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Magazine - Year 2003 - Version 2

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Language: HINDI
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दर्द का रसायन शास्त्र एवं निवारण की रीति-नीति

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दर्द देवों का प्रचण्ड घन है। इसके प्रहार से आत्मा जागती है। दर्द जगाने के लिए आता है। यह शरीर एवं मन को जड़ता, वासना, कामनाओं के जंजाल से मुक्त करने आता है। दर्द हृदय की चरम-परम मोहग्रस्त भावुकता को छुड़ाने आता है। यह हृदय की पाषाणी जड़ता को तोड़ने आता है, सुप्त आत्मा को सुषुप्तावस्था से झकझोरने आता है। दर्द आत्मचेतना को जगाता है, जिससे आत्मचेतना परम चेतना की ओर आरोहित हो सके।

दर्द शरीर एवं मन का परिणाम है, कारण नहीं। और यह कारण है विकृति। विकृति जहाँ भी होगी वहीं दर्द होगा, पीड़ा का अनुभव होगा। विकृति का निवारण कर दिया जाए तो दर्द तिरोहित एवं विलीन हो जाएगा। विकृति है अर्थात् पीड़ा भी है, कष्ट भी है। इस पीड़ा की उत्पत्ति कैसे होती है? दर्द का उद्भव कहाँ होता है? और यह किस प्रकार कार्य करता है इसे समझने व जानने के लिए उसके कार्य का, उसकी फिजियोलॉजी का विश्लेषण करना आवश्यक है।

हमारा शरीर तंत्रिकाओं के जाल से बुना एवं बना है। त्वचा पर इनकी बुनावट कुछ अधिक ही होती है। इन तंत्रिकाओं के अंतिम सिरे पर अत्यन्त पतली एवं बारीक संरचनाएँ होती हैं। इन्हें संवेदना ग्राहक (सेंसरी रिसेप्टर) कहते हैं। इन ग्राहकों में कुछ विशेष रूप से दर्द से सम्बन्धित होते हैं। इनके सिरे खुले हुए एवं अनावरित होते हैं। इसके ठीक विपरीत स्पर्श संवेदना के ग्राहक गुच्छों में होते हैं। ग्राहक कई प्रकार के होते हैं। इनकी संरचना भी बड़ी जटिल होती है। विशिष्ट प्रकार के संवेदन ग्राहक विशेष कार्यों को ही सम्पादित करते हैं। स्पर्श, उष्णता, ठण्डकता, दबाव, चुभन, स्वाद, घ्राण, संवेदन आदि के ग्राहक केवल इन्हीं उद्दीपनों पर प्रतिक्रिया करते हैं। परन्तु खुले सिरे वाली तंत्रिकाएँ कई तरह के उद्दीपनों से सक्रिय हो जाती हैं। मानव शरीर में इन ग्राहकों की संख्याओं में बहुत अन्तर होता है। दर्द के ग्राहक ठण्ड के ग्राहकों से 27 गुना अधिक होते हैं और ठण्ड के ग्राहक गर्मी के ग्राहकों से 10 गुना अधिक होते हैं। संवेदना के ये ग्राहक अंगुलियों के पोरों में काफी संख्या में विद्यमान होते हैं।

ग्राहक तो दर्द की संवेदना को मस्तिष्क तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। परन्तु दर्द का नियंत्रण मस्तिष्क के द्वारा होता है। अतः जिस जगह दर्द होता है उसकी सूचना इन ग्राहकों के द्वारा गति से मस्तिष्क तक पहुँचायी जाती है। यह प्रक्रिया बड़ी जटिल परन्तु तीव्र होती है। दर्द के ग्राहक संवेदना ग्रहण कर सीधे मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं। कोई जलती हुई या गर्म वस्तु हाथ में स्पर्श होते ही मेरु रज्जु हाथ को हटाने का संदेश प्रसारित कर देता है। इसे परावर्तित क्रिया कहते हैं। और हमारा हाथ हट जाता है। लेकिन इससे संवेदना संदेश का मस्तिष्क तक जाने का कार्य नहीं रुकता। मेरुरज्जु के संदेश के बावजूद मस्तिष्क अपना निर्णय प्रस्तुत करता है कि परिस्थिति से कैसे सामना किया जाय। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया मस्तिष्क द्वारा नियमित एवं संचालित होती है।

