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Books - विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप

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विचारों में क्रान्ति आए तो समस्याएं सुलझें

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अब से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व जब भगवान बुद्ध का प्रादुर्भाव हुआ था, उस समय भी आज की ही तरह जनमानस का चिन्तन एवं कर्तृत्व बहुत ही निकृष्ट स्तर का हो चला था। तान्त्रिक एवं वाममार्गी साधनाओं के नाम पर सर्वत्र भ्रष्टाचार फैला हुआ था। लोग निकृष्ट एवं भ्रष्ट जीवन जीते हुए भी अमुक कर्मकाण्डों, पूजा-विधानों आदि बाह्योपचारों के बहाने स्वर्ग मुक्ति आदि की आशा किया करते थे। तन्त्र में अलंकारिक रूप में वर्णित पंचमकार मद्य, मांस, मदिरा, मुद्रा मैथुन की खुली छूट मान लिया गया। चरित्र एवं सदाचरण जैसे शब्दों को उपहासास्पद मूर्खता समझा जाता था। यज्ञों के बहाने मद्य, मांस का भरपूर सेवन होता था। देवी-देवताओं के नाम पर बलिप्रथा का खूब जोरों पर प्रचलन था। भैरवी चक्र के व्याभिचार को पूरी तरह छूट दे रखी थी। उस अनाचार-दुराचरण का परिणाम वही हो रहा था जो होना चाहिए। लोग रोग-शोक, पाप-ताप, क्लेश-कलह, दुःख-दारिद्रय में बुरी तरह डूबे हुए थे। सर्वत्र अशान्ति का हाहाकार था।

ऐसी भीषण, प्रतिकूल एवं चारों ओर उद्विग्नता से भरी परिस्थितियों में गौतम बुद्ध जन्मे। उन्होंने आत्मकल्याण की दृष्टि से गृहत्याग भी किया था। रुग्ण बुड्ढे और मृतक मनुष्यों को आश्चर्य से देखकर वे इनसे बचने का उपाय सोचने लगे। बीमारी, बुढ़ापा और मृत्यु जैसे दुःखों के माध्यम से महाकाल द्वारा भेजी प्रेरणावश उन्होंने आकांक्षा की कि वे ऐसी तप-साधना करेंगे, जिससे अजर-अमर होने का सदा निरोग एवं युवा बने रहने का अवसर मिले। इसी उद्देश्य को लेकर वे अगणित सुख-सुविधाओं को लात-मार कर तप करने निकले थे। अनाचार के विरुद्ध प्रतिकार के प्रतीक रूप में जन्में इस अवतार के विकास का प्रारम्भ तप से ही हुआ। उनने वह किया भी, पर देर तक उस मार्ग पर चलते न रह सके। तप द्वारा जैसे जैसे उनकी आत्मा पवित्र होती गई, उन्हें विश्व मानव ही पीड़ा अपनी पीड़ा लगने लगी। जनमानस जिस पतित एवं हेय स्थिति में पड़ा हुआ था, उस पतन को उन्होंने अपनी आत्मा में भी अनुभव किया। विश्व की पीड़ा उनकी अपनी पीड़ा बन गई। आत्म-कल्याण की उनकी आकांक्षा जन-कल्याण की भावन में बदलने लगी। उनकी आत्म केन्द्रित चिन्तन धारा पलट गई। वे सोचने लगे—‘मैं अकेला मुक्ति लेकर क्या करूंगा? अज्ञान के निविड़ बन्धनों में बंधे हुए प्राणी जब इतनी नारकीय यन्त्रणायें सह रहे हैं तब मेरा कर्तव्य अपनी निज की समस्याओं तक सीमित रहने का नहीं। तप के द्वारा जो आत्मशक्ति प्राप्त हुई, उसका उपयोग लोक-कल्याण के लिए करना चाहिए। जितना ही अधिक विचार किया, उतना ही परिशोधन करने में लग पड़ने का निश्चय कर लिया। जो बुद्ध आत्म-कल्याण की आकांक्षा लेकर तप साधना करने, गृहत्याग करके निकले थे, उनकी तपश्चर्या ने उन्हें विश्व-मानव के कल्याण में ही आत्मकल्याण का दर्शन कराया। उनकी व्यष्टि कल्याण की आकांक्षा समष्टि हित-साधन में बदल गई।

बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन के माध्यम से अपने ढंग की एक अद्भुत एवं महान् क्रान्ति का अभियान चलाया और उनकी पुण्य-प्रक्रिया में स्नान करने वाली असंख्यों आत्माओं ने स्वर्गीय शान्ति का अनुभव किया। तान्त्रिक वाममार्गी भ्रष्टाचार की दावानल बुझी और उसके स्थान पर दया, करुणा, क्षमा, अहिंसा, सदाचार, उदारता की सुरसरि प्रवाहित होने लगी।

अपने आत्म-विकास के इस क्रम में महात्मा बुद्ध ने घोषणा की— ‘स्वर्ग मुक्ति’ की मुझे तनिक भी कामना नहीं है। लोकहित के लिए मैं बारम्बार मरूंगा। जब तक एक भी प्राणी बन्धन में बंधा हुआ है तब तक व्यक्तिगत मुक्ति को मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगा। परमार्थ में मिलने वाला आत्मसंतोष मुझे लोक और परलोक के समस्त सुखों की अपेक्षा अधिक प्रिय है। अपनी इस घोषणा के अनुरूप ही उन्होंने मृत्युपर्यंत कार्य किया। व्यक्तिगत तपश्चर्या का विकसित स्वरूप लोकहित की सेवा-साधना में परिणत हो गया एवं वे अपने समय के सबसे बड़े समाज सुधारक और युग निर्माता हुए। उन्होंने जन मानस के पतनोन्मुख प्रवाह को उलट-पलट कर रख देने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। तपश्चर्या और अध्यात्म का सर्वश्रेष्ठ एवं व्यावहारिक स्वरूप संसार के समक्ष प्रस्तुत करने वालों में बुद्ध का स्थान असाधारण रहा। उन्होंने जन-मानस के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए किये जाने वाले प्रयासों को तपश्चर्या और योगाभ्यास की ही संज्ञा दी। उनके अनुयायी लाखों बौद्ध भिक्षु सारे संसार में उनका महान मिशन फैलाने के लिए उसी निष्ठा से संलग्न हुए, जैसे कोई तपस्वी तप-साधना में लग सकता है।

बुद्ध धर्म के मूल मन्त्र तीन हैं—(1)‘धम्मं शरणं गच्छामि।’ अर्थात् धर्म की शरण में जाता हूं। (2) ‘बुद्धं शरणं गच्छामि।’ अर्थात् विवेक की शरण में जाता हूं। (3) ‘संघं’ शरणं गच्छामि।’ अर्थात् सब की शरण में जाता हूं। इन तीनों सिद्धान्तों में मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन को धर्ममय बनाने की, विवेक को सर्वोपरि स्थान देने की, संघशक्ति को प्रबल बनाने की प्रेरणा है। यह तीनों ही आदर्श ऐसे हैं, जिनके बिना न व्यक्तिगत जीवन सुख-शान्तिमय बन सकता है और न जन समाज की प्रगति एवं समृद्धि की अभिवृद्धि हो सकती है। इन तीनों सिद्धान्तों को जीवन में अपनाकर ही मनुष्य स्वर्गीय परिस्थितियां प्राप्त कर सकता है। इन्हें छोड़ देने पर उसे पतन एवं नारकीय यन्त्रणाओं की उत्पीड़न सहना पड़ता है।

