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Magazine - Year 2003 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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चेतना की शिखर यात्रा-11 - द्धिडडडड के मार्ग पर संकल्प-3

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‘सैनिक’ के लिए हुँकार

शिविर के संयोजकों में एक नाम श्रीकृष्णदत्त पालीवाल का भी था। आगरा ही नहीं उत्तरप्रदेश के आँदोलन में उनका बड़ा नाम था। उम्र में वे श्रीराम से काफी बड़े थे। शिविरार्थी उन्हें भाईसाहब और नेताजी कहकर पुकारते थे। आँदोलन को नेतृत्व देने के साथ पत्रकारिता और क्राँतिकारी साहित्य तैयार करने में भी वे सिद्धहस्त थे। श्रीराम को देखकर न जाने क्यों उन्हें लगा कि यह स्वयंसेवक और युवकों से भिन्न और विलक्षण है। श्रीराम तब अपनी लिखी हुई कविता साथियों को सुना रहे थे। देशभक्ति से ओतप्रोत उस कविता के बोल कुछ इस तरह थे-

कोई भी हो तेरा दुश्मन, निश्चय ही मिट जाएगा, त्रिंश कोटि हुँकारों से नभमंडल फट जाएगा॥

पालीवाल जी ने कविता सुनी और पीठ थपथपाई। कहा, “यह कविता सैनिक में छाप लें। जो भी पढ़ेगा, गाएगा, गुनगुनाएगा।” श्रीराम ने हामी भरने के साथ उत्साह भी दिखाया कि इस तरह की रचनाएँ ओर भी तैयार की जा सकती है। पालीवाल जी तब सैनिक पत्र का संपादन व प्रकाशन कर रहे थे। देशभक्ति और क्राँति की भावनाओं से भरपूर यह पत्र पिछले तीन साल से छप रहा था। पालीवाल जी के कंधों पर संगठन और सेवा की और भी जिम्मेदारियाँ थी। उन्हें अपने लिए एक सहयोगी की तलाश थी। श्रीराम के रूप में वह तलाश पूरी होती दिखाई दे रही थी। उन्होंने बढ़ावा दिया, लिखा करो। खूब लिखा करो। तुम्हारी कविताएं लोगों में देश प्रेम जगाएंगी। श्रीराम ने इस भेंट के दौरान अपने पिछले साहित्यिक या आँदोलनकारी लेखन का परिचय भी दिया। वह साहित्य या प्रचार-पत्र जो उन्होंने लिख-लिखकर गाँवों में बाँटे थे।

पालीवाल जी ने कहा, आगरा आकर अपने पत्र में हाथ बँटा को तो अच्छा रहेगा। श्रीराम ने हामी भरी और व्यवस्था बनने पर अपने की बात कही। व्यवस्था बनने का अर्थ अनुमति मिलना था। शिविर पूरा हुआ। लौटकर आँवलखेड़ा आए और वहाँ अपने साथ के किशोरों को फिर इकट्ठा किया। उनके अभिभावकों की लगाई पाबंदियाँ तब काम नहीं आई। स्वतंत्रता आँदोलन का प्रभाव इस तरह फैल रहा था कि उससे अलग रहना पिछड़ेपन और दब्बूपन की निशानी समझा जाता था। लोग भले ही सक्रिय हिस्सा न लें, इस तरह की टिप्पणियाँ कर ही देते थे। श्रीराम के थोड़े से संपर्क ने किशोरों में नया उत्साह फूँक दिया। अभिभावकों की परवाह किए बिना वे प्रभातफेरियों में शामिल होने लगे। फेरियों में श्रीराम के लिखे गीत गाए जाते। गीत गाते-गाते वे इतने तन्मय हो जाते थे कि उन्हें अपनी सुध-बुध ही नहीं रहती।

