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Books - हम बदलें तो दुनिया बदले

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मानव-जाति की समस्याएं इस तरह सुलझेंगी

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जिधर भी दृष्टि पसार कर देखा जाय, उधर आज अभाव, असन्तोष, चिन्ता, क्लेश एवं कलह का ही बाहुल्य दिखाई पड़ता है। यों वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ अगणित प्रकार के सुविधा-साधन बढ़ गये हैं पर उनसे न व्यक्ति को शान्ति बढ़ी और न समाज की प्रगति हुई। विज्ञान की उपलब्धियों पर विचार करें तो प्रतीत होता है कि आज से हजार वर्ष पहले के मनुष्य की अपेक्षा अब की सुविधा-सामग्री इतनी अधिक है कि मनुष्य लोक एवं देवलोक के बारे में कल्पित की जा सकती है। पूर्व काल में रेल, मोटर, डाक-तार, बिजली, प्रेस, रेडियो, मशीनें, कल-कारखाने, जहाज आदि कहां थे? साबुन, माचिस से लेकर फाउण्टेन पैन, साईकिल तक दैनिक जीवन में अनेकों चीजें विज्ञान की देन हैं। चिकित्सा एवं शिक्षा के साधन बहुत बढ़ गए हैं। इन उत्पादन के साथ-साथ मनुष्य की सुविधा एवं प्रसन्नता बढ़नी चाहिए थी। आर्थिक विकास भी इन हजार-पांच सौ वर्षों के भीतर आश्चर्यजनक हुआ है। इसका लाभ मिलने से मानसिक सुख-समृद्धि में बढ़ोतरी होनी चाहिए थी, पर दीखता है कि उल्टी और कमी हुई है। लोग अपने आपको अधिक अभावग्रस्त, रुग्ण, चिन्तित, एकाकी, असहाय एवं समस्याओं से घिरा हुआ अनुभव करते हैं। भौतिक प्रगति को देखते हुए लगता है कि पिछले हजार वर्षों में हम बहुत अधिक साधन-सम्पन्न हो गए। पर बारीकी से विचार करने पर प्रतीत होता है कि इस अवधि में हम कहीं अधिक पिछड़े, गिरे एवं बिगड़े हैं। शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन, पारिवारिक सौजन्य, सामाजिक, सद्भाव, आर्थिक सन्तोष एवं आंतरिक उल्लास के सभी क्षेत्रों में भारी अवसाद एवं गतिरोध उत्पन्न हुआ है। इस दृष्टि से आज की सुविधा-सम्पन्नता और पूर्व काल की असुविधा-भरी परिस्थितियों की तुलना की जाय तो भी लगता है कि वे असुविधा-भरे समय के निवासी आज के हम लोगों की तुलना में असंख्य गुने सुखी एवं सन्तुष्ट थे। तबकी और अबकी परिस्थितियों में उतना ही अन्तर आ गया है जितना स्वर्ग और नरक में माना जाता है। वस्तुतः आज हमें नारकीय परिस्थितियों में ही रहना पड़ रहा है।

यह नरक कहीं अन्यत्र से उत्पन्न नहीं हुआ, हमारे आंतरिक स्तर की विकृति ने ही इसे पैदा किया है। निश्चित रूप से हमारी भली-बुरी परिस्थितियों के उत्तरदायी हम स्वयं ही हैं। इनका दोषारोपण किसी दूसरे पर कर के झूंठा मनः सन्तोष कर लेना निरर्थक है। स्वर्ग और नरक कोई स्थान विशेष नहीं, केवल मनुष्य के उत्कृष्ट और निकृष्ट दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया मात्र है। आज व्यक्ति और समाज पर दुःख दारिद्र की काली घटाएं घुमड़ रही हैं, इसका कारण भावना-स्तर में अवांछनीय विकृतियों का आ जाना ही है। इसका समाधान निराकरण यदि अभीष्ट हो तो अमुक समस्या के अमुक सामयिक समाधान से काम न चलेगा वरन् सुधार वहीं करना होगा जहां से कि यह विभीषिकाएं उत्पन्न होती हैं। इसी भावनात्मक सुधार, परिवर्तन एवं उन्नयन के सुव्यवस्थित आयोजन का नाम ही युग-निर्माण आंदोलन है। अखण्ड-ज्योति परिवार इसी महान् अभियान की श्रेय साधना में संलग्न होकर एक ऐतिहासिक भूमिका सम्पादित कर रहा है।