संदेश का प्रसार सर्वप्रथम तंत्रिका तंत्र में होता है।यह प्रसार तंत्रिकाओं के माध्यम से रासायनिक और विद्युत आवेगों के रूप में होता है। तंत्रिका कोशिका में संदेश विद्युत आवेगों के रूप में आगे बढ़ता है। तंत्रिका तंत्र पूरी लम्बाई में सीधे नहीं होते। ये छोटे-छोटे गाँठों के रूप में आपस में जुड़े होते हैं, जहाँ एक तंत्रिका कोशिका समाप्त होती है और दूसरी शुरू होती है, इसके बीच छोटा सा अन्तराल होता है। इसे ‘सायनेप्स’ कहते हैं। विद्युत आवेग इस अन्तराल को पार कर दूसरी कोशिका तक नहीं जा पाता है। इसलिए विद्युत आवेग कोशिकाओं को कुछ रासायनिक पदार्थ का स्राव करने हेतु प्रेरित करता है। इन पदार्थों को ‘न्यूरोट्राँसमीटर’ कहते हैं। ये न्यूरोट्रांसमीटर्स सायनेप्स को पार कर दूसरी तंत्रिका कोशिका में पहुँच जाते हैं। पास की तंत्रिका कोशिका में विशेष ग्राहक होते हैं। इनमें से ये न्यूरोट्राँसमीटर्स जाकर मिल जाते हैं। इससे पास की कोशिका में विद्युत आवेग पैदा हो जाता है और संदेश आगे बढ़ जाता है। सभी न्यूरोट्राँसमीटर्स विद्युत आवेग उत्पन्न नहीं करते हैं। इनमें से कुछ अवरोधक भी होते हैं।

आवेग तंत्रिका कोशिकाओं से यात्रा करता हुआ मस्तिष्क में पहुँचता है। मस्तिष्क में यह आवेग बीच मस्तिष्क में स्थित ‘थैलेमस’ तक पहुँचता है। थैलेमस सभी आवेगों का स्विच बोर्ड है। यही पर संवेदना को पहचाना-परखा जाता है। थैलेमस आवेग को और भी ठीक ढंग से परखने के लिए ‘कार्टेक्स’ में भेज देता है। कार्टेक्स ही किसी संदेश को दर्द के रूप में पहचानता है। यहाँ पर उस संदेश को याद रखने या उसे अनदेखा करने के निर्णय लिये जाते हैं। इसी क्षेत्र के कारण हमें दर्द का अनुभव होता है और हम दर्द पैदा करने वाली वस्तुओं से सावधानी रखते हैं।

कभी-कभी दर्द का संदेश मस्तिष्क तक पहुँचाने के लिए ऑटोनॉमिक तंत्र सहयोग करता है। शरीर में सूजन या फैलाव होने से उल्टी एवं रक्त दबाव भी होने लगते हैं। यह प्रक्रिया दर्द के संदेश को सीधे पहुँचाने की बजाय ऑटोनॉमिक तंत्र द्वारा पहुँचाया जाता है। कुछ रोगों में दर्द का अनुभव एकाएक नहीं होता है। कैंसर आदि रोगों में दर्द का अनुभव तब होता है जब यह रोग असाध्य हो चुका होता है। दर्द को झेलने की क्षमता सभी लोगों में समान नहीं होती है। कुछ लोग असह्य दर्द को भी बड़ी सहजता के साथ झेल जाते हैं और कुछ लोग काँटा चुभने से ही तड़प उठते हैं। साधक, योगी, मनस्वी, तपस्वी आदि में दर्द को झेलने की अपार क्षमता होती है।

स्वस्थ निरोगी व्यक्ति दर्द को आसानी से सह जाते हैं। लेकिन अस्वस्थता की स्थिति में उसी दर्द को सहना कठिन हो जाता है। डिप्रेशन एवं तनाव जैसे मनोरोगों में तो यह और भी कष्टप्रद होता है। वैज्ञानिक मान्यता है एस्ट्रोजन हार्मोन तंत्रिका तंत्र में दर्द को फैलने में बढ़ावा देता है। जबकि प्रोजेस्ट्रान दर्द को कम करता है। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं में प्रोजेस्ट्रान की अधिकता होने के कारण प्रसव पीड़ा से निपटने में सहायता मिलती है।

