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Magazine - Year 2003 - Version 2

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समृद्धि का एकमेव आधार- ग्रामोत्थान

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दूर-दूर फैली खेतों की मखमली हरियाली, निर्मल आकाश, नदी, नद, सरोवर, झरनों की सुमधुर आवाज, पक्षियों का कलरव, मिट्टी की सौंधी-सौंधी महक गाँवों की प्राकृतिक सम्पदा एवं सम्पत्ति है। ऐसा लगता है मानो प्रकृति अपने समस्त सौंदर्य एवं शृंगार के साथ गाँव में बस गयी हो। गाँव का परिवेश एवं पर्यावरण मनभावन, मोहक एवं सजीव होता है। शहर-नगर का वातावरण भले ही चकाचौंध से चुँधियाता रहता है परन्तु गाँवों जैसा सुरम्य एवं सजीव नहीं होता। प्राकृतिक परिवेश से परे वहाँ के वातावरण में उबाऊ एवं बोझिल कृत्रिमता फैली रहती है। इसके बावजूद विकास के सारे साधन और सुविधाएँ शहरों में मिलते हैं और गाँव इनसे अछूते एवं अनछुए रह जाते हैं। दिनों-दिन शहर विकसित हुए हैं एवं ग्राम पिछड़ के पिछड़े रह गए हैं।

प्रकृति प्रेमी राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी गाँवों के वातावरण से अत्यन्त प्रभावित थे। वह तो यहाँ तक कहते थे - ‘भारत की आत्मा ग्रामों में बसती है।’ उनके इस कथन में बड़ा ही गहन-गम्भीर मर्म छुपा है और यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। गाँव को समुन्नत एवं सभ्य करके ही शहरों का समग्र विकास किया जा सकता है। क्योंकि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। राष्ट्रीय समस्या का समग्र समाधान भी इसी में सन्निहित है।

आधुनिक सभ्यता के विकास की अवधारणा में गाँवों का कोई मूल्य एवं स्थान नहीं रह गया है। आज गाँवों का न सुदृढ़ वर्तमान है और न उज्ज्वल भविष्य। वे अतीत की वस्तु मात्र बनकर रह गए हैं। अमेरिका तथा पश्चिम यूरोप में तो गाँव का अस्तित्व ही लुप्त हो गया है। गाँव केवल उन्हीं देशों में बचे हैं, जो औद्योगिक दृष्टि से विकसित नहीं हैं, जहाँ पर कृषि उद्योग ही एकमात्र साधन एवं जीविका का आधार है। गाँव के बचने का अर्थ है कृषि सभ्यता का बचना। गाँव को बचाने का तात्पर्य है कृषि सभ्यता का सम्मान। हमारा कृषि प्रधान देश इसी आधार पर ही विकसित हो सकता है। गाँवों का देश भारत की प्रगति, उन्नति एवं समृद्धि का एकमात्र मूल मंत्र है- सर्वप्रथम कृषि का सम्मान करना, तत्पश्चात उद्योग का आदर करना।

भारत में आज भी लाखों-लाख गाँव हैं। इन गाँवों को विकसित करके ही भारत को विकास के रथ पर आरुढ़ किया जा सकता है। गाँधी जी के सपनों को साकार किया जा सकता है। उनके सपनों का भारत आदर्श गाँवों के अंतर्संबंधों पर आधारित है। परन्तु हमने उनकी इस परिकल्पना व अवधारणा को पूरी तरह से अमान्य एवं अस्वीकार कर दिया और इसके ठीक विपरीत हमने राष्ट्र के विकास का मूलभूत आधार शहरीकरण को माना। हमने शहर बनाने-बसाने एवं इसे विकसित करने की प्रक्रिया को ही उन्नति का मापदण्ड स्वीकारा। परन्तु विडम्बना है कि आजादी के 56 वर्ष पश्चात् भी देश की आधी आबादी का अभी शहरीकरण नहीं हो पाया है। इस समय लगभग 40 करोड़ लोग शहरों में रहते हैं और 60 करोड़ लोग गाँवों में निवास करते हैं। शहरों में रहने वाली लगभग आधी आबादी अत्यन्त दीन-दयनीय अवस्था में जीवन बिता रही है। दूसरी ओर गाँवों की ओर समुचित ध्यान न देने से गाँव उजड़ रहे हैं। गाँवों से शहर की ओर ग्रामीणों का पलायन हो रहा है। और बढ़ी हुई आबादी वाले शहर और भी भरते जा रहे हैं।