लोगों के स्वास्थ्य बेतरह गिरते चले जा रहे हैं, रुग्णता और दुर्बलता ने हर शरीर में अपना अड्डा जमा लिया है। चारपाई पर पड़े कराहते रहने की स्थिति भले ही न आ पाई हो पर किसी प्रकार की रुग्णता ने घेर जरूर रखा होगा। स्वस्थ व्यक्ति में जितनी कार्य-क्षमता होनी चाहिए उतनी आज कितने व्यक्तियों में है? टूटे-फूटे स्वास्थ्य को लेकर किसी तरह जिन्दगी के दिन पूरे हो रहे हैं।

इस स्थिति का कारण बहुमूल्य पौष्टिक भोजनों का न मिलना नहीं है। भील और वनवासी किसान और मजूर जिन्हें बहुत घटिया किस्म का भोजन मिलता है, अपेक्षाकृत अधिक एवं निरोग दीखते हैं। यदि आहार की पौष्टिकता ही आरोग्य का आधार रही होती तो संपन्न लोगों में हर एक बलिष्ठ और निर्धनों में से हर एक रुग्ण अस्वस्थ दिखाई पड़ता। आरोग्य संकट का एकमात्र कारण है—हमारा आहार-बिहार सम्बन्धी भ्रष्टाचार। असंयमी और उच्छृंखल रीतिनीति अपनाकर हम प्रकृति से जितने ही दूर हटे हैं उतने ही अस्वस्थ होते चले गए हैं। यह भूल दवा दारू की लीपा-पोती से नहीं सुधर सकती। खोया स्वास्थ्य पुनः पाना हो तो हमें प्रकृति की शरण में लौटना पड़ेगा। आहार-विहार सम्बन्धी संयम अपनाना होगा यह कार्य दृष्टिकोण के परिवर्तन से ही सम्भव है। खोये हुए आरोग्य को यदि मानव-जाति पुनः प्राप्त करना चाहे तो इसे दृष्टिकोण का वह परिष्कार ही स्वीकार करना होगा, जिसके लिए युग-निर्माण आंदोलन की प्रेरणा है।

मानसिक अस्वस्थता आंखों से दिखाई नहीं पड़ती, इसलिए लोग उसके सम्बन्ध में प्रायः बेखबर रहते हैं। पर यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो शरीर से भी कहीं अधिक रुग्ण एवं दुर्बल मन पाये जायेंगे। अनिद्रा, शिर दर्द, स्मरण शक्ति की कमी, मूढ़ता, उन्माद जैसे मस्तिष्कीय रोगों की बाढ़ तो आ ही रही है। चिन्ता, भय, निराशा, आवेश, अधीरता, हड़बड़ी, सनक, शक्कीपन, अव्यवस्था, निरुत्साह जैसे मनोविकार अधिकतर लोगों को अपना शिकार बनाये हुए अनेक व्यक्तिगत जीवनों को पतनोन्मुख बनाये हुए हैं।

