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Books - राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

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अंग्रेजी की अनिवार्यता हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के विरुद्ध है

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आज देश में प्रतिवर्ष परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों की प्रतिशत-संख्या बढ़ती जा रही है। हर वर्ष हजारों, लाखों छात्रों का वर्ष और अभिभावकों का पैसा खराब हो रहा है। शिक्षा के संबंध में यह लक्षण अच्छा नहीं है।

विद्यार्थियों की इस बढ़ती हुई असफलता का कारण खोजने वालों का कहना है कि छात्रों के अनुत्तीर्ण होने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजी भाषा का अनिवार्य होना है। अधिकतर विद्यार्थी अंग्रेजी में ही फेल होते हैं।

विद्यार्थियों के अंग्रेजी में फेल होने के अनेक कारण हैं। अंग्रेजी भारतीयों के लिये अस्वाभाविक भाषा है। भारत की हिंदी तथा अन्य भाषायें संस्कृत से जन्म लेने के कारण पूरी तरह से पूर्ण एवं वैज्ञानिक हैं। सही तथा सच्ची भाषा के अभ्यस्त भारतीय विद्यार्थी अपूर्ण एवं अवैज्ञानिक भाषा अंग्रेजी को सरलतापूर्वक ग्रहण नहीं कर पाते। वह उनके स्वभाव के प्रतिकूल, दुरूह तथा अग्राह्य पड़ती है। इसी कारण से उनमें अंग्रेजी के प्रति सच्ची अभिरुचि उत्पन्न नहीं होती। अनिवार्य विषय के नाते वे उसे पढ़ते तो हैं, किंतु अनिच्छापूर्वक। फलस्वरूप उसमें अनुत्तीर्ण होकर समय एवं धन की हानि उठाते हैं।

देश की तरुण पीढ़ी में अपेक्षाकृत कुछ अधिक राष्ट्रीय गौरव की झलक आती-जाती है। विदेशी भाषा के होने के कारण उसके प्रति स्वाभाविक श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो पाती। अंग्रेजी पढ़ते समय उसके गुप्त मन में यह भावना अवश्य रहती है कि उन्हें एक विदेशी भाषा जबरदस्ती पढ़ाई जाती है—वह भाषा अंग्रेजों की मानसिक दासता की प्रतीक है। इस आत्मग्लानि के कारण भी अंग्रेजी से उनकी भावनाओं का सामंजस्य नहीं हो पाता। अंततः बेमन पढ़ने के कारण विद्यार्थी अंग्रेजी में फेल होते रहते हैं।

उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं तक अंग्रेजी विषय भी हिंदी के माध्यम से ही पढ़ाया जाता है। अंग्रेजी में कोई विशेष योग्यता न पा सकने के कारण उनके लिये जीवन में अंग्रेजी की कोई उपयोगिता सिद्ध नहीं होती। इसलिये अंग्रेजी उनके लिये शिक्षा-काल में एक निरर्थक किंतु अनिवार्य बोझ बनी रहती है और इसी कारण वे उसमें फेल होते रहते हैं।

अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण फेल होने के डर से किशोर शिक्षा की ओर से उदासीन होने लगते हैं। अंग्रेजी की नैय्या पार लगाने की चिंता में अधिक समय देने के कारण उनके अन्य विषय कमजोर रह जाते हैं, जिससे बहुत से विद्यार्थी तो अनेक विषयों में अनुत्तीर्ण हो जाया करते हैं। इस असफलता का छात्रों के उत्साह पर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावक भी धन की व्यर्थता के कारण बच्चों को शिक्षा दिलाने में संकोच करने लगते हैं। इससे समग्र देश की शैक्षणिक आवश्यकता पर अवांछनीय प्रभाव पड़ता है। ऐसी दशा में उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं तक अंग्रेजी की अनिवार्यता का कोई महत्त्व समझ में नहीं आता।

अंग्रेजी रखी जाये, किंतु अनिवार्य न की जाये तब भी असफल छात्रों की संख्या में घटोत्तरी हो सकती है, जिन्हें रुचिकर हो अथवा जो छात्र उसे सीख सकने का साहस रखें, वहीं अंग्रेजी लें और अपनी रुचि के अनुसार उसमें प्रयत्न करके पास होते रहें। इससे अनुत्तीर्ण विद्यार्थियों की प्रतिशत संख्या तो घटेगी ही, साथ ही शिक्षा के संबंध में बहुत से छात्रों तथा अभिभावकों की हिम्मत भी नहीं टूटेगी। अंग्रेजी के कारण अनेक साल फेल होकर और बीच में ही पढ़ाई छोड़कर जो युवक अपनी जिंदगी खराब कर लेते हैं, वे अंग्रेजी को ऐच्छिक विषय बना दिये जाने पर इस अभिशाप से बच जायें।