1929-30 के दिन स्वतंत्रता आँदोलन के उफान के दिन थे। दिसंबर 1929 में काँग्रेस ने लाहौर अधिवेशन के समय पूर्ण स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य घोषित कर दिया। विधानमंडलों से प्रतिनिधि वापस बुला लिए गए। सरकार के साथ हर तरह की बातचीत बंद कर दी गई। अधिवेशन के दौरान 31 दिसंबर की रात को घड़ी ने जैसे ही बारह का घंटा बजाया और नए साल का पहला दिन शुरू हुआ, जवाहरलाल नेहरू ने लाहौर में राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया। उस समय झंडा तिरंगा ही था, लेकिन चक्र की जगह चरखे का निशान अंकित था। झंडा फहराते ही जैसे देश ने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। जगह-जगह जलसे हुए, बैठकें हुई। 26 जनवरी को देशभर में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। उस दिन जगह-जगह तिरंगा फहराया गया। आँवलखेड़ा में श्रीराम शर्मा ने भी ध्वजारोहण किया। अखबार में कविताएं और लेख आदि में वे अपना पूरा नाम लिखने लगे थे। हवेली के बाहर आँगन में झंडा फहराने पहले पंडित गेंदाराम ने उन्हें पहली बार पूरे नाम से संबोधित किया। नाम के आगे पंडित लगाते हुए वे बोले, “पंडित श्रीराम शर्मा समारोह के बारे में कुछ कहेंगे।”

एक नए अवतार की प्रतिष्ठा

पंडित श्रीराम शर्मा ने उपस्थित युवकों को संबोधित करते हुए जो कहा उसका रिकार्ड नहीं है। बहरहाल वह कार्यक्रम पंडित श्रीराम शर्मा के नेतृत्व में आँदोलन की व्यवस्थित और संगठित शुरुआत जरूर थी। 26 जनवरी को पहला स्वाधीनता दिवस मनाने के बाद पंडित श्रीराम शर्मा जी ने गुड़ का प्रसाद बाँटा था। उस समय यह घोषणा भी की गई कि स्वतंत्रता दिवस हर साल मनाया जाएगा। दल के लोग जहाँ भी इकट्ठे होंगे, बैठक करेंगे या कोई कार्यक्रम चलाएंगे तो झंडा भी फहराया जाएगा। पूरे देश में 26 जनवरी का वह दिन इतिहास का एक नया शीर्षक बन गया। आँवलखेड़ा में श्रीराम शर्मा के नए अवतार की उसी दिन प्रतिष्ठा भी हुई।

अप्रैल डडडडडड में अवज्ञा आँदोलन शुरू हुआ। यह आँदोलन लाहौर अधिवेशन में पास हुए प्रस्ताव को जनमानस में रचा-बा देने वाली रणनीति का हिस्सा था। 6 अप्रैल को महात्मा गाँधी ने अपने साबरमती आश्रम से कूच किया। उनके साथ हजारों सत्याग्रही थे। समुद्र तट पर स्थित दाँडी नामक स्थान पर पहुँचे और वहाँ नमक बनाया। अंग्रेज सरकार की नमक पर लगाई पाबंदियों को तोड़ते हुए यह आँदोलन उस पूरी व्यवस्था के लिए ही बड़ी भारी चुनौती था। अंग्रेजों ने भी इसे भाँपा और किसी बड़े विस्फोट का सूचक माना। दमनचक्र तेज होता चला गया। गिरफ्तारियाँ होने लगी।

दमन और गिरफ्तारी के इस दौर में कुछ युवक ऐसे भी थे, जो पुलिस की पकड़ में नहीं आए। पंडित श्रीराम शर्मा उनमें एक थे। गाँव के बाहर उन्होंने एक स्थान पर गड्ढा खोदा। वहाँ नमकीन पानी भरा और उससे नमक बनाने का न अनुभव था और न ही प्रशिक्षण लिया था। सत्याग्रहियों ने जगह-जगह प्रशिक्षण कैंप लगाए तो थे, लेकिन सभी लोग उनमें शामिल नहीं हो सके थे। प्रतीकात्मक रूप से पंडित जी ने नमक बनाया। वह कार्यवाही पूरी होती, इससे पहले ही पुलिस दल आ गया। युवकों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने डंडे चलाए। जिस गड्ढे में नमक का पानी भरा गया था, उसमें श्रीराम के साथ तीन-चार युवक और उतरे हुए थे। नमक बनाने की कोशिश कर रहे थे।