भावनात्मक अस्वस्थता के कारण अधिकांश लोग प्रफुल्लता, उल्लास, साहस, पुरुषार्थ, उदारता, वीरता, सहृदयता, सज्जनता जैसे मानवोचित गुणों से वंचित हो रहे हैं। फलस्वरूप मनुष्य के शरीर में रहते हुए भी उनकी जीवात्मा पाशविक स्तर का जीवनयापन कर रहा है। ईश्वर प्रदत्त महान् महत्ताओं से वह तनिक भी लाभ नहीं उठा पाता है और कीट-पतंगों जैसा आहार निद्रा प्रधान हेय जीवन जीकर इस संसार से विदा हो जाता है। जिन लोगों के साथ उसका सम्पर्क रहता है वे कुढ़ते, पछताते और असन्तोष ही प्रकट करते रहते हैं। न उसे किसी से सन्तोष न उससे किसी को सन्तोष। ऐसे निरर्थक एवं निन्दनीय जीवन स्तर बने रहने का कारण भावनात्मक अस्वस्थता ही है। काश, मनुष्य की भावनाएं उदात्त एवं उत्कृष्ट रही होती तो सामान्य परिस्थितियों और सामान्य साधनों के रहते हुए भी उसने महापुरुषों जैसा—नर-रत्नों जैसा, प्रकाश एवं आनन्द-भरा जीवन जिया होता।

यह भलीभांति समझ लेना चाहिए कि अमुक सुविधा या परिस्थिति का होना न होना मानसिक अस्त-व्यस्तता का कारण नहीं है। सही बात यह है कि मानसिक अस्त–व्यस्तता ही जीवन में अभाव एवं विपन्नता की परिस्थिति उत्पन्न करती है। प्रायः प्रत्येक महापुरुष विपन्न परिस्थितियों में जन्मा अथवा रहा है, उसने अपने मनोबल से ही अनुकूलता उत्पन्न की और साधन जुटाये। इस प्रकार का मनोबल प्राप्त करने के लिए हमें सारा ध्यान अपनी मनोभूमि के निरीक्षण, संशोधन, सुधार एवं विकास में लगाना होगा। यह प्रयोजन जितना-जितना पूरा होता चलेगा हम आंतरिक दृष्टि से उतने ही सशक्त समर्थ होते चले जायेंगे। तब मानसिक अस्वस्थता का इतना अधिक लाभ एवं आनन्द उपलब्ध होगा जिसके आधार पर यह जीवन और यह संसार स्वर्ग जैसा मंगलमय एवं उल्लासपूर्ण अनुभव होने लगे। युग-निर्माण योजना इसी प्रकार की स्वस्थ मनः प्रक्रिया में संलग्न होने की जन-साधारण को प्रेरणा दे रही है।

सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो विकृतियां विपन्नताएं दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे कहीं आकाश से नहीं टपकी हैं, वरन् हमारे अग्रणी, बुद्धिजीवी एवं प्रतिभा सम्पन्न लोगों की भावनात्मक दुष्टता ने उन्हें उत्पन्न किया है। जन-मानस में छाये हुए अविवेक एवं अवसाद के कारण ही वे दुष्प्रवृत्तियां पनप और फल-फूल रही हैं। यदि मान्यताओं और विचारणाओं की दिशा बदल जाय तो संसार में फैली हुई अशान्ति के अगणित स्वरूप देखते-देखते समाप्त हो जायं।

स्त्रियां भी पुरुष की तरह मनुष्य हैं। मूंद न होने या अन्य एक दो अंगों में थोड़ा प्रकृति प्रदत्त हेर-फेर होने के कारण उनके मानवीय स्तर एवं अधिकार में कोई अन्तर नहीं आता। फिर भी एक अविवेक सामाजिक मान्यता बन कर हमारे मनों में छा गया है और स्त्री जाति को पिंजड़े में बंद पक्षी या रस्सी से बंधे हुए पशु की तरह घरों में कैद रखा जा रहा है। उसे शिक्षा, स्वावलम्बन आदि सामान्य मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है। दृष्टि-दूषण के कारण आज हमारा आधा समाज अर्धांग पक्षाघात से पीड़ित मरीज की तरह अपनी आधी शक्ति को निरुपयोगी बनाये हुए है। उसकी आधी सामर्थ्य बिलकुल बरबाद जा रही है। जबकि संसार की अन्य सभी जातियां अपनी जनसंख्या का पूरा-पूरा लाभ ले रही हैं और प्रगति पथ पर अग्रसर हो रही हैं तब हमें अपने आधे समाज का भार निर्जीव लाश की तरह ढोना पड़ रहा है। यह मोटे तथ्य हैं। उस पर थोड़ा-सा जोर देने से वस्तुस्थिति को हर कोई समझ सकता है। इतने पर भी दृष्टि दोष की बीमारी हमें वह सोचने करने नहीं दे रही है जिससे हम सशक्त समाज के रूप में विकसित हो सकें। इस दृष्टिदोष को सुधारे बिना हमारा सामाजिक कल्याण हो नहीं सकेगा। हम इस गई गुजरी स्थिति से ऊंचे उठ न सकेंगे।