मुख्य अथवा मातृ-भाषा के साथ अन्य भाषायें सीखना योग्यता के लिये आवश्यक हो सकता है। किंतु क्या जरूरी है कि वह अन्य भाषा विदेशी ही हो। भारत में 14 साहित्य संपन्न भाषायें हैं। उनमें से किसी एक को इच्छानुसार अनिवार्य कर दिया जाये। इससे छात्रों की योग्यता तो बढ़ेगी ही साथ ही प्रांतीयता का विष भी दूर होगा और यदि संस्कृत को पूरे देश में दूसरी भाषा के रूप में अनिवार्य कर दिया जाये तब तो देश की एकता चट्टान की तरह सुदृढ़ हो जाये। भारतीय धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति की आश्चर्यजनक वृद्धि होने लगे।

यदि किसी विदेशी भाषा का सीखा जाना ही आवश्यक समझा जाए तो यूरोप के देश इंग्लैंड की भाषा अंग्रेजी को ही क्यों अनिवार्य किया जाये। क्यों न किसी पड़ौसी देशों की जर्मन, फ्रेंच, लेटिन, अरबी, रशियन, चीनी, जापानी आदि की भाषा ही अनिवार्य की जाए। इससे पड़ौसी देशों को एक-दूसरे के नजदीक आने और ठीक प्रकार से समझने में सहायता मिल सकती है। इसके अतिरिक्त सीधी-सच्ची बात वह है कि अपने यहां उसी देश की भाषा अनिवार्य की जानी चाहिए, जो देश हमारी भाषा को भी अपने यहां अनिवार्य करें। अंग्रेजी को भारत की शिक्षा व्यवस्था में अनिवार्य करने से लाभ तो कुछ नहीं है, उल्टी हानि ही हानि है।

अंग्रेजों की राजनैतिक गुलामी से मुक्ति मिल जाने पर भी अंग्रेजी का पुछल्ला भारतीयों को मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं होने दे रहा है। अंग्रेजी के कारण भारतीयों के मस्तिष्क में अंग्रेजों की महत्ता एवं श्रेष्ठता अभी तक घर किये हुए हैं। जिससे हमारी राजनीति पर परोक्ष रूप से अंग्रेजों का प्रभाव बना हुआ है। अंग्रेजी पढ़ने के कारण भारतीयों के सोचने का ढंग अंग्रेजों के अनुरूप ही रहता है। उनकी सभ्यता एवं संस्कृति का प्रभाव हमारे हृदयों पर पड़ता है। अंग्रेजी के कारण अंग्रेज अन्यों की अपेक्षा अधिक निकट तथा मित्रों जैसे अनुभव होते हैं। उनके प्रति अधिक विश्वास एवं सहानुभूति बनी रहती है, जिसका चतुर अंग्रेज प्रत्यक्ष एवं परोक्ष किसी न किसी रूप में लाभ उठा ही लेते हैं।

सच पूछा जाए तो अंग्रेजी की महत्ता संसार में खत्म हो गई है। कोई भी स्वाधीन देश उन्हें अब श्रेष्ठ नहीं मानता, न उनकी राजनीति से प्रेरणा ही लेता है। भारत ही एक ऐसा देश है, जो उनको उनकी भाषा के माध्यम से श्रेष्ठता एवं महत्ता दिये हुए है। एक अरब की जनसंख्या वाला तथा संसार का महत्त्वपूर्ण देश भारत जब उनको महत्ता देता है, तो अन्य अनेक देशों पर तो अंग्रेजों का प्रभाव यों ही बढ़ जाता है। भारत के हित में अंग्रेजों की यह महत्ता ठीक नहीं है।

संसार में अंग्रेजों से कहीं उन्नत, विकसित तथा प्रगतिशीलता विशाल राष्ट्र मौजूद हैं। उनकी अवश्य इच्छा रहती होगी कि भारत जैसा विशाल देश उनकी ओर आत्मीयता का हाथ बढ़ाये, साथ ही वे यह भी क्यों न चाहते होंगे कि भारत को जब विदेशी भाषा अपनाना ही है तो वह हमारे भाषा को क्यों न अपनाये, जबकि उनका राष्ट्र मरणोन्मुख इंग्लैंड से अधिक शक्तिशाली विशाल तथा उन्नत राष्ट्र है। अपनी इस आंतरिक आकांक्षा से निराश होकर क्या उन देशों की सहानुभूति प्रच्छन्न रूप से भारत के प्रति कम न हो जाती होगी? क्या बहुत से ऐसे राष्ट्र भारत को जितनी मित्रता अपेक्षित हो सकती है, अपने नीति विरोधी अंग्रेजों की भाषा को सिरमौर बनाने से भारत के प्रति अन्यथा भाव से परिचालित नहीं होते होंगे? क्या संसार के अनेक स्वाधीन एवं स्वाभिमानी राष्ट्र भारत को अंग्रेजों की भाषायी दासता करते देखकर उससे मन ही मन घृणा न करते होंगे? क्या भारत को अंग्रेजी पर निर्भर देखकर अपनी राष्ट्र भाषा के धनी देश यह सोचने पर मजबूर न होते होंगे कि भारतीयों के पास कोई अपनी समर्थ एवं समृद्ध भाषा नहीं है? अथवा यह हीन-भाव से मोहित होकर राष्ट्र की सर्वांगीण एवं संपूर्ण स्वाधीन राष्ट्रों की भाव-भूमि में भारत के प्रति इस प्रकार के शंकाकुल विचार देश की कितनी राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा गुरुता संबंधी हानि करते होंगे? क्या अंग्रेजी के भक्त भारतीय कभी इस पर विचार करने का कष्ट करेंगे?

