
हम विदेशी सहायता के आश्रित
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एक समय था जब केवल वीरता की लड़ाई हुआ करती थी। दोनों सेनायें एक स्थान पर एकत्रित होती थीं और साधारण अस्त्र-शस्त्रों से लड़ा करती थीं। तब युद्ध में सिपाहियों का साहस, रणकौशल स्वास्थ्य और शौर्य ही विजय के लिए प्रमुख हुआ करते थे। जिस राज्य की सेना इन गुणों से परिपूर्ण होती थी—विजय श्री प्रायः उन्हीं के हाथों लगती थी। अस्त्र-शस्त्रों के घटिया या बढ़िया होने का प्रश्न उस समय अधिक महत्त्व नहीं रखता था।
किंतु सन् 1962 के चीनी आक्रमण ने यह सिद्ध कर दिया कि इस युग में सैनिकों का मनोबल ऊंचा होना ही युद्ध की विजय के लिए पर्याप्त नहीं, वरन् अब लड़ाई साधनों की अपेक्षा करती है। वही देश विजय पाते हैं, जो युद्ध के प्रत्येक साधन आवश्यकतानुसार पूरे कर सकने में समर्थ होते हैं। इस युद्ध में जहां चीनी फौजें बढ़िया किस्म की रायफलों, मशीनगनों, मोटरों और टैंकों से लैस थीं, वहां भारतीय सैनिकों के पास पूरी तौर पर ‘‘थ्री नाट थ्री’’ राइफलें भी उपलब्ध न थी।
चीनी आक्रमण के बाद देश की राजनीति ने सुरक्षा की दिशा में एक नया मोड़ लिया। सुरक्षा के अधिक से अधिक साधन जुटाये गये। सिपाहियों को सभी प्रकार के युद्ध उपकरण से सुसज्जित किया गया। इसके सत्परिणाम भी जल्दी ही दिखाई दिये। इस युद्ध में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी, उसमें हमारे सैनिकों की वीरता तो थी ही, पर विजय के कारणों में एक बात यह भी थी कि सैनिकों को पूरी सैन्य-सामग्रियां समय पर उपलब्ध की जाती रहीं, इसी से वे आत्म-विश्वासपूर्वक लड़ सके और शत्रु पर विजय प्राप्त कर सके।
पर इस युद्ध से हमें एक नया पाठ पढ़ने को मिला। युद्ध के दौरान भारत पर जो कूटनीतिक अड़ंगेबाजी डाली गई, उसने यह सिखाया कि विदेश नीति में स्वतंत्रता रखनी हो तो देश को प्रत्येक क्षेत्र में आत्म-निर्भर होना चाहिए। अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण हो अथवा खाद्य या औद्योगिक उत्पादन—पूरी तौर पर आत्म-निर्भर हुए बिना राष्ट्र की स्वतंत्रता, सम्मान और प्रादेशिक अखंडता की रक्षा नहीं की जा सकती। जिसे बात-बात पर दूसरों का मुंह ताकना पड़े, वह अपनी स्वाधीनता को स्थिर नहीं रख सकता; यह बात उस समय समझ में आई जब युद्ध के प्रश्न को लेकर अमेरिका और ब्रिटेन से देश को हथियारों की सप्लाई बंद कर दी गई। रूस को छोड़कर कोई दूसरा देश हमारी सहायता को तैयार न हुआ। यदि उस समय हमारे अपने निर्माण के कुछ अस्त्र-शस्त्र मौजूद न होते, तो क्या शक था इस युद्ध में हमें पराजय का मुंह देखना पड़ता या विदेशी दबाव के आगे झुकना पड़ता और कुछ प्रभावशाली देश जैसा कहते वैसा करना पड़ता। अमेरिका ने एक और धमकी देकर इस बात को पूर्णतया स्पष्ट कर दिया। कश्मीर के मामले में दबाव डालते हुए पी.एल.48. के समझौते के अंतर्गत मिलने वाले खाद्यान्न को देने पर पाबंदी लगा दी। इस धमकी का स्पष्ट आशय यह है कि—‘‘तुम हमारी बात मानो, कश्मीर पाकिस्तान को दे दो, अन्यथा तुम्हें भूखों मरना पड़ेगा।’’
