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Magazine - Year 2003 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - अभिभावक हैं तो उत्तरदायित्व भी निभाइए

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( परिवार निर्माण सत्र सितंबर 1980 में शाँतिकुँज में दिया गया उद्बोधन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ−साथ,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो! संतान उत्पन्न करने के साथ साथ अभिभावकों के ऊपर उनके निर्माण की भी जिम्मेदारी स्वभावतः चली आती है। संतान अपने गुण, कर्म, स्वभाव से कैसी हो, शरीर से कैसी हो, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जन्मदाता माता और पिता की मनःस्थिति कैसी है? माता अर्थात् जमीन। जमीन जिस तरह की होगी, पौधों का उसी तरह से बढ़ना और फलना−फूलना संभव होगा। पिता अर्थात् बीज। बीज जिस किस्म का होगा, उसी किस्म का पौधा पैदा होगा। जमीन में गेहूँ का बीज बोया जाएगा तो गेहूँ का पौधा पैदा होगा। मक्का बोई जाएगी तो मक्का पैदा होगी। फूल बोया जाएगा तो फूल पैदा होगा। संतान कैसी होगी और क्या होगी? इसका नमूना देखना हो तो पिता को देखना चाहिए कि पिता के गुण, कर्म और स्वभाव, उसका जीवन लक्ष्य क्या है?

मित्रो! जमीन के ऊपर ही पौधों का विकास टिका हुआ है। यदि बीज अच्छा हो और जमीन खराब हो तो ऐसी जमीन में, जहाँ खाद न हो, पानी न हो तो फिर उस निकम्मी जमीन में अच्छा पौधा पैदा नहीं हो सकता। अच्छी संतान उत्पन्न करने के लिए माता−पिता को पहले से ही तैयारी करनी चाहिए। अच्छी संतान की जिनको इच्छा है, उनको मात्र यही विचार नहीं करना चाहिए कि बच्चों को हम पढ़ाएँगे कहाँ? बच्चों को हम पढ़ाएँगे क्या? बच्चों के लिए हम करेंगे क्या? वरन् यह भी सोचना चाहिए कि बच्चों को हम क्या और कैसे संस्कार देंगे? बच्चों को जो करना है, जैसा भी उनको बनना है, वह सारी तैयारियाँ बालक पेट में नौ महीने के भीतर पचास फीसदी तैयारी पाँच वर्ष की उम्र के भीतर हो जाती है। सबसे संवेदनशील अवस्था पाँच वर्ष के पहले तक समाप्त हो जाती है। माता के पेट में जिस दिन से बच्चा आता है, उसी दिन से सीखना शुरू कर देता है और पाँच वर्ष का होते होते जब तक उसको बोलना आता है, समझना आता है, उस वक्त तक उसके संस्कारों के पड़ने वाली बात पूरी हो जाती है। बाकी तो सारे जीवनभर स्कूल कॉलेज में जाकर और जहाँ कहीं भी जाता है, अनुभव, ज्ञान इकट्ठा करके वह अपना भौतिक ज्ञान इकट्ठा करता है।

मित्रो! स्वभाव का निर्माण, चरित्र का निर्माण, क्रियाओं का निर्माण उस समय होता है, जबकि व्यक्ति का बाह्य मन जाग्रत नहीं होता और अचेतन मन पूर्णतया जाग्रत होता है। अचेतन मन की जाग्रत अवस्था पेट में आने से लेकर पाँच वर्ष तक की है और चेतन मन? चेतन मन का विकास पाँच वर्ष से लेकर शुरू होता है और वह जीवन के अंतिम समय तक चला जाता है।