गाँव और शहर के बीच विषमता-विभेद की खायी दिनों-दिन चौड़ी हो रही है, बढ़ रही है। एक ओर जहाँ गाँवों में बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं पहुँच पायी हैं, वहीं दूसरी ओर शहर अत्याधुनिक सुविधा-साधनों से सम्पन्न होते जा रहे हैं। एक ओर विकास की चरम सीमा है तो दूसरी ओर सामान्य आवश्यकताओं की चीजों का अभाव है। एक ओर गगनचुम्बी इमारतें, अत्याधुनिक बंगला, वाहन और विलास के साधन जुट रहे हैं तो दूसरी ओर शिक्षा, चिकित्सा एवं भोजन आदि की बुनियादी समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हैं। गाँव और शहर की इस असमानता एवं विषमता का कारण अपनायी गयी विकास की रणनीति है, जिसमें गाँवों के लिए या गाँवों में रहने वालों के लिए कोई स्थान नहीं है। उद्योग नीति को अपनाए जाने, प्रोत्साहित करने तथा कृषि नीति को उपेक्षित कर देने के कारण ही यह समस्या खड़ी हुई है।

कृषि की ओर समुचित ध्यान न देने के कारण इसकी उत्पादन क्षमता में गिरावट आयी है। उत्पादन घटने से उस पर पूरी तरह से निर्भर गाँव गरीबी का अभिशाप झेलने को मजबूर हैं। कृषि ही एकमात्र साधन होने तथा अन्य उद्योगों का अभाव होने के कारण देश की बहुत बड़ी श्रमशक्ति खाली एवं बेकार पड़ी है। इससे बेरोजगारी की समस्या भी बढ़ रही है। इसके समाधान के लिए हरितक्रांति का प्रयोग किया गया। जिन क्षेत्रों को हरित क्रान्ति का लाभ हुआ है, वहाँ समृद्धि तो है। पर ऐसे क्षेत्र बहुत कम हैं। अपने देश में हरित क्राँति को सफल कर पाना अत्यन्त कठिन है। क्योंकि देश की अधिक आबादी अभी भी छोटे-छोटे खेतों में बँटी हुई है। वंश वृद्धि से किसान के हिस्से में आने वाली जमीन कम हुई है। जहाँ पर आधुनिक यंत्रों का प्रयोग असम्भव है, वहाँ कैसे एवं किस प्रकार हरित क्राँति की परिकल्पना की जा सकती है।

आज भारतीय गाँवों की सबसे बड़ी त्रासदी व समस्या है- पलायन। देश के लाखों गाँव पलायन का दर्द झेल रहे हैं। शहर की चमक-चकाचौंध हर ग्रामीण को आकर्षित करती है। गाँव का साक्षर युवा गाँव में नहीं शहर में रहना ज्यादा पसन्द करता है। देश में कृषि के विकास में जागरुकता लाने के लिए अनेक कृषि विश्वविद्यालय खुले, लेकिन वहाँ से निकलने वाले स्नातक गाँवों की कृषि में योगदान देने के बदले शहरों की ओर उन्मुख हुए। उन्होंने गाँवों के बदले शहरों को चुना।

इन समस्याओं से निपटने के लिए कृषि के औद्योगीकरण की नीति को लागू किया गया है, परन्तु इसकी सफलता की सम्भावना भी क्षीण है। इस असफलता के मुख्य कारण हैं - छोटी-छोटी जमीन तथा गरीबी। छोटे आकार के खेत याँत्रिकी खेती के लिए के लिए अनुपयुक्त होते हैं। किसानों को इन खेतों से इतनी कम आय प्राप्त होती है कि वह जीवन निर्वाह के लिए भी पर्याप्त नहीं होती। ऐसे में बचत कर पूँजी निवेश कर पाना तो दिवा स्वप्न के समान है। और इसके अभाव में इस नीति से किसी प्रकार की सफलता की आशा नहीं की जा सकती। इस संदर्भ में कर्नाटक प्रान्त में अपनाया गया भूमि हदबंदी कानून भी सफल नहीं हो सका। पूँजीवादी कृषि व्यवस्था भी गाँवों के भविष्य को सँवार नहीं सकी। इस व्यवस्था से गाँव का पूरी तरह से शहरीकरण हो जाता है। ठीक इसके विपरीत विफल पूँजीवाद में भी आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। इससे सभी ओर हताशा-निराशा का भय व्याप रहा है।

ऐसी स्थिति में समय की सर्वोपरी आवश्यकता है कि ग्रामीण औद्योगीकरण को प्रचलित किया जाए। गाँवों में उपलब्ध मानवीय व प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग किया जाए। गाँवों में उपलब्ध कच्ची वस्तु, उद्योग कौशल व श्रम शक्ति के अनुरूप औद्योगिक संस्कृति के विकास से ही गाँवों के भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकता है। जहाँ पर जिस चीज की उपलब्धता सहजता से होती है उसका उपयोग करना ही बुद्धिमत्ता है। इस संदर्भ में स्विट्जरलैण्ड के घड़ी उद्योग एवं जापान के तकनीकी उद्यम हमारे लिए विकास के प्रेरणा स्रोत बन सकते हैं। क्योंकि इन देशों के विभिन्न क्षेत्रों में इस उद्योग के लिए कच्ची वस्तु प्रचुर मात्रा में मिलती है जिसको समुचित श्रम व कौशल के द्वारा वहाँ एक बड़ा उद्योग का रूप दे दिया गया है। ठीक इसी प्रकार भारतीय ग्रामीण परिवेश के अनुरूप उद्योग संस्कृति विकसित किये जाने की आवश्यकता है। जिससे सबको काम मिले, पलायन थमे और ग्रामों में समृद्धि की धारा बहे।