अधर्म का आचरण करने वाले असंयमी, पापी, स्वार्थी, कपटी, धूर्त और दुराचारी लोग शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य एवं धन-सम्पत्ति, यश-वैभव आदि सब कुछ खो बैठते हैं। उन्हें बाह्य जगत से घृणा और तिरस्कार तथा अन्तरात्मा में धिक्कार ही उपलब्ध होते हैं। ऐसे लोग भले ही उपभोग के कुछ साधन इकट्ठे कर लें पर अनीति मार्ग अपनाने के कारण उनका रोम-रोम अशान्त एवं आत्म-प्रताड़ना की आग में झुलसता रहता है। चारों ओर उन्हें घृणा-तिरस्कार एवं असहयोग ही मिलता है। आतंक के बल पर यदि वे कुछ पा भी लेते हैं तो उपभोग के पश्चात उनके लिए विषतुल्य दुःख दायक ही सिद्ध होता है। आत्म-शान्ति पाने सुसंयमित जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्य को धर्ममय जीवनक्रम अपनाने के ही लिए तत्पर होना पड़ता है। नैतिकता, मानवता एवं कर्तव्यपरायणता को ही अपने जीवन में समाविष्ट करना होता है। इस प्रवृत्ति को व्यापक प्रसार करने के लिए किये गये प्रयत्नों को नैतिक क्रान्ति की संज्ञा दी जाती है। बुद्ध धर्म के प्रथम मन्त्र ‘धम्मं शरणं गच्छामि’ में इसी नैतिकक्रान्ति की चिनगारी निहित है। इस मन्त्र को लोकव्यापी बनाने के लिए जो प्रयत्न बौद्ध-धर्मावलंबियों ने किया था—उसे विशुद्ध नैतिक क्रान्ति ही कहा जायेगा।

दूसरे मन्त्र ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ में विवेक बुद्धि को सर्वोपरि महत्व दिया गया है। कालान्तर में पुरानी अच्छी प्रथा-परम्परायें भी रूढ़ियों और अन्धविश्वासों से दब जाती हैं, तब उनका सुधार और परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है। उस जमाने में अनीतिपूर्ण असंख्यों कुप्रथायें पनप रही थीं। लोग इनका समर्थन और अनुकरण इसलिए करते थे कि यह बातें पूर्वकाल से चली आ रही हैं। बुद्ध ने बताया कि पूर्वकाल से चली आने के कारण ही कोई प्रथा-परम्परा या विचारधारा मान्य नहीं हो सकती। विवेक का स्थान सर्वोपरि है। जो बातें विवेक सम्मत न हों, वे किसी की भी कही हुई क्यों न हों, कितनी ही पुरानी क्यों न हों उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। जब लोगों ने तांत्रिकी हिंसा को वेद सम्मत बताया तो उन्होंने वेद को मानने से भी इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा—विवेक से बढ़कर वेद नहीं हो सकता। यदि वेद अनाचार का प्रतिपादन करता हो तो वह कितना ही प्राचीन और किसी का भी बनाया हुआ हो—माना जाने योग्य नहीं। पंडित लोग वेदों के जैसे गलत अर्थ करते थे, उन्हें देखते हुए बुद्ध को उन प्रतिपादनों को अस्वीकृत करना पड़ा। उन्होंने अपने समय की अनेकों कुरीतियों और अनुपयुक्त रूढ़ियों-प्रचलनों एवं मान्यताओं को तोड़-मरोड़ कर रख दिया। इसे बौद्धिक क्रान्ति की कहा जा सकता है। बुद्ध ने नैतिक क्रान्ति ही नहीं बौद्धिक क्रान्ति भी की।

बुद्ध ने धर्म के तीसरे मन्त्र ‘संघं शरणं गच्छामि’ में प्रत्येक व्यक्ति को संघबद्ध, अनुशासित रहने की प्रेरणा है। उच्छृंखलता, व्यक्तिवाद, संकीर्ण स्वार्थ परायणता, अनुशासनहीनता, अनुदारता की महामारी जिस समाज में भी लग जाती है, अन्ततः विनष्ट ही हो जाता है। विश्रृंखलित लोग पारस्परिक सहयोग के अभाव में न तो प्रगति कर पाते हैं और न सुखी रह पाते हैं। इसलिए संघबद्धता सामूहिकता को बौद्ध धर्म में एक आवश्यक सद्गुण माना गया है। अलग-अलग गुफाओं में दूर-दूर रहने की अपेक्षा बौद्ध भिक्षुओं को निवास एवं कार्यक्रम विशाल संघारामों में ही रहने का होता था। एकाकी रहने वाले व्यक्ति संकीर्णता ग्रस्त होते हैं और फक्कड़पन के कारण जनसेवा के लाभ से वंचित रहने पर आध्यात्मिक दृष्टि से भी पतित ही माने जाते हैं।

