
पंच दिवसीय साधना का स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप
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मानवीय चेतना तीन शरीर धारण किए हुए है, जिनमें से एक को स्थूल, दूसरे को
सूक्ष्म और तीसरे को कारण कहते हैं। इन्हीं के माध्यम से जानकारियाँ
प्राप्त करने से लेकर उपलब्धियाँ अर्जित करने तक के अनेकों क्रिया- कलाप
सम्पन्न होते हैं। तदनुरूप ही वे हलके, भारी और सशक्त होते हैं।
बोलचाल की वाणी को ही लें, वह जीभ से निकलती, कानों के छेदों से टकराती, मस्तिष्क में पहुँचती, जानकारी देती और अपना कार्य पूरा कर लेती है। आमतौर से इसी का उच्चारण होता है। विचार- विनिमय अध्यापन- अध्ययन कथन- श्रवण में इसी का उपयोग होता रहा है। एक कहता व दूसरा सुनता है। जो जानने योग्य है, उसे जानता है। जो पहले से ही जाना हुआ है, उसकी उपेक्षा कर देता। उपदेश- प्रयोजन में भी इतनी ही प्रक्रिया सम्पन्न होती है, वक्ता कहते रहते हैं, श्रोता सुनते रहते हैं। जो नया कुछ होता है, उसे जान लेते हैं, शेष को निरर्थक समझकर विस्मृत कर देते हैं। धार्मिक प्रयोजन में भी यही होता रहता है। उसमें कथन- श्रवण का ही उपक्रम चलता रहा है। इस स्तर पर जानकारियों का आदान- प्रदान होता है। ऐसा कुछ नहीं बन पड़ता, तो प्रभाव डाले और अन्तराल की गहराई में प्रवेश करके प्रभाव छोड़े, चिरस्थायी बने और मानस में कोई कहने लायक परिवर्तन लाए।
शान्तिकुञ्ज के पाँच दिवसीय सत्रों में इससे कुछ अधिक, कुछ गम्भीर, कुछ प्राणवान् अनुभव होता है। इसलिए उस कथन का वजन भी होता है और प्रभाव भी। निर्धारित कथन किसी ऋषिकल्प मनीषी का ही होता है। उसे सन्देशवाहक की तरह किसी दूसरे से भी कहलवाया जा सकता है। उसके पीछे मात्र शब्द- शृंखला नहीं होती वरन् ऊर्जा रहती है, जो कथनी- करनी और प्राण चेतना से विनिर्मित होती है। यही कारण है कि वह सुनने वालों के अन्तराल की गहराई तक उतरती है, झकझोरती है और ऐसा दबाव डालती है, जिसके आधार पर तथ्यों को हृदयंगम करने और उन्हें जीवन में उतारने के लिए विवश होना पड़े। यही कारण है कि पञ्च दिवसीय सत्रों में प्रस्तुत किए गए प्रतिपादन अपनी समर्थता, प्रभावशीलता और प्राण- प्रतिभा सम्पन्न होने का परिचय देते हुए उस मर्म- स्थल तक जा पहुँचते हैं, जहाँ से जीवन- क्रम में आदर्शवादी उमंगें उद्भूत होती है। इनमें जिह्वा से निकलने वाली बैखरी वाणी ही काम नहीं करती वरन् उनके साथ सूक्ष्म परिकर की मध्यमा और कारण क्षेत्र की परावाणी का प्रभाव भी सम्मिलित होता है। वे इंजेक्शन की तरह रक्त- प्रवाह में भी सम्मिलित हो जाते हैं।
साधना से सिद्धि का सिद्धान्त सर्वविदित और सर्वमान्य है। सिद्धपुरुषों- महामानवों में जो असाधारण शक्ति देखी गई है, उसका एक ही मूलभूत कारण है- उनकी तपश्चर्या। आदर्शों के परिपालन में जो संयम बरतना पड़ता है, उससे बड़प्पन में घाटा पड़ता है। वह कसौटी ही संयम- साधना है। इसके साथ ही दूसरा पक्ष एक और भी जुड़ा हुआ है कि सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धन के लिए श्रेष्ठता को अपनाने उभारने और उछालने में जो प्रयत्न- परिश्रम करना पड़ता है, यहाँ तक कि घाटा उठाने का भी अवसर आता है, उसे प्रसन्न एवं उल्लसित मन से सहन कर लेना। जो इन दोनों प्रयोजनों को उत्साहपूर्वक अंगीकार कर लेता है, उसे तपस्वी कहते हैं। शरीर और मन को कष्ट सहने के लिए अभ्यस्त बना लेना तितीक्षा है। तितीक्षा के अभ्यास से तपश्चर्या सरल बन जाती है और उसके विकसित होने पर सिद्धियों की फसल भण्डार भरने लगती है।
