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Magazine - Year 2003 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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हृदय रोग की यज्ञोपचार प्रक्रिया

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शरीर में प्रधान व सर्वश्रेष्ठ अंग हृदय को माना गया है। आयुर्वेद ग्रंथों में इसकी गणना शरीर के सबसे प्रमुख मर्म स्थान के रूप में की गई है। यों तो मानवी काया में कुल एक सौ सात मर्मस्थान हैं, जिसका वर्णन करते हुए चरकसंहिता चि. 26/3−4 में कहा गया है−

सप्तोत्तंर मर्मशतं यदुत्तं शरीरसंख्यामधिकृत्य तेभ्यः। मर्माणि बस्तिं हृदयं शिरश्च प्रधानभूतानि वदन्ति तज्ज्ञा॥

प्राणाशयान्तान् परिपीडयन्ति वातादयोऽसूनपि पीडयन्ति। तत्संश्रितानामनुपालनार्थं महागदानाँ शृणु सौम्य रक्षाम्॥

शरीर में एक सौ सात मर्मस्थान हैं, जिनमें तीन प्रमुख हैं—वस्ति, हृदय एवं शिर और उनमें भी हृदय सबसे प्रमुख है। हृदय जब तक लपडप लपडप करता हुआ धड़कता रहता है, तभी तक जीवन माना जाता है। जैसे ही धड़कन बंद हुई कि व्यक्ति को मृतक घोषित कर दिया जाता है। इसीलिए हृदय को चेतना का केंद्र माना गया है और कहा गया है—

षडंगमंग विज्ञानमिन्द्रियार्ण्यथ पञ्चकम्। आत्मा च सगुणेश्चेतश्चिन्त्यं च हृदि संश्रितम्॥

छहों अंगों से युक्त शरीर, विज्ञान अर्थात् बुद्धि, इंद्रियाँ, इंद्रियों के पाँचों विषय, सगुण आत्मा, मन और मन के विषय−ये सभी हृदय के आश्रित हैं। हृदय ही रस−रक्त एवं ओज का आश्रयस्थल है। अतः बुद्धिमान मनुष्य को उन सभी कारणों से अपने हृदय की रक्षा करनी चाहिए, जो हृदय रोग को जन्म देते हैं। विशेषकर मन को दुःखी एवं बोझिल, तनावयुक्त बनाने वाले उन सभी कारणों का, आचरण एवं व्यवहार का परित्याग कर देना चाहिए और ऐसे आहार−विहार का सेवन करना चाहिए, जो हृदय के लिए लाभकारी हों तथा ओज की रक्षा एवं वृद्धि करने वाले हों।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान हृदय को रक्त −परिवहन संस्थान का प्रमुख केंद्र मानता है। यह हृदय सहित शरीर के समस्त अंग अवयवों को छोटी−बड़ी रक्त वाही धमनियों के द्वारा पोषक तत्त्वों से भरपूर ऑक्सीजन युक्त रक्त की आपूर्ति निरंतर करता रहता है और उन अंगों से छोटी−बड़ी रक्त शिराओं द्वारा एकत्रित किए गए अशुद्ध रक्त फेफड़ों में भेजकर शुद्ध करता और दुबारा परिसंचरण योग्य बनाता रहता है। यह प्रक्रिया सतत अविराम रूप से चलती रहती है। किन्हीं कारणों से जब हृदय एवं उससे जुड़े हुए अंग−अवयवों, रक्त नलिकाओं या उनकी क्रियाओं में विकार आ जाता है या अवरोध उत्पन्न हो जाता है, तब कहा जाता है कि हृदय रोग हो गया है। इनमें क्रिया संबंधी (फन्क्शनल डिसआर्डर विकारों का शमन उपचार से शीघ्र हो जाता है, जबकि अंग संबंधी विकारों (आर्गेनिक डिसआर्डर) को ठीक होने में समय लगता है और कभी−कभी वे ठीक न होकर प्राणघातक सिद्ध होते हैं।

सुश्रुत संहिता उत्तरतंत्र 43 में हृदय रोग को परिभाषित करते हुए कहा गया है—

दूषयित्वा रसं दोषा विगुणा हृदयं गताः। कुर्वन्ति हृदये बाधाँ हृद्रोगं तं प्रचक्षते॥

