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Books - संजीवनी विद्या का विस्तार

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मूर्च्छना का पुनर्जागरण अनिवार्य है

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विश्वव्यापी परिवर्तन और सृजन का दोहरा प्रयोजन पूरा करने के लिए साधारणतया शताब्दियों और सहस्राब्दियों का समय चाहिए, पर अब उतनी प्रतीक्षा की गुञ्जाइश रह नहीं गई है। अग्निकाण्ड के समय में लम्बी अवधि में पूरी हो सकने वाली योजना नहीं बन सकती। उस अनर्थ को रोकने के लिए धूल, पानी आदि जो कुछ भी मिल सके, उसी के सहारे वह कार्य हाथों- हाथ सम्पन्न करना पड़ता है। सहमत और उत्सुक छात्रों को पढ़ा देना कठिन नहीं है, पर जो गलती को ही सही मानने का दुराग्रह अपनाए बैठा हो, उसे समझा सकना असम्भव तो नहीं, पर कष्टसाध्य अवश्य है। इन दिनों विचार- परिवर्तन के सहारे युग परिवर्तन करने के लिए ऐसे प्रशिक्षक चाहिए, जो न केवल वार्तालाप, शङ्का- समाधान एवं प्रवचनों द्वारा आवश्यक जानकारी दे सकें। वरन् अपनी प्राण- प्रतिभा का प्रयोग करके उल्टी मान्यता और क्रिया- प्रक्रिया को बलपूर्वक सीधी कर सकें

    प्राचीनकाल में वातावरण अनुकूल था। तब उस प्रमुख प्रयोजन के लिए, आवश्यक संस्थानों के लिए इमारतें भी आसानी से बन जाती थीं। गाँव- गाँव छोटे- छोटे देवालय होते थे, जिन्हें पुरोधा सम्भालते थे और दैनिक कथा- वार्ता एवं पर्व- संस्कार आदि विशेष अवसरों पर जनसमुदाय के जनमानस की विकृतियों को सुधारते और सदाशयता के बीजांकुर इस प्रकार जमाते थे, जिससे वे समयानुसार फल- फूलों से लदे सुन्दर सुहावने वृक्ष बन सकें।

    बच्चे की शिक्षा पाठशालाओं में होती थी। ग्राम- पुरोहित उनका सूत्र- संचालन करते थे। यजमान उनकी निर्वाह- सामग्री समय- समय पर भिजवाते रहते थे। जिनके लिए अन्न- वस्त्र ही पर्याप्त हों, उनके लिए खर्च ही कितना चाहिए? बच्चों की पढ़ाई के बदले मुट्ठी भर अन्न देते रहना किसी को भारी नहीं पड़ता था। छात्रों को शिक्षा और विद्या का दोहरा लाभ बिना किसी अड़चन के मिलता रहता था ।।

    बड़ी कक्षाओं के लिए गुरुकुल थे, जिनमें छात्रों के लिए न केवल उच्चस्तरीय शिक्षा की व्यवस्था रहती थी, वरन् भोजन- वस्त्र जैसी व्यवस्थाओं का तारतम्य भी बना रहता था।

    अध्यापकों, उपाध्यायों, मनीषियों, वानप्रस्थों की शिक्षा आश्रम- आरण्यकों में होती थी। वयोवृद्ध मनीषियों का सामयिक चिन्तन और निर्धारण बुद्धिजीवी आश्रमों में चलता रहता था। पुस्तकों की संरचना और अनुवाद व प्रतिलिपि- लेखन भी उपर्युक्त संस्थानों में सम्पन्न हो जाता था। उपर्युक्त सभी शिक्षण- संस्थानों में न केवल बौद्धिक वरन् व्यावहारिक शालीनता के अभ्यास का अवसर भी मिल जाता था।

    विदेशों में ज्ञान- चेतना जगाने के लिए परिव्राजकों के लिए विश्वविद्यालय बने हुए थे। वहाँ से परिपक्व होकर ऋषिकल्प परिव्राजक देश- देशान्तरों में निकल जाते थे और जहाँ, जिस प्रकार से सद्ज्ञान की आवश्यकता समझी जाती थी, वहाँ वैसा ही अध्यापन- तन्त्र खड़ा कर देते थे। सर्वविदित है कि कुमारजीव जैसे महामनीषियों ने तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करके चीन, जापान, कोरिया

मंगोलिया, मञ्चूरिया आदि पूर्वोत्तर क्षेत्र में नवजीवन का संचार किया था। नालन्दा विश्वविद्यालय के महामनीषी कौन्डिल्य ने दक्षिण- पूरब के क्षेत्र तिब्बत, वर्मा, मलेशिया, इन्डोनेशिया, कम्पूचिया, जावा, सुमात्रा आदि को देव संस्कृति का केन्द्र बना दिया था।

