
प्रगति के लिये नागरिक चेतना आवश्यक
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जिस देश के निवासी जितने अधिक सभ्य और नागरिक चेतना वाले होते हैं, वह देश और समाज उतनी ही उन्नति करता है, क्योंकि ऐसा होने से सारे लोग जहां एक-दूसरे से अपने अधिकार पाते हैं, वहां देते भी हैं। ऐसी दशा में समाज के निकृष्ट संघर्ष समाप्त हो जाते हैं और सुख-शांतिपूर्ण परिस्थितियों में समाज प्रगति पथ पर तेजी से बढ़ता जाता है। अस्तु देश, राष्ट्र और समाज की उन्नति के लिए लोगों को अपने-अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक रहना चाहिए।
भारत को स्वाधीनता पाये पांच दशाब्द पूर्ण हो गया है। इस अवधि में उसने जहां राजनीति अथवा आर्थिक उन्नति की है, वहां नागरिक चेतना में कुछ पीछे ही हटा दृष्टिगोचर होता है। पहले विदेशी शासन था और शासन भी एक ऐसी जाति का जो सभ्यता एवं नागरिकता के क्षेत्र में संसार में सबसे आगे समझी जाती थी। उस समय लोग कुछ राजदंड के भय से और कुछ अपने को भी सभ्य नागरिक सिद्ध करने के लिए कमोबेश नागरिक नियमों का पालन करने का प्रयत्न करते रहते थे। किंतु अब जब से घर की सरकार हो गई है, लोगों से राजभय की भावना निकल गई है और उन्होंने स्वतंत्रता का अर्थ मनमाने ढंग से जो कुछ चाहें करना मान लिया है।
पहले मुआयना आदि करने के लिए अंग्रेज अफसर आते थे और प्रबंधक व व्यवस्थापक लोग हर तरह की सफाई, स्वच्छता और नागरिक नियमों के पालन करने और करवाने में काफी सावधानी बर्तते थे, किंतु अब अपने भाई-बंद आते हैं, इसलिए यह सावधानी कम हो गई है।
यह बिल्कुल उल्टी बात है। होना तो यह चाहिए था कि एक बार पराधीनता की परिस्थिति में लोग भले ही नागरिकता के नियमों का पालन करने की चेतना से शून्य रहते, किंतु अब स्वाधीनता के समय तो उन्हें पराकाष्ठा तक नागरिक नियमों का पालन करना चाहिए था, क्योंकि जहां पहले सारा दायित्व अंग्रेज सरकार पर जाता था, वहां वह सब दायित्व स्वयं अपने ऊपर है। पहले हर गलत और गंदे कामों के लिए अंग्रेजों की बदनामी होती थी, वहां अब स्वयं भारतवासियों की होती है।
अब भारतवासियों को जहां राजनीति के क्षेत्र में संसार में अपना स्थान बनाना है, वहां सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में भी स्थान पाना है। यह निश्चित है कि आज के युग में राजनीतिक क्षेत्र में आगे बढ़े हुए देश भी यदि सभ्यता एवं संस्कृति में पीछे रह जाते हैं तब भी वे संसार में अपना समुचित सम्मान नहीं पा सकते।
आज की नागरिकता केवल एक देशीय नहीं रह गई है, बल्कि वह मानव सभ्यता के रूप में होकर सार्वभौम बनती जा रही है। ऐसी दशा में जिसके नागरिक अधिक सभ्य, अधिक जिम्मेदार और अधिक मानवीय चेतना वाले होंगे, वही देश बाजी मार ले जायगा और संसार में सबका अगुआ बन जायेगा।
