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Books - विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप

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क्रान्ति का सही अर्थ समझें

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परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है। मनुष्य, समाज, संस्कृति और सभ्यता को इस परिवर्तन प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है। समय-समय पर कितनी ही नवीन परम्पराओं, प्रचलनों एवं प्रथाओं का देश और समाज की आवश्यकता के अनुरूप प्रादुर्भाव होता है। एक समय की उपयोगी मान्यतायें एवं परम्परायें दूसरे समय में अनुपयोगी हो जाती हैं। उनमें परिवर्तन सुधार की आवश्यकता पड़ती है। समाज व्यवस्था, शासन तत्व आदि में भी समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं। एक व्यवस्था एक नियम—एक कानून हर काल में उपयोगी नहीं सिद्ध हो सकते। उनमें बदली परिस्थितियों की मांगों के अनुरूप हेर-फेर करते रहने से ही समाज की सुव्यवस्था कायम रह सकती है। समाज के सुनियोजित संचालन और विकास की दृष्टि से परिवर्तन आवश्यक और उपयोगी भी है।

कितनी ही प्रथायें, मान्यतायें एवं व्यवस्थाएं एक निश्चित अवधि के बाद जराजीर्ण हो जाती तथा ऐसी रूढ़ियों का रूप ग्रहण कर लेती हैं जो व्यक्ति और समाज के लिए हर दृष्टि से हानिकारक हैं। पर पुरातन के मोह अथवा स्वार्थों पर आघात पहुंचाने के भय से मनुष्य उन्हें छोड़ना नहीं चाहता उससे चिपका रहता है। फलतः एक ऐसा अवरोध पैदा होता है जो विकास प्रक्रिया का मार्ग अवरुद्ध करता है। अराजकता, अव्यवस्था तथा अवांछनीयता को ऐसी ही परिस्थितियों में आश्रय मिलता है। उनमें सुधार एवं परिवर्तन के लिये जब व्यक्तिगत विरोधात्मक प्रयत्न कारगर सिद्ध नहीं होते तो व्यापक परिवर्तन करने वाली क्रान्तियों का जन्म होता है जो आंधी-तूफान की भांति आती हैं तथा अपने प्रवाह में उस कचरे को बहा ले जाती हैं जिनके कारण समाज में अव्यवस्था फैल रही थी।

प्रयास संघर्षात्मक होते हुए भी क्रान्ति सृजन की एक ऐसी प्रक्रिया है जो उपयोगी मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापना एवं सुनियोजन के लिये आवश्यक है। जनमानस में संव्याप्त भ्रान्तियों में से एक यह है कि क्रान्ति परिवर्तन की हिंसात्मक पद्धति है तथा क्रान्तियों को जन्म देने में आर्थिक विषमता ही प्रधान कारण होती है। वस्तुतः कार्लमार्क्स की साम्यवादी विचारधारा के बढ़ते हुये प्रभाव ने उपरोक्त मान्यता को जन्म दिया। मानव जीवन के अनिवार्य पहलू—अर्थ और सम्बन्धित तन्त्र के व्याख्याता होने के कारण मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि समाज में मूलभूत प्रेरक शक्ति अर्थ ही है। आर्थिक सन्तुलन ही समाज की विभिन्न समस्याओं को जन्म देता है। यह असन्तुलन जब चरमसीमा पर जा पहुंचता है तो क्रान्तियों का सूत्रपात होता है। मार्क्स के अनुसार विश्व की अधिकांश क्रान्तियां आर्थिक विषमता के कारण हुई हैं। यह मान्यता एकांगी और अपूर्ण है। वस्तुस्थिति की गहराई में पहुंचने के लिये इतिहास का पर्यवेक्षण—अध्ययन करना होगा।

प्रख्यात फ्रांसीसी क्रान्ति का इतिहास यह बताता है कि उन दिनों फ्रांस में निरंकुश शासकों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। अत्याचार, अन्याय की चक्की में जनता पिस रही थी। नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं अधिकार लगभग समाप्त हो गये थे। फ्रांसीसी क्रान्ति में समानता का विचार अर्थ के आधार पर नहीं, बुद्धि के आधार पर मानवतावादी सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में किया गया। मौलिक प्रेरणा यह थी कि मनुष्य जब जन्म लेता है तो स्वतन्त्रता तथा एक समान होता है। इस स्वतन्त्रता तथा प्राकृतिक समानता को जबरन प्रतिबन्धित नहीं किया जाना चाहिये। इस विचारणा ने फ्रांस की क्रान्ति का सूत्रपात किया। सूत्रधार बने वाल्टेयर और रूसो। तब तक रूसो की सशक्त समाजवादी विचारधारा प्रभाव में आ चुकी थी। जिसने फ्रांस के बौद्धिक समुदाय में प्रेरणा भर कर अनीति और अत्याचार के विरुद्ध उकसाया। इंग्लैण्ड की प्यूरिटन क्रान्ति पर प्रभाव बाइबिल में प्रतिपादित समानता के विचारों का था जिसे राजनैतिक समर्थन भी मिल गया। उन दिनों ब्रिटिश पार्लियामेन्ट लोकतान्त्रिक नहीं थी, अधिकार भी सीमित थे। साम्राज्य वादी शासन का देश पर प्रभुत्व था। असमानता की खाई पाटने की तीव्र आवाज उठी। धार्मिक एवं राजनैतिक दोनों की मंचों से एक साथ साम्राज्यवाद के विरोध में वैचारिक वातावरण तैयार हुआ जिसने क्रान्ति का सूत्रपात किया।

