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Books - विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप

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प्रस्तुत संकटों का कारण एवं निवारण

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मनुष्य को आज इतनी अधिक सुविधायें और साधन-सम्पदायें प्राप्त हैं कि 200 वर्ष पूर्व का मनुष्य इनकी कल्पना भी नहीं कर सकता था। पहले की अपेक्षा उसके साधनों और सुविधाओं में निरन्तर वृद्धि ही होती जा रही है। इसके उपरान्त भी मनुष्य अपने को पहले की तुलना में अभावग्रस्त, रुग्ण, चिन्तित और एकाकी ही अनुभव कर रहा है। भौतिक होने पर, सुविधा साधनों में अभिवृद्धि होने के बाद होना तो यह होना चाहिए था कि मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक सुखी और अधिक सन्तुष्ट रहता, किन्तु हुआ इससे विपरीत ही है। यदि गम्भीरतापूर्वक मनुष्य की आन्तरिक स्थिति का विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि वह पहले की तुलना में सुख-संतोष की दृष्टि से और अधिक दीन-दुर्बल हो गया है। शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक सन्तुलन, पारिवारिक सौजन्य, सामाजिक सद्भाव, आर्थिक सन्तोष और आन्तरिक उल्लास की दृष्टि से सभी क्षेत्रों में मनुष्य जाति नई-नई समस्याओं व संकटों से घिर गई है।

आज की सुविधा सम्पन्नता और प्राचीनकाल की परिस्थितियों में तुलना की जाय और मनुष्य के सुख-सन्तोष को ही दृष्टिगत रखा जाय तो पिछले जमाने की असुविधा भरी परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति अधिक सुखी और सन्तुष्ट जान पड़ेंगे। इन पंक्तियों में भौतिक प्रगति तथा साधन-सुविधाओं की अभिवृद्धि को व्यर्थ नहीं बताया जा रहा है, न कि उनकी निन्दा की जा रही है। कहने का आशय इतना भर है कि परिस्थितियां कितनी ही अच्छी और अनुकूल क्यों न हों, यदि मनुष्य के आन्तरिक स्तर में कोई भी सुधार नहीं हुआ है तो सुख-शान्ति किसी भी उपाय से प्राप्त नहीं की जा सकती है।

वर्तमान युग की समस्याओं और संकटों के लिए परिस्थितियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। परिस्थितियां तो पहले की अपेक्षा अब कहीं अधिक अच्छी, अनुकूल और सहायक हैं। फिर क्या कारण है कि व्यक्ति और समाज इन दिनों दुःख-दारिद्रय, दैन्य-दुर्बलता, संकट-समस्याओं तथा विपत्तियों-आपदाओं से बुरी तरह ग्रस्त है? इसका कारण अन्तर में ही खोजना पड़ेगा और यह मानना पड़ेगा कि बाहर से मनुष्य जितना साधन सम्पन्न और समृद्ध होता गया तथा भीतर से वह उतना ही रुग्ण बनता चला गया। अयोग्य व्यक्ति अधिकार और मूढ़-मन्द मति लोग हथियार मिलने पर जिस प्रकार अनर्थ मचाते हैं ठीक वैसी ही स्थिति इन दिनों मनुष्य की है। साधन-सुविधाओं के बढ़े-चढ़े अम्बार ने उसे और अधिक अहंवादी, कुटिल, स्वार्थी, संकीर्ण तथा भ्रष्ट बना दिया है।

