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Magazine - Year 2003 - Version 2

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नई दुनिया में अब चलेंगे संघबद्ध प्रयास

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First 17 19 Last
आज की दुनिया नई है, एकदम बदली हुई। आज का परिदृश्य अनोखा है, अत्यन्त परिवर्तित रूप में। परन्तु हमारे सोचने का तरीका वही है, अपनी सीमाओं में जकड़ा-बंधा हुआ। हमारी सोच वही पुरानी है, अनेक आग्रहों-दुराग्रहों से लिपटी हुई। और इसी कारण सब ओर अनेकानेक समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं। परन्तु समाधान का स्वर कहीं भी, किसी तरफ सुनाई नहीं दे रहा है।

हम जो उत्तर ढूंढ़ रहे हैं, सवाल का जवाब तलाश रहे हैं, वह तो हमारी संकीर्ण सोच की भाँति जर्जर और मृतप्राय है। आज हमारे सामने अजीब संकट खड़ा है, जिन्दा प्रश्न मरे हुए जवाबों की लाशें ढो रहे हैं। प्रश्न तो सजीव हैं, परन्तु उत्तर मुर्दे के समान निर्जीव एवं निस्सार हैं। जिसके वजन से स्वयं प्रश्नकर्त्ता एवं प्रश्न दोनों बौखला गए हैं। अतः वे अत्यन्त उद्विग्न और उत्तेजित होकर ध्वंस मचाने और आतंक फैलाने पर आमादा हो गए हैं। विचारशील विद्वान व्यथित हैं, मननशील मनीषी हैरान हैं, उन्हें सूझ ही नहीं रहा है कि आखिर हो क्या गया है? वे सोचने के लिए अवश-विवश हैं, परन्तु समाधान के सूत्र नजर नहीं आ रहे हैं। वे विचारते हैं कि आखिर बात क्या है? बात दरअसल यह है कि उनके उत्तर मरणासन्न हैं और प्रश्न जीवन्त हैं।

जिन्दा व्यक्तियों के बीच संवाद होता है, बातचीत होती है मरे हुए और जिन्दा व्यक्ति के बीच कोई वार्तालाप नहीं हो सकता, ठीक ऐसे ही हमारे समाधानों और हमारी समस्याओं के मध्य कोई विचार-विमर्श नहीं हो पा रहा है। एक ओर समाधान का पहाड़ है, दूसरी ओर समस्याओं का ढेर, परन्तु दोनों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है, कोई सेतु नहीं है। और इनके बीच सम्बन्ध सेतु हो ही नहीं सकता। इनके बीच जबरन संवाद पैदा कराने के व्यर्थ प्रयास में उलझा जीवन और उलझता जा रहा है। इस भटकन-उलझन से निजात पाने के लिए हमें अपनी बुनियादी खामियों और कमियों को समझना होगा। यह तथ्य अच्छी तरह से जानना और समझना होगा कि जीवन के वर्तमान प्रवाह में सब कुछ बदल चुका है, अतीत में जो था आज वह नहीं है। आज के प्रश्न एकदम नूतन और ताजे हैं।

आज दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है। यह पुरानी, जीर्ण दीवारों को गिराकर एक होने की कोशिश में है। एकल प्रयास समूहगत पुरुषार्थ में परिवर्तित होने के लिए व्यग्र हैं। सब मिल-बैठकर समाधान ढूंढ़ने के प्रयास में हैं। एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के बावजूद आज सभी देश संघबद्ध होकर विश्व हित में सोचने के लिए तैयार व तत्पर हो रहे हैं। ‘मैं’ से ‘हम’ की अवधारणा बलवती हो रही है। यह परिकल्पना विश्व राष्ट्र की प्रगति और उन्नति के लिए मूल आधार है। ‘मैं’ से ‘हम’ के इस संकल्प में उज्ज्वल भविष्य की विश्व दृष्टि ढंकी और ढंपी है। क्योंकि संघबद्ध होने की संगठित व उदात्त भावना प्रत्येक व्यक्ति के प्रखर विचार व सक्रिय भागीदारी से ही संभव होगी। यही समाधान के नूतन सूत्र हैं।

स्वहित एवं व्यक्तिगत हित के बदले सबके व विश्व, राष्ट्र के हित में किया गया प्रयास-पुरुषार्थ ही कारगर एवं सफल होता है। यह नये विश्व की नई परिकल्पना है जिसे आज गुणवत्ता दल या ‘क्वालिटी टीम’ के नाम से जाना जाता है। किसी भी संस्था, समूह, परिवार एवं समाज एवं राष्ट्र की प्रगति उस राष्ट्र के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती है और इनका समुचित सुनियोजन एवं अच्छा प्रबंधन उस संस्था, समूह, परिवार और समाज की प्रगति का द्योतक है। प्रबंधन एवं सुनियोजन के साथ-साथ उस संस्था व समाज के हर वर्ग के व्यक्तियों-कर्मियों की सक्रिय-भागीदारी का होना भी अत्यावश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति में अपनी संस्था, समाज एवं राष्ट्र के प्रति प्रगाढ़ निष्ठ का भाव होना भी बेहद जरूरी है।