जब प्रकुपित वात, पित्त, कफ आदि दोष रस रक्त को दूषित कर हृदय में पहुँचकर हृदय के कार्य में व्यवधान उत्पन्न करते हैं तो उसे हृदय रोग कहते हैं। जिन कारणों से यह रोग उत्पन्न होता है, उसका उल्लेख करते हुए चरक संहिता में कहा गया है−

अत्युष्ण−गुर्वन्न−कषाय−तिक्त श्रमाभिघाताध्यसनप्रसंगैः। सञ्चिन्तन्नैर्वेगाविधारणैश्च हृदामयः पञ्चविधः प्रदिष्टः॥

अत्यधिक उष्ण गरम प्रकृति वाले पदार्थ, अत्यंत भारी पदार्थ, कषाय रसप्रधान एवं तिक्त रसप्रधान भोज्यपदार्थों का निरंतर सेवन करने से, हृदयप्रदेश में आघात लगने से, अध्यसन अर्थात् अजीर्ण रहने पर भी भोजन करने से, अधिक चिंता करने या तनावग्रस्त रहने, भयभीत रहने से, मलमूत्र आदि वेगों को रोकने से, पहले से उत्पन्न रोगों की चिकित्सा न करने आदि कारणों से पाँच प्रकार के हृदय रोग उत्पन्न होते हैं। इस तरह हृदय रोग के मूल में शारीरिक, मानसिक एवं आगंतुक कारण माने जाते हैं।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार हृदय रोग का सबसे प्रमुख कारण रक्त वाही धमनियों में कोलेस्ट्रॉल, वसा एवं कैल्शियम के जमा होने से उनका कठोर होना और सिकुड़ना है। इसके कारण हृदय की माँसपेशियों को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन और रक्त नहीं मिल पाता, परिणामस्वरूप हृदय सही ढंग से काम नहीं कर पाता और उसकी कोशिकाएँ मरने लगती हैं। अधिक तनाव, अत्यधिक निम्न या उच्च रक्त चाप, डायबिटीज, उच्च कोलेस्ट्रॉल, धूम्रपान, मद्यपान आदि हृदय रोग उत्पन्न करने वाले प्रमुख कारण हैं। अधिक मात्रा में लिया गया कोलेस्ट्रॉल एवं उच्च वसायुक्त आहार, हैमबर्गर आदि जंक फूड, कोल्ड ड्रिंक, चाय व कॉफी आदि का अत्यधिक सेवन भी हृदय रोग उत्पन्न करते हैं। मोटापा एवं शारीरिक वजन की अभिवृद्धि हृदय रोग बढ़ाने में महती भूमिका निभाते हैं।

आयुर्वेद शास्त्रों में पाँच प्रकार के हृदय रोग बताए गए हैं (1) वातज हृदय रोग, (2) पित्तज हृदय रोग, (3) कफज हृदय रोग, (4) त्रिदोषज हृदय रोग एवं (5) कृमिज हृदय रोग।

वातज हृदय रोग उत्पन्न होने के कारणों एवं लक्षणों का उल्लेख चरक संहिता में करते हुए कहा गया है−

शोकोपवासव्यायामशुष्करुक्षाल्पभोजनैः। वायुराविश्च हृदयं जनयत्युत्तमाँ रुजम्॥ वेपथुर्वेष्टनं स्तम्भः प्रमोहः शून्यता द्रवः। हृदि वातातुरे रुपं जीर्णे चार्त्यथवेदना॥

खान−पान में असंयम यथा रुक्ष, शुष्क और अत्यल्प मात्रा में भोजन करना, अधिक उपवास करना, शोक करना, अधिक व्यायाम करना आदि कारणों से प्रकुपित वायु हृदय−प्रदेश में जाकर अधिक वेदनापूर्वक वातज हृदय रोग को उत्पन्न करती है। इस प्रकार के हृदय रोग में पीड़ा अधिक रहती है। हृदय की धड़कन का तेज हो जाना, हृदय गति में रुकावट होना, ऐंठन होना, शरीर का शून्य−सा मालूम होना, मूर्च्छित होना, भय लगना, हृदय में सुई चुभोने या चीरा लगाने जैसी पीड़ा होना आदि लक्षण इस रोग में प्रकट होते हैं।