तप का स्वरूप क्या है? ताप- ऊर्जा द्वारा धातुएँ भट्ठी में पिघला कर अभीष्ट औजारों के रूप में ढाली जाती है। मिट्टी के बर्तन आवे में पककर लाल और कड़े बन जाते हैं। पानी को गरमाने से भाप बनती है और उससे शक्तिशाली इंजन चलने लगते हैं। संसार के अधिकांश महत्त्वपूर्ण कार्यों में ऊर्जा के नियोजन की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। पञ्च दिवसीय साधना में भी व्यक्ति की सहन- शक्ति के अनुरूप विविध साधनाओं का समावेश रखा गया है। पूजा- उपासना के हर प्रसङ्ग में किसी- न किसी रूप में तपश्चर्या का अनुपात जुड़ा हुआ है। इसके बिना, मात्र उथले कर्मकाण्डों से, किसी को न सिद्धि मिल सकती है, न मिल सकेगी।
आत्मिक प्रगति में एक और भी बड़ी अड़चन है। पूर्वसञ्चित दुष्कर्मों का समुच्चय। उस विपन्नता को बिना प्रायश्चित के और किसी प्रकार हटाया नहीं जा सकता। मैले कपड़े को धोया न जाए तो उस पर रंग कैसे चढ़े? बिना तपे धातु का शुद्ध स्वरूप कैसे निखरे और उससे उपयोगी औजार कैसे बने? क्रियमाण दुष्कर्म एक ही माँग करता है कि जितनी गहरी खाई खोदी गई है, उसमें उतनी ही मिट्टी डालकर स्थिति समतल जैसी बनाई जाए। यही प्रायश्चित- प्रक्रिया है। इसके लिए पंच दिवसीय साधना में जहाँ प्रतीकात्मक प्रायश्चितों की चिह्न- पूजा का विधान रहता है, वहाँ यह भी कहा जाता है कि - पापों की खाई पाट सकने योग्य पुण्यकर्मों का नए सिरे से कुछ ऐसा आयोजन किया जाए, जिससे उत्पन्न की गई दुष्प्रवृत्तियाँ अभिनव सत्प्रवृत्तियों से दब- ढँक सकें।
यहाँ एक प्रसंग अनुदान का भी है बीज मात्र अपने बलबूते ही वृक्ष नहीं बन जाता, उसे खाद, पानी, रखवाली जैसी बाहरी सहायताएँ भी अपेक्षित रहती है। शान्तिकुञ्ज के वातावरण में ऐसे तत्त्वों का समुचित समावेश हुआ है, जिसके सान्निध्य में चन्दन के समीप उगे हुए पौधों की तरह अतिरिक्त लाभ भी मिल सके। स्वाति- वर्षा जब कभी, जहाँ कहीं भी होती है, तब वहाँ समुचित क्षमता वाली सीपों में मोती, केलों में कपूर, बाँसों में वंशलोचन जैसी बहुमूल्य उपलब्धियाँ उपलब्ध होकर रहती हैं। शान्तिकुञ्ज में ऐसे तत्त्व अदृश्य रूप से बरसते रहते हैं, जिन्हें यथा समय ओस- बिन्दुओं की तरह घनीभूत देखा जा सके।
पारस, अमृत और कल्पवृक्ष की चर्चा इस रूप में होती रहती है कि उनका सम्पर्क- सान्निध्य निहाल कर देता है। सेनेटोरियम उन स्थानों पर बनते हैं, जहाँ की जलवायु औषधि- उपचार से भी अधिक लाभदायक हो, रुग्णता और दुर्बलता को भगाने में अमृतोपम सिद्ध हो। शान्तिकुञ्ज क्षेत्र को ऐसी सुसंस्कारी भूमि के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ गंगातट, हिमालय की छाया और सप्त- ऋषियों की तपश्चर्या के विशिष्ट संस्कार अभी भी अपने पुरातन प्रभाव का परिचय देते हैं।
साधकों को जो आहार दिया जाता है, वह उच्चस्तरीय सात्विकता से परिपूर्ण और प्राणचेतना की आध्यात्मिकता से अनुप्राणित रहता है। उसे बाजारू फलाहार से कहीं अधिक उच्चस्तरीय समझा जाता है।
शान्तिकुञ्ज के सूत्र- संचालन में जिस ऋषि- युग्म की प्रधान भूमिका है, वे अगले दिनों शरीर न रहने पर भी इस पुण्यभूमि में अपना अस्तित्व बनाए रहने के लिए वचनबद्ध हैं। अगली स्थिति में उनकी साधना और भी अधिक उग्र हो जागी। उस समूचे उपार्जन का लाभ उन परिजनों को अनवरत रूप से मिलता रहेगा, जो अगले दिनों नवसृजन के हेतु अपना समयदान, अंशदान नियोजित करने में कृपणता न बरतेंगे।