दास प्रथा के विरुद्ध अमेरिका में जिस क्रान्ति का जन्म हुआ वह मानवीय मूल्यों की पुनःस्थापना के लिए था। काले, गोरों के बीच भेद-भाव की प्रवृत्ति चरम सीमा पर थी। वर्णभेद के पनपने विष वृक्ष से समाज की उन जड़ों को खोखला बनाना आरम्भ कर दिया जिन पर मनुष्यता अवलम्बित है। काले नीग्रो पर गोरों का अत्याचार अनाचार बढ़ता ही जा रहा था। उत्पीड़ित मानवता के व्यथित स्वर ने विद्रोह की आवाज फूंकी। फलस्वरूप सर्वत्र अमानवीय दास प्रथा के विरुद्ध आवाज उठी जा क्रमशः तीव्र होती गयी। दास प्रथा का अन्त हुआ।

इतिहास की ये महत्वपूर्ण क्रान्तियां अर्थ से अभिप्रेरित नहीं थीं। इनका लक्ष्य था व्यक्तिगत स्वातंत्र्य, राजनैतिक लोकतन्त्र तथा मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना। रूस की आधुनिक क्रान्ति को मार्क्स के वर्ग युद्ध के दर्शन शास्त्र का आदर्श स्वरूप माना जाता है जबकि सत्य दूसरा ही है। रूसी क्रान्ति का जन्म जार के अत्याचारी, भ्रष्ट शासन के विरोध में हुआ न कि वह वर्ग संघर्ष अथवा आर्थिक असमानता का प्रतिफल था। अस्तु- आर्थिक विषमता को एक मात्र सभी समस्याओं का कारण मानना तथा क्रान्तियों का सूत्रधार कहना विवेक सम्मत नहीं है।

क्रान्ति का स्वरूप हिंसात्मक भी नहीं है जैसी कि मान्यता अधिकांश व्यक्तियों के मन में बनी हुई है। क्रान्ति का अर्थ है—वैचारिक परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें जन चेतना अनौचित्य का विरोध करने-छोड़ने तथा औचित्य को अपनाने के लिए विवश हो जाय। जो क्रान्तियां आरम्भ हुईं अहिंसात्मक तरीके से, पर आगे चल कर हिंसात्मक रूप में बदल गयीं वे समाज में विशेष परिवर्तन कर सकने में समर्थ न हो सकीं। प्रमाण सामने हैं—विश्व की भौतिक एवं सामाजिक क्रान्तियों का इतिहास विश्व की अधिकांश क्रान्तियां जिन आदर्शों से प्रेरित होकर शुरू हुईं वे आगे चलकर गौण हो गये और एकमात्र सत्ता का परिवर्तन ही प्रमुख लक्ष्य रह गया। सत्ता के संकुचित लक्ष्य तक केन्द्रित हो जाने से क्रान्ति का अभीष्ट लक्ष्य कभी पूरा न हो सका निरंकुश तानाशाही से तात्कालिक राहत भले ही मिल गयी हो पर क्रान्ति का समग्र उद्देश्य अपूर्ण ही बना रहा। क्रान्ति का अर्थ है—व्यक्ति के अन्तरंग और बहिरंग का आमूलचूल परिवर्तन। एक ऐसा परिवर्तन जो मनुष्य समुदाय को परस्पर एक दूसरे के निकट लाता तथा बांधता हो। समाज की रूढ़िग्रस्त परम्पराओं और कुरीतियों को समाप्त करता तथा स्वस्थ परम्पराओं के प्रचलन के लिए साहस दिखाता हो। निःसन्देह क्रान्ति का स्वस्थ स्वरूप और महान लक्ष्य यही होना चाहिये।

