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Books - संजीवनी विद्या का विस्तार

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एक लाख अध्यापकों द्वारा विद्या विस्तार का श्रीगणेश

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युग साहित्य के विक्रय को महत्त्व न देते हुए सोचा गया है कि उसे हर शिक्षित को पढ़ाने और हर अशिक्षित को सुनाने की एक ऐसी योजना अपनाई जाए, जो अन्यत्र कदाचित् ही कहीं और क्रियान्वित होती देखी जाती है।

    युग- शिल्पियों में से प्रत्येक को कहा गया है कि वे न्यूनतम २० पैसा नित्य का अंशदान और दो घंटे का समयदान प्रस्तुत ज्ञानघट के लिए नियमित रूप से दें। इस पैसे से हर महीने नया छपने वाला साहित्य खरीदते रहें। उसे स्वयं तो पढ़ें ही, परिवार वालों को तो पढ़ाएँ या सुनाएँ ही, झोला पुस्तकालय योजना के अंतर्गत अपने परिचय क्षेत्र में शिक्षितों से संपर्क साधें और युग साहित्य बिना मूल्य घर बैठे पहुँचाने, पढ़ लेने पर वापस लेने एवं अगली पुस्तकें पढ़ने के लिए देने का भी क्रम चलाएँ।

    यह सिलसिला सदा- सर्वदा चलता रह सकता है। पढ़ने वाला बिना पढ़ों को सुनाता भी रह सकता है। दो ऐसे व्यक्ति साथ जुड़े, तो सौ शिक्षित सदस्यों को पढ़ाकर, दो सौ बिना पढ़ों को सुनाकर, तीन सौ की एक मंडली बना सकते हैं। उसका सुसंतुलन एक युग- शिल्पी के बीस पैसे नित्य और दो घंटे समयदान के माध्यम से बिना किसी कठिनाई के गतिशील रह सकता है। यह सारा साहित्य, संचालक की घरेलू लाइब्रेरी से लेकर, स्वजन- संबंधी परिचित- पड़ोसी बिना किसी प्रकार का खर्च किये, दीर्घ काल तक पढ़ते और पढ़ाते रह सकते हैं।

    कहने- सुनने में योजना अटपटी- सी लगती है, पर कार्य करने वाले के लिए इस संसार में कुछ भी कठिन नहीं है। शान्तिकुञ्ज के साथ जुड़े हुए लोगों में अधिकांश इस प्रक्रिया को धर्म- कर्तव्य एक उच्चस्तरीय परमार्थ समझकर श्रद्धापूर्वक अपनाए रहते हैं। इस आधार पर युगसाहित्य के पाठकों की संख्या करोड़ों तक पहुँच चुकी है, भले ही उसे खरीदने वालों की संख्या सीमित ही रही हो।

    अखण्ड- ज्योति अपने मिशन की प्रमुख हिन्दी मासिक पत्रिका है। वह अन्य भाषाओं के अनुवादों समेत प्राय: पाँच लाख की संख्या में छपती है। इनके पाठकों को निर्देश है, कि हर अंक प्राय: पाँच के द्वारा पढ़ा या सुना ही जाए। इस प्रकार पाँच लाख पत्रिका प्राय: पच्चीस लाख पाठकों द्वारा पढ़ी या सुनी जाती है। मिशन के सूत्र- संचालक इसी को अपनी संरचनात्मक सम्पत्ति मानते हैं और पूरा- पक्का विश्वास जताते हैं कि इतनी भुजाओं के बलबूते, समय की माँग का एक बड़ा भाग निश्चित रूप से पूरा किया जा सकेगा।

    प्राचीनकाल के विद्या- विस्तारक न केवल छात्रों को पढ़ाकर छुटकारा पा जाते थे, वरन् उन्हें ढूँढ़ने, इकट्ठा करने, उत्साह भरने के कार्य दूसरों की सहायता की अपेक्षा किये बिना भी, अपने बलबूते ही कर लेते थे। साधनों की, सहयोग की अपेक्षा तो हर काम में रहती है। विद्या- विस्तार में उसके बिना ही काम चल जाए, यह नहीं हो सकता। इतने पर भी यह निश्चित है, कि समर्थ चुम्बक अपने इर्द- गिर्द बिखरे लौह कणों को खींचने- घसीटने और अपने साथ चिपका लेने में अकेली क्षमता के बलबूते भी सफल होकर रहता है।