धर्म के नाम पर 56 लाख व्यक्ति आलस्य और प्रमाद का जीवन जी रहे हैं। मन्दिर, मठ, तीर्थ एवं दान-पुण्य के नाम पर समय और धन का जितना व्यय होता है यदि उसका ठीक तरह उपयोग होने लगे तो हमारी सामाजिक, नैतिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्थिति इतनी गतिशील हो जाय कि प्राचीन काल का गौरव पुनः प्राप्त करने में कुछ भी कठिनाई शेष न रह जाय। हमारे धार्मिक नेता अलग-अलग सम्प्रदाय चला कर अपना-अपना अलग पूजा-प्रतिष्ठा का गोरखधन्धा छोड़ दें और एक ही मंच से सारे हिन्दू समाज को संगठित एवं समर्थ बनाने में लग जायं तो इसका इतना बड़ा परिणाम सामने आये जिसे देखकर संसार आश्चर्य-चकित रह जाय।

हमारे राज-नेता ही अपना व्यक्तिगत वर्चस्व बनाये रखने के लिए भाषावाद प्रांतवाद, जातिवाद की अलगाव प्रवृत्ति को बढ़ा रहे हैं। फूट और विगठन के बीज बो रहे हैं। अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति में संलग्न रह कर राज-नेता ही सरकारी मशीन और जनता को अपने अनुकरण के लिए प्रोत्साहन देकर देश में विविध-विधि भ्रष्टाचार का सृजन कर रहे हैं। यदि इनका दृष्टिकोण सुधर जाय आय और वे अशोक, राम, युधिष्ठिर, जनक, अश्वघोष, चाणक्य जैसे निस्पृह राज-नेताओं का उदाहरण प्रस्तुत करने लगें तो राजनैतिक स्थिति का स्वरूप ही बदल जाय। गांधी, पटेल, सुभाष, नेहरू, मानवीय, लाजपतराय, तिलक जैसे राजनेता स्वाधीनता का वरदान दिला गये, उसी प्रकार के उच्च भावना सम्पन्न नेतृत्व यदि आज भी हमारे पास रहा होता तो राम-राज्य के वे सने मूर्तरूप धारण कर रहे होते, जिन्हें गांधी जी ने कोमल कल्पनाओं के साथ संजोया था। राजनैतिक गुत्थियां आज उठ खड़ी हुई हैं। वह छुट पुट, आयोगों, उपायों एवं समझौतों से कहीं सुलझेंगी। अग्रणी नेतृत्व को सद्भावना सम्पन्न बनाना ही, एकमात्र उपाय है जिससे देश की वास्तविक एवं सुस्थिर प्रगति सम्भव हो सकती है।