पुलिस वालों ने उन्हें बाहर निकलने के लिए कहा। पानी के बाहर खड़े लड़के तो लहराते हुए डंडों के डर से भाग खड़े हुए थे, पानी में उतरे लड़के भी खिसकने लगे लेकिन श्रीराम ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। पुलिस वालों ने तीन-चार बार हाँक लगाई। उन्होंने हर बार अनसुना कर दिया। अवज्ञा-उपेक्षा होते देख दो पुलिस वाले पानी में उतरे और श्रीराम पर तड़ातड़ बेंतें बरसा दी। पीठ, हाथ, कंधे और सिर पर चोटें आई। इस मार से वे पानी में गिर पड़े। पुलिस वाले उन्हें पानी में ही गिरा-पड़ा छोड़कर चले गए। शाम हो गई, पुलिस के डर से श्रीराम की सुध लेने कोई नहीं आया। वे रात भर नमक के घोल में पड़े रहे। सुबह उन्हें बाहर निकाला गया। ताई जी रातभर यह समझे बैठी रहीं कि श्रीराम को पुलिस पकड़कर ले गई होगी।

महापुरश्चरण ओर समाजसेवा साधना

स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के साथ अनुष्ठान साधना भी चल रही थी। महापुरश्चरण के लिए छह घंटे प्रतिदिन लगते थे। श्रीराम यह साधना सुबह छह बजे पहले और शाम को सूर्यास्त होने तक पूरी कर लेते थे। जप का अभ्यास होने के बाद में पाँच घंटे समय ही पर्याप्त होता। साधना में ज्यादा समय लगने के दिनों राष्ट्रीय और सामाजिक मोरचों पर सक्रियता बढ़ी। तिथिक्रम निश्चित नहीं है, लेकिन घटनाएं उस समय की है, जब श्रीराम अठारह-उन्नीस वर्ष के थे। लूली-लंगड़ी गायों को बेच देने और दूध नहीं देने वाली गायों को यों ही सड़क पर छोड़ देने की प्रवृत्ति तब भी थी। गाँव में किसी ने दो गायें काई को बेच दी। उनके पाँव खराब थे। कसाई उन गायों को लेकर चले।

श्रीराम को पता चला। उन्होंने अपनी बालसेना के सदस्यों की आपात बैठक बुलाई और तुरंत निश्चित कर लिया कि क्या करना है। अपने एक साथी को लेकर श्रीराम दौड़े गए। कसाइयों से मिले और बातचीत की। गायों को नहीं काटने का अनुरोध किया। उन लोगों ने कहा कि जो कीमत अदा की है, वह वापस मिल जाए तो गायें वापस कर देंगे। श्रीराम थोड़ी देर के लिए असमंजस में पड़े। दोनों गायों की कीमत अठारह रुपए बताई गई थी। ताईजी से इतनी रकम माँगी जा सकती थी, लेकिन यह करना नहीं चाहते थे। कुछ सोचकर श्रीराम ने हाँ कर दिया। कुछ समय माँगा और गाँव के साहूकार गुलजारी के पास आए। उससे पैंतीस रुपए उधार लिए। गुलजारी इस युवक के स्वभाव और निष्ठा से अच्छी तरह परिचित था। ब्याज तय नहीं किया, न ही कोई मान गिरवी रखने को कहा। कुछ दिन के लिए बिना ब्याज और बिना जमानत के ही रुपए उधार दे दिए। उन रुपयों से गाय की कीमत अलग रखकर एक बैलगाड़ी किराये पर ली। कसाई को पैसे देकर गायें छुड़ाई और उन्हें बैलगाड़ी में बिठाया। कुछ दूर चलने पर एक बैल अड़ने लगा। पता चला कि वह बीमार है। श्रीराम ने उसे जुए से बाहर निकाला। उसकी जगह खुद अपना कंधा लगाया। एक और बैल और जुए के दूसरे सिरे पर श्रीराम। इस तरह गायों को लादकर गाड़ी आगे खिसकती रही। तीन दिन तक बैलगाड़ी खिसकती रही। श्रीराम गायों को लेकर हाथरस पहुँचे। वहाँ की गोशाला में गायों को रखवाया। चौथे दिन वापस आ गए। साहूकार का कर्ज उतारने के लिए बालसेना के सदस्यों का सहयोग लिया। थोड़ी-थोड़ी राशि सभी ने इकट्ठी की और गुलजारी का कर्ज उतारा।