सर्वतोमुखी पतन और पराभव के इस संकट का निराकरण करने के लिए एक ही उपाय कारगर हो सकता है। वह है, व्यक्ति और समाज का भावनात्मक परिष्कार। भावना स्तर में अवांछनीयताओं के घुस पड़ने से ही तमाम समस्यायें उत्पन्न हुई हैं। इन समस्याओं का यदि समाधान करना है तो सुधार की प्रक्रिया भी वहीं से प्रारम्भ करनी पड़ेगी, जहां से ये विभीषिकायें उत्पन्न हुई हैं। अमुक-अमुक समाधान का सामयिक उपचार तो हो सकता है पर चिर स्थायी समाधान के लिए आधार को ही ठीक करना पड़ता है। इस समाधान के लिए सुलझे हुए विचारशील व्यक्तियों को लोकसेवा की दृष्टि से आगे आना चाहिये। सुविधायें बढ़ाकर जनजीवन को सहज और सरल बनाने को भी सेवा में सम्मिलित किया जा सकता है और पीड़ितजनों की सहायता सुश्रूषा करना भी सेवाधर्म के अन्तर्गत आता है, किन्तु इस तरह की सेवाओं से भी बढ़कर महत्वपूर्ण है—जनमानस का परिष्कार। यदि यह कार्य किया जाय तो अभावग्रस्त रहते हुए सुविधा-साधनों का लाभ उठाया जा सकता है, उन्हें अर्जित किया जा सकता है, इसके बिना सुविधा सम्वर्धन और पीड़ा निवारण के प्रयास भी सामयिक और अस्थायी उपचार ही सिद्ध होंगे। उदाहरण के लिए भूखे व्यक्ति को एक बार भोजन करा दिया जाय तो उस समय तो उसका पेट भर जायेगा, लेकिन जब उसे दोबारा भूख लगेगी तो पहले की गई सेवा उस समय व्यर्थ हो जायेगी। तब उसका कोई परिणाम या प्रभाव काम करता नहीं दीखेगा। इसी समस्या को गहराई से देखा जा सकता है कि कहीं वह व्यक्ति बेकार तो नहीं है, निकम्मा या कामचोर होने के कारण ही तो भिक्षाजीवी नहीं बन गया है? इन कारणों का पता लगाकर इन्हें दूर किया जाय तो वह समाधान अधिक स्थायी समाधान देने वाला होगा।

मनुष्य समाज की अन्य समस्याओं के सन्दर्भ में भी इसी प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाना चाहिये। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अपनी आस्थाओं और मान्यताओं के अनुरूप ही व्यक्ति परिस्थितियों को सुखद या दुःखद बना लेता है। दृष्टिकोण के अनुसार ही मनुष्य की जीवनधारा बहती है। एक ही स्टेशन से चलने वाली दो रेलगाड़ियां थोड़ी दूर जाकर पटरियां बदलने से दो विभिन्न दिशाओं में चल पड़ती हैं। पटरी बदलने वाले एक छोटे से यन्त्र का यह प्रभाव होता है कि दिल्ली से चलने वाली एक रेलगाड़ी कलकत्ता पहुंच जाती है और दूसरी, उससे सर्वथा विपरीत दिशा में बम्बई जा पहुंचती है। हिमालय पर्वत से ही निकली सिन्धु, ब्रह्मपुत्र और गंगा नदी अलग-अलग सागरों में जाती हैं। केवल इस कारण कि पहाड़ की ढलान दो विभिन्न दिशाओं में है। इसी प्रकार एक ही परिस्थिति भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न ढंग से प्रभावित करती है। एक ही परिस्थिति में जन्में दो व्यक्तियों में से कोई सन्त महापुरुष बन जाता है और चोर-डाकू। अस्तु, स्थायी समाधान केवल विचारों, आस्थाओं व मान्यताओं के परिष्कार द्वारा ही सम्भव है।

पिछले दिनों विश्व के कतिपय राजनेता परिवर्तन का आधार दमन और बाहरी दबाव बताते रहे। उन्होंने इस नीति को अपनाया भी। आरम्भ में थोड़ी-बहुत सफलता मिलती भी दिखाई दी, लेकिन अन्ततः असफलता ही हाथ लगी। जहां कहीं थोड़ी-बहुत सफलता मिलती भी दिखाई दी तो वह मात्र इस कारण कि बाहरी दबाव निरन्तर बना रहा। उन दिखाई देने वाले परिवर्तनों के साथ यह सम्भावना बराबर बनी रही कि दबाव हटाते ही लोग फिर अपने रूप में आ जावेंगे। कहीं-कहीं यह दबाव दीर्घकाल तक चला और श्मशान जैसी शान्ति छाई रही, किन्तु जिन लोगों के दमन किया, अपने शत्रुओं या विपक्षियों को दबाया, बाद में उन्हीं के हाथों उसी प्रकार दबाये गये।