अचेतन मन को ढालिए

मनुष्य का गुण, कर्म और स्वभाव, उसका व्यक्ति त्व और उसका लक्ष्य, ये सारे−के−सारे मनुष्य के अचेतन मन से संबंधित हैं और चेतन मन में व्यवहारकुशलता, शिक्षा, बाह्यज्ञान, कला−कौशल आदि बातें बाह्य मस्तिष्क से संबंधित हैं। मनुष्य का व्यक्ति त्व उसके अचेतन मन से जुड़ा है। चेतन मन के साथ उसकी जानकारियों एवं क्रियाकलापों का ही संबंध है। अचेतन मन जिन दिनों विकसित हो रहा होता है, उस समय शिक्षण करने के लिए कोई और उपाय नहीं है। बच्चा स्वयं उसका शिक्षण नहीं कर सकता। उस समय माता−पिता का कर्त्तव्य है कि वे अपने बालकों को जैसा भी बनाना हो, उसका अचेतन मन जैसा भी ढालना हो, उसका भविष्य जैसा भी बनाना हो, उसके अनुरूप स्वयं की अपने आप में तैयारी करना सीखें।

मित्रो! बच्चा पेट में आए, उससे पहले ही माता पिता को यह प्रयत्न करना चाहिए कि स्वयं देखें कि उनका स्वयं का स्वभाव कैसा है? उनके कर्म कैसे हैं? उनके गुण कैसे हैं? उनके विचार कैसे हैं? उनके भाव कैसे हैं? इन सब बातों की तैयारी बच्चे का निर्माण करने से पहले ही करनी चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण को एक अच्छी संतान पैदा करनी थी। रुक्मिणी ने कहा कि हमको एक अच्छी संतान की जरूरत है तो उन्होंने कहा कि इसके लिए पहले अपने आपको तैयार करना चाहिए। कैसे तैयार करना चाहिए? इसके लिए रुक्मणी और श्रीकृष्ण दोनों के दोनों ही उस स्थान पर हिमालय में चले गए जिसको आजकल बदरीनारायण कहते हैं। रुक्मणी और श्रीकृष्ण बेर के फल खाकर हिमालय के उस पर्वत पर घोर तपस्या करने लगे। उसके बाद जब वे लौटकर आए तो उन्होंने एक संतान पैदा की। उसका नाम था −प्रद्युम्न। मित्रो! प्रद्युम्न शक्ल से, सूरत से, गुण से, कर्म से, स्वभाव से ठीक उसी तरह का था, जैसे कि श्रीकृष्ण भगवान थे। कई बार तो पहचानने वालों को भ्रम हो जाता था कि इनमें से श्रीकृष्ण कौन है और प्रद्युम्न कौन है? इसका कारण सिर्फ यह था कि उन लोगों ने बच्चा पैदा करने से पूर्व अपनी तैयारी की थी।

तैयारी माता−पिता की होनी चाहिए

बच्चे को किस तरीके से बनाया जाए और क्या किया जाए? इसके लिए अपनी मनोभूमि और अपने क्रियाकलाप, अपने स्वभाव, अपने आचरण माता पिता को बच्चे के जन्म से पहले ही तैयार करने चाहिए, ताकि जिस रज और वीर्य के द्वारा बच्चा बनने वाला है, उसके पेट में आने से पहले उस रज और वीर्य में सात्विकता का समावेश, अच्छाइयों का समावेश, श्रेष्ठता का समावेश होकर रहे। इसके बाद में बच्चे की अच्छी वाली पाठशाला आरंभ होती है, जिसके मुकाबले में पब्लिक स्कूलों की कोई कीमत नहीं, कॉलेजों की कोई कीमत नहीं है। ट्यूटरों की कोई कीमत नहीं है। वह सारे का सारा शिक्षण और उसके व्यक्ति त्व के विकास का शिक्षण बच्चे के पेट में आने से लेकर जब तक वह बाहर आता है, बहुत कुछ पूरा हो चुका होता है। उस समय माता की मनोभूमि जैसी भी कुछ होगी, उसके हिसाब से वही स्वभाव और वही संस्कार बच्चे पर पड़ते चले जाएँगे।