यही बात अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में लागू होती। विश्व-नेता विश्व संघ बना कर सारी दुनिया को एक राज्य परिवार बना लें। देश-देश के बीच होने वाले आक्रमणों एवं संघर्षों की सम्भावना समाप्त कर दें। विश्व न्यायालय, विश्व–सेना बना लें। सम्पत्ति, भूमि और ज्ञान का उचित वितरण करदें—तो अकाल, भुखमरी, बीमारी, अशिक्षा जैसे कष्टों का संसार से अंत हो जाय। जितनी जनसंख्या सेना में भर्ती है अस्त्र-शस्त्र तथा सेना-सामग्री बनाने में जितना धन खर्च होता है वह सब मानव-कल्याण के कामों में लगने लगे तो समस्त संसार में स्वर्गीय सुख-शांति की स्थापना में देर न लगे। यह कार्य युद्धों में एक दूसरे को जीतने से नहीं वरन् सार्वभौम विचार करने की शैली बदलने से सम्भव होगा। इन दिनों परमाणु अस्त्रों से तीसरे महायुद्ध की तैयारी हो रही है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की महत्वाकांक्षाएं इसी दिशा में संलग्न हैं। तीसरा सर्वनाशी महायुद्ध अणु आयुधों से हुआ तो वैज्ञानिक आइन्स्टीन की यह भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य होकर रहेगी कि—‘‘चौथा युद्ध पत्थरों से लड़ा जायेगा।’’ तब चिर संचित मानवीय सभ्यता का एक प्रकार से लोप हो जायगा और मनुष्य को अपना विकास आदिम युग की जंगली अवस्था से फिर आरम्भ करना होगा।

इन तथ्यों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से किसी भी विचारशील को एक ही निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि मनुष्य की व्यक्तिगत एवं सामूहिक समस्त समस्याओं, कठिनाइयों, उलझनों, विपत्तियों का एकमात्र कारण उसका दृष्टिकोण, भावनास्तर विकृत हो जाना ही है। इसे सुधारे बिना अन्य समस्त छुट पुट उपचार आयोजन कुछ क्षणिक प्रयोजन भले ही पूरा करें, वास्तविक एवं चिर समाधान उपस्थित नहीं कर सकते। आज या कल जब कभी भी वास्तविक चिरस्थायी और सुदृढ़ विश्व शांति की आवश्यकता अनुभव की जायेगी और उसके लिए दूरदर्शितापूर्ण हल खोजा जायगा तो वह हल एक ही होगा—‘‘मानव-प्राणी की विचार पद्धति में उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता के अनुरूप परिवर्तक प्रस्तुत करना।’’

हमें इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिये पूर्व भूमिका का सम्पादन करना है। सद्भावना, उत्कृष्ट विचारणा, विवेकशीलता एवं सत्यनिष्ठा के लिए जन-मानस में उत्कंठा तथा श्रद्धा का सृजन करना होगा। यह आकांक्षा जितनी ही तीव्र होती जायेगी, उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना उतनी ही निकट आती चली जायेगी।

हम दुनिया को बदलने की सोचते रहते हैं, चाहते हैं कि संसार में बुराई घटे और अच्छाई फैले। इस कार्य की पूर्ति के लिए आमतौर से सभा सम्मेलन करने की, प्रवचन व्याख्यान करने की, लेख लिखने और अखबार छापने की बात सोची जाती है, कुछ प्रचारात्मक, प्रदर्शनात्मक कार्यक्रम भी बनते हैं, प्रतियोगिताएं जुलूस, प्रदर्शिनी आदि के आयोजन होते हैं, और बात इतने तक ही समाप्त हो जाती है। यह कार्यक्रम बहुत दिन से चलते आ रहे हैं, इन का थोड़ा-सा असर भी होता है पर चिर प्रयत्नों के बावजूद वह लक्ष अभी भी बहुत दूर दिखाई पड़ता है जिसके लिए यह सब किया गया होता है कारण एक ही है कि लोगों की पैनी दृष्टि इन सुधारात्मक काम करने वालों के व्यक्तिगत जीवन पर जा टिकती है। वे यह जानना चाहते हैं कि यदि यह प्रचार वस्तुतः अच्छा और सच्चा है तो उसके संयोजकों ने, प्रचारकों ने अपने जीवन में उतारा ही होगा। लाभदायक उत्तम बात का लाभ कोई स्वयं ही अपनाने के लाभ से वंचित क्यों रहेगा? जनता की यह कसौटी सर्वथा उचित भी है। धर्म और सत्य के मार्ग पर चलना कष्टसाध्य है, उसमें लाभ तो है पर तुरन्त नहीं विलम्ब से वह मिलता है। इसके विपरीत अनैतिक कार्यों का अन्तिम परिणाम सुखद भले ही हो तुरन्त तो लाभ रहता ही है। इस तुरन्त के लाभ को छोड़कर, तुरन्त कष्टसाध्य प्रक्रिया में पड़ने के लिए लोग तभी तैयार हो सकते हैं जब उन्हें यह विश्वास हो जाय कि धर्म प्रचारक लोग उन्हें बहका तो नहीं रहे हैं। यदि उन्हें संदेह हो गया कि धर्मप्रचार का आडम्बर सस्ती वाहवाही लूटने और किसी स्वार्थ साधन के लिए किया जा रहा है तो लोग धर्म कर्म की बातों को सुन तो लेते हैं पर उन्हें अपनाने के लिए तैयार नहीं होते। प्रचार की बड़ी-बड़ी स्कीमें इसी चट्टान से टकरा कर टूट जाती हैं। आज अगणित सुधारवादी संस्थान प्रचुर जन-शक्ति और धन-शक्ति लगाकर मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाने का आन्दोलन कर रही है कि वह सब निष्फल ही जा रहा है स्थिति बदतर होती चली जा रही है।