पित्तज हृदय रोग के कारण एवं लक्षण इस तरह बताए गए हैं−

उष्णाम्लवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनैः। मद्यक्रोधातपश्चाशु हृदि पित्तं प्रकुप्यति॥

हृद्दाहस्तित्तता वक्रे क्लम पित्ताम्लकोद्गरः। तृष्णा मूर्च्छा भ्रमः स्वेदः पित्तहृद्रोगलक्षणम्॥

उष्ण, लवणरसप्रधान, क्षारीय एवं कटु रस वाले पदार्थों का सेवन करने से, अजीर्ण रहने पर भी भोजन करने से, अधिक शराब पीने से, अधिक क्रोध करने से, देर तक अधिक तेज धूप में रहने से हृदय में जाकर पित्त अधिक प्रकुपित हो जाता है और पित्तज हृदय रोग उत्पन्न करता है। हृदय में दाह होना, मुख में तिक्त ता एवं अम्लीय, खट्टा पानी आना, खट्टी डकार आना, खट्टा वमन होना, इंद्रियों में थकावट होना, तृष्णा, बेहोशी, चक्कर आना, पसीना होना, मुख का सूखना आदि लक्षण इस रोग में उत्पन्न होते हैं।

कफज हृदय रोग के कारण एवं लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं−

अत्यादानं गुरु स्निग्धमचिन्तनमचेष्टनम्। निद्रासुखं चाभ्यधिकं कफहृद्रोगलक्षणम्॥

हृदयं कफहृद्रोगे सुप्तं स्तिमितभारिकम्। तन्द्रारुचिपरीतस्य भवत्यश्मावतं यथा॥

अधिक मात्रा में भोजन करना, भारी और चिकने पदार्थों का अधिक सेवन करना, चिंतारहित होना, अकर्मण्य अर्थात् किसी प्रकार का परिश्रम न करना, ज्यादा−से−ज्यादा समय सोने में व्यतीत करना आदि कारणों से कफज हृदय रोग उत्पन्न होता है। इस रोग की चपेट में आने वाले को ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे उसका हृदय प्रसुप्त−सा हो गया है, सिकुड़ गया है या भीग गया है, हृदय के ऊपर बोझ रखा हुआ है अथवा हृदय किसी पत्थर से दब गया है। तंद्रा, भोजन में अरुचि आदि अन्यान्य लक्षण प्रकट होते हैं।

त्रिदोषज हृदय रोग− इसे सान्नपातिक हृदय रोग कहते हैं। इसके कारणों एवं लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा गया है− हेतुलक्षणसंसर्गादुच्यते सान्निपातिकः अर्थात् वात, पित्त एवं कफ के प्रकुपित होने से होने वाले हृदय रोगों के जो कारण एवं लक्षण कहे गए हैं, वे सब संयुक्त रूप से जहाँ इकट्ठे दिखाई पड़ें, समझना चाहिए कि सान्निपातिक हृदय रोग है। यह कष्टसाध्य माना गया है।

कृमिज हृदय रोग− यह त्रिदोषज हृदय रोग का उपचार न करने एवं खान−पान में असंयम बरतने, तिल, दूध, गुड़ आदि मीठे पदार्थों का अधिक सेवन करने से उत्पन्न विकार के कारण पैदा होता है। इसके कारण हृदयप्रदेश में एक ग्रंथि बन जाती है, जिसमें आयुर्वेद विशेषज्ञों के अनुसार कृमि उत्पन्न होते और संख्या में अभिवृद्धि करके हृदय को खोखला करने लगते हैं। इससे हृदयप्रदेश में सुई चुभाने या शस्त्र से काटने जैसी भयंकर पीड़ा होती है। यह रोग असाध्य माना जाता है।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान एलोपैथी के अनुसार हृदय रोग के कितने ही भेद−उपभेद हैं और वे सभी कष्टदायी हैं तथा इनमें से कितने ही ‘सडन डैथ’ असमय मृत्यु का कारण बनते हैं। इनमें से प्रमुख हैं−(1) इस्चीमिक हार्ट डिजीज या एंजाइना पेक्टोरिस अर्थात् हृद्शूल, (2) मायोकार्डियल इन्फार्क्शन या हार्ट अटैक अर्थात् दिल का दौरा, (3) हार्ट फेल्योर अर्थात् हृदयनिपात, (4) हाइपरटेंशन या उच्च रक्त चाप, (5) हाइपोटेंशन या निम्न रक्त चाप, (6) एथीरोस्कलेरोसिस या एथीरोमा, (7) एरीथीमिया अर्थात् हृदय की धड़कन में अनियमितता एवं हार्ट ब्लॉक, (8) रिह्यूमेटिक हार्ट डिजीज, (9) पेरीकोर्डाइटिस, (10) इंडोकोर्डाइटिस, (11) मायोकोर्डाइटिस, (12) वेनस थ्रोम्बोसिस, (13) टैकीकार्डिया (हृदय की गति 60 से कम), (15) एओर्टिक हार्ट डिजीज (हृदय की गति 125 से अधिक) आदि।

