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Books - संजीवनी विद्या का विस्तार

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युगसाहित्य का सृजन, जिसे किए बिना कोई गति नहीं

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आवश्यक- अनावश्यक जानकारियाँ सिर पर लादने और नौकरी- स्तर की कुछ आजीविका कमा लेने के लक्ष्य तक सीमित वर्तमान स्कूली शिक्षा अपने ढर्रे पर चलती भी रह सकती है। जिन्हें उसमें रुचि हो, वे उसे अपनाये भी रहें, पर उसी को सब कुछ मानकर उसी परिधि में सीमित रहने से काम चलेगा नहीं। अगले दिनों व्यक्ति और समाज को जिस ढाँचे में ढालना है, उसका प्रकाश- आभास भी उसमें कहीं ढूँढ़े नहीं मिलता, जिस सुधार और सृजन की आवश्यकता पड़ेगी, उसके लिए कोई संकेत तक उसमें नहीं है। आज तो सबसे अधिक आवश्यकता उसी की है, जिसको प्राचीनकाल से विद्या या मेधा के नाम से जाना जाता है, जो स्वयं ही हर समस्या का निराकरण करने की स्थिति में होती है। अब आगमन- अवतरण उसी का होने जा रहा है।

    जिन अभिनव जानकारियों और प्रेरणाओं की इन्हीं दिनों आवश्यकता है, उन्हें प्राप्त करने के लिए स्कूलों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। उनमें एक तो उन विषयों का समावेश ही नहीं है, दूसरे वह पुस्तक- रटन से पूरी भी नहीं हो सकती। उसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरणों का प्रेरणाप्रद माहौल सामने रहना चाहिए, विशेषतः: अध्यापक इस स्तर के होने चाहिए, जो अपने साँचे में ढालकर छात्रों को ऐसे प्रतिभावान व प्राणवान् बना सकें, जो न केवल स्वयं बनें वरन् अपने आलोक से समूचे संपर्क -क्षेत्र को प्रकाशित कर सकें।

    प्रज्ञा का अवतरण और विस्तार का कार्य असाधारण रूप से विस्तृत है। उससे शिक्षित- अशिक्षित नर- नारी बाल- वृद्ध स्वस्थ- रोगी सभी को अवगत कराया जाना है। भाषाओं की छोटी- छोटी परिधि में बँटे हुए इस संसार में रहने वाले ६०० करोड़ मनुष्यों को एक प्रकार से युगचेतना- तंत्र के अंतर्गत प्रशिक्षित किया जाना है। यह योजना इतनी बड़ी होगी कि पूरी करने में कम से कम सौ वर्ष का समय और अरबों- खरबों जितना धन जुटाना पड़ेगा। अध्यापक भरती और प्रशिक्षित करने पड़ेंगे, सो अलग। इसलिए युगशिक्षा का स्वरूप उन आधारों को अपनाते हुए विनिर्मित करना पड़ेगा, जो आज की परिस्थितियों में इन्हीं दिनों कर सकना संभव हो।

    बड़े प्रयासों की प्रतीक्षा में रुके रहने की अपेक्षा, यही उपयुक्त समझा गया है कि वर्तमान परिस्थितियों में अपने छोटे साधनों से जो संभव हो, उसे तुरंत आरंभ किया जाए और लोगों को देखने दिया जाए कि आरंभ का प्रतिफल किस रूप में उपलब्ध हो रहा है। बात यदि वजनदार होगी तो लोग अपनाएँगे भी। प्रचलित शिक्षा- प्रणाली किसी हद तक अपना अस्तित्व बनाए भी रह सकती है, पर उसकी आड़ में युग- शिक्षण को रोका नहीं जा सकता।

    युग- शिक्षण में ये विषय आवश्यक हैं :: (१) व्यक्तित्व का समग्र विकास- परिष्कार (२) समाज- संरचना और उसके साथ जुड़े हुए प्रचलनों का नव निर्धारण (३) अर्थ व्यवस्था। (४) सुलभ आजीविका कैसे उपलब्ध हो? (५) मनुष्य के चिंतन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का समावेश किस प्रकार बढ़ता चले? (६) परिवारों की वर्तमान संरचना में क्या सुधार- परिवर्तन किया जाए? (७) शारीरिक और मानसिक रुग्णता से सुनिश्चित छुटकारा किस प्रकार मिले? (८) अवाँछनीयता से किस प्रकार निपटा जाए? (९) अब की अपेक्षा कहीं सुखद और सरल- परिस्थितियों का निर्धारण कैसे किया जाए? (१०) सहकारिता और सद्भावना का क्षेत्र कैसे बढ़े? (११) तत्त्वदर्शन- क्षेत्र में परिष्कार विरोधी मान्यताओं का समीकरण कैसे किया जाए? (१२) राजतंत्र और धर्मतंत्र की उभयपक्षीय समर्थ शक्तियों को किस प्रकार नये युग के अनुरूप साँचे में ढाला जाए?