अनिवार्यता के कारण अंग्रेजी की अपर्याप्त, अपूर्ण तथा संदिग्ध योग्यता पा लेने पर स्कूल, कॉलेजों से निकला हुआ तरुण-वर्ग किसी ऑफिस का बाबू बन जाने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकता है? हां, इतना जरूर होगा कि थोड़ी-बहुत अंग्रेजी जान लेने से वह काला अंग्रेज बनकर पाश्चात्य सभ्यता का भक्त जरूर बन जायेगा। आज भारत के तरुण-वर्ग में भारतीयता के स्थान पर वेश-भूषा, आहार-विहार तथा आचार-विचार में जो ईसाइयत की झलक गहरी होती जा रही है, वह सब इस अंग्रेजी की अनिवार्यता के दोष के कारण ही है।

अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण महाराष्ट्र के निराशापूर्ण परीक्षाफलों को देखते हुए शिक्षाविद् श्री प्रभाकर कानडे ने ठीक ही कहा है—‘अंग्रेजी भारत की नई पीढ़ी के लिये घातक भाषा है। प्रगति तथा उन्नति की सीढ़ी जब तक अंग्रेजी बनी रहेगी, ऐसी दशा में देश का लोकतंत्र फल-फूल सकना तो दूर, जीवित भी रहेगा, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

विदेशी भाषा के प्रभाव के कारण देश में निष्कलंक राष्ट्रीयता का अभाव रहना स्वाभाविक है। जिन लोगों अथवा जिस देश की भाषा पढ़ी जायेगी, उसका दृष्टिकोण स्वभावतः अपने दृष्टिकोण के ऊपर रहेगा। भले ही अंग्रेजी की शिक्षा आज ऊंची सरकारी नौकरी दिला सकने में सफल हो जाये, किंतु वह तरुण वर्ग को भारतीय दृष्टिकोण प्रदान नहीं कर सकती। अंग्रेजी के अनिवार्य शिक्षा—हो सकता है, समझी-बूझी, घिसी-पिटी तथा अभ्यासपूर्ण अंग्रेज नौकरशाही को सुभीता देती रहे, उसे चलाने में सहायक बनी रहे, किंतु यह निश्चित है कि वह भारत को सांस्कृतिक तेज से ओत-प्रोत एक अभिनव राष्ट्र बनने में बहुत दूर तक बाधक होगी।

संत विनोबा भावे ने भारत की नौकरशाही पर खेद प्रकट करते हुए ठीक ही कहा है—‘‘बड़ी अद्भुत बात है कि शासन का सारा कारोबार आज भी उन हाथों में ही है, जिन हाथों ने देशभक्तों को जेल में डाला था और उन पर गोली चलाई थी। रामराज्य के शत्रु ही आज स्वराज्य के सिपाही संरक्षक तथा संचालक बन गये हैं। स्वतंत्रता के इतने साल बाद भी वही नौकरशाही मौजूद है।’’

आचार्य विनोबा का यह कथन अक्षरशः सत्य है। पराधीनता काल की नौकरशाही आज स्वतंत्र भारत में भी यथावत् चली आ रही है और जब तक भारत की राज्य भाषा अंग्रेजी बनी रहेगी और उच्च पद पाने के लिये उसकी अनिवार्यता अपेक्षित रहेगी, तब तक अंग्रेजकालीन नौकरशाही की परंपरा चलती रहेगी और जनता सच्चे स्वराज का सुख न पा सकेगी। यदि आज अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए, तो निश्चय ही देश से नौकरशाही तथा लालफीताशाही की परंपरा समाप्त हो जाए।

सरकार में ऊंचा पद पाने के लिये अंग्रेजी की अपेक्षित ऊंची योग्यता जिन विद्यालयों में मिल सकती है, वे इतने महंगे हैं कि साधारण लोग उनमें अपने बच्चों को नहीं पढ़ा सकते। स्वाभाविक है कि उनमें नौकरशाहों, पूंजीपतियों तथा मंत्रियों आदि के ही बच्चे पढ़ सकते हैं और वे ही सरकार के स्तंभ बनकर शासन में स्थान पायेंगे। साधारण जनता के नौनिहाल इन लाभों तथा सम्मानों से सुयोग्य होने पर भी वंचित रह जायेंगे। ऐसी दशा में आगे चलकर कुछ ही समय में इस प्रजातंत्र का क्या स्वरूप बनेगा? नहीं कहा जा सकता।

भारत में अंग्रेजी को पोषण दिये जाने से इस प्रकार की होने वाली हानियों तथा अहितों को ध्यान में रखकर क्या उसके समर्थन में मत देने अथवा लाभ उठाने वाले अंग्रेजी भक्त राष्ट्रीय दृष्टिकोण से विचार कर सकेंगे?

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