उपर्युक्त सभी प्रकार के हृदय रोग असंयम एवं असावधानी बरतने तथा समय पर चिकित्सा न करने से बढ़ते जाते हैं और अंततः जानलेवा सिद्ध होते हैं। इनसे बचने का सर्वोत्तम उपाय यही है कि आहार−विहार में संयम बरता जाए और

रोग के अनुरूप चिकित्सा अपनाई जाए। इसके लिए सबसे सरल एवं निरापद चिकित्सा है—यज्ञोपचार। इस प्रक्रिया को अपनाकर हृदय रोगों से छुटकारा पाया और स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन का लाभ उठाया जा सकता है।

हृदय रोग की विशेष हवन सामग्री

(सभी तरह के हृदय रोगों के लिए)

इसमें निम्नलिखित वनौषधियां बराबर मात्रा में मिलाई जाती हैं

अर्जुन छाल, (2) अपामार्ग, (3) पुष्कर मूल, (4) ब्राह्मी, (5) अगर, (6) तगर, (7) जटामाँसी, (8) शालपर्णी, (9) दारुहल्दी, (10) हरड़, (11) द्राक्ष (दाख), (12) तिलपुष्पी (डिजिटेलिस) के पत्ते, (13) सोंठ, (14) कुटकी, (15) मुँडी, (16) कूठ, (17) पुनर्नवा, (18) चित्रक, (19) मीठी बच, (20) नागबला (गंगेरन), (21) रास्ना, (22) बला (खिरैटी) की जड़।

उपर्युक्त सभी बाईस चीजों को संभाग में लेकर कूट−पीसकर जौकुट पाउडर बना लेना चाहिए। उसे एक डिब्बे में सुरक्षित रखकर उस पर ‘हृदय रोग की विशेष हवन सामग्री−क्र.−2’ का लेबल लगा देना चाहिए। हवन करते समय उसमें बराबर मात्रा में पहले से तैयार की गई ‘काँमन हवन सामग्री−क्र.−1’ को मिलाकर हवन करना चाहिए। इसमें अगर, तगर, देवदार, लाल चंदन, सफेद चंदन, जायफल, लौंग, गूगल, चिरायता एवं गिलोय बराबर मात्रा में मिली होती हैं। हवन के लिए समिधा आम या पलाश की सूखी हुई लकड़ी प्रयुक्त करनी चाहिए। हवन नित्य प्रातः 12 गायत्री मंत्र के अलावा 12 बार सूर्य गायत्री मंत्र अर्थात् ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नः सूर्यो प्रचोदयात् से करना चाहिए।

उपर्युक्त 22 चीजों से तैयार ‘हृदय रोग की विशेष हवन सामग्री क्र.−2’ के सम्मिश्रित जौकुट पाउडर की कुछ मात्रा को अधिक बारीक घोट−पीसकर कपड़छन चूर्ण तैयार कर लेना चाहिए और इसे एक अलग कार्क बंद शीशी में रख लेना चाहिए। इसमें से प्रतिदिन हवन के पश्चात सुबह एवं शाम को एक−एक चम्मच पाउडर दूध अथवा घी अथवा शक्कर के साथ पूर्ण स्वस्थ होने तक खिलाते रहना चाहिए। बाद में खाने वाले पाउडर में क्र.−12 तिलपुष्पी (डिजिटेलिस) के सूखे पत्र की मात्रा अन्यान्य औषधियों से आधी कर देनी चाहिए अर्थात् द्राक्ष या सोंठ यदि 10−10 ग्राम लिए गए हैं तो तिलपुष्पी के पत्ते 5 ग्राम ही लेने चाहिए।