बुराइयां दिन-दिन बढ़ती जा रही हैं इसका कारण एक ही है कि बुरे लोग अपने व्यवहारिक जीवन में उन बुराइयों को धारण करके लोगों पर प्रभाव डालते हैं कि इन कार्यों पर उनकी पूरी और पक्की निष्ठा है। निष्ठा की दृढ़ता ही दूसरों को प्रभावित करती है बुराइयों के प्रचार की, विस्तार की, शिक्षण की, आन्दोलन की कोई योजना कहीं से भी प्रसारित नहीं हो रही हैं। न उनके संवर्धन के लिए कोई संस्थान संगठन कहीं काम करता है फिर भी पाप-प्रचार का इतनी तीव्रता से बढ़ने का कारण जहां मनुष्य की पतनोन्मुख स्वतः प्रवृत्ति है वहां आस-पास के सारे वातावरण में लोगों को वही सब करते हुए देखने का प्रभाव भी एक बड़ा महत्वपूर्ण कारण है। अच्छाई को बढ़ाने के लिए दुहरा प्रयत्न आवश्यक है एक तो मन की पतनोन्मुख पशु प्रवृत्ति को उत्कर्ष की ओर अभिमुख करने के लिए स्वाध्याय और सत्संग की व्यवस्था रहनी चाहिए दूसरी ओर ऐसे अनुकरणीय भी सामने रहने चाहिए जिन्हें देखकर लोग प्रकाश ग्रहण करें और उनके पद चिन्हों पर चलते हुए अपना लक्ष एवं कार्यक्रम निर्धारित करे।

आत्म–कल्याण का लक्ष पूरा करने के लिए हमें आत्म-निर्माण का कार्यक्रम बनाना होगा इसके लिए भजन आवश्यक है। उपासना को पहला स्थान देना होगा पर केवल उसी तक सीमित हो जाने से लक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। (1) साधना (2) स्वाध्याय (3) संयम (4) सेवा, यह चार कार्य मिलने से एक सर्वतोमुखी सर्वांगपूर्ण अध्यात्मवाद बनता है। जिस प्रकार दोनों हाथ और दोनों पैर ठीक होने से हमारी शारीरिक क्षमता ठीक काम करती है उसी प्रकार इन चारों साधनों की समस्वरता से ही कोई व्यक्ति स्वस्थ अध्यात्मवादी बन सकता है। जिस व्यक्ति के दो हाथ और दो पैर के चार अंगों में से यदि एक या दो ही अवयव काम दें शेष अपंग या नष्ट हो जायं तो वह अपने जीवन को सक्षम कैसे बनाये रख सकेगा! जिनका अध्यात्मवाद केवल थोड़े से भजन तक सीमित हो गया है, स्वाध्याय, संयम और सेवा के लिए जिनके जीवन में कोई स्थान नहीं वे वैसे ही अपंग हैं जैसे केवल एक हाथ या केवल एक पैर वाला व्यक्ति होता है।