    विद्या- विस्तार की अभिनव योजना के क्रियान्वयन में भी इसी तथ्य को मान्यता देते हुए समूचा ताना- बाना बुना गया है। पच्चीस लाख शिरों और पचास लाख भुजदंडों में से अधिकांश निष्क्रिय- निरुत्साहित रहें, संकीर्ण स्वार्थपरता की कीचड़ से इस आपत्तिकाल की पुकार सुनकर भी बाहर न निकलें, तो भी विश्वास किया गया है, कि न्यूनतम एक लाख परिजनों को तो युगचेतना का आलोक वितरण करने के कार्य में जुटाया ही जा सकेगा। यह विश्वास, भावुक कपोल- कल्पना के आधार पर नहीं उभरा है। अब तक प्राय: अस्सी वर्ष भी जी लेने और निरंतर सेवा- संगठन में निरत रहने पर जो अनुभव एकत्रित किये हैं, उनकी साक्षी एवं छत्रछाया में यह पूरी- पूरी गुंजाइश है, कि युग- शिल्पियों का पूरा समय न निकाल सके, तो भी दो- चार घण्टे आसानी से निकाले और आपत्तिकालीन आवश्यकता में लगाये जा सकते हैं।

    समयदान, अंशदान यह दो अनुबन्ध ऐसे हैं, जिन्हें प्रज्ञा- परिजनों के लिए अपने- अपने क्षेत्र में नियोजित किये रहना एक प्रकार से अनिवार्य कर दिया गया है।

    भावना शून्य निष्ठुरों की संकीर्णता ही इतनी बोझिल रहती है, कि उसके रहते व्यस्तता- अभावग्रस्तता का बना- बनाया व गढ़ा- गढ़ाया बहाना सदा- सर्वदा एक रस बना रहता है, उन पर दूसरों का हड़पने भर की हविस छाई रहती है। अपना देना तो मानो वज्रपात की तरह असह्य हो? ऐसे लोग अपने परिवार में भी हो सकते हैं, पर यह विश्वास किया गया है कि पच्चीस लाख में से एक लाख ऐसे अवश्य निकल आएँगे, जो इस आपत्तिकाल में बीस पैसे और दो- चार घण्टे नित्य का समय लोकमंगल के लिए लगाते रह सकें।

    यह समय और पैसा अपने ही संपर्क क्षेत्र में विद्या−विस्तार में खर्च किया जाना है। किन्हीं अन्य को देने की आवश्यकता नहीं है। अपने हाथों अपना समय और पैसा खर्च करने में इस बात की आशंका नहीं रहती कि कहीं कोई ठग तो नहीं रहा है?

    सेवा साधना का यह क्रम अपनाकर, आरंभ से ही एक लाख अध्यापक प्रति सौ के हिसाब से एक करोड़ छात्रों से संपर्क साधने और उन्हें नवयुग के अनुरूप प्रेरणा देने में समर्थ हो सकेंगे। यदि आशा से अधिक परिणाम निकलने आरंभ हो गये, तो पाँच लाख परिजन पाँच करोड़ को भी झकझोरने, हिलाने, घसीटने और उठाकर खड़ा कर देने में समर्थ हो सकते हैं। यही बात यदि संपर्क- क्षेत्र के वर्तमान पच्चीस लाख परिजनों तक लागू होने लगे, तो समझना चाहिए कि पच्चीस करोड़ को विद्यादान करने का सिलसिला चल पड़ा ।।

    अपने घर- परिवार की परिधि के भीतर क्या हो सकता है? यह अनुमान लगाते हुए यह सब सोचा जा रहा है। पर इतना ही छोटा अनुबंध बँधा रहे, यह संभव नहीं। जब चोर- उचक्के नशेबाज, गुण्डे, उच्छृंखल, व्यभिचारी अपने- अपने संपर्क में कितनों को ही नये सिरे से प्रभावित करते और साथी- सहयोगी बनाते देखे गये हैं, तो कोई कारण नहीं कि उच्च उद्देश्यों पर सच्चे मन से निष्ठा रखने वाले, चिंतन को क्रिया के साथ जोड़ने वाले यदि उमंगों में लहराने लगें, तो अपने जैसे अनेकों को खींच- घसीट न सकें, परिवार को बढ़ा न सकें?

    प्रज्ञा- परिजनों को एक से पाँच, पाँच से पच्चीस, पच्चीस से एक सौ पच्चीस बनने के लिए प्रयत्नशील होने के लिए पूरी तरह उकसाया गया है। एक से पाँच की गुणन- प्रक्रिया यदि सचमुच पिल पड़े तो चार- पाँच छलांगों में ही देश की अस्सी करोड़ जनता को सृजन- चेतना से अनुप्राणित किया जा सकता है। चूँकि अपना आंदोलन सार्वजनीन, सार्वभौम, सभी जातियों और सभी मान्यताओं वालों के लिए समान रूप से खुला है, तो किसी संकुचित क्षेत्र तक सीमित रहने की आशंका तो रहती ही नहीं। निष्कर्ष यही निकलता है, कि युगचेतना सूर्य किरणों की तरह आरंभ कहीं से क्यों न हो, अंततः: विश्वव्यापी बनकर रहेगी।
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