प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार- प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।
बोलचाल की वाणी को ही लें, वह जीभ से निकलती, कानों के छेदों से टकराती, मस्तिष्क में पहुँचती, जानकारी देती और अपना कार्य पूरा कर लेती है। आमतौर से इसी का उच्चारण होता है। विचार- विनिमय अध्यापन- अध्ययन कथन- श्रवण में इसी का उपयोग होता रहा है। एक कहता व दूसरा सुनता है। जो जानने योग्य है, उसे जानता है। जो पहले से ही जाना हुआ है, उसकी उपेक्षा कर देता। उपदेश- प्रयोजन में भी इतनी ही प्रक्रिया सम्पन्न होती है, वक्ता कहते रहते हैं, श्रोता सुनते रहते हैं। जो नया कुछ होता है, उसे जान लेते हैं, शेष को निरर्थक समझकर विस्मृत कर देते हैं। धार्मिक प्रयोजन में भी यही होता रहता है। उसमें कथन- श्रवण का ही उपक्रम चलता रहा है। इस स्तर पर जानकारियों का आदान- प्रदान होता है। ऐसा कुछ नहीं बन पड़ता, तो प्रभाव डाले और अन्तराल की गहराई में प्रवेश करके प्रभाव छोड़े, चिरस्थायी बने और मानस में कोई कहने लायक परिवर्तन लाए।
शान्तिकुञ्ज के पाँच दिवसीय सत्रों में इससे कुछ अधिक, कुछ गम्भीर, कुछ प्राणवान् अनुभव होता है। इसलिए उस कथन का वजन भी होता है और प्रभाव भी। निर्धारित कथन किसी ऋषिकल्प मनीषी का ही होता है। उसे सन्देशवाहक की तरह किसी दूसरे से भी कहलवाया जा सकता है। उसके पीछे मात्र शब्द- शृंखला नहीं होती वरन् ऊर्जा रहती है, जो कथनी- करनी और प्राण चेतना से विनिर्मित होती है। यही कारण है कि वह सुनने वालों के अन्तराल की गहराई तक उतरती है, झकझोरती है और ऐसा दबाव डालती है, जिसके आधार पर तथ्यों को हृदयंगम करने और उन्हें जीवन में उतारने के लिए विवश होना पड़े। यही कारण है कि पञ्च दिवसीय सत्रों में प्रस्तुत किए गए प्रतिपादन अपनी समर्थता, प्रभावशीलता और प्राण- प्रतिभा सम्पन्न होने का परिचय देते हुए उस मर्म- स्थल तक जा पहुँचते हैं, जहाँ से जीवन- क्रम में आदर्शवादी उमंगें उद्भूत होती है। इनमें जिह्वा से निकलने वाली बैखरी वाणी ही काम नहीं करती वरन् उनके साथ सूक्ष्म परिकर की मध्यमा और कारण क्षेत्र की परावाणी का प्रभाव भी सम्मिलित होता है। वे इंजेक्शन की तरह रक्त- प्रवाह में भी सम्मिलित हो जाते हैं।
साधना से सिद्धि का सिद्धान्त सर्वविदित और सर्वमान्य है। सिद्धपुरुषों- महामानवों में जो असाधारण शक्ति देखी गई है, उसका एक ही मूलभूत कारण है- उनकी तपश्चर्या। आदर्शों के परिपालन में जो संयम बरतना पड़ता है, उससे बड़प्पन में घाटा पड़ता है। वह कसौटी ही संयम- साधना है। इसके साथ ही दूसरा पक्ष एक और भी जुड़ा हुआ है कि सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धन के लिए श्रेष्ठता को अपनाने उभारने और उछालने में जो प्रयत्न- परिश्रम करना पड़ता है, यहाँ तक कि घाटा उठाने का भी अवसर आता है, उसे प्रसन्न एवं उल्लसित मन से सहन कर लेना। जो इन दोनों प्रयोजनों को उत्साहपूर्वक अंगीकार कर लेता है, उसे तपस्वी कहते हैं। शरीर और मन को कष्ट सहने के लिए अभ्यस्त बना लेना तितीक्षा है। तितीक्षा के अभ्यास से तपश्चर्या सरल बन जाती है और उसके विकसित होने पर सिद्धियों की फसल भण्डार भरने लगती है।
