोटि देवता भारतवर्ष की ये आदर्शनिष्ठ 33 करोड़ जनता ही थी।

वर्णाश्रम व्यवस्था ऋषियों द्वारा खोजी गयी देवसंस्कृति की एक अन्य मौलिक विशेषता है जो पूर्णतया मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। वर्ण में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र आते हैं। ये क्रमशः मनुष्य की ज्ञान, बल, धन एवं श्रम-शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्राह्मण स्वाध्याय एवं तप प्रधान जीवन जीते हुए लोकशिक्षण एवं धर्मकार्यों का सम्पादन करता था। क्षत्रिय अपनी शक्ति शौर्य का सुनियोजन करते हुए देश की रक्षा एवं समाज व्यवस्था को सम्भालता था। वैश्य व्यापार एवं कृषि कार्यों के द्वारा समाज के सुविधा-साधनों की व्यवस्था जुटाता था। शुद्र अपने श्रम द्वारा तीनों वर्णों की सेवा करते हुए समाज की आवश्यकताओं को पूरी करता था। इस तरह वर्ण विभाजन पूरी तरह गुण-कर्म के आधार पर कार्य विभाजन का सिद्धान्त था, जिससे की समाज का विकास सुव्यवस्थित एवं स्थिर रूप से हो सके। इनमें कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं था। हाँ, तप-त्याग एवं ज्ञान की प्रधानता के कारण ब्राह्मण वर्ग को सर्वोच्च स्थान दिया जाता था।

इसी तरह आश्रम व्यवस्था जीवन का मनोवैज्ञानिक विभाजन था, जिसको अपनाता हुआ मनुष्य अपना शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास करता हुआ पूर्ण विकास के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सके। ब्रह्मचर्य आश्रम में शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास के साथ चरित्र गठन का कार्य सम्पन्न होता था, जो प्रमुखतया ऋषियों द्वारा संचालित गुरुकुलों में सम्पन्न होता था। इसके बाद गृहस्थ आश्रम में धर्मपूर्वक अर्थ एवं काम का अर्जन एवं उपभोग करता हुआ पारिवारिक दायित्त्वों का निर्वाह करता था। इसमें प्रौढ़ता एवं गृहस्थ के दायित्वों के हल्का होने के साथ वह वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। तप और स्वाध्याय प्रधान जीवन जीते हुए लोकसेवा में प्रवृत्त होता था। जीवन के अंतिम चरणों में मानसिक परिपक्वता के अनुरूप संन्यास आश्रम में प्रवेश करता था और पूर्णतया आत्मचिंतन और भगवद् भजन में अपना समय नियोजित करता हुआ मोक्ष का अधिकारी बनता था।

कर्मफल सिद्धान्त देवसंस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। इसके अनुसार कर्म का फल अवश्य मिलता है। अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे का बुरा सुनिश्चित है। जिसे हम भाग्य कहते हैं वह और कुछ नहीं, हमारे पिछले कर्मों का ही फल होता है। इस तरह हम अपने वर्तमान कर्मों को सुधारकर अपने मनवाँछित भाग्य का निर्माण कर सकते हैं। अतः कर्मफल सिद्धान्त हमें पुरुषार्थी बनाता है और साथ ही उन्हें अच्छे कर्मों की प्रेरणा देता है। कर्मफल इस जन्म तक नहीं जन्म-जन्मान्तरों तक जुड़ा हुआ है। इस तरह वर्तमान कष्टों का फल पिछले जन्मों के कर्मों को मानने से सहनशीलता व संतोष का भाव पैदा होता है। और वर्तमान कर्मों को सुधारकर हम भावी जन्म को सुधार सकते हैं। अतः कर्मफल एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त सहनशीलता, संतोष, सदाचार एवं कर्मठ कर्त्तव्यनिष्ठ का ठोस आधार सिद्ध होता है।

