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Books - हम बदलें तो दुनिया बदले

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सभ्य समाज का स्वरूप और आधार

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First 8 10 Last
जिस समाज में लोग एक दूसरे के दुःख दर्द में सम्मिलित रहते हैं, सुख सम्पत्ति को बांट कर रखते हैं और परस्पर स्नेह, सौजन्य का परिचय देते हुए स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं उसे देव समाज कहते हैं। जब जहां जन समूह इस प्रकार पारस्परिक सम्बन्ध बनाये रहता है तब वहां स्वर्गीय परिस्थितियां बनी रहती हैं। पर जब कभी लोग न्याय अन्याय का, उचित अनुचित का, कर्तव्य अकर्तव्य का विचार छोड़कर उपलब्ध सुविधा या सत्ता का अधिकाधिक प्रयोग साधन में करने लगते हैं तब क्लेश, द्वेष, और असन्तोष की प्रबलता बढ़ने लगती है। शोषण और उत्पीड़न का बाहुल्य होने से वैमनस्य और संघर्ष के दृश्य दिखाई पड़ने लगते हैं। पाप, दुराचार, अनीति, छल एवं अपराधों की प्रवृत्तियां जहां पनप रही होंगी वहां प्रगति का मार्ग रुक जायगा और पतन की व्यापक परिस्थितियां उत्पन्न होने लगेंगी। चातुर्य, विज्ञान एवं श्रम के बल पर आर्थिक स्थिति सुधारी जा सकती है पर उससे उपभोग के साधन मात्र बढ़ सकते हैं। मनुष्य की वास्तविक प्रगति एवं शांति तो पारस्परिक स्नेह सौजन्य एवं सहयोग पर निर्भर रहती है, यदि वह प्राप्त न हो सके तो विपुल साधन सामग्री पाकर भी सुख शान्ति के दर्शन दुर्लभ ही रहेंगे।

अच्छे व्यक्तित्व अच्छे समाज में ही जन्मते, पनपते और फलते-फूलते हैं। जिस समय का वातावरण दूषित तत्वों से भरा होता है उसकी अगली पीढ़ियां क्रमशः अधिक दुर्बल एवं पतित बनती चली जाती हैं। प्राचीन काल में जब भारत का सामाजिक स्तर ऊंचा था तो यहां घर-घर में नर-रत्न जन्मते थे और हर क्षेत्र में महा पुरुषों का बाहुल्य दृष्टिगोचर होता था। आज जब कि नीचता और दुष्टता की परिस्थितियां जोर पकड़ रही हैं तो संतानें भी उच्छृंखल, अशिष्ट, अस्वस्थ, अर्ध विक्षिप्त एवं अनैतिक मनोभूमि लेकर ही जन्मती हैं। बड़े होने पर उनमें से अधिकांश निकृष्ट स्तर का जीवन ही व्यतीत करते हैं। धन कमाने, पद प्राप्त करने या चातुर्य दिखाने में कोई व्यक्ति सफल हो जाय तो भी यदि यह भावना और कृतत्व की दृष्टि से गिरा हुआ है तो उसे सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय व्यक्ति ही माना जायगा। उसकी सफलतायें उसके निज के लिए सुविधाजनक हो सकती हैं पर उनसे देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति का कुछ भी भला नहीं हो सकता।

नम्रता, सज्जनता, कृतज्ञता, नागरिकता एवं कर्तव्य-परायणता की भावना से ही किसी का मन ओत-प्रोत रहे ऐसे पारस्परिक व्यवहार का प्रचलन हमें करना चाहिए। दूसरों के दुःख-सुख समझें और एक दूसरों की सहायता के लिए तत्परता प्रदर्शित करते हुए सन्तोष अनुभव करें, ऐसा जन मानस निर्माण किया जाना चाहिए। आदर्शवादी आचरण में एक दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयत्न करें यह प्रतिस्पर्धा तीव्र की जानी चाहिए। पशु प्रवृत्तियों का उन्मूलन और मानवीय सभ्यता का अभिवर्धन निरंतर होता रहे ऐसी योजनायें प्रचलित करने पर ही हम नव निर्वाण का लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे। संस्कृति पर ही सम्पन्नता निर्भर रहती है यह हमें कभी भी भूलना नहीं चाहिए।

नशेबाजी, फैशन परस्ती, सिनेमा, शान-शौकत तथा विलासिता की अनेक वस्तुओं में लोग पैसे को पानी की तरह बहाते हैं और पीछे आर्थिक तंगी का रोना रोते रहते हैं। आमदनी बढ़ाने के लिए सरकारी और गैर सरकारी योजनायें बन रही हैं। वेतन वृद्धि की मांग जोरों पर है पर जब तक मितव्ययिता और एक-एक पैसे के सदुपयोग की प्रवृत्ति न पनपेंगी तब तक आर्थिक संकट का निवारण किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगा। अपव्ययी लोगों के लिए तो कुबेर जितनी सम्पदा भी कम ही पड़ती रहेगी।

अमीरी का सम्मान यह हमारा एक ऐसा दूषित सामाजिक दृष्टिकोण है जिसके कारण लोग अनुचित रीति से भी धन कमाने में संकोच नहीं करते। धनी लोग अपने धन के द्वारा सुख भोगें इसमें हर्ज नहीं पर उन्हें इसी कारण सम्मान गौरव मिले कि वे धनी हैं तो यह अनुचित है। सम्मान केवल परमार्थी सदाचारी लोगों के लिए सुरक्षित रहना चाहिए। उन बेचारों को यदि यह भी न मिल सका तो उन्हें प्रोत्साहन देने के लिए तथा नये लोगों को श्रेष्ठता की ओर आकर्षण उत्पन्न करने के लिए कोई माध्यम न रह जायगा। जिस समाज में मनुष्य की महत्ता का मूल्यांकन धन के आधार पर होता है वह कभी उच्चस्तरीय प्रगति कर सकने में समर्थ नहीं हो सकता। आज हमारे समाज लोक सेवी, आदर्शवादी मान नहीं पा रहे हैं और जिनके पास धन है वे उसकी मनमानी लूट मचा रहे हैं, इस स्थिति से समाज का स्तर गिर जाने का भारी खतरा विद्यमान है। हमें समय रहते इस ओर से सावधान हो जाना चाहिए।