समूह और समाज के हित में अपना हित समझना तथा उसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति की कटिबद्धता प्रदर्शित करने से ही वास्तविक व समुचित विकास संभव है। इसी मंत्र के सहारे द्वितीय विश्वयुद्ध में पूरी तरह से विनष्ट जापान आज आधुनिक विश्व के मानचित्र में चमकते सितारे के समान देदीप्यमान है। विश्वयुद्ध के पश्चात् जापान की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी तथा उसके उत्पादों की विश्वसनीयता नष्ट हो चुकी थी। ऐसे में जापान ने अपनी स्थिति सुधारने के लिए प्रबंधन के प्रयत्नों का सहारा लिया। इसके सुनियोजन की नए तरकीबें ढूंढ़ी गई, परन्तु वहाँ की सभी इकाइयों के समन्वित एवं प्रेरित सामूहिक प्रयासों को न खोज पाने के कारण सफल समाधान नहीं मिल सका। जापान सरकार ने 1950 में प्रबंधन में सुधार हेतु अमेरिका के प्रसिद्ध प्रबंधन विद्वान डॉ. डगिस एवं डॉ. जे. जुरान को सहयोग के लिए आमंत्रित किया। परन्तु इसका भी कोई प्रभावोत्पादक प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ।

जापान को इस भयावह संकट से उबारने के लिए अपने ही देश के डॉ. के. ईशिकावा ने अप्रैल सन् 1962 में एक नया एवं सफल तरीका ढूंढ़ निकाला। उन्होंने उसे ‘गेम्बा टू क्वालिटी सर्कल’ का नाम दिया। उसमें वर्तमान क्वालिटी टीम का विचार बीज छिपा था। इसके अंतर्गत उन्होंने संस्था व समाज के हित के प्रति गंभीर प्रतिबद्धता के भाव को उभारा तथा उसके विकास के प्रति त्याग व समर्पण की भावना का आह्वान किया। इस प्रयास ने चमत्कारिक प्रभाव दिखाया और देखते-देखते उजड़ा जापान विकासशील से विकसित देशों में शामिल हो गया।

आधुनिक मैनेजमेंट के मनीषी गुणवत्ता की इस विचारधारा को राष्ट्र एवं विश्व के भाग्य और भविष्य के रूप में परिभाषित कर रहे हैं। वे इंसान को उसके स्वार्थ व स्वहित के दायरे से निकालकर व्यापक सोच वाले इंसान के रूप में देखना चाहते हैं। ऐसे इंसान जो पुरानेपन के खोल से बाहर निकलने का साहस जुटा सकें। जिनकी सोच अपनी परम्परावादी मान्यताओं एवं संकीर्णताओं के अगणित बंधन से मुक्त हो। जो परम्पराओं, मान्यताओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देने का साहस संजो सकें। ऐसे साहसी व्यक्तियों के अन्दर ही नेतृत्व क्षमता का गुण विकसित हो सकता है। जो अपने समूह, संस्था, समाज, राष्ट्र व विश्व के प्रति समर्पित-अर्पित हो सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों का समूह सामयिक समस्याओं को देख, जान और समझ सकता है। युगानुकूल, समुचित व समग्र समाधान ढूंढ़ निकालने में वे ही सक्षम व समर्थ हो सकते हैं। इस समूह को क्वालिटी टीम के रूप में देखा जाता है।

क्वालिटी टीम की अवधारणा से आज सारा विश्व जुड़ता हुआ नजर आ रहा है। जापान में एक करोड़ से अधिक व्यक्ति इस सूत्र को अपनाए हुए हैं। जापान के अलावा दक्षिण कोरिया, चीन, ताइवान आदि देशों में यह आधुनिक एवं उदात्त विचारधारा पूर्णरूपेण स्थापित हो चुकी है। विश्व के 130 देशों में इसकी शुरुआत हो चुकी है। अपने देश में इसका प्रथम सफलतापूर्वक प्रयोग भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स की रामचन्द्रपुरम शाखा में किया गया था। तत्पश्चात् उसकी अन्य शाखाओं में विस्तार किया गया। भारतीय स्टेट बैंक ने भी भेल की प्रेरणा से इस अवधारणा को प्रायोगिक तौर पर अपनाया। इसके परिणाम अत्यन्त उत्साहजनक थे। इसे कई संस्थाओं द्वारा संशोधित रूप में और भी व्यापक रूप से अपनाये जाने की तैयारी की जा रही है।