भारत कभी संसार का अगुआ ही नहीं, जगद्गुरु माना जाता रहा है। यहां की सभ्यता एवं संस्कृति से प्रकाश लेकर ही संसार के अधिकांश देश सभ्य बनकर अपने समाजों में नागरिक चेतना जाग्रत कर सके हैं तो अब सीखने वाला आगे निकल जाये और सिखाने वाला पीछे पड़ जाये तो यह बात कुछ जंचती नहीं। आज संसार की सभ्यता-संस्कृति में सर्व प्रमुख स्थान पाने के लिए देशों में स्पर्धा पड़ी हुई है। हर देश अपनी सभ्यता का सिक्का संसार में जमाना चाहता है। तब कोई कारण नहीं मालूम होता कि विद्या-बुद्धि में किसी देश से कम न होने वाला भारत इस प्रतियोगिता में भाग न ले और मैदान जीतकर न रहे। किंतु यह होगा तब जब भारतवासी अपने में उच्चकोटि की नागरिक चेतना जगायेंगे और ठीक-ठीक उसके अनुसार व्यवहार करना सीखेंगे।
राष्ट्रीयता का क्षेत्र बढ़कर अंतर्राष्ट्रीयता में बदल रहा है। संसार के सारे देश एक-दूसरे के घनिष्ठ संपर्क में आ रहे हैं। देशकाल की दूरियां मिटती जा रही हैं। एक देश के नागरिकों का दूसरे देशों में आवागमन हो रहा है। एक देश के लोग दूसरे देशों की सभ्यता व संस्कृति का गहन अध्ययन कर रहे हैं। तात्पर्य यह कि आज एक देश का किसी दूसरे देश से कोई परदा नहीं रह गया है। ऐसी दशा में सबका सत्य स्वरूप सबके सामने आना स्वाभाविक ही है। तब ऐसा कौन-सा स्वाभिमानी देश होगा, जो यह चाहे कि किसी के सामने उसकी गंदी तस्वीर आये?
यदि आज भारत के निवासी अपने स्वभाव में नागरिकता की सिद्धि नहीं करते तो न तो वे अन्य देशों में जाकर अपने को किसी सभ्य देश का सुशील नागरिक प्रमाणित कर सकते हैं और न अपने देश में आये विदेशियों पर यह प्रकट कर सकते हैं कि भारत एक सभ्य एवं नागरिक चेतना वाला देश है। यदि हम ठीक-ठीक नागरिक अभ्यास वाले नहीं हैं तो विदेशों में जाने पर बहुत कुछ सावधान एवं सतर्क रहने पर त्रुटि करेंगे और तब ऐसी दशा में अपने देश का गौरव गिराने वाले बनेंगे, क्योंकि पेड़ के एक फल से सारे फल और एक चावल से बटलोई के सारे चावल पहचान लिए जाते हैं। क्या पता किसका संपर्क किससे, किस समय हो जाये? और तब ऐसा न हो कि कोई ऐसा व्यवहार हो जाये, जिससे देश का अनागरिक होने का अपवाद लग जाये। इसलिए बच्चे से लेकर बूढ़े तक सारे स्त्री-पुरुषों को पूर्ण रूप से नागरिकता के नियमों का पालन करने का यहां तक अभ्यस्त होना चाहिए कि वह उनका सहज स्वभाव बन जाये।
केवल विदेश में व्यवहार करने भर के लिये नागरिकता का अभ्यास करने से काम न चलेगा, बल्कि पूरे देश को अपने देश में आये विदेशियों पर नागरिकता की छाप छोड़ने के लिए पूर्ण रूप से तैयार होना आवश्यक है। यदि कोई दस-बीस सामयिक तैयारी करके विदेश में अनागरिक सिद्ध न भी हुए तब भी देश में आने वाले विदेशियों से कदम-कदम पर देश की दिनचर्या में व्याप्त अनागरिकता को किस प्रकार छिपाया जा सकता है? इसलिए आवश्यक यह है कि भारत का प्रत्येक आबाल-वृद्ध नागरिकता के एक ऐसे सांचे में ढल जाये कि उसके घर-द्वार, हाट-बाट, नगर-ग्राम, कहीं भी कोई ऐसा स्थान न हो, जहां का वातावरण अनागरिक दीखे अथवा अनुभव हो। क्या देशी और क्या विदेशी, जिसकी भी नजर जिस पर और जिस स्थान पर पड़े, वहां उसे एक सभ्य नागरिकता की ही झलक दिखाई पड़े।