मित्रो! उन दिनों गर्भवती की स्थिति नाजुक होती है, इसलिए उस समय उसको कोई मानसिक आघात नहीं लगना चाहिए और कोई प्रसंग ऐसा नहीं आना चाहिए जिससे उसके अंदर क्षोभ उत्पन्न हो, क्रोध उत्पन्न हो, ईर्ष्या और डाह के भाव उत्पन्न हों अथवा उसको दुष्कर्म करने का मौका मिले। उस समय उसकी प्रसन्नता को अक्षुण्ण रखा जाना चाहिए। घर के लोगों का, पति का काम है, परिवार के लोगों का काम है कि गर्भवती का स्वभाव और संस्कार बढ़िया बनाकर रखें। उसको हँसी−खुशी के वातावरण में रखा जाए और इस तरह की परिस्थितियों से उसको दूर रखा जाए जिसमें उसको भय पैदा होता हो, चिंता पैदा होती हो, रोष पैदा होता हो, क्लेश पैदा होता हो। इस तरह की मनोभूमि यदि माता की रखी गई है तो निस्संदेह बालक का व्यक्ति त्व निखरता हुआ चला जाएगा।

महाभारत में एक कथा आती है कि अभिमन्यु जब अपनी माँ के पेट में था, तब उसको कुछ शिक्षा की जरूरत थी। उसके पिता अर्जुन ने चक्रव्यूह−भेदन की क्रिया अपनी धर्मपत्नी को सुनानी शुरू की और वह बालक, जो पेट के अंदर बैठा हुआ था, महाभारत की कथा के अनुसार वह सारी−की−सारी विधियों और चक्रव्यूह भेदने का विज्ञान सातवें सोपान तक सीखता हुआ चला गया। भेदन का अंतिम क्रम वह सुन नहीं पाया। जब वह पैदा हुआ, बड़ा हुआ तो उसे वह मौका भी नहीं मिला था कि यदि चक्रव्यूह की लड़ाई लड़नी पड़े तो कैसे लड़ना चाहिए, लेकिन जब चक्रव्यूह भेदने का समय आया तो उसने अपने पिता से माता के पेट में रहते हुए जो ज्ञान सीखा था, वह सारा−का−सारा ज्ञान अनायास ही जाग्रत हो गया और अनायास ही वह काम करने लगा जो बड़े बड़े शूरवीरों को नहीं आता था। चक्रव्यूह के छह चक्र उसने भेद डाले। सातवाँ चक्र किसी तरीके से छल−कपट के आड़े आ गया तो बेचारा मारा भी गया, लेकिन अभिमन्यु का शिक्षण माता−पिता ने उस समय किया था, जब वह माता के पेट में था।

अनिवार्य है संयम

साथियों! माता को संयम और ब्रह्मचर्य के वातावरण में रखा जाना चाहिए, अगर बच्चे को कामुक नहीं बनाना है तब। कई माता−पिता भूल जाते हैं और यह समझते हैं कि कोई बालक तो है नहीं, हम अकेले हैं। अकेले समय में तरह−तरह के अश्लील क्रियाकलाप आपस में करते रहते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि लोग वे बातें, जो गर्भवती के साथ नहीं की जानी चाहिए, करने लगते हैं। छोटा बच्चा, जो पेट में बैठा हुआ है, उन सारी प्रक्रियाओं को, सारी संवेदनाओं को ग्रहण करता हुआ चला जाता है और जब पैदा होता हैं तो उसमें कामुकता के सारे संस्कार पाए जाते हैं। कई बार ऐसा देखा गया है कि बहुत छोटे बच्चे, जिनको ठीक तरह से बोलना भी नहीं आता और दुनिया की जानकारी भी नहीं है, उन्हें काम क्रिया की ओर अग्रसर होते पाया गया है। इसका कारण सिर्फ यही है कि वे सारे−के−सारे क्रियाकलाप उसने माँ−बाप के बीच होते हुए अश्लील व्यवहार के रूप में उस समय सीख लिए, जब वह पेट में था।