गुणवत्ता अवधारणा की सबसे बड़ी विशेषता है- सजीव समस्याओं का जीवन्त समाधान की विधि प्रस्तुत करना। इसके सिद्धान्त प्रयोगधर्मी एवं प्रगतिशील हैं। इसकी परिकल्पना ‘नीचे से ऊपर की ओर’ उर्ध्वगामी सिद्धान्त पर आधारित है। अर्थात् किसी संस्था से सम्बन्धित सबसे निचले स्तर के सहकर्मियों एवं सहयोगियों की स्वैच्छिक सम्बद्धता एवं वास्तविक सम्बद्धता तथा प्रबंधन के सहयोग से सामूहिक गतिविधियाँ अपनायी जाती हैं। संस्था के छोटे-छोटे सहकर्मियों को वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित पदाधिकारियों के साथ मिलकर एक धरातल पर सम्मानपूर्वक कार्य करने का अवसर मिलता है। सबके मिलकर एक साथ कार्य करने से कार्य में प्रगति एवं सफलता की भावना बढ़ जाती है। जबकि अन्य विधियों में सामान्य तथा ऊपर से नीचे की ओर अर्थात् अधिकारियों से सामान्य सहकर्मियों तक की परिकल्पना होती है। यह सिद्धान्त प्रभावशाली नहीं है क्योंकि इसमें अन्य सहकर्मियों के कार्यों को उचित सम्मान और श्रेय नहीं मिल पाता है।

क्वालिटी टीम की पूरी अवधारणा श्रम, समानता एवं सम्मान के आधार पर आधारित है। और व्यवहार कुशलता भी यही है कि प्रेमपूर्ण भावना एवं उचित सम्मान के बल पर असंभव एवं कठिन कार्य को सरल, सहज बनाया जा सकता है। अतः गुणवत्ता दल में सभी, सभी के प्रति कटिबद्ध होते हैं। इसमें सबकी सहमति पर नेतृत्व गुण वाले एवं उदार व विचारशील व्यक्ति को नेतृत्व हेतु चयन किया जाता है। एक उसका सहयोगी होता है तथा इस कार्य क्षेत्र एवं समान प्रकृति के कार्य से जुड़े पाँच से आठ अन्य सहयोगी कार्यकर्त्ता होते हैं। एक समन्वयक होता है, जो टीम के सदस्यों के बीच मध्यस्थ होता है तथा समस्या के समाधान हेतु आवश्यक संसाधनों की उचित व्यवस्था करता है।

दल प्रमुख का जीवन एकदम खुला, प्रामाणिक एवं सादगी सम्पन्न होता है ताकि यह गुण दल के अन्य सहयोगी कार्यकर्त्ता अनायास अपना सकें। दल प्रमुख अपने लक्ष्य के लिए समर्पित होता है और सभी सदस्यों को लक्ष्य प्राप्ति हेतु मनोयोगपूर्वक श्रम एवं सेवा का आमंत्रण करता है। लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में उत्पन्न समस्याओं का विश्लेषण सभी सदस्य मिलकर एक साथ करते हैं और सर्वसम्मति से इसका समाधान निकालते हैं। सप्ताह में एक बार बैठक बुलायी जाती है जिसमें कार्य की प्रगति तथा इसके प्रस्तुतिकरण आदि विभिन्न बिन्दुओं पर विचार किया जाता है। इसमें सफलता की अपेक्षा ईमानदार प्रयास के बावजूद प्राप्त असफलता को अधिक महत्त्व दिया जाता है। क्योंकि असफलता के निराकरण-निवारण से ही सफलता का पथ प्रशस्त होता है। अतः असफलता के कारणों को ढूंढ़कर सबकी सहमति एवं सक्रिय सहयोग से सफलता की दिशा में प्रयास-पुरुषार्थ किया जाता है। इस अवधारणा में स्वहित की बजाय समूहगत हित को प्राथमिकता दी जाती है। और यह किसी भी संस्था, समाज व राष्ट्र की प्रगति, उन्नति एवं विकास के लिए प्रमुख आधार एवं मूल मंत्र है।

‘मैं’ पन की संकीर्णता से उबरकर ‘हम’ और ‘हमारे’ समाज, राष्ट्र की इस परिकल्पना में ही युग प्रश्नों की चुनौतियों को स्वीकारने की क्षमता और सामर्थ्य है- युग समस्याओं को सुलझाने के सजीव उत्तर हैं- नए सवाल के नए जवाब हैं- उलझती जा रही जिन्दगी के लिए आशा की नई किरण है। इसमें संवाद है जो वैयक्तिक, सामाजिक एवं वैश्विक परिदृश्य को संघं शरणं गच्छामि की विश्व-दृष्टि देगा। छोटे रूपों में ही सही समूहगत भावना की इस चिंगारी में नूतन क्राँतियों के जन्म की शुभ सूचना है। और इस शुभ सूचना में उज्ज्वल भविष्य की आहटें भी हैं, जो हम सबके समन्वित एवं संघबद्ध प्रयास से ही नूतन आकार ले सकेगी।

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