रक्तपात, दमन और हिंसा का चाव ही कुछ ऐसा है कि कोई शिकार न मिलने पर वह अपने ही साथियों को दबाने और फाड़ने लगता है। भेड़िया हिंसक जानवर है। दूसरे जानवरों का शिकार कर वह पेट भरता है और जब कोई शिकार नहीं मिलता तो अपनी ही जाति के भेड़ियों को मारकर खाने लगता है। इसके विपरीत घास-पात खाने वाली भेड़ें चारा-पानी नहीं मिलने पर एक दूसरे की गर्दन पर सिर रख लेती हैं और मृत्यु का वरण कर लेती हैं। मरना भेड़ियों को भी पड़ता है और भेड़ों को भी, पर भेड़िये के मरने में भेड़ की-सी सौम्यता और गरिमा कहां दिखाई देती है? वह विचार अब गलत ही सिद्ध हुआ है कि बाहरी दबाव से किसी को सुधारा या ठीक किया जा सकता है। परिवर्तन केवल आन्तरिक स्तर पर प्रभाव डालने वाले प्रयासों से भी सम्भव है और उस स्तर को प्रभावित करने के लिए विचारों के बीज, प्रेरणाओं की खाद तथा प्रोत्साहन का वातावरण बनाया जाना चाहिये।

इन दिनों अपना समाज शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक तथा सामाजिक समस्याओं से बुरी तरह ग्रस्त है। विविध प्रकार की समस्याओं के विभिन्न कारण बताये तथा तदनुरूप उपचार सुझाये जाते हैं। पर देखा यह जाता है कि सामयिक राहत मिलने के बाद समस्याएं पुनः उठ खड़ी होती हैं तथा वे स्थूल उपचार उतने कारगर नहीं सिद्ध हो पाते। कारण यह है कि समस्याओं को जन्म देने वाले स्थूल कारणों को ही अधिक महत्व दिया जाता है तथा उस मूल भूत तथ्य की उपेक्षा कर दी जाती है जो वस्तुतः हर प्रकार की समस्या का सृजनकर्त्ता है। गम्भीरता से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि यदि हमारे सोचने का ढंग सही रहा होता तो व्यक्ति एवं समाज के सामने प्रस्तुत समस्याओं में से एक का भी अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता और हर व्यक्ति सुख-शान्ति, हर्ष एवं उल्लास की जिन्दगी जीता। सुर दुर्लभ मानव जीवन को नारकीय जीवन की प्रताड़ना भुगतने के लिए विवश करने वाला अनात्म तत्व एक ही है बुद्धि विपर्यय। इसी का अभिशाप विभिन्न प्रकार की समस्याओं को जन्म देता है। स्वास्थ्य की समस्या को ही लें तथा कारणों की गम्भीरता से खोज बीन करें तो अचिन्त्य चिन्तन की विकृति प्रमुख कारण के रूप में उभर कर सामने आती है। वन्य प्रदेशों में स्वच्छ निवास करने वाले अभावग्रस्त और कष्ट साध्य जीवन जीने पर भी पशु पक्षियों में से एक भी बीमार नहीं पड़ता तो फिर मनुष्य के ऊपर ही क्यों कर विपत्ति टूटी कि कोई स्वस्थ कहा जाने लायक नहीं दीखता। चल फिर लेने वाले को बीमार न कहें यह बात दूसरी है। पर बारीकी से निरख-परख करने पर प्रतीत होता है कि न्यूनाधिक मात्रा में शतप्रतिशत लोग शारीरिक और मानसिक रोगों से ग्रस्त रुग्ण जीवन जी रहे हैं। ऐसा क्यों हुआ? उत्तर एक ही चिन्तन का उलट गामी होना। मनुष्य ने अपनी आहार विहार की आदतों को अप्राकृतिक ढांचे में ढाला और अस्वस्थता को स्वेच्छापूर्वक आमन्त्रित किया। उलटी चिन्तन पद्धति को उलटा जा सके और यह बात हृदयंगम करायी जा सके कि प्राकृतिक जीवनचर्या, संयमित आहार-विहार का क्रम ही सुस्वास्थ्य एवं आरोग्य का एक मात्रा आधार हो सकता है तो निस्सन्देह सभी मनुष्य स्वस्थ, उल्लसित एवं निरोग जीवन जीने लगेंगे तब विपुल परिमाण में न तो औषधियों की आवश्यकता होगी और न ही अस्पतालों की। पर यदि रवैया इसी प्रकार चलता रहा तथा दिनचर्या असंयमित एवं कृत्रिमता से युक्त बनी रही तो बीमारियां और भी बढ़ेंगी तथा स्वास्थ्य संकट और भी अधिक सघन होगा, निरन्तर बढ़ाया ही जायेगा। रोगों से छुटकारा पाना यदि अभीष्ट हो तो आज या आज से हजार वर्ष बाद मनुष्य को इसी सिद्धान्त को अपनाना होगा कि प्राकृतिक आहार-विहार अपनाने के अतिरिक्त निरोग रहने एवं दीर्घ जीवी बनने का और कोई मार्ग नहीं हो सकता। प्राकृतिक जीवन जीने की प्रेरणा देने वाली चिन्तन पद्धति जो व्यक्ति देगा सचमुच वह धन्वन्तरि जैसा ही होगा। आहार-विहार को संयमित एवं प्राकृतिक बनाने वाली विचारधारा द्वारा मानव जाति को जितनी सेवा होगी उतनी औषधि अनुसन्धानशालाओं एवं मेडीकल कालेजों में लगे वैज्ञानिक भी नहीं कर सकते।