वस्तुतः जब बच्चा पेट में होता है तो परिवार का सारा वातावरण ही उसका शिक्षण करता है। स्कूल में अध्यापक और प्रोफेसर कितने ही होते हैं, कोई कुछ पढ़ाता है, कोई कुछ पढ़ाता है, लेकिन असली−वास्तविक प्रोफेसर वे लोग होते हैं जिनके संपर्क में गर्भवती को रहना पड़ता है। घर के लोग जिस स्वभाव के होते हैं, जिस तरह के होते हैं, जिस आचरण के होते हैं, वही वास्तव में बच्चे के प्रोफेसर हैं। अच्छे बालक का निर्माण करने के लिए भगवान राम ने यह आवश्यक समझा कि अपनी धर्मपत्नी सीता जी को वहाँ भेज दिया जाए, जहाँ संस्कारवान वातावरण हो। लव−कुश जब पेट में थे, तब महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में उन्होंने सीता जी को भेज दिया, जहाँ साधना का वातावरण था, तपश्चर्या का वातावरण था, जहाँ ज्ञान का वातावरण था, जहाँ भक्ति का वातावरण था। उस सुसंस्कारित वातावरण में रहकर न केवल सीता का दुःख और शोक समाप्त हो गया, वरन् जो पेट में रहने वाले बालक थे, उनका भी न जाने क्या−से−क्या हो गया।

बालकों का शिक्षण, बालकों का निर्माण वास्तव में ये सारी−की−सारी जिम्मेदारियाँ माता−पिता की हैं। जब तक बालक उत्पन्न नहीं हुआ है, उससे पहले पोषक आहार के रूप में वे चीजें माता को देनी चाहिए, जो सात्विक आहार के रूप में कही जा सकती हैं। माता के स्वास्थ्य की रक्षा करने का प्रयत्न उस समय करना चाहिए, जब वह गर्भवती है। भविष्य में बालक के स्वास्थ्य की गारंटी इस बात के ऊपर टिकी हुई है कि गर्भावस्था में माता ने क्या खाया? माता ने क्या पहना? किस वातावरण में रही और उसकी मनःस्थिति किस तरह की रही? इस तरह की व्यवस्था बनाना पिता का काम है।

जिम्मेदारी पिता की भी

मित्रो! बच्चे का निर्माण करना केवल माता का काम नहीं है, पिता की भी जिम्मेदारी है। परिस्थितियाँ माता किस तरह से बना सकती है? अगर घर में क्षोभ का वातावरण है तो उसका सुधार करना, उसकी व्यवस्था को बनाना पिता का काम है। अगर गर्भवती को उचित आहार प्राप्त नहीं होता है तो उसकी जिम्मेदारी उसके पिता की है। बेचारी गर्भवती स्त्री किस तरीके से क्या−क्या कर सकती है? घर के लोगों का स्वभाव अच्छा नहीं है, दूषित है, कलुषित है तो उस स्त्री को कहाँ रखा जाए या घरवालों को क्या कहा जाए? स्थिति को कैसे सुधारा जाए, यह सोचना गर्भवती का काम नहीं है, बल्कि उसके पिता का काम है। बच्चे का निर्माण यहाँ से प्रारंभ होता है। बच्चे के बारे में ये बातें हर किसी को समझनी चाहिए।