तप का स्वरूप क्या है? ताप- ऊर्जा द्वारा धातुएँ भट्ठी में पिघला कर अभीष्ट औजारों के रूप में ढाली जाती है। मिट्टी के बर्तन आवे में पककर लाल और कड़े बन जाते हैं। पानी को गरमाने से भाप बनती है और उससे शक्तिशाली इंजन चलने लगते हैं। संसार के अधिकांश महत्त्वपूर्ण कार्यों में ऊर्जा के नियोजन की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। पञ्च दिवसीय साधना में भी व्यक्ति की सहन- शक्ति के अनुरूप विविध साधनाओं का समावेश रखा गया है। पूजा- उपासना के हर प्रसङ्ग में किसी- न किसी रूप में तपश्चर्या का अनुपात जुड़ा हुआ है। इसके बिना, मात्र उथले कर्मकाण्डों से, किसी को न सिद्धि मिल सकती है, न मिल सकेगी।
आत्मिक प्रगति में एक और भी बड़ी अड़चन है। पूर्वसञ्चित दुष्कर्मों का समुच्चय। उस विपन्नता को बिना प्रायश्चित के और किसी प्रकार हटाया नहीं जा सकता। मैले कपड़े को धोया न जाए तो उस पर रंग कैसे चढ़े? बिना तपे धातु का शुद्ध स्वरूप कैसे निखरे और उससे उपयोगी औजार कैसे बने? क्रियमाण दुष्कर्म एक ही माँग करता है कि जितनी गहरी खाई खोदी गई है, उसमें उतनी ही मिट्टी डालकर स्थिति समतल जैसी बनाई जाए। यही प्रायश्चित- प्रक्रिया है। इसके लिए पंच दिवसीय साधना में जहाँ प्रतीकात्मक प्रायश्चितों की चिह्न- पूजा का विधान रहता है, वहाँ यह भी कहा जाता है कि - पापों की खाई पाट सकने योग्य पुण्यकर्मों का नए सिरे से कुछ ऐसा आयोजन किया जाए, जिससे उत्पन्न की गई दुष्प्रवृत्तियाँ अभिनव सत्प्रवृत्तियों से दब- ढँक सकें।
यहाँ एक प्रसंग अनुदान का भी है बीज मात्र अपने बलबूते ही वृक्ष नहीं बन जाता, उसे खाद, पानी, रखवाली जैसी बाहरी सहायताएँ भी अपेक्षित रहती है। शान्तिकुञ्ज के वातावरण में ऐसे तत्त्वों का समुचित समावेश हुआ है, जिसके सान्निध्य में चन्दन के समीप उगे हुए पौधों की तरह अतिरिक्त लाभ भी मिल सके। स्वाति- वर्षा जब कभी, जहाँ कहीं भी होती है, तब वहाँ समुचित क्षमता वाली सीपों में मोती, केलों में कपूर, बाँसों में वंशलोचन जैसी बहुमूल्य उपलब्धियाँ उपलब्ध होकर रहती हैं। शान्तिकुञ्ज में ऐसे तत्त्व अदृश्य रूप से बरसते रहते हैं, जिन्हें यथा समय ओस- बिन्दुओं की तरह घनीभूत देखा जा सके।
पारस, अमृत और कल्पवृक्ष की चर्चा इस रूप में होती रहती है कि उनका सम्पर्क- सान्निध्य निहाल कर देता है। सेनेटोरियम उन स्थानों पर बनते हैं, जहाँ की जलवायु औषधि- उपचार से भी अधिक लाभदायक हो, रुग्णता और दुर्बलता को भगाने में अमृतोपम सिद्ध हो। शान्तिकुञ्ज क्षेत्र को ऐसी सुसंस्कारी भूमि के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ गंगातट, हिमालय की छाया और सप्त- ऋषियों की तपश्चर्या के विशिष्ट संस्कार अभी भी अपने पुरातन प्रभाव का परिचय देते हैं।
साधकों को जो आहार दिया जाता है, वह उच्चस्तरीय सात्विकता से परिपूर्ण और प्राणचेतना की आध्यात्मिकता से अनुप्राणित रहता है। उसे बाजारू फलाहार से कहीं अधिक उच्चस्तरीय समझा जाता है।
शान्तिकुञ्ज के सूत्र- संचालन में जिस ऋषि- युग्म की प्रधान भूमिका है, वे अगले दिनों शरीर न रहने पर भी इस पुण्यभूमि में अपना अस्तित्व बनाए रहने के लिए वचनबद्ध हैं। अगली स्थिति में उनकी साधना और भी अधिक उग्र हो जागी। उस समूचे उपार्जन का लाभ उन परिजनों को अनवरत रूप से मिलता रहेगा, जो अगले दिनों नवसृजन के हेतु अपना समयदान, अंशदान नियोजित करने में कृपणता न बरतेंगे।
प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार- प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।