वर्तमान समय की सर्वोपरि माँग है कि लघुता में सौंदर्य की तलाश। अर्थात् छोटे-छोटे कार्यों को बड़ी खूबसूरती के साथ किया जाये और उत्पाद को बाजार में प्रस्तुत किया जाये। मोमबत्ती, अगरबत्ती, बेकरी आदि कुटीर उद्योग इसी श्रेणी में आते हैं। अल्पकालीन प्रशिक्षण से ही इसे सीखा व किया जा सकता है। इसमें केवल श्रम की आवश्यकता है। अल्प पूँजी से भी इसे आसानी से किया जा सकता है। हमारे देश की तीन चौथाई जनसंख्या गाँवों में बसती है। स्वावलम्बन एवं कुटीर उद्योगों में गाँवों के अपार एवं विशाल श्रम को नियोजित किया जा सके तो हर गाँव को समृद्ध व उन्नत किया जा सकता है।

राष्ट्रीय समृद्धि के लिए शहर के साथ-साथ गाँव की ओर उन्मुख होना पड़ेगा। ग्रामों में फैले पड़े विशाल व विस्तृत संसाधनों को सुनियोजित करना होगा। आधुनिक उद्योग संस्कृति में अप्रासंगिक हो चले कुटीर उद्योगों को फिर से जीवित एवं जाग्रत् करना पड़ेगा जिससे हमारे विशाल व विस्तृत श्रम भण्डार का सार्थक उपयोग हो सके। गाँवों में कुटीर उद्योगों को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ा जाना चाहिए। इससे कुटीर उद्योगों को नये ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। आधुनिक तकनीक व छोटी पूँजी वाले उद्योग ही गाँवों में कारगर व सफल हो सकते हैं। इससे गाँवों की बेकार पड़ी श्रम शक्ति एवं कौशल का उपयोग गाँवों की समृद्धि व प्रगति के लिए किया जा सकता है। हथकरघा, दस्तकारी, खादी जैसे ग्रामोद्योग सहकारिता के आधार पर चलाया जाना चाहिए। इस तरह यदि समुचित प्रबन्धन एवं संसाधनों का सुनियोजन किया जा सके तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था में लघु उद्योग निर्णायक एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं।

भारतीय गाँवों का क्षेत्र एवं पटल अति व्यापक एवं विशाल है। इसी के बल पर भारत की पूरी अर्थव्यवस्था चल सकती है। आवश्यकता है तो बस इस ओर समुचित ध्यान देने की, संसाधनों के विकास एवं लोगों में श्रम व स्वावलम्बन के प्रति जागरुकता लाने की। ग्रामीण लोगों में व्यावहारिक सामंजस्य एवं स्वावलम्बन जैसे गुणों का विकास किया जा सके तो वे कभी भी परमुखापेक्षी एवं परावलम्बी नहीं होंगे। यह विकास एवं प्रगति का मुख्य आधार है। इसके कुशल नियोजन से अपार सफलता मिल सकती है। इस प्रकार गाँवों और शहरों के बीच विभेद व विभाजन की दीवार गिरेगी। हर व्यक्ति स्वावलम्बी होगा चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी। इससे गाँवों को विकसित होने का अवसर मिलेगा तथा पलायन थमेगा और शहरों पर आबादी का दबाव कम होगा। और शहरों में गाँवों के इस स्वावलम्बी उद्यमों को समुचित सम्मान मिलेगा।

राष्ट्र की अर्थनीति केवल शहर पर ही आधारित नहीं होनी चाहिए। इसमें गाँवों का मुख्य योगदान सुनिश्चित करना चाहिए। अगर स्वदेशी को स्वरोजगार पर आधारित किया जा सके तो यह बहुत बड़ी आर्थिक क्राँति होगी। इसी से साँस्कृतिक क्राँति का शंखनाद होगा। वस्तुतः जीवन एक सम्पूर्ण इकाई है। इसका गाँव और शहर के रूप में भिन्न-भिन्न आकलन नहीं करना चाहिए। इसे समग्रता से सोचना व देखना चाहिए। गाँव एवं शहर के आपसी सहयोग से ही सम्पूर्ण विकास सम्भव है। इसे क्रियान्वित कर हम स्वहित के साथ राष्ट्रहित, मानवहित एवं विश्वहित के उदात्त भाव को साकार कर सकेंगे। इससे गाँवों की हरियाली फिर से लौट सकेगी एवं शहर सुव्यवस्थित प्रदूषण मुक्त होंगे।

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