कहा जाता है कि पिंडदान देने वाला न हो तो पिता नरक को चला जाता है। कर्मकाँड में जहाँ तक पिंडदान का संबंध है, उसके बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता, लेकिन जहाँ तक बालक के क्रियाकलाप और पिंड का संबंध है, जहाँ तक उसके शरीररूपी पिंड का संबंध है, जहाँ तक उसके मनरूपी पिंड का संबंध है। अगर बालक का पिंड अर्थात् शरीर, बालक का व्यक्ति त्व पिंड सही है, ठीक है, अच्छा है तो पिता को स्वर्ग में जाना ही पड़ेगा। क्यों? क्योंकि समाज की सेवा के लिए उसने अपना एक प्रतिनिधि प्रस्तुत किया। उसने एक ऐसा सुयोग्य प्रतिनिधि प्रस्तुत किया जो समाज की सेवा के लिए और दुनिया में श्रेष्ठ काम करने के लिए, दुनिया में शाँति पैदा करने के लिए अपना जीवन लगा सकने में समर्थ हुआ। क्या यह समाज की सेवा नहीं है? हाँ समाज की सेवा है, अगर अच्छा व्यक्ति अपने बालक के रूप में, अपनी संतान के रूप में अपना प्रतिनिधि बना करके समाज को दे। यह कार्य पिता का है, साथ में माता का भी।

इस तरीके से अगर किसी ने सुयोग्य संतान पैदा की है तो वह निस्संदेह स्वर्ग को जाएगा। उसने समाज की बड़ी सेवा की, एक श्रेष्ठ व्यक्ति समाज को दिया, लेकिन कोई व्यक्ति यदि काम−वासना से पीड़ित होकर और बच्चों का मोह एवं व्यामोह, जो कि आजकल समाज में फैला हुआ है, उसी तरीके से बिना सोचे−विचारे बच्चे पैदा करने लगा और उसको संस्कारवान नहीं बना सका। पत्नी जिस समय गर्भवती थी, उसके लिए सुयोग्य व्यवस्था नहीं बना सका। अपनी मनोभूमि को ठीक नहीं कर सका, परिवार का वातावरण श्रेष्ठ नहीं बना सका। बच्चे का विकास करने के लिए, उसके विनोद के लिए जिन परिस्थितियों और वातावरण की आवश्यकता थी, वह नहीं दे सका। फलस्वरूप यदि बालक निकम्मा और दुष्ट हो गया, नीच और कुमार्गगामी हो गया, समाज में अनाचार पैदा करने वाला हो गया तो उस अनाचार पैदा करने वाले बालक को जिसने जन्म दिया है, ऐसा बनाने का दोष जिसके ऊपर है, उसको नरक में जाना चाहिए, क्योंकि समाज में उसने एक ऐसी विकृति पैदा की है, जो अगर वह न करता तो शायद दुनिया में ज्यादा शाँति बनी रहती और सुव्यवस्था बनी रहती। इस मायने में बच्चे के द्वारा और संतान के द्वारा पिता नरक में जाता हो तो प्रकाराँतर से यह बात आलंकारिक रूप से सही मानी जा सकती है, क्योंकि उसके जिम्मेदार माता और पिता हैं।

दायित्व दोनों का बराबर

मित्रो! न केवल पिता के बारे में यह पिंडदान की बात कही जानी चाहिए, वरन् माता के बारे में भी कही जानी चाहिए। माता को भी स्वर्ग और नरक इसी रूप में मिलता है कि उसने किस तरह की संतान उत्पन्न की और वह समाज के लिए उपयोगी साबित हुई या अनुपयोगी। किसी की अनुपयोगी संतान है तो समझना चाहिए कि इसके कुपात्र माता−पिता अपने बच्चे के निर्माण करने की जिम्मेदारी से परिचित नहीं थे और जो उन्हें करना चाहिए था, वह नहीं कर सके। काम−वासना को पाप इस रूप में माना गया है कि यदि उसके परिणामस्वरूप कुयोग्य, बीमार और अयोग्य संतानें उत्पन्न हों और वे जमीन पर भार बनकर रहें तो काम−वासना वस्तुतः नरक में ले जाने वाली है। परिष्कृत कामबीज स्वर्ग में ले जाने वाला भी है, यदि उसके फलस्वरूप इस तरह की संतानें हों, जैसे कि महात्मा गाँधी थे, विनोबा भावे जैसे थे, विवेकानंद जैसे थे, शंकराचार्य जैसे थे। ऐसे समर्थ व्यक्ति को जिन माता−पिता ने जन्म दिया, उनकी प्रशंसा ही की जाएगी।