दर्द भी कई प्रकार का होता है। शरीर को चोट लगने पर कोशिका-उतकों में टूट-फूट होने से शारीरिक दर्द होता है। ऐसी अवस्था में दर्द का दायरा शरीर तक सीमित होता है। हालाँकि इससे मन भी प्रभावित होता है। मन के सूक्ष्म तारों के टूटने से उत्पन्न दर्द मानसिक विकार के रूप में दृष्टिगोचर होता है। तनाव, उदासी, अपराध बोध, चिन्ता, शोक, हताशा, निराशा आदि मनोविकार हैं जो मन के धरातल से उत्पन्न होते हैं। मनोरोगों की फिजियोलॉजी बड़ी ही सूक्ष्म होती है। इससे भी सूक्ष्म एवं संवेदनशील होती है भावना जन्य समस्याएँ। भावना-संवेदना पर लगी चोट मर्मांतक होती है क्योंकि इससे हृदय प्रभावित होता है। यह तथ्य आधुनिक साइको फिजियोलॉजी एवं न्यूरोसाइकोलॉजी के लिए भी अबोध एवं दुर्बोध बना हुआ है कि हृदय, भावना और दर्द का अंतर्संबंध क्या है और इसके निराकरण का उपाय क्या है। अभी तक शारीरिक दर्द एवं कुछ सीमा तक मानसिक विकृतियों का विश्लेषण ही हो पाया है परन्तु भावनात्मक परेशानियों की सही समझ-बूझ विज्ञान को नहीं मिल सकी है।

आखिर यह दर्द का निराकरण और समुचित समाधान कैसे हो? क्या दवा ही इसका एकमात्र निदान है? इसका उत्तर हमें नकारात्मक ढंग से देना पड़ेगा। क्योंकि दवा से दर्द ठीक हो जाता तो फिर क्यों उसका प्रभाव समाप्त होते ही पुनः दर्द प्रारम्भ हो जाता है। दवा समाधान नहीं है क्योंकि दवा दर्द के मूल तक, कारण तक नहीं पहुँच पाती है। दर्द का मुख्य कारण है विकृति। और यह विकृति जिस स्तर पर होगी उसी स्तर पर दर्द का प्रभाव होगा।

दर्द के मुख्य कारण को जानकर ही उसका निराकरण किया जा सकता है। दर्द के उन्मूलन के लिए उसके मुख्य स्रोत विकृति तक पहुँचना होगा। विकृति और विकार को समाप्त करना ही दर्द का कारगर समाधान है, और ऐसा सम्भव है। महर्षि अरविन्द ने अपने अन्दर के विकारों को इतना परिवर्तित कर दिया था कि वहाँ केवल दर्द ही समाप्त नहीं हुआ था बल्कि आनन्द की धारा फूट पड़ी थी। उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए एक पत्र में लिखा था कि मेरे पैर को आरी से काटे जाने पर दर्द नहीं परम आनन्द का बोध होगा। वे आगे कहते हैं यह मात्र एक कल्पना ही नहीं एक उन्नत आध्यात्मिक विज्ञान है। क्योंकि दुःख-दर्द, आनन्द के विरोधी होते हैं। इनके हटते-मिटते ही आनन्द का निर्झर झरने लगता है। घटाओं से घिरा सूर्य बादलों के हटते ही प्रकाशित हो उठता है। ठीक उसी प्रकार आत्मा पर चढ़े संस्कारों के विकृत आवरण उतरते ही आत्मा ज्योतिर्मय एवं चैतन्य हो उठती है।

दुःख-दर्द विकारों का एक परत मात्र है, विकृतियों का उलझा जाल मात्र है। दुःख-दर्द शरीर, मन और भावना को रह-रहकर कष्ट और पीड़ा देते रहते हैं। इनके होने में दर्द है और इनके अभाव में हर्ष और आनन्द। अतः हमें संकल्प और साधना के माध्यम से दर्द रूपी इस विकार से मुक्ति का उपाय तलाशना चाहिए। भगवद् देन समझकर दर्द को सहकर ही दर्दमुक्त हुआ जा सकता है। अतः हमें असीम धैर्य और दृढ़ मनोबल से इसका सामना करना चाहिए। यही आत्म चेतना को विकसित करने का उपयुक्त माध्यम है।

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