हमें यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि भजन का उद्देश्य जीवन की सारी प्रक्रिया को अध्यात्मवाद के अनुरूप ढाल लेने की प्रेरणा प्राप्त नहीं हो रही हो तो समझना चाहिए कि भजन में कहीं भूल है। मिर्च खाते ही जीभ में तीखापन लगता है, आग को छूते ही गर्मी अनुभव होती है, नशा पीते ही खुमारी आती है फिर भजन, यदि सच्चा है तो उसकी प्रेरणा जीवन को आदर्शवादी बनाने के लिए क्यों सामने उपस्थित न होगी? भजन वह में जो तुरन्त उच्चकोटि की विचारधारा में रमण करने की छटपटाहट अनुभव कराता है। स्वाध्याय और सत्संग की भूख जिसे जगी नहीं तो समझना चाहिए कि इसे अभी सच्चा भजन करने का अवसर नहीं मिला। इसी प्रकार जो स्वाध्याय करने लगा उसे अपनी वासनाओं और तृष्णाओं पर संयम करने की लगन लगेगी ही। वह अपने जीवन को अस्त, अव्यवस्थित, अनुपयुक्त रीति से व्यतीत नहीं कर सकता। शरीर की आवश्यकताएं पूरी करने की तरह उसे आत्मा की आवश्यकताएं पूर्ण करने का महत्व समझ पड़ेगा और वह अपना सर्वस्व लौकिक लाभों के लिए ही उत्सर्ग न कर देगा वरन् पारलौकिक हित साधन के लिए अपनी शक्ति का एक अच्छा भाग लगाना आरम्भ करेगा। जिसकी बुद्धि शरीर को ही सब कुछ नहीं मान बैठी है, जिसने आत्मा के अस्तित्व और उसके हित को भी समझना आरम्भ कर दिया है वह स्वार्थ साधन में ही कैसे लगा रहेगा? सेवा के लिए उसके जीवन में कुछ भी स्थान न हो ऐसा कैसे बन पड़ेगा?

भजन शब्द संस्कृति की ‘भज’ धातु से बनता है जिसका अर्थ होता है ‘सेवा’। जिसने भजन का मार्ग अपनाया उसके हर कदम पर सेवा की प्रक्रिया सामने आवेगी। स्वाध्याय और संयम के परिणाम स्वरूप अन्तःकरण का जिस प्रकार परिपाक होना है उसमें ‘सेवा’ अनिवार्य है। हर सच्चा अध्यात्म-वादी सेवा भावी अवश्य होगा। जिसे सेवा में रुचि नहीं वह भजनानन्दी हो सकता है, अध्यात्मवादी नहीं आज एकांगी संकुचित दृष्टि वाले, भजनानंदी बहुत हैं पर सर्वांगपूर्ण अध्यात्मवादी बनने का प्रयत्न कोई विरले ही करते हैं। यह मार्ग कष्ट साध्य है। लोग सस्ते नुस्खे ढूंढ़ने लगे हैं। उनको यह भ्रम हो गया है कि कुछ घंटा भजन पूजन करने मात्र से भगवान प्रसन्न होकर हमारा लोग परलोक संभाल देगा। यदि इतना ही सस्ता जीवन लक्ष रहा होता तो प्राचीन काल में किसी ऋषि मुनि ने, धर्मात्मा ने त्याग और तप का कष्टसाध्य मार्ग न अपनाया होता। वे हम से कम चतुर न थे। यदि सस्ते नुस्खे जीवन मुक्ति की, आत्म-कल्याण की समस्या को हल करने में सफल रहे होते तो कोई भी समझदार आदमी अध्यात्मिक आदर्शों का जीवन बनाने की कष्टसाध्य प्रक्रिया को अपनाने के लिए कदापि तैयार न हुआ होता।