माता−पिता मात्र दो का ही उत्तरदायित्व बच्चों के निर्माण में नहीं है, वरन् उस कुटुँब का उत्तरदायित्व भी है। मान लीजिए माता−पिता भले आदमी हैं, सज्जन हैं, श्रेष्ठ हैं, लेकिन माता−पिता के बीच में बालक अकेला तो रहता नहीं है। ऐसा तो कभी−कभी होता है और कहीं−कहीं होता है कि माता−पिता और उनका बालक के अतिरिक्त कोई कुटुँब का व्यक्ति न हो।

चाचा−ताऊ, भाई−भतीजे, बाबा−दादी न जाने कौन−कौन घर में रहते हैं। अपने देश में संयुक्त परिवार की प्रणाली है और एक ही घर में, एक ही खानदान में, एक ही कुटुम्ब में एक ही मकान के भीतर अनेक व्यक्ति रहते हैं। अनेक व्यक्ति यों की छाप पड़ती है। मान लीजिए पिता बीड़ी−तंबाकू नहीं पीते और कोई बुरा काम नहीं करते, लेकिन उसी घर के दूसरे लोग गालियाँ बकते हैं, तंबाकू पीते हैं, माँस खाते हैं, लड़ाई−झगड़ा करते हैं, बुरे आचरण करते हैं तो गर्भ से निकलने के बाद केवल माता−पिता तक ही बालक सीमित नहीं रहेगा। गर्भ में जब तक है, तब तक तो यह बात कही जा सकती है कि उसके ऊपर बहुत सारा असर माता का होता है, थोड़ा असर पिता का रहता है।

धाय का दूध पिलाती है और जो नौकर बच्चों को खिलाते हैं, उनका प्रभाव बच्चे पर पड़ना ही चाहिए, क्योंकि बच्चा बहुत संवेदनशील होता है।

पाँच वर्ष के भीतर बच्चे की संवेदना इतनी तीव्र होती है कि जहाँ कहीं भी, जिसके भी संपर्क में आएगा, उससे कुछ−न−कुछ प्रभाव ग्रहण किए बिना नहीं रह सकता। जब वह बड़ी उम्र का हो जाता है और उसकी अक्ल विकसित हो जाती है, तब तो वह काँट−छाँट करने लगता है कि किसका प्रभाव ग्रहण किया जाए, किसका न किया जाए, किसकी उपेक्षा की जाए, किसको प्रेम किया जाए, किसकी ओर आकर्षित हुआ जाए और किसकी ओर न हुआ जाए। पाँच वर्ष के बाद तो उसकी बहुत−सी चीजें विकसित हो जाती हैं, लेकिन बहुत छोटा बालक इस बात को नहीं कर पाता और जो भी कोई वातावरण उसके आस पास होता है, उससे प्रभावित हो जाता है। अगर गोदी में खिलाने वाले लोग कुसंस्कारी हैं, दुष्ट स्वभाव के हैं, बुरी वृत्तियों के हैं, जो धाय उनके लिए दूध पिलाने के लिए रखी गई है अथवा कुटुँबी लोग जो उनको खिलाते−पिलाते रहते हैं, वे अगर बुरे स्वभाव के हैं तो बच्चे का अच्छा निर्माण नहीं हो सकता।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए पहले भी कहा जा चुका है कि बच्चे पैदा करना बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि अगर हमने समाज को कुसंस्कारी बालक दिया है तो समाज की कुसेवा की है, बहुत बड़ी हानि की है। हमने अगर समाज के लिए एक अच्छी संतान और सुयोग्य संतान बना कर दी है तो समझना चाहिए कि भामाशाह ने राणा प्रताप को जैसे प्रचुर धन दिया था और समाज की बड़ी सेवा की थी, उसी तरीके से हम भी बड़ी सेवा कर रहे हैं।