अकल्पनीय साहस

उन्हीं दिनों की घटना हैं। गाँव में एकमात्र परचून की दुकान चलाने वाले सुलेखचंद के घर में लाग लगी। दुकान और घर के साथ-साथ ही थे। मकान ईंट-गारे का बना हुआ था, लेकिन छत बाँस-बल्लियों की बनी थी। खपरैलों से छाई हुई थी। देखते-ही-देखते छत ने आग पकड़ ली। सुलेखचंद अपने बच्चों को बचाने से ज्यादा दुकान में फँसे समान के लिए चिंतित था। बच्चे होशियार थे। लाँघते-फलाँगते लपटों से बाहर निकल आए और बाहर आकर हल्ला मचाने लग कि भाभी भीतर ही रह गई है। भाभी अर्थात् साहू की पुत्रवधू। वह गर्भवती थी।

श्रीराम वहाँ पहुँचे और हाय-पुकार सुनकर मामला समझा। संकट को समझते ही उन्होंने आस-पास झाँका पास के घर में गए और वहाँ से नसैनी निकालकर लाए। दरवाजे के पास आग इस बुरी तरह फैल गई कि अंदर जाना कठिन था। नसैनी लगाकर वे छत की तरफ से भीतर कूदे। कुछ ही मिनटों में बहू को कंधे पर लादे बाहर आ गए। वह थोड़ी बहुत झुलस गई थी। उसकी प्राथमिक चिकित्सा का प्रबंध किया। साहू का परिवार धन्यवाद देता रह गया और वे अपना काम कर आगे बढ़ गए।

अग्निकाँड में फंसी बहू को अपनी जान जोखिम में डालकर बचाने के कुछ दिन बाद की घटना है एक विधवा युवती किसी विजातीय युवक से गर्भवती हो गई। शादी के कुछ दिन बाद ही विधवा हो जाने के कारण ससुराल वालों ने उसे मायके वापस भेज दिया था। वह अपने माँ-बाप के साथ रहती थी। विधवा का घर में होना ही उन दिनों गाँव-बस्ती की लानत ढोने के लिए काफी था। फिर वह गर्भवती और हो गई। माता-पिता के लिए गाँव में रहना मुश्किल हो गया। जितने मुँह उतनी बातें।

श्रीराम ने इस संकट में हस्तक्षेप किया और उस युवती के पुनर्विवाह की सलाह दी। लोगों ने शुरू में इस सुझाव का मजाक उड़ाया। घरवालों ने भी कहा कि हम पर तरस खाओ। वैसे ही कठिनाई में फँसे है। नई मुसीबत क्यों मोल ली जाए। श्रीराम ने समझाया कि इसमें कोई पाप नहीं है। पुराने जमाने में ऐसा होता रहा है। शास्त्रों में इसकी व्यवस्था दी गई है। कुछ रुककर उन्होंने कहा, “सरकार भी कहती है कि विधवा लड़कियाँ चाहे तो फिर शादी कर सकती हैं। उन्हें घर-गृहस्थी बसाने का अधिकार है।” श्रीराम ने शास्त्र परंपरा, सरकार और महापुरुषों का हवाला दिया तो वे राजी हो गए। उनके मन में एक ही बाधा रह गई कि गर्भ में स्थित बच्चे का क्या किया जाए? माता-पिता को तैयार हुआ देख श्रीराम ने कहा “उसे भी दुनिया में आने दीजिए। भगवान उसकी देखभाल करेगा।”

अभिभावकों के राजी हो जाने पर श्रीराम युवती के पिता को लेकर मथुरा गए। वहाँ आर्य समाज की चौक शाखा के प्रधान पंडित वेदव्रत से मिल। उन्हें सारी स्थिति समझाई। तीन-चार महीने की खोजबीन और बातचीत के बाद उपयुक्त वर मिल गया। जीवनप्रसाद शर्मा नामक वह युवक भी विधुर था। उसकी एक संतान थी। युवती और परिवार की स्थिति उसे स्पष्ट रूप से बता दी गई और रिश्ता तय हो गया। उस युवती से जन्मी संतान उत्तरप्रदेश के एक औद्योगिक नगर में इस समय जीवन की संध्यावेला व्यतीत कर रही है। उसका वंश खूब फल-फूल रहा है।