सत्पुरुषों, श्रेष्ठ व्यक्तियों का सामूहिक रूप से संघबद्ध रहना भी आवश्यक है क्योंकि जन मानस के पतनोन्मुख प्रवाह को रोकने के लिए एकाकी व्यक्ति का प्रयत्न पर्याप्त नहीं होता चाहे वह कितना ही प्रतिभा सम्पन्न क्यों न हो। इसके लिए संघशक्ति—संगठित प्रयासों की ही आवश्यकता एवं अपेक्षा रहती है। त्रेता में भगवान राम ने रीछ वानरों का संघबद्ध सहयोग प्राप्त करके आसुरी प्रवाह को रोकने का संघर्ष किया व सफलता पायी। बुद्ध ने यह भली-भांति समझ लिया था कि जन-शक्ति के सहयोग से ही अभीष्ट उद्देश्य में सफल होना सम्भव है। उन्होंने त्यागी, लोकसेवी और सदाचारी जागृत आत्माओं की एक विशाल सेना खड़ी की थी। उनके व्यापक एवं प्रबल प्रयासों से समाज की अवांछनीय स्थिति को बदल कर रख दिया। आसुरी तत्वों को कुचल-मसलकर परे कर दिया। इस दृष्टि से बुद्ध धर्म समाजिक क्रान्ति का सूत्रधार कहा जा सकता है।

बुद्ध अपने तीन प्रमुख मन्त्रों को—तीन उद्देश्यों को पूर्ण करने में आजीवन प्रयत्नरत रहे। नैतिक, बौद्धिक और समाजिक क्रान्ति के उनके सत्प्रयास निष्फल नहीं गए। अपने समय में जन-मानस की उन्होंने सच्ची सेवा की जिससे लोककल्याण का महान कार्य सम्पन्न हुआ।

आज की परिस्थितियां लगभग बुद्धकाल जैसी ही हैं। अनीति, अनाचार, अविवेक आदि दुर्गुण व्यापक जन-मानस में जड़ जमाये बैठे हैं। ऐसी ही विषम वेला में महाकाल की प्रेरणा जागृत आत्माओं को झकझोरती हैं, विशिष्ट आत्मायें ऐसी ही विपन्न परिस्थितियों में अवतरित होकर लोकव्यापी संकट का समाधान करने में जुट पड़ती देखी जाती हैं। महाकाल की प्रबल प्रेरणा से जागृत आत्माओं को नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति में संलग्न देखा और समझा जा सकता है। दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन की गतिविधियां दृष्टिगोचर होने लगी हैं। समझ लेना चाहिए कि नैतिक क्रान्ति का चक्र तेजी से गतिशील हो गया है और युग परिवर्तन सन्निकट ही है। जन मानस में संव्याप्त निकृष्ट चिन्तन एवं भ्रष्ट आचरण का अब अन्त ही समझना चाहिए। मानवी पुरुषार्थ जब सन्तुलन बनाये रहने में असफल होता है तो व्यवस्था को भगवान स्वयं सम्भालते हैं।

इन दिनों कुछ ऐसा ही होने जा रहा है। महाकाल की चेतना सूक्ष्म जगत में ऐसी महान हलचलें विनिर्मित कर रही हैं, जिसके प्रभाव परिणाम को देखते हुए उसे अप्रत्याशित और चमत्कारी ही माना जायेगा। अवतार सदा ही कुसमय में होते हैं, जैसा कि आज है। अवतारों ने लोक चेतना में ऐसी प्रबल प्रेरणा भरी है जिससे अनुपयुक्त को उपयुक्त में बदलने की संभावना साकार हो सके। दिव्य चक्षुओं से—युगान्तरीय चेतना को गंगावतरण की तरह धरती पर उतरते प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
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