बच्चों का निर्माण घर की पाठशाला में

मित्रो! बच्चों का निर्माण घर की पाठशाला में होता है। अतः घर को एक पाठशाला के तरीके से बनाया जाना चाहिए। बालक घर में जो क्रियाकलाप होते हुए देखेगा, उसी की छाप उस पर पड़ेगी। अगर घर में सफाई रखी जाती है तो बालक का स्वभाव छोटी उम्र से सफाई वाला हो जाएगा। घर के वातावरण में अगर गंदगी फैली हुई है तो बच्चा गंदा हो जाएगा। सही मायने में तो बात यह है कि बच्चा अपने पिता का पिता है और गुरु का गुरु है, क्योंकि उसको ठीक रखने के लिए लोगों को सतर्क रहना पड़ता है। जब कहीं घर में पुलिस आती है तो चोरी की चीजें अगर घर में रखी हैं तो हर आदमी उसे छिपा देता है। पुलिस आ गई और कहीं ऐसा न हो कि वह पकड़ में आ जाए, इसलिए उसे छिपा देते हैं। बच्चा एक तरह की पुलिस है। समझदार आदमी और जिम्मेदार आदमी अगर इस बात को अनुभव करते हैं कि यह हमसे कुछ सीखने वाला है तो कोई ऐसा क्रियाकलाप नहीं करते, जिसको बच्चा सीख जाए।

मित्रो! जब तक बच्चा बड़ा नहीं हो जाता, तब तक माता−पिता को अश्लील क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए। उन्हें यह ख्याल नहीं करना चाहिए कि यह तो छोटा सा बालक है, यह बेचारा क्या समझेगा? इसे दुनियादारी का ज्ञान ही कहाँ है? हम हँसते खेलते रहें और गंदी बातें करते रहें तो इस पर क्या असर पड़ने वाला है? यह समझना माता पिता की बहुत भारी भूल है। वास्तव में छोटा बच्चा इतना अधिक जानकार होता है, जितना बड़ा आदमी नहीं होता। बड़ा आदमी सो जाता है तो बेखबर हो जाता है, लेकिन बच्चा जिस समय सोया रहता है, उसका अचेतन मन बहुत तीव्र गति से काम करता रहता है और माता पिता क्या करते हैं, उसको बहुत बारीकी से, गौर से देखता रहता है। न केवल देखता रहता है, वरन् सीखता भी है। न केवल सीखता रहता है, वरन् अपने भीतर के चरित्र का निर्माण भी करता रहता है। घर की पाठशाला में ही, वास्तव में बच्चों का निर्माण किया जा सकता है।

मित्रो! जब तक बच्चा बड़ा नहीं हो जाता, तब तक माता−पिता को अश्लील क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए। उन्हें यह ख्याल नहीं करना चाहिए कि यह तो छोटा सा बालक है, यह बेचारा क्या समझेगा? इसे दुनियादारी का ज्ञान ही कहाँ है? हम हँसते खेलते रहें और गंदी बातें करते रहें तो इस पर क्या असर पड़ने वाला है? यह समझना माता पिता की बहुत भारी भूल है। वास्तव में छोटा बच्चा इतना अधिक जानकार होता है, जितना बड़ा आदमी नहीं होता। बड़ा आदमी सो जाता है तो बेखबर हो जाता है, लेकिन बच्चा जिस समय सोया रहता है, उसका अचेतन मन बहुत तीव्र गति से काम करता रहता है और माता पिता क्या करते हैं, उसको बहुत बारीकी से, गौर से देखता रहता है। न केवल देखता रहता है, वरन् सीखता भी है। न केवल सीखता रहता है, वरन् अपने भीतर के चरित्र का निर्माण भी करता रहता है। घर की पाठशाला में ही, वास्तव में बच्चों का निर्माण किया जा सकता है।

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