    यह कुछ थोड़े से विषयों की ही चर्चा है। इन्हीं विषयों में से प्रत्येक की अनेक शाखाएँ- प्रशाखाएँ हैं और अपने आपको एक स्वतंत्र विषय- क्षेत्र घोषित करती हैं। ऐसी दशा में युगशिक्षा का पुस्तकीय, मौखिक और व्यावहारिक स्वरूप प्रस्तुत करना इतना बड़ा काम हो जाता है, जिसे वर्तमान शिक्षा तंत्र की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक और वजनदार ही कहा जाएगा।

    विलम्ब से बनने वाले किले या महल की तुलना में यही अच्छा है कि आज की आवश्यकता पूरी कर सकने वाली झोंपड़ी का ढाँचा अपने ही हाथों, अपने साधनों से खड़ा कर लिया जाए।

    युगसाहित्य का सृजन इस संदर्भ में प्रत्यक्ष कार्य है, ताकि अभिनव प्रसंग की पृष्ठभूमि और रूप रेखा के संबंध में जिन बातों की अनिवार्य रूप से तात्कालिक आवश्यकता है, उसे पूरा न सही, मार्गदर्शन रूप में तो प्रस्तुत किया ही जा सके। लोग उपयोगिता समझेंगे, तो उस प्रयोग को विस्तार देने में भी उत्साह प्रदर्शित करेंगे।

    प्रदर्शनियाँ इसीलिए लगाई जाती है कि उन्हें देखकर लोग किसी सुव्यवस्थित विषय की जानकारी कम समय में प्राप्त कर सकें। अपनी सामर्थ्य और कार्य की विशालता का मध्यवर्ती ताल- मेल जिस प्रकार बैठ सकता था, उसी को इन दिनों अपनी सूझ- बूझ और प्रभाव के अनुरूप प्रस्तुत किया जा रहा है।

    युग निर्माण योजना, मथुरा और शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से ऐसा साहित्य प्रकाशित करना आरंभ कर दिया गया है, जो प्रस्तुत समस्याओं के अनेकानेक विषयों पर प्रकाश डालता है। इन विषयों के संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण से काम न चलेगा, उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन होना चाहिए। सीमित लेखन भी पर्याप्त नहीं। अब हर विषय को अनेक तर्कों, तथ्यों, प्रमाणों और उदाहरणों के साथ प्रस्तुत करने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। अगले दिनों युग साहित्य के ऐसे ही विस्तार की आवश्यकता है। बिना किसी प्रतीक्षा के, वर्तमान साधनों से ही उसका शुभारंभ कर दिया गया है। आशा यह रखी है कि रोपा गया यह अंकुर अगले दिनों वट- वृक्षों जैसा विशाल कलेवर धारण करेगा।

    इस कार्यक्रम में कितनी ही कठिनाइयाँ हैं। एक यह कि अपने देश की दो- तिहाई जनता अशिक्षित है, वह साहित्य का लाभ कैसे उठाये? फिर इस घोर महँगाई के जमाने में आर्थिक कठिनाइयों से ग्रस्त अशिक्षित स्तर की जनता उसे किस आधार पर खरीदे? थोड़े से जो शिक्षित बच जाते हैं, वे भी मनोरंजन के लिए चटपटा साहित्य भर खरीदते हैं। युग साहित्य में ऐसा कुछ न रहने पर उन पर भी जबरदस्ती कैसे लादा जाए? एक तो युग साहित्य का लेखन भी मात्र युगद्रष्टा के ही बलबूते का काम है, दूसरे उसके प्रकाशन में बड़ी पूँजी लगती है। इतने पर भी बिक्री की माँग अत्यंत धीमी रहने से उसका प्रचार- प्रसार कैसे हो? महँगे मूल्य की बढ़िया सजधज वाली पुस्तकें छापी जाएँ, तो उन्हें या तो सरकारी शिक्षा तंत्र के ऊपर अतिरिक्त सुविधा शुल्क देकर थोपा जा सकता है, या फिर कोई संपन्न अपनी अलमारियों की शोभा बढ़ाने के लिए खरीद सकते हैं। यह समूची विडंबना भी ऐसी है, जिसके कारण लेखन, प्रकाशन, मुद्रण, विक्रय आदि सभी ओर से अवरोध खड़े हो जाते हैं।

    आवश्यकता हर भाषा में स्थानीय मन:स्थति और परिस्थिति के साथ ताल- मेल बिठाने वाले साहित्य सृजन की है। कठिन और असंभव दिखने वाले इस माध्यम को, सर्वत्र निराशा दीख पड़ने पर भी इन्हीं दिनों आरंभ कर भी दिया गया है।
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