गिरवर के घर कथा

किशोरवय पार कर वे युवावस्था में पहुँचे ही थे, तब का एक और प्रसंग है। आँवलखेड़ा में हवेली के बाहर की सफाई करने और ताऊजी की घोड़ों पर खरहरा करने के लिए गिरवर नामक एक सफाई कर्मचारी आता था। उसका मन हुआ कि घर पर सत्यनारायण की कथा की जाए, लेकिन कोई पंडित इसके लिए तैयार नहीं हो रहा था। चार-पाँच जगह कहा, पर्याप्त दान-दक्षिणा देने की बात भी कही, लेकिन निम्न जाति के लोगों के यहाँ कथा करने में हर किसी ने संकोच ही किया। कथा आयोजन नहीं हो पाने से गिरवर कान उखड़ा रहने लगा। एक दिन श्रीराम के सामने मुँह से निकल गया, “भैयाजी हम अपने यहाँ कथा कराना चाहते हैं, लेकिन हमारा भाग्य ही खराब है।”

“क्यों? क्या हुआ भाग्य को?” श्रीराम ने पूछ लिया। उनके प्रश्न में आत्मीयता के साथ आक्रोश का स्वर भी था। आक्रोश गिरवर की दिखाई गई निराशा पर था। उसने कहा, “हम लोग अछूत है न। इसलिए हमारे यहाँ कोई कथा नहीं करता।” श्रीराम ने कुछ पल रुककर कहा, “कल नहा-धोकर तैयार रहना। घर के सब लोग साफ-स्वच्छ रहें। हम तुम्हारे यहाँ कथा करने आएंगे।” गिरवर का चेहरा यह आश्वासन पाकर खिल उठा; लेकिन अगले ही क्षण वह फिर उदास हो गया। कहने लगा, “जब दूसरे पंडित लोग नहीं आ रहे तो आप ही को कौन आने देगा। आपकी ताईजी और दूसरे लोग आपको नहीं जाने देंगे।”

श्रीराम ने इस तरफ से निश्चित रहने के लिए कहा। गिरवर संशय और विश्वास की मिली-जुली अनुभूति से गदगद होता घर लौटा। घर के सब लोगों को बताया। बताने के बाद ही तैयारी भी शुरू हो गई। घर की सफाई, कपड़े, बिस्तर आदि की धुलाई और बर्तनों की मँजाई के साथ मकान के फर्श पर लीपना-पोतना चालू हुआ। देर रात तक लगे रहने पर गिरवर का घर चमक उठा। अगले दिन अठारह-उन्नीस साल के युवा पंडित पोथी, हवन कुँड, सामग्री, शंख, तस्वीर, झालर आदि लेकर पहुँच गए। विचार ने अपनी जात-बिरादरी के लोगों को भी आमंत्रित किया। पच्चीस-तीस लोग इकट्ठे हो गये।

विधिवत कथा आरंभ हुई। एक अध्याय पूरा होने के बाद शंख बजता और जयकार भी होता। कथा पूरी होने के बाद घंटे-घड़ियाल बजाकर आरती होने लगी। वहाँ इकट्ठे लोगों में उल्लास फूट पड़ रहा था। ‘ऊँ जय जगदीश हरे’ पूरी आवाज से उन लोगों ने आरती गाई। शंखनाद और जयकार की गूँज गाँव के दूसरे घरों तक पहुँची। तत्काल कुछ समझ नहीं आया। जब समझ आया तो ब्राह्मण और ठाकुर टोले के लोगों का कोप जाग उठा।

पंद्रह-बीस लोगों का दल गालियाँ बकता हुआ हरिजन टोले की तरफ दौड़ा। दूर से ही शोर-शराबा सुनाई दिया। गिरवर ने कहा लोग मारने आ रहे हैं बाबू साहब। आप बचकर निकल जाइए। श्रीराम ने कहा, नहीं भागेंगे नहीं। आप लोगों को उनका शिकार नहीं बनने देंगे। गिरवर और परिवार के लोगों ने चीख-चिल्लाकर कहा, समझाया, दबाव बनाने की कोशिश की। श्रीराम ने भी शर्त रखी कि अपने आपको दोषी मत मानना। वे लोग कुछ कहें इसके पहले ही स्पष्ट कर देना कि श्रीराम ने ही कथा की जिद की थी। हम लोग तो इसके लिए तैयार नहीं थे। यह शर्त मान ली और कसम खाई तभी श्रीराम जाने के लिए राजी हुए।