आर्थिक संकट से देश की अधिकांश जन संख्या ग्रस्त है। इसका कारण राजनीति क्षेत्र के नेताओं की अदूरदर्शिता भरी अर्थनीति भी हो सकती है परन्तु कठोर श्रम से बचने की, आरामतलबी की, ठाटबाट बनाने की मनोवृत्ति भी इस संकट के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। पसीना बहाकर कड़ी मेहनत करने ही यदि हर व्यक्ति आदत डाले तो देश की जमीन से अब की तुलना में बीस गुना पैदावार होने लगे। कुटीर उद्योग कलकारखाने तथा शिल्प व्यवसाय अभी की तुलना में कई गुना लाभ देने वाले सिद्ध हो सकते हैं। ऐसे कितने ही देशों के उदाहरण सामने हैं जो कल परसों तक घोर विपन्नताओं एवं प्रतिकूलताओं का सामना कर रहे थे। पर परिश्रमशीलता के बलबूते देखते ही देखते वे उन्नति के शिखर पर जा पहुंचे। जापान, इजराइल, डेनमार्क, कनाडा, स्वीडन आदि देशों के उदाहरण इसी सत्य की पुष्टि करते हैं कि समृद्धि किसी देश की बपौती नहीं है, न ही कोई अप्रत्याशित उपलब्धि, यह श्रम की कीमत पर खरीदी गई होती है। वहां के नागरिकों ने श्रमशीलता को अपनी आराध्य देवी मानकर आराधना की, फलतः उस देवी की अनुकम्पा सम्पत्ति एवं समृद्धि के रूप में बरसती चली गई।