एक ओर जहां भारत का धार्मिक साहित्य ही नहीं, समग्र वाङ्मय नागरिकता, मानवता, सभ्यता एवं संस्कृति के संदेशों से भरा पड़ा हो, वहां उसके निवासियों के व्यावहारिक जीवन में उससे विपरीत लक्षण दिखाई दें, तो भारतीयता पर मुग्ध विदेशी विद्वान् अध्येता क्या कहेंगे? वे निश्चित रूप से भारतवासियों को मिथ्यावादी मानेंगे और तब उनका बहुमूल्य जीवन-दर्शन कौड़ी-कीमत का होकर संसार की दृष्टि में गिर जायेगा। कदाचित् कोई भी भारतवासी ऐसा न होगा, जो यह चाहे कि उसके देश, दर्शन तथा सभ्यता व संस्कृति की इस प्रकार अवमानना हो। तब उसे शपथपूर्वक अपने में और अपने आस-पास एक स्थायी नागरिक चेतना का विकास करना ही होगा।
नागरिकता क्या है? इसे थोड़े से शब्दों में यों समझ लेना चाहिए कि—‘‘ऐसा कोई भी व्यवहार किसी भी समय प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में न करना जो किसी के लिए किसी भी समय प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसी भी परिणाम में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा अध्यात्मिक आघात का हेतु बने।’’
नागरिकता की परिभाषा में यह एक वाक्य जीवन के लिए एक बड़ी भारी शृंखला-सा मालूम होता है और शंका हो सकती है कि, इन सारी बातों का हर समय एक साथ ध्यान किस प्रकार रखा जा सकता है? इसका साधारण-सा उपाय यह है कि—‘‘किसी दूसरे के साथ वह व्यवहार न करो, जो आपको अपने लिए पसंद नहीं।’’ इस प्रकार नागरिक व्यवहार के नाप-तोल की तराजू हर समय आपके पास रहेगी। हमें क्या नापसंद है? यह जानने के लिए तो किसी को किसी समय मनन-चिंतन करने की आवश्यकता होगी नहीं। किसी के साथ कहीं पर भी कोई व्यवहार करने से पूर्व उसे अपने मन में अपने पर घटाकर तोल लो कि यदि यह व्यवहार हमारे साथ किया जाये तो क्या हमें वह पसंद होगा? यदि ‘हां’, तो उस व्यवहार का संपादन करो और यदि ‘नहीं’ तो वह व्यवहार कदापि न करो। बस इतना मात्र करने से ही आप में एक उदात्त नागरिक चेतना पनपने और फूलने-फलने लगेगी, जिससे आप न केवल दूसरों को ही सुखी करेंगे अपितु स्वयं भी सुखी होंगे।
साधारण-सी बात है कि जब हम ठीक-ठीक नागरिक होंगे तो दूसरों से नागरिक व्यवहार भी करेंगे, जिसका फल यह कि हमारा किसी से कोई टकराव ही न होगा और तब हमारी स्वाभाविक जीवन धारा स्निग्ध रूप से बहती चली जायेगी। व्यक्ति, व्यक्ति से बढ़कर जब यह नागरिक व्यवहार समाज में पहुंच जायेगा तो सभी सबसे नागरिकता का व्यवहार करने लगेंगे। ऐसी दशा में संपूर्ण समाज से ही संघर्ष उठ जायेगा और तब ऐसी सुख-शांति की अवस्था का उन्नति करना स्वाभाविक ही है।
इस प्रकार जब व्यक्ति और समाज समान रूप से उन्नति करेंगे तो राष्ट्र आप ही उन्नति पथ पर बढ़ने लगेगा। आज सारा संसार उन्नति करने का प्रयत्न कर रहा है और हमारा देश भारत भी। व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय उन्नति की सिद्धि तथा अपने सुख के लिए ठीक-ठीक नागरिक बनना कितना आवश्यक है? यह स्पष्ट हो जाने पर ऐसा कौन होगा, जो इस राष्ट्रीय अभियान में हाथ न बटाये?