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Books - राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें?

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अश्लीलता के अजगर से देश को बचाइए

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वह हर वस्तु, विचार अथवा व्यवहार अश्लील है, जो मनुष्य के मन को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी निर्लज्जता की ओर संकेत करता है।

किसी भी प्रकार की अश्लीलता फिर चाहे वह वैचारिक हो अथवा व्यावहारिक हम मनुष्य कहलाने वाले लोगों को शोभा नहीं देती। आज समाज में बुरी तरह फैली हुई अश्लीलता को घृणित होते हुए हर अच्छा आदमी भी उसी प्रकार मजबूरन सहन कर रहा है, जिस प्रकार निकम्मे निवासियों की गलियों से गुजरता हुआ राही मल-मूत्र के साथ सड़ते हुए कूड़े-कर्कट की भयानक दुर्गंध सह लेता है।

भारत जैसे धार्मिक एवं नैतिक देश में जो अश्लीलता का आज व्यापक फैलाव दीख रहा है, उसके अनेक कारणों में आधारभूत कारण पाश्चात्यों के निकट संपर्क में आना है। अंग्रेजों और उन्हीं के भाई-बंद अन्य पाश्चात्यों में नैतिकता की परिभाषा भारतीयों जैसी तो है नहीं। अश्लीलता का जो अर्थ हम भारतीयों के बीच मान्य है, वह अर्थ पाश्चात्य देशों में नहीं है। उनके यहां इनका क्या अर्थ है? यह ठीक से नहीं कहा जा सकता। खुले आम सड़कों तक पर चुंबन, आलिंगन उनके यहां सभ्यता एवं प्रगतिशीलता में शामिल है। नग्न-नृत्य (बैले डांस) और नग्न चलचित्र देखना उनके यहां बुरे नहीं माने जाते। नारी के शारीरिक-सौष्ठव को चित्रित करने के लिए चित्रकारों को मॉडल-गर्ल्स का मिल जाना एक साधारण बात है। यह मॉडल-गर्ल्स न केवल अपनी भंगिमाओं की अभिव्यक्ति तक ही सीमित रहती है, बल्कि निर्मुक्त-निर्मर्याद होकर चित्रकार अथवा फोटोग्राफर की इच्छानुसार अपनी भाव-भंगिमा प्रदान करती हैं। नंगे चित्र देना और लेना पाश्चात्य सभ्यता की कला में शामिल हैं। नारियों के ही नहीं, पुरुषों के भी नग्न चित्र बिकते पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त और न जाने कितनी ही ऐसी भारत में अश्लील मानी जाने वाली बातें, वहां सभ्यता एवं कलाओं का अंग बनी हुई हैं।

एक समय सभ्य भारत में भी विविध भाव-भंगिमाओं के साथ स्त्री-पुरुषों के नग्न एवं अर्द्ध-नग्न मूर्तियां बनाई जाती थीं, जो प्राचीन मंदिरों तथा गुफाओं में अब तक पाई जाती हैं। किंतु उनका क्षेत्र जन साधारण से बहुत दूर था। समाज में सामान्य रूप से उनकी प्रियता का कभी भी प्रचार नहीं हुआ।

वह कला बहुत ही उच्चमना कलाकारों तक ही सीमित रहती थी, जिसकी अभिव्यक्ति वे प्रौढ़ मन वाले मस्तिष्क वाले व्यक्तियों की शिक्षा के लिए ही करते थे। उस समय की अनग्न मूर्तियां अथवा चित्र केवल मानवीय ज्ञान के लिए ही बनाई गई थीं, मनोरंजन अथवा उत्तेजना के लिए नहीं। इतने पर भी भारत ने उसको कभी अपनी जन सभ्यता में शामिल नहीं किया।

इसके अतिरिक्त एक समय का साहित्य भी कुछ-कुछ अश्लीलता के निकट आ पहुंचा था। वह काल ‘रीति काल’ कहा जाता है। मुख्यतया नायिका भेद पर आधारित रीतिकालीन साहित्य का कुछ अंश और कतिपय कवि निःसंदेह शालीनता की परिधि लांघ गये हैं। फिर भी जनसाधारण में इसका बहुत ही कम प्रचार था। जनसाधारण में तुलसी, सूर, नंददास, कबीर जैसे भक्तिकालीन कवियों का भक्ति साहित्य की अभिरुचि प्रचार एवं पठन-पाठन की प्रमुखता पाये हुए था।

रीतिकालीन शृंगार साहित्य मुसलमान बादशाहों की प्रेरणा का फल था और वह वास्तव में विलासी राजा, नवाबों और बादशाह के दरबार तक अधिक सीमित ही रहा है। जिस पर भी इसके विकृत प्रभाव ने राजदरबारों से लेकर जनसाधारण तक अपनी अमांगलिक छाप छोड़ी थी, जिसके कारण उन विलासी नवाबों और बादशाहों का घोर पतन हुआ और शीघ्र ही उनकी सारी हस्ती धूल में मिल गई और प्रमाद में पड़ी जनता भी सैकड़ों बार विदेशी लुटेरों द्वारा जी भरकर लूटी गई और अंत में इस पतन की परिणति अंग्रेजों की गुलामी में होकर ही रही। इतना सब कुछ होने पर भी वह साहित्यिक अश्लीलता न तो भारत की मूल सभ्यता में मानी गई और न वास्तविक साहित्यों में। भारत की अपनी नैतिकता जहां की तहां रही और जनता का सामान्य चरित्र भी न गिरने पाया था। साथ ही जो कुछ थोड़ा बहुत चरित्र का पतन हुआ था, वह तत्कालीन समर्थ गुरु रामदास जैसे महान् संत परंपरा ने उठा लिया था।