अपने यहां घर में अच्छी खेती होते हुये भी लड़के तनिक-सी पढ़ाई पढ़ लेने के बाद शहरों में क्लर्की ढूंढ़ने तथा नरक जैसी गलियों के गन्दे मकानों में सड़ने के लिए मारे-मारे फिरते रहते हैं। बुद्धि विपर्यय यहीं है जिसके कारण सम्पन्नता के मूलभूत आधार श्रम की अवमानना करते क्या शिक्षित क्या अशिक्षित सभी देखे जाते हैं। बैठे ठाले दिन गुजारने वाली बाबूगीरी की नौकरी के फिराक में चक्कर लगाने, श्रम से जी चुराने की मनोवृत्ति के रहते न तो व्यक्ति की प्रगति सम्भव है और न ही समाज अथवा देश की। अवगति तथा आर्थिक विपन्नताओं को बनाये रखने में कुरीतियों का भी बड़ा हाथ है। सामाजिक कुरीतियां हमारी हड्डियों को चबाती हैं और नस-नस पर चिपकी हुई जोंकों की तरह हमें दरिद्रता की यंत्रणा सहते रहने के लिए विवश करती हैं। प्रचलित विवाह प्रथा को ही लें तथा अन्य देशों की विवाह परम्परा से तुलना करें तो मालूम होगा कि इतनी महंगी और व्यक्ति तथा समाज को दरिद्र बनाने वाली बेहूदी प्रथा कहीं भी नहीं है। दहेज के नाम पर मांगी गई मोटी रकम की आपूर्ति के लिए कितने ही व्यक्ति बेईमानी का पल्ला पकड़ते हैं। जो सम्पन्न हैं वे समाज के संचित पैसे ही होली फूंकते, ओछे प्रदर्शनों में देखे जाते हैं जो पैसा घर-परिवार के बाल-बच्चों के विकास में लग सकता था अथवा समाज के पिछड़े वर्ग के काम आ सकता था—उथली अहमन्यता की पूर्ति में उसे व्यर्थ गंवा दिया जाता है। यह ढर्रा यूं ही चलता रहा तो आर्थिक विपन्नता से छुटकारा पाना सदियों तक सम्भव नहीं होगा।

उत्पादन व्यवसाय एवं औद्योगिक कौशल की भारी योजनाएं बनते एवं चलते हुए तीन दशक पूरे होने को आये। समृद्धि बढ़ने की बात मृगतृष्णा की तरह बनी रही। प्रगति बिना तेल के घिसटने वाले इंजन की भांति है। यदि लोगों को घोर परिश्रमी, मितव्ययी, सादगी प्रिय बनने और रूढ़ियों को कुचल डालने के लिये प्रेरणा न दी गई और वर्तमान मनोवृत्तियां कायम रहीं तो देश से न तो गरीबी जायेगी और न बेईमानी। कमाया धन दुर्व्यसनों में नष्ट होगा, कुरीतियां हमें दरिद्र बनायेंगी और कामचोरी की मनोवृत्ति से उत्पादन गिरेगा। ऐसी स्थिति में समृद्धि की बात मात्र मानसिक कल्पना बनकर घुमड़ती रहेगी। ऐसी प्रचण्ड विचारधारा का उद्भव एवं प्रसार हो सके कि कामचोरी, आराम तलबी, फिजूलखर्ची और कुरीतियों की बेवकूफी से लोग विरत हो सकें तो कुछ ही वर्षों में भारत उस पुरातन स्थिति को फिर से प्राप्त कर सकता है जिसे विदेशी सोने की चिड़िया कहकर पुकारते थे। दरिद्रता वस्तुतः हमारी मानसिक दरिद्रता की प्रतिक्रिया-प्रतिच्छाया मात्र है। जब तक हमारे विचार करने की पद्धति नहीं सुधरेगी तब तक अर्थ संकट दूर होने की आशा मात्र दुराशा ही बनी रहेगी।

प्रकृति के नयनाभिराम दृश्य, सौन्दर्य, प्राणियों की चित्र-विचित्र दुनियां, अनेकानेक प्रकृति प्रदत्त साधन तथा मानव आविष्कृत सुविधाएं सत्पुरुषों का संसर्ग आदि असंख्य धाराएं ऐसी हैं जो प्रचुर परिणाम में हमारे चारों ओर विद्यमान है तथा हर घड़ी प्रमुदित होने का अवसर प्रदान करती है। स्रष्टा ने मानव जीवन के इर्द-गिर्द बिखरा वातावरण ऐसा सुरुचिपूर्ण बनाया है कि कोई भी सही मस्तिष्क वाला व्यक्ति जन्म से लेकर मरण पर्यन्त हर घड़ी हर्षोल्लास से भरा हुआ बिता सकता है। पर दुर्भाग्य को क्या कहा जाय? जिसने मनुष्य की विचार प्रणाली में विष घोल दिया जिससे वह हर बात को उलटे ढंग से सोचने लगा जो परिणाम निकलना चाहिए था वही निकला। दुर्बुद्धिग्रस्त मस्तिष्क में सदा चिन्ता, भय, शोक, संशय निराशा उद्वेग के ज्वालामुखी ही फूटा करते हैं। वे मन को इतना अधिक असन्तुलित कर देते हैं कि आत्म हत्या करने को जी चाहता है। कुकल्पनाओं के आधार पर विनिर्मित दुःखों के कारण जो वास्तविक दीखते हैं वे बिल्कुल ही अवास्तविक होते हैं। उलटी बुद्धि ही अनेकों प्रकार की मानसिक समस्याओं एवं मनोरोगों का कारण है।