ब्राह्मण-ठाकुर टोले के लठैत घर के पास पहुँचे, इससे पहले ही श्रीराम ने पोथी-पन्ना और कथा का सामान समेटा। अपने साथ लाई चादर में सामान बांधा। कंधे पर रखा और खेतों में से होते हुए निकल गए। लोगों से छिपते-छिपाते हवेली पहुँचे। उधर गिरवर और साथ के लोगों ने लठैतों को वही सफाई दी, जिसकी कसम खाई थी। श्रीराम के जिद्दी स्वभाव से सभी परिचित थे। इसलिए मान लिया कि उसने कथा कहने के लिए हठ किया होगा। उन्होंने हवेली में आकर ताई जी से शिकायत की। ताई जी ने श्रीराम को थोड़ा-सा डाँटा-डपटा और बात वहीं खत्म हो गई।

क्राँतिकारी कार्यालय

समाज में नए संस्कार जगाने के लिए श्रीराम ने अपनी बातों को लिखकर और बोलकर भी कहना शुरू किया। उन दिनों स्वतंत्रता आँदोलन के पक्ष में या अँग्रेजों के खिलाफ लिखना आसान नहीं था। लिखा जाता तो वह छपना मुश्किल था। श्रीराम ज्यादातर कविताएं लिखते। उन्हें छपने के लिए आगरा के सैनिक, कानपुर के प्रताप और कलकत्ता के विश्वमित्र आदि पत्रों में भेज देते। ‘शिरकत’ ‘मस्ताना’ आदि पत्रिकाओं में भी उनकी रचनाएँ छपती थी।

स्वतंत्रता आँदोलन के लिए बैठक करने के अलावा सामाजिक कार्यों के लिए भी विचार-विमर्श की जरूरत होती। बैठकें यहाँ-वहाँ हो जातीं। कथा आयोजन का प्रसंग बीतने पर श्रीराम ने अपने साथियों से कहा कि बैठक के लिए कोई स्थान नियत होना चाहिए। वह स्थान किसी का घर नहीं हो सकता। घर में दूसरे लोग भी रहते हैं, बड़े-बुजुर्गों का प्रभाव भी रहता है और आने-जाने वालों का ताँता भी लगा रहता है। वहाँ एकाँत नहीं मिलता।

समाधान ताई जी ने निकाला। उन्होंने हवेली का एक हिस्सा बताया। सैनिकों ने अपनी बैठकें घर से दूर करने का निश्चय बताया। ताईजी ने कहा, तुम लोगों को वहाँ कोई छेड़ने नहीं आएगा। चौबीसों घंटे बैठे रहोगे तो भी नहीं पुकारुँगी। बाल सेना के युवा सदस्य फिर भी नहीं माने। ताईजी ने अपनी मनोबाधा रखी। असल में शिवालय के श्रीराम के लिए खतरा देखती हूँ। वह हमारे हाथ से निकलकर शिवजी के हाथ में चला जाएगा।

ताईजी का यह उत्तर ब्रह्मास्त्र सिद्ध हुआ। उनके संकोच का सम्मान करते हुए सबने हवेली के लिए हिस्से को अपने लिए मान लिया। यह वचन जरूर लिया कि उनकी बैठकों व कार्यों के बारे में किसी को भनक तक नहीं लगने दी जाएगी। ताईजी ने खुद जाकर वह कमरा दिखाया। बीस-पच्चीस लोगों के आराम से बैठने लायक जगह वहाँ थी। जब आवश्यकता लगे, तब भोजन-पानी माँगने, नाश्ते की व्यवस्था होने का आश्वासन भी मिल गया और आँवलखेड़ा की उस कोठरी में एक क्राँतिकारी कार्यालय आरंभ हुआ।

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