स्पष्ट है कि इस महान लक्ष्य की पूर्ति हिंसात्मक तरीके से नहीं विचारक्रान्ति के अहिंसात्मक आध्यात्मिक प्रयोग उपचारों के द्वारा ही सम्भव है। बुद्ध का धर्म-चक्र प्रवर्तन क्रान्ति का आदर्श और समग्र स्वरूप था। गान्धी का स्वराज्य आन्दोलन भी इन्हीं आदर्शों से अभिप्रेरित था। मात्र बाह्य परिवर्तनों से समाज की अनेकानेक समस्याओं का समाधान होना सम्भव रहा होता तो कभी का हो गया होता। विश्व में कितनी हिंसात्मक क्रान्तियां हुई हैं। सत्ता में परिवर्तन भी हुए हैं पर मानवजाति की मूल समस्या अपने स्थान पर यथावत् बनी हुई है। फ्रान्स, इंग्लैण्ड, अमेरिका, रोम तथा रूस की प्रख्यात क्रान्तियों के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि इन देशों में मानवतावादी व्यवस्था स्थापित हो गयी है, असमानता की खाई पट गयी है और आपसी स्नेह सौहार्द्र की मात्रा बढ़ी है। सत्ता परिवर्तन के सीमित आवेग और आवेश तक सीमित रह जाने वाली हिंसात्मक क्रान्ति की पद्धति से किसी भी समस्या का स्थायी हल नहीं निकल सकता। आये दिन तथाकथित क्रान्ति के नाम पर कितने ही देशों में सत्ता के उलट फेर की घटनाएं देखी और सुनी जाती हैं पर उनसे किसी देश में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना में सहयोग मिला हो, ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं देखने में आया हो। यह तथ्य भलीभांति हृदयंगम करना होगा कि परिवर्तन का केन्द्रबिन्दु मनुष्य है। बाह्य परिस्थितियां तो आन्तरिक परिवर्तन के अनुरूप बनती-बदलती रहती हैं। क्रान्ति की सफलता मनुष्य के आन्तरिक परिवर्तन पर अवलम्बित है। समग्र क्रान्ति भी मनुष्य के भीतर ही सम्भव है। समाज को तो यथा स्थिति ही प्रिय है— उसकी स्वयं की व्यक्तियों से अलग कोई सत्ता नहीं है। बाह्य परिस्थितियों में परिवर्तन की उपेक्षा करते रहने से कुछ स्थायी हल नहीं निकल सकता। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध विचारक ‘लारेंस हाइड’ ने कुछ सारगर्भित प्रश्न उठाये हैं जो विचारणीय हैं। उनका कहना है कि ‘‘क्या व्यक्ति का पुनर्निर्माण किए बिना समाज का निर्माण सम्भव है? मानव के भीतर बैठे हुए बन्दर एवं चीते को क्या मात्र बाह्य दबावों से नियन्त्रित परिवर्तित किया जा सकता है? क्या बिना किसी उच्च आदर्श अथवा शक्ति का आश्रय लिए हम वह प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं जिनकी उन समस्याओं के हल के लिए आवश्यकता है जो समय-समय पर होती रहने वाली क्रान्तियों के बावजूद यथावत् बनी रहती हैं। क्या मनुष्य मनुष्य के बीच परस्पर सघन आत्मीयता विकसित किये बिना सच्चे समाजवाद की स्थापना सम्भव है? क्या हम केवल भौतिक शक्तियों का आश्रय लेकर बिना आध्यात्मिक जीवन का अवलम्बन लिए मानव जाति को स्थायी सुख शान्ति प्रदान कर सकते हैं?’’ लारेंस स्वयं उत्तर देते हुए कहते हैं—‘‘ऐसा कदापि सम्भव नहीं है। हमें स्थायी परिवर्तन के लिए एक ऐसी आध्यात्मिक क्रान्ति का श्रीगणेश करना होगा जो अहिंसात्मक हो, वैचारिक हो तथा जिसका लक्ष्य सम्पूर्ण विश्व हो न कि सीमित व्यक्तियों अथवा एक समाज विशेष का मात्र परिवर्तन।’’

कहना होगा कि आध्यात्मिक क्रान्ति द्वारा ही व्यक्ति का बाह्यान्तर परिवर्तन तथा समाज का पुनर्निर्माण संभव है। इसके लिए एक ऐसे संशक्त वैचारिक वातावरण का सृजन करना होगा कि मनुष्य उस परिवेश की उत्कृष्टता में ढलता बनता चला जाय। संगठन शक्ति की महत्ता उपयोगिता असंदिग्ध है। बड़े परिवर्तन संगठन के बिना नहीं हो सकते। व्यक्ति अकेला कितना भी समर्थ क्यों न हो—एकाकी कुछ नहीं कर सकता। संसार में जब भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं, संगठित प्रयासों के बलबूते। आध्यात्मिक क्रान्ति की चिनगारी भी उत्कृष्ट व्यक्तियों की आहुति पाकर प्रज्ज्वलित होगी—दावानल का स्वरूप ग्रहण करेगी। सर्वत्र संव्याप्त, दुष्प्रवृत्तियों, अवांछनीयताओं, कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं, अन्धविश्वासों का कूड़ा करकट उस दावानल में ही जल सकेगा। पर उस अग्नि को प्रदीप्त करने के लिए सर्वप्रथम ऐसे भावनाशीलों को आगे आना होगा जो स्वयं के व्यक्तित्व को सोने की भांति तपा सके और कुन्दन बनकर समाज में आलोकित हो सकें। नवसृजन के आध्यात्मिक क्रान्ति आयोजन में उन्हें ही आगे बढ़कर हिस्सा बंटाना होगा जो समस्त मानव जाति का भविष्य उज्ज्वल देखने के इच्छुक हैं तथा ध्वंस में नहीं सृजनात्मक प्रयासों में विश्वास रखते हैं।
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