जिस समय अंग्रेजों ने भारत पर अपना पूरा अधिकार कर लिया था, उस समय कतिपय राजा-नवाबों को छोड़कर भारतीयों का नैतिक चरित्र बहुत ऊंचा था, जो कि भारतीयों को पूर्णरूपेण अपना मानसिक गुलाम बनाने के प्रयत्न में अंग्रेजों के लिये एक बहुत बड़ी बाधा बना हुआ था।

अपनी हुकूमत निष्कंटक करने के लिये अंग्रेज भारतीयों के नैतिक बल का ह्रास अवश्य कर देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने पद, पदवी और संपर्क का जाल बिछाकर भारतीयों को जाल में फंसाना शुरू कर दिया। अंग्रेजों की नीति सफल हुई और भारत की भोली जनता अपनी नैतिक हानि कर बैठी। एक बार गलत रास्ते पर डालकर फिर तो अंग्रेजों ने उन्हें बैले-डांस जैसे अश्लीलता मनोरंजनों का अभ्यस्त बना दिया। अश्लील साहित्य, चित्रों तथा चलचित्रों का इतना प्रचार करा दिया कि उन्हीं की तरह भारतीय भी इन्हें सभ्यता, प्रगति का लक्षण मानने लगे। नैतिकता के सामाजिक नियम और सरकारी कानून ढीले कर दिये गये।

अंग्रेज प्रभुओं की कृपा से लाई गई यह अश्लीलता बढ़ते-बढ़ते आज कहां तक पहुंच गई है, इसे देखकर तो हृदय ग्लानि से भर उठता है। आज खुले आम बाजारों में  केवल साधारण नारियों की अश्लील प्रतिमायें ही, बल्कि आदर्श नारियों के यहां तक कि देवियों एवं सतियों के अभद्र भाव-भंगिमाओं के चित्र बिकते और दुकानों पर टंगे दिखाई देते हैं।

राधा-कृष्ण युगल की तो चित्रकारों ने मिट्टी खराब कर रखी थी। अब तो कला और स्वाभाविकता के नाम पर उमा-महेश्वर तथा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम और सती शिरोमणि माता सीता के अदर्शनीय चित्रों की भरमार होती जा रही है। ऐसी-ऐसी अश्लील-भंगिमाओं और अभद्र मुद्राओं के चित्र बनने बिकने और टंगने लगे हैं, जिन पर दृष्टि पड़ते ही कानों पर हाथ रखना पड़ता है और भारतीय समाज का वह भयानक चित्र सामने आता है कि आत्मा कांप जाती है।

अश्लील साहित्य की तो बाढ़-सी आई हुई है और समाज के तरुण वर्ग में तो इसके प्रति इतनी अभिरुचि बढ़ गई है कि वे इस तरह खोज-खोज कर चाटते हैं, जैसे कोई भूखा कुत्ता हड्डी चाटता है। स्कूल-कॉलेज की पाठ्य-पुस्तकों के बीच एक सचित्र अश्लीलतापूर्ण चवन्नियां उपन्यास होना एक साधारण बात हो गई है। ब्रज के रसिया, किस्सा तोता मैना अथवा मजेदार गानों की किताबें शिक्षित वर्ग में छाई हुई हैं।

आज भारत में सिनेमा देखने का प्रचार हो गया है। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है और यह सब जानते हैं कि सिनेमा का अश्लील प्रभाव आज समाज पर किस बुरी तरह छाया हुआ है? आदर्श पुरुषों और देवी-देवताओं के चित्रों का स्थान तो सिने-तारिकाओं एवं सितारों ने ले ही लिया है, उनके फिल्मी गीतों ने पूजा-पाठ, साधना-प्रार्थना के भजनों को भी मार भगाया है। बच्चों से लेकर तरुणों तक और पुरुषों से लेकर बालिकाओं तक के श्रीमुख से सिनेमा के अश्लील गानों के फव्वारे छूटते सुनाई पड़ते हैं। गायकों से लेकर कविता तक पर सिनेमा की शैली हावी हो गई है।

जनता की विकृत रुचि के कारण रेडियो से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम भी बहुत शालीन नहीं होते हैं। सिनेमा में प्यार भरे अभद्र गानों की फरमाइश बढ़ती जाती है, जिससे रेडियो भी एक प्रकार से फिल्म प्रचारक ही बन गये हैं। ठीक यही हाल टी.वी. चैनलों का है।

शीघ्र ही अश्लीलता के इन प्रचारों पर प्रतिबंध लगाया गया अथवा जनता ने इनका स्वयं बहिष्कार न किया, तो वह दिन दूर नहीं कि संसार में नैतिकता एवं शालीनता का एक मात्र शेष स्थान भारत भी फ्रांस, इटली और अमेरिका जैसे बन जायेगा और अश्लीलता का अजगर इसको आमूल निगलकर इसके महान् गौरव को भी समाप्त कर देगा।

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