मस्तिष्कीय तनाव से उत्पन्न होने वाले हाई बी. पी. अर्थात् उच्च रक्त चाप एवं एन्जाइना पेक्टोरिस या हृद्शूल में निम्नलिखित औषधियों से बने चूर्ण का सेवन रोगी को करना चाहिए−

अर्जुन, (2) पुनर्नवा, (3) जटामाँसी, (4) नागरमोथा, (5) मुलहठी, (6) हरड़, (7) कुटकी, (8) तेजपत्र, (9) कालमेघ, (10) सोंठ, (11) पुष्कर मूल, (12) कूठ, (13) शरपुँखा, (14) ब्राह्मी, (15) तिलपुष्पी, (16) सुरंजान एवं (17) सर्पगंधा।

इन सभी 17 चीजों को लेकर कूट−पीसकर कपड़छन पाउडर तैयार कर लेना चाहिए और रोज सुबह−शाम एक−एक चम्मच पाउडर दूध या घी अथवा शक्कर के साथ रोगी व्यक्ति को खिलाना चाहिए।

लो ब्लडप्रेशर अर्थात् निम्न रक्त चाप में निम्नलिखित चीजों से बने पाउडर को खिलाना चाहिए−

अश्वगंधा, (2) शतावर, (3) मुलहठी, (4) विधारा, (5) पिपलामूल−इन सभी पाँचों चीजों को संभाग लेकर कूट−पीस करके कपड़छन पाउडर बना लेना चाहिए। इसमें से सुबल एक चम्मच तथा शाम को एक चम्मच पाउडर शुद्ध घी एवं शक्कर के साथ खिलाना चाहिए। इसके साथ ही सुबह−शाम आधा−आधा ग्राम शुद्ध शिलाजीत थोड़े−से दूध में घोलकर पिलाना चाहिए एवं चौथाई रत्ती सुबह एवं चौथाई रत्ती शाम को घी में भुना हुआ शुद्ध कुचला उक्त पाउडर के साथ रोगी व्यक्ति को सेवन कराना चाहिए। इससे निम्न रक्त चाप निवारण में महत्त्वपूर्ण सफलता मिलती है। यज्ञोपचार की हवन−प्रक्रिया तीनों में एक समान रहेगी।

हृदय को स्वस्थ रखने के लिए अपने दैनिक आहार में विटामिन ‘बी’, विटामिन ‘सी’ एवं ‘ई’ युक्त खाद्य पदार्थों की पर्याप्त मात्रा सम्मिलित रखनी चाहिए। इनकी कमी से रक्त वाही नलिकाएँ कठोर पड़ती हैं, कोलेस्ट्रॉल जमा होने लगता है, रक्त का थक्का जमने लगता है और हृदयाघात जैसी व्यथा का सामना करना पड़ता है। इससे बचने के लिए यीस्ट, अंकुरित गेहूँ, अंकुरित दालें यथा सोयाबीन, मसूर, मूँग आदि कच्चा केला, भुनी हुई मूँगफली, हरे पत्ते वाली सब्जियाँ, बंदगोभी, पत्तागोभी, लौकी, तोरई, कच्चा पपीता, गाजर, टिंडा, करेला, परवल, पालक, हरी मेथी, सहजन की फली, सेमल के कच्चे फूल, शीघ्र पचने वाले फल, सेब, पपीता, आँवला, अमरूद, नींबू, नारंगी आदि। फलों का रस, मक्का, चोकर युक्त आटे की रोटी आदि लेना चाहिए। गाय का दूध, दूध में अल्प मात्रा में कभी−कभी ईसबगोल आदि का प्रयोग उपयोगी है। दूध में अर्जुन की छाल पकाकर पीना हृदयरोग में अति लाभप्रद है। हृदय रोग में पानी खूब पीना चाहिए, इससे रक्त की साँद्रता कम होती है और खून का थक्का जमने की संभावना नहीं रहती। धूम्रपान, मद्यपान, कोल्ड−सॉफ्ट ड्रिंक, चाय, कॉफी, वेजिटेबल घी, मक्खन, अंडे, चर्बीयुक्त आहार, माँसाहार आदि हृदय रोग उत्पन्न करने वाले पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए।

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