सम्पूर्ण समाज का छोटा रूप एक परिवार है। परिवार के रूप में समाज के एक छोटे अंग को सुविकसित करने का उत्तरदायित्व प्रत्येक गृहस्थ के कन्धे पर रखा हुआ है। इसलिये जहां परिवार का भरण-पोषण करने का ध्यान रखा जाता है वहां उसके गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने का प्रयत्न भी गृहपति को करना ही चाहिए। आज इसी की सबसे अधिक उपेक्षा की जाती है। समाज के नव-निर्माण के लिए यह नितांत आवश्यक है कि अपने अपने परिवार के नव-निर्माण कार्य में प्रत्येक गृहस्थ पूरी-पूरी रुचि लेने लगे। इसके लिए सर्व प्रथम पति-पत्नी को पतिव्रत और पत्नीव्रत की शपथ लेनी पड़ेगी। दोनों को दो शरीर एक प्राण होकर इतना आदर्श, इतना प्रेमपूर्ण, इतना सहयोग भरा जीवन बनाना पड़ेगा कि परिवार निर्माण की गाड़ी ठीक तरह लुढ़कने लगे। अपने अनुकरणीय आदर्श से ही पति पत्नी सारे परिवार को प्रगतिशील बना सकते हैं। बालकों में भी सुसंस्कार पैदा करते हैं पहले माता-पिता को उन्हें अपने स्वभाव का अंग बनाना होगा तो बच्चे उनका अनुसरण करते हुए वास्तविक प्रशिक्षण प्राप्त कर सकेंगे। समाज की नवरचना दम्पत्ति जीवन को परिष्कृत करने से होगी और इसके लिए पत्नी को सुधारने से पूर्व अपने को सुधारना होगा। इस प्रकार आत्म निर्माण की प्रक्रिया आरंभ करके परिवार, समाज एवं आगामी पीढ़ी को सुसंस्कृत समुन्नत बना सकना संभव होगा, यह विचार हमें जन मानस में भली प्रकार हृदयंगम करा देना चाहिये। समाज के नवनिर्माण का मूल आधार यही है।

समय की पाबन्दी, वचन का पालन पैसे का विवेकपूर्ण सद्व्यय सज्जनता और सहिष्णुता, श्रम का सम्मान, शिष्टाचार पूर्ण व्यवहार ईमानदारी की कमाई, अनैतिकता से घृणा, प्रसन्नतापूर्ण मुखाकृति, आहार और विहार का संयम, समूह के हित में स्वार्थ का परित्याग, न्याय और विवेक का सम्मान, स्वच्छता और सादगी यह हमारे सामाजिक गुण होने चाहिए। जिस समुदाय में यह सद् प्रवृत्तियां राष्ट्रीय गुण का रूप धारण कर लेती हैं उनका विकास स्वल्प साधनों से ही होता है किन्तु यदि इनका अभाव रहा तो प्रगति के अगणित साधन उपलब्ध होते हुए भी वह समाज दिन-दिन दुर्गति की ओर ही खिसकता जाता है।

सभ्य समाज वही है जिसमें हर नागरिक को अपना व्यक्तित्व विकसित करने एवं प्रगति पथ पर बढ़ने के लिए समान रूप से अवसर मिले। इस मार्ग में जितनी भी बाधायें हो उन्हें हटाया जाना चाहिए। लिंग भेद के कारण स्त्रियों को, जाति भेद के कारण शूद्रों को, आर्थिक असमानता के कारण गरीबों को मन मारकर आगे बढ़ने की क्षमता होते हुए भी विवश रुक बैठना पड़ता है। हमें सामाजिक न्याय का ऐसा प्रबंध करना होगा कि हर व्यक्ति निर्बाध गति से प्रगति का समान अवसर प्राप्त कर सके। धन का वितरण इस प्रकार होना चाहिये कि किसी को नतो मुफ्त-खोरी या आलस्य में पड़े-पड़े गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा मिले और न कोई श्रम की चक्की में पिस जाने पर भी भोजन-वस्त्र से वंचित रह जाया करे। शोषक और शोषित का वर्ग भेद मिटना चाहिए और हर व्यक्ति को अपने श्रम का उचित लाभ मिलने की सुविधा रहनी चाहिए। ऐसा समाज ही सभ्य समाज कहलाने का अधिकारी बन सकता है।

हमारे सामाजिक क्रांति का अर्थ हिन्दू जाति में प्रचलित कुछ कुरीतियों को हटा देने मात्र तक सीमित नहीं रहना चाहिए वरन् एक सभ्य, सुविकसित एवं सुसंस्कृत समाज की रचना होनी चाहिए। यदि अनैतिक दुष्प्रवृत्तियां प्रचलित रहीं तो कोई कुरीतियां मिटा भी दी जायं तो अन्य प्रकार की अन्य तरीके की बुराइयां फिर उठ खड़ी होंगी किन्तु यदि सज्जनता को जन-मानस का सहज स्वभाव बनाया जा सका तो आज की भयंकर दिखाई देने वाली कुरीतियां अनायास ही नष्ट हो जायेंगी।


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