आत्म–कल्याण का उद्देश्य केवल वे ही पूर्ण कर सकते हैं जो अपने जीवन में अध्यात्मवाद की स्थापना करने के लिए, उसी ढांचे में अपने को ढालने के लिए तैयार हैं। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग न प्राचीन काल में था, न अब है, न आगे होगा। सस्ते नुस्खे अपना कर जो चुटकी बजाते मुक्ति मिलने, सद्गति होने एवं परमात्मा के मिलने की आशा लगाये बैठे हैं उन्हें कल्पना जगत में नीचे उतर कर वास्तविकता को सुनना समझना पड़ेगा और सत्य और तथ्य को हृदयंगम करते हुए भजन को जीवन के कण-कण में ओत-प्रोत कर लेने का प्रयत्न करना होगा। हम देर तक धर्म-विनोद के खेल खेलते नहीं रह सकते। जीवन का अन्त निकट आता जा रहा है यदि कुछ वास्तविक आध्यात्मिक कार्य हम से न बन पड़ा तो फिर कुछ सत्परिणाम भी कहां से हाथ लगेगा?

हम अपने जीवन को आध्यात्मिक आदर्शों के अनुकूल ढालने का प्रयत्न करें। हमारे विचारों और कार्यों में एक सुव्यवस्थित हेर-फेर होना चाहिए तभी तो अध्यात्म का सत्परिणाम सामने प्रस्तुत होगा। अपने सुधारने और बनाने का कार्य हम जितनी तत्परता से करेंगे उसी के अनुकूल निकटवर्ती वातावरण में सुधार एवं निर्माण का कार्य आरम्भ हो जावेगा। प्रवचनों और लेखों की सीमित शक्ति से युग निर्माण का कार्य सम्पन्न हो सकना संभव नहीं यह तो तभी होगा जब हम अपना निज का जीवन एक विशेष ढांचे में ढाल कर लोगों को दिखावेंगे। प्राचीन काल के सभी धर्मोपदेशकों ने यही किया था। उसने अपने तप और त्याग का अनुपम आदर्श उपस्थित करके लाखों करोड़ों अन्तःकरणों को झकझोर डाला था और लोगों को अपने पीछे-पीछे अनेक कष्ट उठाते हुए भी चले आने के लिए तत्पर कर लिया था। बुद्ध, महावीर, दयानंद, गांधी, ईसा सुकरात, अरस्तु आदि महापुरुषों के प्रवचन नहीं उनके कार्य महत्वपूर्ण थे। जनता ने प्रकाश उनकी वाणी से नहीं कृतियों से ग्रहण किया था।

अपने सुधार में सब का सुधार समाया है। आत्म-निर्माण है। संसार को बनाने का कार्य अपने को बनाने से आरम्भ करना होगा। संसार को बनाने का कार्य हम स्वयं बदलेंगे। युग-निर्माण योजना का आरंभ दूसरों को उपदेश देने से नहीं वरन् अपने मन को समझाने से शुरू होगा। यदि हमारा अपना मन, हमारी बात मानने को तैयार नहीं हो सकता तो दूसरा कौन सुनेगा? कौन मानेगा! जीभ की नोंक से निकले हुए लच्छेदार प्रवचन दूसरों के कानों को प्रिय लग सकते हैं वे उसकी प्रशंसा भी कर सकते हैं, पर प्रभाव तो आत्मा का आत्मा पर पड़ता है, यदि हमारी आत्मा खोखली है तो उसका कोई प्रभाव किसी पर न पड़ेगा। इसलिए आत्म-कल्याण की दृष्टि से भी और युग-निर्माण की दृष्टि से भी हमें एक ही कार्य करना है—आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास। इस कार्यक्रम को पूर्ण करने में ही उन सेवा कार्यों का भी स्वतः समावेश हो जावेगा जिनके द्वारा जमाने को पलट देना युग को बदल डालना संभव है। इसी में स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय भी है।


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