नारी सम्मान यहाँ की एक मौलिक विशेषता है। देवसंस्कृति में नारी को उच्चतम स्थान दिया गया है। परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में -’यहाँ देवत्व के प्रतीकों में पहला स्थान नारी को दिया गया है और दूसरा नर को। लक्ष्मी-नारायण, उमा-महेश, सीता-राम, राधा-कृष्ण आदि इसी के द्योतक हैं। वैदिक काल में नारी को अत्यन्त प्रतिष्ठित एवं उच्च स्थान प्राप्त था। उसे गृहिणी, अर्धांगिनी, गृहलक्ष्मी जैसे अलंकारों से संबोधित किया गया। उसके बिना कोई भी धर्म कार्य अधूरा माना जाता था। जीवन के हर क्षेत्र में उसका वर्चस्व दिखाई देता है। ऋषियों की तरह महिलायें भी मंत्रदृष्टा ऋषिकायें हुई हैं, जिन्होंने मंत्रों की खोज की। लोपामुद्रा, विश्ववारा, इला, शची, इन्द्राणी, मैत्रेयी आदि इसी स्तर के कुछ नाम है। इसी तरह रामायण-महाभारत काल में सीता, सावित्री, कौशल्या, सुमित्रा, अरुन्धती, कुन्ती, मन्दोदरी, द्रौपदी आदि तथा वर्तमान युग में अहिल्याबाई,जीजाबाई, लक्ष्मीबाई, शारदा माँ, श्री माँ, माता भगवती देवी आदि महिलायें भारतीय नारी के सनातन गौरव एवं आदर्श का बखान करती हैं।

‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ अर्थात् सब प्राणियों में अपनी आत्मा के दर्शन या सबको अपने समान मानना, हमारी संस्कृति की मौलिक विशेषता है। इसी आधार पर मनुष्येत्तर प्राणियों, पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं, वनस्पति यहाँ तक कि जड़ पदार्थों में भी आत्मीय भाव का आरोपण होता रहा है। इसी आधार पर जड़ पृथ्वी को माँ की तरह पूजनीय माना है। पर्वत, नदियों, वृक्ष यहाँ पूजनीय रहे हैं। पशु-पक्षियों में तक कल्याण की भावना रही है। इसी आधार पर राष्ट्र को, जन्मभूमि को माँ के रूप में पूजनीय माना है। सब भूतों में आत्मा के दर्शन और आत्मविस्तार की प्रक्रिया यहाँ देश-राष्ट्र की सीमा से ऊपर विश्व कल्याण तक जाती है। जहाँ ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः....’ के उद्घोष के साथ हम सबके सुख, निरोगिता एवं मंगल की शुभकामना करते हैं। यही भाव क्रमशः विकसित होते हुए ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की धारणा को जीवन्त करता है, जहाँ हम पूरी मानव जाति को अपना परिवार मान बैठते हैं। इसी विशेषता के कारण स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में-’जहाँ अन्य राष्ट्रों एवं धर्मों ने अपना प्रचार-प्रसार, शस्त्रबल, धनबल एवं कूटनीति के बल पर आधिपत्य की भावना से किया, वहीं हमारा प्रयास सदैव अधिकार की बजाय प्यार की भाषा में हुआ है, जिसके आगे शान्ति का संदेश था तो पीछे आशीर्वाद का भाव’।

संस्कृति संकट के वर्तमान दौर में देवसंस्कृति के सार्वभौम, प्रगतिशील एवं लोकोपयोगी निर्धारण मानव मात्र को आशा की किरण के रूप में आभासित हो रहे हैं। इन्हीं मौलिक विशेषताओं के आधार पर देवसंस्कृति पुनः विश्वसंस्कृति बनने जा रही है। ऐसे महत्त्वपूर्ण क्षणों में इसकी सन्तानों का परम पावन कर्त्तव्य बनता है कि देवसंस्कृति के इन आदर्शों को गढ़ने में कोई कसर न छोड़ें, जिससे कि ऋषि संस्कृति का प्रचार-प्रसार मात्र शब्दों एवं बाह्याडंबर तक सीमित न रहकर व्यक्तित्व की समर्थ भाषा द्वारा समूचे विश्व के समक्ष रहे।

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