सौभाग्य से समय रहते देश चेत गया और स्वावलंबन की दिशा में मजबूत कदम उठाया। आवश्यक सामान का उत्पादन देश में ही शुरू कर दिया गया, उसके कारण हमारी शक्ति बढ़ी। रक्षा उत्पादन के मामले में हमारे प्रयोग शत-प्रतिशत सफल हुए हैं। उदाहरण के लिये भारत में बने ‘‘नैट’’ विमानों की सफलता पर प्रसन्नता पर गर्व अनुभव किया जा सकता है। जिस समय भारत में इनका निर्माण किया जा रहा था, उस समय विदेशी बुद्धिमानों ने भारत का मजाक उड़ाया था और यहां तक कहा गया था कि भारत के यह प्रयत्न शायद कारगर न हों, पर हां, यदि वह पश्चिमी गुट में शामिल हो जाता है तो निश्चय ही उसकी सैनिक शक्ति मजबूत की जा सकती है। हमारे निर्माण को उस समय अपव्यय कहा गया, पर इस युद्ध में इन विमानों ने जिस तरह अमेरिका में बने सेबर जेटों का मान भंग किया, उसे देखकर संसार आश्चर्यचकित रह गया।
इस बात की पुष्टि स्वयं पाकिस्तान के ब्रिटेन स्थित उच्चायुक्त आगा हिलाली ने की। उन्होंने कहा—‘‘युद्ध यदि लंबा हुआ तो भारत की जीत सुनिश्चित है; क्योंकि वह सैनिक उपकरणों की 80 प्रतिशत मात्रा स्वयं तैयार कर लेता है, जबकि पाकिस्तान इस संबंध में पूर्णतया पराश्रित है।’’ इस वक्तव्य से भारत-पाक की लड़ाई की पूरी स्थिति प्रकट हो जाती है, साथ यह प्रेरणा मिलती है कि, शेष 20 प्रतिशत सामान का निर्माण-कार्य भी जल्दी ही प्रारंभ कर देना चाहिये, क्योंकि जो देश पूरी तौर पर आत्म–निर्भर होते हैं—वे ही विदेशी दबाव में आये बिना लंबी लड़ाई लड़ सकते हैं।
जिन दिनों कानपुर में ‘एवरो’ विमान के निर्माण की चर्चा हो रही थी उन दिनों भी विदेशों में रक्षामंत्री श्री कृष्णमेनन का बड़ा उपहास किया गया था। हमारे विमान अच्छे हैं या घटिया किस्म के, हम इस गहराई में नहीं जाना चाहते, पर इतना तो स्पष्ट है कि आवश्यकता पड़े तो नष्ट हुए विमानों की क्षतिपूर्ति में हमें कम से कम समय लगेगा और हमें युद्ध बंद करने की आवश्यकता न पड़ेगी, जबकि पाकिस्तान को उसके लिए औरों का मुंह ताकना पड़ेगा।
हमारी आत्म-निर्भरता हर क्षेत्र में कामयाब कर रही है। लाहौर क्षेत्र पर जब भारतीय सेनायें आगे बढ़ रहीं थीं—उस समय ब्रिटेन ने तेल की सप्लाई बंद कर देने की धमकी दी थी। युद्ध में टैंकों के परिचालन में बहुत तेल जलता है। मोटरों और जीपों में भी तेल और पेट्रोल की भारी खपत होती है। ब्रिटेन की इस धमकी को यदि क्रियान्वित कर दिया जाय तो हमारे ऊपर उसका वैसा असर न पड़ेगा, जैसा कि पाकिस्तान पर। तेल की कमी के कारण पाकिस्तान में विदेशी जहाजों को कराची में उतरने की अनुमति नहीं थी, बाजार में भी उसका कंट्रोल लगा दिया गया था और उसकी बिक्री पर भी रोक लगवा दी गई थी।