    समय का कुचक्र ही कहना चाहिए कि आज वह समूचा तन्त्र, पुरातन इमारतों के ध्वंसावशेष के रूप में जहाँ- तहाँ अपने पूर्व अस्तित्व का परिचय भर देता है। लोकरुचि उस प्रसङ्ग से हट गई- न पुरोहित रहे, न लोकमानस को जीवन्त- जाग्रत रखने वाले पुरोधा। साधु- ब्राह्मणों की संख्या तो लाखों- करोड़ों में हैं, पर जिन्हें अपने शाश्वत कर्तव्यों का ज्ञान है तथा उस प्रकार का कुछ करते भी हैं, उनकी संख्या उँगलियों पर गिनने लायक ही मानी जा सकती है। युग- ऋषियों का उत्पादन, निर्माण कहाँ होता है? उस स्थान को ढूँढ़ पाना भी शोध का विषय बन गया है। न वैसा कुछ पढ़ने में किसी को रुचि है और न पढ़ाने में। कारण कि नौकरी- व्यवसाय आदि में प्रचुर धन कमा लेने की ललक हर किसी हो घेरे हुए है। अध्यापक और छात्र भी इसी प्रसङ्ग को पढ़ते- पढ़ाते हैं।

    जब विद्यातन्त्र तिरोहित हो गया और उसके हर कोने पर उदरपूर्ति से सम्बन्धित शिक्षा ही कब्जा किए हुए हो, तब सद्ज्ञान के केन्द्रों का संचालन एवं निर्माण कहाँ से बन पड़े? धर्मशालाएँ बनवाकर नाम कमाने वाले अधिक- से अधिक इतना कर पाते हैं कि कोई मुफ्त दवा देने वाला औषधालय, सदावर्त या प्याऊ खुलवा दें। दान- पुण्य की सीमित परिधि इतने ही छोटे- क्षेत्र में सिकुड़कर रह गई है। देवता की प्रसन्नता, स्वर्ग में स्थान सुरक्षित होने की सम्भावना, जब प्रचुर सम्पदा का एक राई- रत्ती जितना अंश खर्च कर देने भर से पूरी हो जाती है, तो इतनी दूर की बात कौन सोचे कि विश्व को उन क्रान्ति- मनीषियों की भी जरूरत है, जो उल्टी चाल अपनाए हुए समुदाय को अपनी प्रचण्ड प्रेरणाओं के बल पर चलने के लिए घसीटें और बाध्य कर सकें।

    अचिन्त्य- चिन्तन का शिकार लोकमानस तो बेतरह तबाह हो ही रहा है, इस अन्धड़ से उनकी आँखों में भी धूलि भर गई है, जो पुण्य परमार्थ की बात सोचने और उस दिशा में कुछ कर सकने की परिस्थितियों में हैं। जब समूचा प्रवाह ही स्वार्थ- साधन के लिए समर्पित है तो मनीषा और सम्पन्नता को ही क्या बन पड़ी है जो लोकहित की बात सोचें? जन कल्याण के सरंजाम जुटाए? उल्टे प्रवाह का मोड़कर सीधी दिशा में चलने के लिए लोकमानस को नियोजित करने का तारतम्य बिठाएँ? समय की अनिवार्य आवश्यकता को पूरा कर सकने वाले प्रकाश- कण कहीं से उभरते नहीं। नव जागरण के स्वर कहीं से उठते नहीं। ऐसी दशा में घोर निराशा के गर्त में अपने को भी डूब जाने के लिए परामर्श देने की अपेक्षा, यही उपयुक्त दीखता है कि टैगोर के उस गीत को ही गाया- गुनगुनाया जाए, जिसमें उनने कहा था- एकला चलो रे’’

    अकेला चलना कठिन तो है पर असम्भव नहीं। बुद्ध, गाँधी, दयानन्द, विवेकानन्द, मीरा, चैतन्य, कबीर आदि मण्डली गठित करने और साधन जुटाने की प्रतीक्षा में नहीं बैठे रहे वरन् अपने शरीर और मन मात्र को साथ लेकर उस मार्ग पर चले पड़े थे, जो दर्शकों परामर्शदाताओं को साधनों के अभाव में असम्भव जैसा प्रतीत होता था। इस सन्दर्भ में वे अधिक साहसी दीखते हैं, जो अपने स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर घोंसला छोड़कर अभीष्ट दिशा में उड़ चलते हैं और सफलता- असफलता की बात ईश्वर- भरोसे छोड़ देते हैं। देवर्षि नारद को भी विश्व- भ्रमण में चल पड़ने की हिम्मत आत्मा और परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कहीं से नहीं मिली थी।

    चिर पुरातन को पुनर्जीवित करने के लिए सतयुग की वापसी जैसा भगीरथ प्रयत्न, शान्तिकुञ्ज ने अपने एकाकी बलबूते आरम्भ किया है। यों दिव्यदर्शी यह भी देखते हैं, कि सत्य मंह हजार हाथी के बराबर बल होता है। संकल्प के बल पर ब्रह्मा ने समूची सृष्टि रच डाली थी। फिर ऋषि- परम्परा इतनी मूर्छित तो नहीं हुई है जिसके पुनरुत्थान की आशा ही छोड़नी पड़े? लक्ष्मण की मूर्च्छा जगी थी। मानवीय गरिमा को पुनर्जीवित करने का संकल्प जगा है, तो कल- परसों यह भी तनकर खड़ा होगा।
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