अनेकानेक सामाजिक समस्याओं के मूल में भी उलटी बुद्धि का नट नृत्य देखा जा सकता है। एक छोटा सा नमूना सर्वत्र देखने को मिलता है कि कई व्यक्तियों को सन्तान या लड़का नहीं होता। वस्तुतः वे लोग बहुत ही सुखी और सौभाग्यशाली हैं। कन्याओं के विवाहोपरान्त वे निर्द्वन्द्व होकर अपना सम्पूर्ण समय और धन परमार्थ प्रयोजनों में लगाकर लोक और परलोक उज्ज्वल बना सकते हैं। बढ़ती हुई आबादी की विभीषिका देश के सामने है। ऐसी स्थिति में लड़का न हुआ तो इसमें दुःख मनाने की कौन सी बात है। पर प्रायः देखा यह जाता कि बेटा न होने पर विशेष दुखी लोग हर जगह पाये जाते हैं। इनमें से कितने तो दूसरा विवाह करते खान-दान का लड़का गोद लेते हैं। उनका यह सोचना संकीर्णता का परिचायक है कि अपने श्रम समय और धन का लाभ किसी अपना कहे जाने वाले लड़के को मिले। ऐसा सोचने वाले देश, धर्म, समाज संस्कृति, ईश्वर आदि को सर्वथा भूल जाते हैं। अन्यथा वे अपनी समृद्धि उनको देकर यशस्वी बन सकते थे और आत्मशान्ति की दिशा में कदम बढ़ा सकते थे। यह तो एक उदाहरण मात्र है। ऐसी अनेकों प्रकार की भ्रान्तियां जन मानस के मन में भरी हुई हैं।

समाज में अगणित अपराध बढ़ रहे हैं, बेईमानी, ठगी, चोरी, डकैती, गुंडागर्दी का ऐसा बोल बाला है कि सामान्य नागरिक को अपनी सुरक्षा कठिन पड़ रही है। पेशेवर अपराधियों के लिए प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में कानून, पुलिस, कचहरी, जेल आदि से बचकर निकल जाना एक सामान्य-सी बात है। कठोर नियन्त्रण एवं प्रशासनिक व्यवस्था के अभाव से अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हर व्यक्ति का नागरिक जीवन इस बढ़ती हुई अनियन्त्रित अपराधवृत्ति के कारण असुरक्षित और अनिश्चित होता जा रहा है। यह विभीषिका विचार पद्धति का उलट कर ही दूर की जा सकती है। मनुष्य का गौरव कर्तव्य एवं आदर्शवादी परम्परा अपनाने में है। अपनी तथा दूसरों की समग्र प्रगति सदाचरण और सहयोग पर निर्भर है। तर्क तथ्य और प्रमाण के आधार पर यह मान्यता जन मानस में गहराई तक प्रवेश करायी जा सके तो अपराधों का उन्मूलन सम्भव है। अपराधकर्त्ता का उस परोक्ष दंड व्यवस्था पर विश्वास जम जाय कि कानून और कचहरी से तो बचा भी जा सकता है पर ईश्वर की निगाह से नहीं। अपने ही कुकर्म एक न एक दिन परिपक्व होकर आदि व्याधियों के रूप में फूटेंगे इस मान्यता के सुदृढ़ होते ही अपराध नियन्त्रण के लिए भले ही राजकीय दंड व्यवस्था रहे पर उसका समूलोच्छेदन कर्तव्य भावना, आत्मगौरव एवं ईश्वरीय न्याय की यथार्थता समझ लेने पर ही सम्भव है।
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