सौभाग्यवश हमारे देश में मिट्टी तेल के उत्पादन के पर्याप्त स्रोत ढूंढ़ लिये गये थे। रुद्र सागर, खंभात, मोरान, अंकलेश्वर तथा आसाम के अन्य क्षेत्रों में तेल का पता लगा लिया गया था और बरौनी, दिगबोई, विशाखापट्टनम तथा बंबई आदि स्थानों में रिफाइनरिंग की व्यवस्था कर दी गई थी। फलस्वरूप समय पर आवश्यक तेल की मात्रा उपलब्ध होती रही और उसकी कमी के कारण लड़ाई में अड़चन आने की कोई बाधा न पड़ी ब्रिटेन की यह धमकी कि—‘‘तेल बंद कर दो, युद्ध अपने आप बंद हो जायेगा।’’ इसका हमारे ऊपर कोई असर न हुआ।
रूपनारायणपुर में भारत ने विशाल केबुल कारखाना खड़ा किया है, बेंगलोर तथा जबलपुर में टेलीफोन उद्योग सफलतापूर्वक चल रहा है। भले ही शांति प्रयोगों के लिये हो, पर आणविक शक्ति का निर्माण भी यहां प्रारंभ हो चुका है। तारापुर तथा ट्रांबे की अणु भट्ठियों से प्लेटोनियम की इतनी मात्रा उपलब्ध हो जाती है, जिससे आवश्यकता पड़ने पर भारतवर्ष प्रतिवर्ष कम से कम दो अणुबम बना सकता है। इसी प्रकार भारत में बनी ‘‘शक्तिमान्’’ ट्रकें तथा ‘‘निशान’’ और ‘‘झोंगा’’ जीपें भी सामरिक दृष्टि से वरदान सिद्ध हुईं हैं। इनसे न केवल विदेशी मुद्रा की बचत हुई, अपितु समय पर आवश्यकता की पूर्ति की सुविधा भी बढ़ी है।
हमारा छोटा-बड़ा कोई भी उत्पादन बेकार नहीं गया, यह निर्विवाद सत्य है। पर एक बात और भी महत्वपूर्ण है जिस पर अभी ध्यान देने की आवश्यकता है, वह बात यह है कि आजकल के युद्ध केवल सीमा क्षेत्रों पर ही नहीं लड़े जाते, वरन् उस युद्ध में प्रत्येक नागरिक का काम होता है। फैक्ट्रियों के रक्षा उत्पादन में अस्त्र-शस्त्रों की बात पूरी हो जाती है, पर सैनिकों के लिये अन्न और वस्त्रों की भी पर्याप्त व्यवस्था होनी आवश्यक है। एक सिपाही के साथ अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र के सभी वर्ग के लोग लड़ते हैं, तब कामयाबी होती है। फैक्ट्री के कर्मचारी लड़ाई का सामान बनाकर देते हैं। मिल मजदूर कपड़ा बुनकर देते हैं, किसान अन्न पैदा कर भोजन की व्यवस्था करते हैं। यह तीन आवश्यकतायें सिपाही से सीधा संबंध रखती हैं, अतः इन उत्पादनों से पूरी तौर पर आत्म-निर्भर होने की आवश्यकता है।
इसके अतिरिक्त रेलें मोर्चों तक समान पहुंचाती हैं, मोटरें भी इस काम में प्रयुक्त होती हैं। मशीनों से सैनिकों के कपड़ों की सिलाई व मजबूत जूतों की आवश्यकता होती है और उसके लिए देश के बच्चे-बच्चे को एक-जुट, एक-मन, एक-प्राण होकर काम करने की आवश्यकता है। हर व्यक्ति अपने कर्तव्य का समुचित पालन करेगा तो देश हर मोर्चे पर विजय प्राप्त करेगा।